Book Title: Pahuda Doha Chayanika
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 47
________________ 18 (यह उत्तम है) कि दृढ अहिंसा (तेरे मन मे) उत्पन्न होती है। (तथा) (तेरे द्वारा) थोडा कुछ भी अन्याय नही किया जाता है । (तू) (अन्याय न करना और अहिंसा का पालन करना)-इन दोनो को मन मे स्थिर करके अपने चित्त मे लिख ले और फिर पांवो को पसार कर निश्चिन्त होकर सो। 79 वहुत अटपट कहने से क्या (लाम है)? देह आत्मा नही (है)। हे योगी। देह से मिन्न (जो) ज्ञानमय आत्मा है, वह तू (है)। 80 हे ज्ञानी योगी दया मे रहित धर्म किसी तरह भी नही होता है) । (यह इतना ही सच है जितना कि) विलोडन किए हुए बहुत पानी से (भी) हाथ (कमी) चिकना नही होता है। जहा(मलो की) दुष्टो के साथ सगति (हुई) (कि) भलो के गुण भी नष्ट हो जाते हैं । (क्या यह सच नहीं है कि) लोहे के (साथ) मिली हुई अग्नि हथौडो से पीटी जाती है ? 81 82 तीर्थों पर, तीर्थों पर (तू) जाता है। हे मूर्ख (तेरे द्वारा) (वहाँ) जल से चमडा घोया हुआ (है)। (किन्तु यह बता कि) पाप-मल से मैले इस मन को तू किस प्रकार धोयेगा? 83 हे योगी। (तू बता कि) जिसके हृदय मे जन्म-मरण से रहित एक दिव्य आत्मा निवास नहीं करती है, (वह) किस प्रकार श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करेगा? 84 जिस प्रकार नमक पानी मे विलीन हो जाता है, उसी प्रकार यदि चित्त (आत्मा मे) लीन हो जाता है, (तो) जीव समतारूपी रस मे डूब जाता है। (और) समाधि क्या (कार्य) करती है । 85 तीर्थों मे, तीर्थों मे भ्रमण करते हुए (व्यक्तियो) की देह (ही) दुखी को जाती है । (चूंकि) (निर्वाण के लिए) प्रात्मा के द्वारा आत्मा ध्याया गया है, (इसलिए) (तू) निर्वाण में कदम रख । पाहुडदोहा चयनिका 1 [ 23

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