Book Title: Bauddh tatha Jain Dharm
Author(s): Mahendranath Sinh
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan Varanasi

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Page 13
________________ के ऊपर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। मनो पुम्बममा पम्मा (मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है) और फन्दनं चपल चित्तं (चित्त क्षणिक है चचल है) तथा उत्तरा ध्ययनसूत्र के अणसमाहारणयाएणं एगग्गे अण यइ ( मन की समाधारणा से जीव एकाग्रता को प्राप्त होता है ) तथा मणो साहसिबों भीमो दुस्सो परिषावई (मन ही साहसिक भयकर दुष्ट भव है जो चारों तरफ दौडता है ) जैसे वाक्य दोनों ग्रपों में मन के स्वरूप को भलीभांति स्पष्ट करते हैं । वस्तुत मन व्यक्ति के अन्तरग म एक प्रकार का साधन है जिसके द्वारा वह बाह्य ससार को ग्रहण करता है। मन कोई सामान्य इन्द्रिय नहीं है परन् इसे चेतना के रूप में स्वीकार किया गया है। सामान्यतया समय का अनुपयोग या दुरुपयोग न करना अप्रमाद है। धम्मपद तथा उत्तराध्ययनसूत्र में अप्रमाद का विशद विवेचन है। धम्मपद में प्रमाद को मृत्युतुल्य तथा अप्रमाद को निर्वाण कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र म प्रभाव को कर्म बास्त्रव और अप्रमाद को अकम सवर कहा गया है। प्रमाद के होने से मनुष्य मर्ख और अप्रमाद के होने से पण्डित कहा जाता है। आत्मा को मलिन करनेवाली समस्त भावनायें वासनाय कषाय में गभित हैं। क्रोध मान माया और लोमरूपी भावनाय सबसे अधिक अनिष्ट व अशुभ है। उत्तराध्ययन म इन चारों को कषाय की संज्ञा दी गयी है । धम्मपद म कषाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में है। पहला जैन-परम्परा के समान दूषित चित्त-वृत्ति के अथ म तथा दूसरा सन्यस्त जीवन के प्रतीक गेरुए वस्त्रों के अर्थ म । धम्मपद में कषाय शब्द के अन्तगत कौन-कौन दूषित वृत्तियां आती है इनका स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता परन्तु इन अशम चित्तवृत्तियो को दूर कर साधक को इनसे ऊपर उठने का सन्देश दिया गया है। उत्तराध्ययन में इन चारों का विशद वर्णन है । प्राचीन भारतीय इतिहास सस्कृति एव पुरातत्त्व विभाग उदयप्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय वाराणसी -महेन्द्रनाथ सिंह

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