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जिनहर्ष-ग्रन्थावली
ढील भली करे ते फछु प्रारंभ आरंभ छोरत ढील न कीजें, ढील भलि अपसोण हुवें तव सोण भलें ततकाल चलीजें । ढील भलि करीइं जहा वेढि निवारण वेढि न ढील खमीजें, ढील भलि जसराज पटंतर दीजें जो दान तुरंत सो दीजें ॥३॥ नीर अथाह तरें रजनि सर छिलर मांहि तो बूडि मरें हैं, सावज कान धरें जसराज सीयालन को सुणि साद डरें हैं। फूल की माल हणि हवे अचेत न सांकल घाड निसंक धरें हैं, इगर ढूंक चडे जु पडे सुई नारि अनेक चरित्र करें हें ॥३६॥ तो लू महामति मंत मनोहर तोलू भलें गुण ताहु के लागें, तोलू कुलीन सुशास्त्र विसारद सज्जन कीरति बोलत रागें । तोलू कहें यह उत्तम वंस को सुर भले इणीक भए आगे, तोलू जसा तजि मांन महातम जात कछू किणी आगे न मांगे ३७ थोक इते जसराज कलयुग मांहि गए धन हाणि सई हे, ग्यान विग्यान सुदांन की हाणि सुमति उकचि सुरचि गई है। सुख की सीर में भीर परि अरू धीर पुरष्प कू पीर दई हैं, धर्म अधर्म विचार गयो सब सृष्टि रची विधि मानू नई हैं ।३८ देह तो व्याधि को गेह कह्यो मलमूत्र अपावन द्वार झरे हे, हाड रू मांस भरी चमरी मढी मढीया जैसें नीर गरे हैं । काच को भाजन भाजत हे छिन में तसे देहविभाज परें हैं, देह तो खह में जाइ मिलेगी जसा कहा देह को नेह करें हे ३६