Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 585
________________ २ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ वर्षों तक जनसामान्यको अहिंसा तथा मोक्षमार्गका उन्होंने उपदेश दिया। अंतमें उसी ऊर्जयन्तगिरिसे निर्वाण प्राप्त किया । वैदिक साहित्यमें अनेक स्थलों पर विघ्न विनाशके लिए इनका स्मरण किया गया है। ___ अरिष्टनेमिके एक हजार वर्ष पश्चात् २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म वाराणसीमें हुआ । राजा अश्वसेन और माता वामादेवीकी कँखसे जन्म लिया । एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीड़ाके लिए गंगाके किनारे गए। वहां उन्होंने देखा कि एक तापसी पंचाग्नि तप रहा है। वह अग्निमें गीले और पोले लक्कड़ जला रहा था । पार्श्वकी पैनी दृष्टिने देखा कि उस लक्कड़में एक नाग-नागनीका युगल है । और जो अर्धमतक अवस्थामें है। कूमार पावने यह तापसीसे कहा । तापसी झंझला कर बोला-"इसमें कहाँ नागनागनी है" और जब उस लक्कड़को फाड़ा गया तो उसमें मरणासन्न नाग-नागनीको देखा। पावने "णमोकारमंत्र" पढ़कर दोनोंको सम्बोधा, जिसके प्रभावसे वह युगल मरकर देव-जातिमें धरणेन्द्र-पद्मावती हुआ । जैन मंदिरों में पार्श्वनाथकी अधिकांश मतियों के मस्तक पर जो फणामण्डप देखा जाता है। वह धरणेन्द्र के फणामण्डपका अंकन है, जिसे उसने अपने उपकारीके प्रति कृतज्ञतावश कमठ द्वारा योगमग्न पार्श्वनाथ पर किए गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रियासे बनाया था। पार्श्वकुमार लोकमें फैली हुई इन मढ़ताओंको देखकर कुमार अवस्थामें ही प्रवृजित हो गये, न विवाह किया और न राज्य किया । कठोर तपस्या कर 'अहंन्तकेवली' हो गये और जगह-जगह पदयात्राएँ करके लोकमें फैली मढ़ताओंको दूर किया तथा ज्ञानका प्रचार किया। अंतमें उन्होंने विहार प्रदेशमें स्थित सम्मेदशिखर पर्वतसे, जिसे आज "पार्श्वनाथ हिल" कहा जाता है, मुक्तिलाभ किया। पार्श्वनाथसे अढ़ाई सौ वर्ष पश्चात् ईसापूर्व ५२६में अन्तिम एवं २४वें तीर्थंकर महावीर हुए, जिन्हें वर्धमान, वीर, अतिवीर और सन्मति इन चार नामोंसे भी उल्लिखित किया जाता है । ये वैशाली गणतंत्रके नायक चेटकके धेवता तथा सिद्धार्थ एवं त्रिशलाके पुत्र थे। कुण्डलपुर ( कुण्डपुर ) इनकी जन्मभूमि थी। त्रिशलाका दूसरा नाम प्रियकारिणी था। प्रियकारिणी बिम्बसार अपरनाम राजा श्रेणिककी रानी चेलनाकी सगी बड़ी बहिन थीं। महावीरके समयमें भी अनेक मढ़ताएँ व्याप्त थीं। धर्मके नामपर नरमेध, गोमेध, अश्वमेध, अजमेध आदि हिंसा पूर्ण यज्ञ किए जाते थे । तथा "याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसे श्रुति वाक्योंसे उनका समर्थन किया जाता था। महावीरने देशकी यह स्थिति देखकर उसे बदलनेका निर्णय किया। और भरी जवानीमें तीस वर्षकी वयमें ही राजमहलके सुखोंका त्यागकर दिगम्बर साधु हो गये । और मौनपूर्वक बारह वर्ष घोर तपस्या की। फलतः ४२ वर्षको अवस्थामें उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और पूर्ण वीतराग-सर्वज्ञ हो गए। उन्होंने तीस वर्ष तक विहार करके उक्त हिंसापूर्ण यज्ञोंका निषेध किया । तथा अहिंसापूर्ण आत्मयज्ञ करनेका उपदेश दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि नरमेध, गोमेध आदि यज्ञ बंद हो गये। और लोगोंके हृदयमें अहिंसाको ही धर्म माननेकी आस्था दृढ़ हो गई। वैदिक धर्मके महान विद्वान एवं वैदिक कर्मकाण्डके प्रसिद्धकर्ता गौतम इन्द्रभूति और उनके वैदिक विद्वान् दश भाई भी अहिंसाके प्रति आस्थावान् बन गए । इतना ही नहीं, महावीरके पादमूलमें पहुँचकर उनके शिष्य भी हो गये । इन्द्रभूति तो उनका प्रधान गणधर ( आद्यशिष्य ) बन गया ? और महावीरके उपदेशोंको उसने चहुँओर फैलाया। ध्यातव्य है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके एक दिगम्बर साधुसे दीक्षित एवं नग्न रहना, खड़े-खडे आहार लेना, केशलुञ्चन करना आदि दिगम्बर चर्याको पालनेवाले, किन्तु उसे बादमें कष्टदायी ज्ञातकर त्याग देनेवाले तथा मध्यम मार्गके प्रवर्तक गौतम बुद्धने भी महावीरके अहिंसा-प्रचारमें प्रबल सहयोग किया। दीघनिकाय आदि बौद्ध साहित्यमें अनेक स्थलोंपर "निग्गंथनाथपुत्त"के नामसे महावीरके सिद्धान्तोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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