Book Title: Pahuda Doha Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 29
________________ 7 8 9 10 11 12 13 घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) (चूंकि ) ( वे) (सब) (आत्मा से ) घीन वनावटी (स्थिति) ( है ) इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, अन्य ( हैं ) | (वे) (मव) कर्मों के | ( ऐसा ) योगियो द्वारा श्रागम मे बताया गया है । हे जीव । (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता मे डूबा है । ( इस कारण से ) जो दुख ( है ) वह ( तेरे द्वारा ) सुख ही माना गया ( है ) और जो ( वास्तविक ) सुख ( है ), वह ( तेरे द्वारा ) दुख हो ( समझा गया है) । इसलिए तेरे द्वारा परम शान्ति प्राप्त नही की गई ( है ) । हे जीव । तू घन और नौकर-चाकर को मन मे रखते हुए शान्ति नही पायेगा । प्राश्चर्य | तो भी (तू) उनको उनको ही मन मे लाता है (और) ( उनसे ) विपुल सुख ( व्यर्थ मे ) ( ही ) पकडता है । हेमूढ 1 (यह ) सब ( ससारी वस्तु समूह ) ही बनावटी ( है ) । ( इसलिए ) तू ( इस ) स्पष्ट ( वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट अर्थात् तु इसमें समय मत गवाँ । घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोडकर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति ) मे अनुराग कर । (इन्द्रिय - ) विषय-सुख दो दिन के ( हैं ), और फिर दुखो का क्रम (शुरु हो जाता है ) | है ( आत्म-स्वभाव को ) भूले हुए जीव ' तू अपने कधे पर कुल्हाडी मत चला । (तू) ( चाहे ) ( शरीर का ) उपलेपन कर, ( चाहे ) घी, तेल आदि लगा, ( चाहे ), सुमधुर श्राहार ( उसको ) खिला, (और) (चाहे ) ( उसके लिए ) ( और भी ) ( नाना प्रकार की ) चेष्टाएँ कर, ( किन्तु) देह के लिए ( किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुआ ( है ), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति ( किया गया ) उपकार ( व्यर्थ होता है) । अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुरगो ( की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ ( स्व-पर उपकारक ) क्रिया उदय होती है, वह क्यो नही की जानी चाहिए ? पाहुडदोहा चयनिका ] [ s

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