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३५२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ १-स्यादस्ति घटः २-स्यान्नास्ति घटः
३-स्यादवक्तव्यो घटः अवक्तव्यके साथ स्यात् पद लगानेका भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्ण रूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने अपूर्ण रूपमें वक्तव्य भी है और वह अस्ति, नास्ति आदि रूप वचनोंका विषय भी होती है। अतः वस्तु स्याद् अबवतव्य है । जब मल भंग तीन हैं तब उनके द्विसंयोगी भंग भी तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भंग एक होगा। जिस तरह चतुष्कोटिमें सत् और अमत्को मिलाकर प्रश्न होता है कि 'क्या सत् होकर भी वस्तु असत् है ?" उसी तरह ये भी प्रश्न हो सकते है कि-१-क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २-क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३-क्या सत्असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भागोंमें है । अर्थात्
४-अस्ति नास्ति उभय रूप वस्तु है स्वचत्ष्टय अर्थात् स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभाव और परचतुष्टयपर
क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ५-अस्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टय पर
क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । ६-नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें परचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपर चतुष्टयकी
क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामहिक विवक्षा रहनेपर। ७-अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय, द्वितीय समय में परचतुष्टय तथा
तृतीय समयमें युगपत् स्व-परचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और तीनोंकी सामहिक विवक्षा
रहनेपर।
___ जब अस्ति और नास्तिकी तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर चौथा भंग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्यके साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्तिको मिलाकर पाँचवें, छठवें और सातवें भंगकी सृष्टि हो जाती है ।
इस तरह गणितके सिद्धान्तके अनुसार तीन मूल वस्तुओंके अधिकसे अधिक अपुनरुक्त सात ही भंग हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारको जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्न हो सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं।
दर्शन दिग्दर्शनमें श्री राहुलजी ने पाँचवें, छठवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ा-मरोड़ा है वह उनकी अपनी निरी कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते हैं तो उन्हें किसी भी दर्शन को समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझकर ही करनी चाहिए। वे अवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के साथ स्वतन्त्रभावसे द्विसंयोगी हुआ है, तोड़कर अ-वक्तव्य करके संजयके 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और 'संजय' के घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं। किमाश्चर्यमतः परम् ।
१. जैन कथाग्रन्थोंमें महावीरके बालजीवनकी एक घटनाका वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नामक
दो साधओंका संशय महावीरको देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था। सम्भव है यह संजय-विजय संजयवेलठिपुत्त ही हों और इसीके संशय या अनिश्चयका नाश महावीरके सप्तभंगी न्यायसे हुआ हो। यहाँ वेलठिपुत्त विशेषण भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा साधु बन गया है।
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