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४८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है, मोक्षका साधन नहीं होता। जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्म शोधन करे वही मोक्षका साधन है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्र शुद्धि ही है। इस अध्यायमें एक जगह सुख और दुःखकी स्थूल परिभाषाके रूपमें भी एक अच्छी बात कही गई है कि 'जो चाहे सो होवे, इसे कहते हैं सुख और चाहे कुछ और होवे कुछ या जो चाहे वह न होवे इसे कहते हैं दुःख ।'
'प्रमाण मीमांसा' नामक आठवां अध्याय इस ग्रन्थका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। लगभग २०० पृष्ठोंमें समाहित इस अध्यायमें प्रमाण ज्ञानकी विशद विवेचना की गई है। प्रारम्भमें हो ज्ञान और दर्शनका अन्तर समझाते हुए कहा है कि जड़ पदार्थोसे आत्माको भिन्न करनेवाला गुण या स्वरूप है चैतन्य, यही चैतन्य अवस्था विशेषमें निराकार रहकर 'दर्शन' कहलाता है और साकार होकर 'ज्ञान' । प्रमाणके स्वरूपका निरूपण करते हुए कहा है कि प्रमाणका सामान्यतया अर्थ व्युत्पत्तिलब्ध है अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान होता है उस द्वारका नाम प्रमाण है।
तदाकारता, सामग्री, इन्द्रिय व्यापार आदिको प्रमाण न माननेके कारणोंकी व्याख्या करके बौद्ध दर्शन के क्षणिकवादसे उत्पन्न भ्रान्तियोंका भी निराकरण किया गया है। जैनदर्शन पदार्थको एकान्त क्षणिक न मानकर कथंचित नित्य भी मानता है । वस्तु अनन्त धर्मवाली है किसी ज्ञानके द्वारा वस्तुके किन्हीं अंशोंका निश्चय होनेपर भी अग्रहीत अंशोंको जाननेके लिए प्रमाणान्तर को अवकाश रहता है।
प्रमाणके भेदोंकी चर्चा करते हुए प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण तथा उसके सांख्यावहारिक प्रत्यक्ष , सन्निकर्ष, पारमार्थिक प्रत्यक्ष, अनुमान, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान, प्रत्याक्षाभास, परोक्षभासा आदि भेदोंकी भी विशद व्याख्या करके समझाया गया है। ज्ञानकी उत्पत्तिका क्रम बताते हुए उसके अवग्रह, ईहा आदि भेदोंकी व्याख्या है तथा सभी ज्ञानोंको स्वसंवेदी निरूपित किया है। इसी सन्दर्भमें विपर्यय आदि मिथ्याज्ञानों की भी चर्चा है। अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञानके विश्लेषणके बाद केवलज्ञानका स्वरूप बताते हुए 'सर्वज्ञताका इतिहास' शीर्षकसे जैनाचार्यों भगवान् कुन्दकुन्द, वीरसेन आदिके द्वारा की गई सर्वज्ञताकी व्याख्याओंको अन्य दर्शनोंकी सर्वज्ञता की अपेक्षा प्रामाणिक सिद्ध किया गया है।
इस आठवें अध्यायमें व्याप्ति और व्याप्य-व्यापार सम्बन्ध, अभाव, साध्य-साधन सम्बन्ध, शब्दार्थ प्रतिपक्ति, प्राकृत, अपभ्रंश शब्दोंकी अर्थवाचकताकी व्याख्याके साथ शब्दाद्वैतवाद, ब्रह्मवाद, सांख्यवाद, बौद्धों का विशेष पदार्थवाद, विज्ञानवाद, शन्यवाद आदिकी भी विस्तारसे समोक्षा की गई है जिससे विषय स्पष्ट होता है और पाठकको वस्तुस्वरूप की निर्दोष अवधारणा हो जाती है।
नौवां अध्याय है 'नय विचार, इसमें नयका लक्षण तथा नयके भेदोंका भलीभाँति निरूपण किया गया है, सुनय-दुर्नय, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, परमार्थ-व्यवहार, निश्चयव्यवहार आदि भेदोंके अतिरिक्त नय के तीन और सात भेदोंको भी समझाया गया है। साथ ही नयाभासके माध्यमसे भी नयोंकी व्याख्या की गई है इसमें प्रायः सभी भारतीय दर्शनोंके नयवादोंका विश्लेषण तो है ही, सम्यक् नय माननेवाले नयाभासियोंकी भी आलोचना की गई है । जैनाचार्योंकी नय प्ररूपणाका उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा है कि
'अध्यात्मशास्त्रका उद्देश्य है कि वह साधकको यह स्पष्ट बता दे कि तुम्हारा गन्तव्य स्थान क्या है ? तुम्हारा परम ध्येय और चरम लक्ष्य क्या हो सकता है ? बीचके पड़ाव तुम्हारे साध्य नहीं हैं । तुम्हें तो उनसे बहुत ऊँचे उठकर परम स्वावलम्बी बनना है। लक्ष्यका दो-टक वर्णन किए बिना मोही जीव भटक ही जाता है । साधकको उन स्वोपादानक, किन्तु परनिमित्तक विभूति या विकारोंसे उसी तरह अलिप्त रहना है, उनसे ऊपर उठना है, जिस तरह कि वह स्त्रो, पुत्रादि परचेतन तथा धन-धान्यादिपर अचेतन पदार्थोंसे नाता
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