Book Title: Jinaharsh Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान भारती प्रकाशन जिनहर्ष ग्रन्थावली सम्पादक अगरचन्द नाहटा तवं पर • ज्ञान Son P4 बीकानेर प्रकाशक सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट वीकानेर प्रथम संस्करण सं० २०१८ मूल्य ६) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : लालचन्द कोठारी सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट वीकानेर :- मुद्रक : रेफिल आर्ट प्रेस, ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता-७ फोन : ३३-७६२३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री सादूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ मे बीकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मन्त्री श्री के० एम० परिणक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी बहादुर द्वारा संस्कृत, हिन्दी एवं विशेषत. राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी। • भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानो एवं भाषाशास्त्रियो का सहयोग प्राप्त करने का __ सौभाग्य हमे प्रारम्भ से ही मिलता रहा है । __ संस्था द्वारा विगत १६ वर्षों से बीकानेर मे विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तिया चलाई जा रही हैं, जिनमे से निम्न प्रमुख है१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश । इस सम्बन्ध मे विभिन्न स्रोतो से सस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दो का संकलन कर चुकी है । इसका सम्पादन आधुनिक कोशो के ढंग पर, लंबे समय से प्रारम्भ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश मे शब्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं दी गई हैं। यह एक अत्यन्त विशाल योजना है, जिसकी सन्तोषजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है। आशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य में इसका प्रकाशन प्रारम्भ करना सम्भव हो सकेगा। २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश ... राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भंडार के साथ मुहावरो से भी समृद है। अनुमानत: पचास हजार से भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग में लाये जाते हैं। हमने लगभग दस हजार मुहावरो का, हिन्दी मे अर्थ और राजस्थानी मे उदाहरणो सहित प्रयोग देकर सम्पादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का प्रवन्ध किया जा रहा है। यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] यदि हम यह विशाल सग्रह साहित्य जगत को दे सके तो यह सस्था के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिये भी एक गौरव की बात होगी । ३. आधुनिक राजस्थानी रचनाओं का प्रकाशन इसके अंतर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं: १. कळायरण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम सस्कर्ता । २. आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी । ३. वरस गांठ, मोलिक कहानी सग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास • t 'राजस्थान -भारती' मे भी आधुनिक राजस्थानी रचनाओ का एक अलग स्तम्भ है, जिसमे भी राजस्थानी कवितायें. कहानिया और रेखाचित्र आदि छपते रहते हैं । ४. 'राजस्थान - भारती' का प्रकाशन L इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है । गत १४ वर्षो से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानो ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । बहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एव अन्य कठिनाइयो के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सभव नही हो सका है । इसका भाग ५ ग्रक ३-४ "डा० लुइजि पि तैस्सितोरी विशेषांक' बहुत ही महत्वपूर्ण एव उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अक एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है । पत्रिका का अगला ७वा भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा हैं । इसका अंक १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड का सचित्र और वृहत् विशेषाक हैं । ग्रपने ढंग का यह एक ही प्रयत्न है । पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन मे भारत एवं विदेशो से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाएं हमे प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशो मे भी इसकी माग है व इसके ग्राहक हैं । शोधकर्त्ताग्रो के लिये 'राजस्थान - भारती' अनिवार्यतः संग्रहरणीय शोवंपत्रिका है । इसमे राजस्थानी भाषा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखो के अतिरिक्त मस्या के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचंद नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है। F Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसंधान, सम्पादन एवं प्रकाशन हमारी साहित्य निधि की प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियो को सुरक्षित रखने एव सर्वसुलभ कराने के लिये - सुसम्पादित एवं शुद्ध रूप मे मुद्रित करवा कर उचित मूल्य में वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है ! " संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रथो का अनुसधान और प्रकाशन सस्या के सदस्यों की ओर से निरंतर होता रहा है, जिसका सक्षिप्त विवरण नीचे ' दिया जा रहा है ६. पृथ्वीराज रासो 1 1 1 पृथ्वीराज रासो के कई संस्करण प्रकाश मे लाये गये हैं और उनमें से लघुतम संस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अंश 'राजस्थान -भारती' मे प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध संस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान भारती में प्रकाशित हुए हैं । , 5 ' F 26 t , L ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान ( न्यामतखा ) की ७५ रचनाओ की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान -भारती' के प्रथम अक मे प्रकाशित हुई है। उनका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक 'काव्य क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है । : 7 ८. राजस्थान के 'जैन संस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निबंध राजस्थान भारती में प्रकाशित किया जा चुका है । 1-1 ६. मारवाड क्षेत्र के ५०० लोकगीतो का सग्रह किया जा चुका है। वीकानेर एवं जैसलमेर क्षेत्र के सैंकडो लोकगीत घूमर के लोकगीत, बाल, लोकगीत, लोरियां, और लगभग ७०० लोक कथाएँ सग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतो के दो भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । जीणमाता के गोत, पाबूजी के पवाड़े और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम 'राजस्थान -भारती - मे प्रकाशित किए गए हैं । } " } , 2 1 १०. बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखो का विशाल संग्रह 'वीकानेर जैन लेख' सग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप मे,, प्रकाशित हो चुका है 1. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] ११. जसवंत उद्योत, मुहता नैणसी री ल्यात और अनोखी मान जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रथो का सम्पादन एवं प्रकाशन हो चुका है । १२. जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचन्द भडारी को ४० रचनाओ का अनुसन्धान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी की काव्य-साधना के सम्बन्ध मे भी सबसे प्रथम 'राजस्थान भारती' मे लेख प्रकाशित हुआ है । १३. जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखो और 'भट्टि वश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित ग्रथ खोज - यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं। १४. वीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानसारजी के ग्रंथो का अनुसन्धान किया गया और ज्ञानसागर ग्रंथावली के नाम से एक ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर की ५६३ लघु रचनाओ का संग्रह प्रकाशित किया गया है । १५. इसके अतिरिक्त सस्था द्वारा (१) डा० लुइजि पिश्रो तस्सितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज और लोकमान्य तिलक आदि साहित्य सेवियो के निर्वाण दिवस और जयन्तियां मनाई जाती हैं । (२) साप्ताहिक साहित्य गोष्ठियों का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमे अनेकों महत्वपूर्ण निवघ, लेख, कविताएं और कहानिया आदि पढ़ी जाती हैं, जिससे अनेक विष नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोष्ठियो तथा भाषणमालाओ आदि के भी समय-समय पर आयोजन किये जाते रहे हैं । १६. बाहर से ख्याति प्राप्त विद्वानों को बुलाकर उनके भाषण करवाने का प्रायोजन भी किया जाता है। डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, डा० कैलाशनाथ काटजू, राय श्रीकृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रम्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्लू० एलेन, डा० सुनोतिकुमार चाटुर्ज्या, डा० तिबेरियो-तिवेरी आदि अनेक प्रन्तर्राष्ट्रीय स्याति प्राप्त विद्वानों के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषरण हो चुके हैं । गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठोड़ प्रासन की स्थापना की गई है । दोनो वर्षो के आसन - अधिवेशनों के अभिभाषक क्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड 4 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, विसाफ और पं० श्रीलालजी मित्र एम० ए०, डूंडलोद थे। इस प्रकार सस्था अपने १६ वर्षों के जीवनकाल में, सस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरतर सेवा करती रही है । आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह सम्भव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लडखडा कर गिरते पडते इसके कार्यकर्ताओ ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एवं प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की बाधाओ के बावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरंतर चलता रहे । यह ठीक है कि संस्था के पास अपना निजी भवन नही है, न अच्छा संदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्यालय को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं, परन्तु साधनो के अभाव में भी सस्था के कार्यकर्ताओं ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश में आने पर संस्था के गौरव को निश्चित ही बढा सकने वाली होगी। राजस्थानी-साहित्य-भंडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका अत्यल्प अंश ही प्रकाश मे आया है। प्राचीन भारतीय वाह मय के अलभ्य एव अनघं रत्नों को प्रकाशित करके विद्वज्जनो और साहित्यिको के समक्ष प्रस्तुत करना एवं उन्हें सुगमता से प्राप्त करना सस्था का, लक्ष्य रहा है । हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति की ओर धीरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे हैं। यद्यपि अब तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तको के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना भी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सम्भव नहीं हो सका । हर्ष की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक सशोध एवं सास्कृतिक कार्यक्रम मन्त्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी आधुनिक भारतीय भाषामो के विकास की योजना के अतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये १५०००) १० इस मद मे राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर बुल .. ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकशना Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ 1 हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष मे प्रदान की गई है, जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तको का प्रकाशन किया जा रहा है । १. राजस्थानी व्याकरण २. राजस्थानी गद्य का विकास ( शोध प्रबंध) ३. अचलदास खीची री वचनिका ४. हमीरायण - ५. पद्मिनी चरित्र चोपई ६. दलपत विलास - ७. डिगन गीत--- ८. पंवार वश दर्पण ---- ६. पृथ्वीराज राठोड ग्रंथावली १०. हरिरस - ११. पीरदान लालुस प्रधावली१२. महादेव पार्वती वेलि १३. सीताराम चौपई-१४. जैन रासादि संग्रह --- - £ १५. सदयवत्स वीर प्रबंध --- १६. जिनराजसूरि कृतिकुमुमांजलि१७. विनयचद कृतिकुसुमाजलि - १८ कविवर धर्मवर्द्धन ग्रंथावली - १६. राजस्थान रा दूहा२०. वीर रस रा दूहा२१. राजस्थान के नीति दोहे२२. राजस्थानी व्रत कथाएँ - २३. राजस्थानी प्रेम कथाएं२४. चयन - - - श्री नरोत्तमदास स्वामी डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल श्री नरोत्तमदास स्वामी श्री भंवरलाल नाहटा 35 श्री रावत सारस्वत 33 33 39 डा० दशरथ शर्मा श्री नरोत्तमदास स्वामी श्रीर श्री बदरीप्रसाद साकरिया श्री वदरीप्रसाद साफरिया ' श्री अगरचंद नाहटा श्री रावत सारस्वत श्री नगरचंद नाहटा श्री. श्रगरचंद नाहटा पोर डा० हरिवल्लभ भायारणी प्रो० मंजुलाल मजूमदार 'श्री भंवरलाल नाहटा >> 33 " 33 33 श्री अगरचंद नाहटा 'श्री नरोत्तमदास स्वामी ور "> 39 " " श्री मोहनलाल पुरोहित " 33 " - श्री रावत सारस्वत ( 5 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५., भडली श्री, अगरचंद नहाटा और भःविनय सागर २६. जिनहर्ष प्रथावली श्री अगरचंद नाहटा २७. राजस्थानी हस्त लिखित ग्रथो का विवरण २८. दम्पति विनोद " " २६. हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य । . .... ... , , .. ३०. समयसुन्दर रासाय , श्री भंवरलाल नाहटा । ३१. दुरसा आढा ग्रंथावली . .. श्री बदरीप्रसाद साकरिया जसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (सपा० डा० दशरथ शर्मा,), ईशरदास अथावली ( सपा० बदरीप्रसाद साकरिया ), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचंद नाहटा), नागदमरण (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया) मुहावरा कोश (मुरलीघर व्यास ) आदि , ग्रथो का - सपादन हो चुका है परन्तु अर्थाभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नही हो रहा है। , हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एव गुरुता को लक्ष्य में रखते हुए अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हम अवश्य प्राप्त हो सकेगी. जिससे, उपरोक्त मपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रथो का प्रकाशन-सभव हो सकेगा। .. . ... इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षा विकास सचिवालय के आभारी हैं, जिन्होंने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मजूर की।.. .. राजस्थान के मुख्य मंत्री माननीय मोहनलालज़ी सुखाडिया, जो. सौभाग्य से शिक्षा मत्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेप्ट हैं, का भी इस सहायता के प्राप्त कराने में पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हमें 'आभार प्रगट करते हैं, जिन्होंने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवन किया, जिससे हम इस वृहदु कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ हो सके । संस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतने थोडे समय में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्यो का सपादन फरके संस्था के प्रकाशन-कार्य में जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम मभी ग्रन्य सम्पादकों व लेखको के अत्यन्त आभारी हैं। अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर सग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन संग्रह फलफचा, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, पोरियटल इन्स्टीट्य ट बडोदा, भांडारकर रिसर्च इन्स्टीट्य ट पूना, खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी ववई, प्रात्माराम जैन ज्ञानभंडार वडोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशकर देराश्री, प० हरिदत्तजी गोविंद व्यान जैसलमेर प्रादि अनेक सस्थानो और व्यक्तियो से हस्तलिखित प्रतिया प्राप्त होने से ही उपरोक्त प्रथो का सपादन सम्भव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। । ऐसे प्राचीन ग्रन्यो का सम्पादन श्रमसाध्य है एव पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है । हमने अल्प समय में ही इतने अन्य प्रकाशित करने का प्रयल किया इसलिये श्रुटियो का रह जाना स्वाभाविक है। गच्छतः स्खलनक्वपि भवय्येव प्रमाहत., हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । आशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनो का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावो द्वारा हमे लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुनः मा भारती के चरण कमलो मे विनम्रतापूर्वक अपनी पुष्पांजलि समर्पित करने के हेतु पुनः उपस्थित होने का साहस वटोर सकेंगे। बीकानेर, मार्गशीर्ष शुक्ला १५ संवत् २०१७ दिसम्बर ३, १९६० निवेदक लालचन्द कोठारी - प्रधान मन्त्री सादुल राजस्थानी-इन्स्टीट्य ट - बीकानेर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामथने सुकवि- जिनहर्प राजस्थान के विशिष्ट कवि हैं जिन्होने साठ वर्ष पर्यन्त राजस्थानी, गुजराती भापा में निरन्तर साहित्य रचना करके उभय भापाओं के साहित्य भण्डार को खूब समृद्ध किया। उन्होने प्रधानतया जैन प्राकृत, सस्कृत कथा ग्रन्थों को आधार बनाकर रास, चौपाई भाषा-काव्यो को रचना की है। उनकी फुटकर रचनाए भी काफी मिलती हैं जिनका गत ३०० वर्षों में अच्छा प्रचार रहा है। जब हम वालक थे अपने घर, मन्दिर व उपासरो में कवि जिनहर्ष की रचनाय-स्तवन, सज्झाय, श्रावककरणी आदि सुनकर कवि के प्रति हमारा आकर्षण बढता गया। साहित्य क्षेत्र में जब हमने प्राचीन कवियो और उनकी रचनाओ की खोज का कार्य प्रारम्भ किया तो जिनहर्प की, रचनाओ का हमें विशेप परिचय मिला, तथा इतनी अधिक रचनाओ की जानकारी मिली जिसकी हमें कल्पना तक न थी। कवि का प्रारम्भिक जीवन राजस्थान में वीता पर किसी कारणवश स० १७३६ में कवि पाटण गए और उसके बाद केवल सं० १७३८ में राधनपुर चौमासा करने के अतिरिक्त स० १७६३ तक सभी समय पाटण मे,ही विताया। इसीलिए कवि की पिछली रचनाओ में गुजराती का प्रभाव विशेष रूप से देखा जाता है। प्रारम्भिक रचनाए अधिकांश राजस्थानी व कुछ हिन्दी में भी हैं। पाटण में अधिक रहने के कारण उनकी अनेक रचनाए वही के ज्ञानभण्डारों में उपलब्ध है और उनमें से बहुत-ती कृतियां तो कवि के स्वयं लिखित हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] जैन गुर्जर कविओ भाग-२ में जिनहर्ष की रचनाओं का विवरण जव हमने पढा तो मालूम हुआ कि पाटण के भडार में कवि के अनेक रानादि की प्रतियां होने के साथ-साथ फुटकर रचनाओं की एक संग्रह प्रति भी वहाँ है। उन दिनों आगम-प्रभाकर मुनिराजश्री पुण्य विजय जी पाटण में थे, उन्हें उस सग्रह प्रति की नकल करा भेजने के लिए लिखा तो आपने अत्यन्त कृपापूर्वक वहाँ से सुवाच्य अक्षरों में भोजक केशरीचन्द पूनमचद से उसको प्रतिलिपि सं० १९६२ में कराके भेजी तथा साथ ही जिनहर्ष सम्बन्धी गीत तथा उनकी हस्तलिपि का फोटो भी भेजा जिसका उपयोग हमने अपने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में उन्ही दिनों में कर लिया। इधर बीकानेर आदि के भडारों में कवि की जो लघु रचनाए प्राप्त हुई उनकी प्रतिलिपि भी करते रहे । इस तरह करीव ३० वर्षके प्रयत्न से कवि की लगभग ४०० लघु रचनाए हमने सगृहीत की, जो इस सग्रहमें प्रकाशित की जा रही हैं। पाटण से मुनिश्री पुण्यविजयजी ने हमें जो सामग्री भिजवायी उसके लिए हम उनके बड़े आभारी है। उनके प्रेपित सामग्री के अतिरिक्त भी पाटण के भंडारों में कवि की अन्य रचनामों की प्रतियाँ है पर वे प्राप्त न होने से उनका उपयोग किया जाना सम्भव न हो सका। साठ वर्ष की दीर्घकालीन साहित्य साधना में कवि ने और भी अनेकों फुटकर रचनाएं की जिनका कोई सग्रह प्राप्त नहीं होता इसलिए ज्यो-ज्यों खोज की जाती है, अज्ञात रचनाएं प्राप्त होती ही रहती है। प्रस्तुत नथ के छपने के बाद भी कवि की कुछ ऐसी ही अज्ञात रचनाए मिली हैं जिन्हें कवि की जीवनी व रचनाओं सम्बन्धी लेख के अन्तमें दे दी गई हैं। * इनमें से १ गीत इसी मन्य के पृष्ठ ५२३-२४ में दिया गया है। - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी तक और भी खोज करने पर ऐसी रचनाएं प्राप्त होना सम्भव है । कुछ रचनाओं में एक ही प्रति मिलने के कारण पाठ श्रुटित व अशुद्ध रह गये हैं, जिनकी अन्य प्रतियों की खोज होना आवश्यक है। ___ , कवि की बडी-वडी रचनाओं में से कुछ रास ही अभी तक प्रकाशित हो सके हैं, बहुत से रास अभी अप्रकाशित हैं जिनके प्रकाशित होने पर ही कवि के साहित्यिक कर्तृत्व के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा सकता है। कवि की जीवनी के सम्बन्ध में कोई भी महत्वपूर्ण ऐसी रचना नही मिली जिससे कवि के जन्मस्थान, वश, माता-पिता, विहार, धर्मप्रचार आदि कार्यों की जानकारी मिल सके। प्राप्त साधनो के आधार से कवि के सम्बन्ध में जो कुछ विदित हो सका है, उनकी रचनाओं की सूची के साथ आगे दिया जा रहा है। इस ग्रन्थ में प्रकाशित रचनाएं विविध प्रकार एव शैलियों की है, हमने उनका स्थूल वर्गीकरण तो कर दिया है पर उनकी विशेषताओं आदि के सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डालने की इच्छा होने पर भी नथ पर्याप्त बडा हो जाने से उस इच्छा का सवरण करना पड़ा है। ___ कवि के रास चौपाई आदि रचनाओ में तत्कालीन प्रसिद्ध अनेक देशियों का उपयोग हुआ है, जिनकी पूरी सूची बनायी जाने पर इस समय की प्रचलित अनेक विस्मृत लोकगीतों की जानकारी मिल सकती है। प्रस्तुत न थ में भी शताधिक देशियों का उपयोग हुमा है जिनकी सूची ग्रन्थ में अन्त में दी जा रही है। जिनराजसूरि, समयसुन्दर आदि १७वीं शताब्दी के उत्तराद्ध के कवियों की रचनाए भी इतनी अधिक लोकप्रिय हो गई थी कि इन रचनाओं की तर्ज में कवि ने अपनी रचनाए Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] गुफित की हैं । कई रचनाओं में पूर्ववर्ती कवियो का अनुकरण, भाव साम्य दिखाई देता है । जिनहर्ष के परवर्ती कवियों पर भी कवि की रचनाओं का प्रभाव अच्छा देखा जाता है । इस विषय में विशेष अनुसन्वान किया जाने पर कवि के प्रभाव एव देन की पूरी जानकारी मिल सकती है । प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका राजस्थानी साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक प्राध्यापक श्री मनोहर गर्मा ( सम्पादक - वरदा ) ने लिख भेजने की कृपा को है इसलिए हम उनके आभारी हैं । कवि के साहित्यिक महत्व के सम्बन्ध में उन्होने भूमिका में अच्छा प्रकाश डाल दिया है । अगरचन्द नाहटा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भारतीय साहित्य को जैन विद्वानों का जो योगदान मिला है, उसकी प्राचीन काल से आज गरिमा बहुत ऊँची है। उनकी साहित्य साधना तक सतत् प्रकाशमान रही है और इसका अत्यन्त है । जहा उन्होंने प्राचीन भारतीय भाषाओ में महत्वपूर्ण फल प्राप्त हुआ बहुविध साहित्य-रचना प्रस्तुत की है, वहां मध्यकालीन भारतीय भाषाओं के साहित्य भंडार को भी अपनी मूल्यवान कृतियों से भरा-पूरा किया है । यही तथ्य आधुनिक भारतीय भाषाओं के सम्बन्ध में समझा जाना चाहिए । इस सुदीर्घकाल में जैन समाज में इतने अधिक साहित्य तपस्वी हुए हैं कि उनकी नामावली प्रस्तुत करना भी कोई सहज कार्य नहीं है, फिर इसका सम्पूर्ण पर्यवेक्षण तो और भी कठिन है । 1 जैन मुनियो का उद्देश्य सद्धर्म का प्रचार करना मात्र रहा है, जिससे कि जन साधारण में सद्भावना बनी रहे । इस उद्देश्य की समुचित पूर्ति के लिए साहित्य एक उत्तम साधन है । फलस्वरूप जैन मुनि जीवन पर्यन्त विद्या- व्यसनी बने रहे है । उनके सामने सद्धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सासारिक स्वार्थ नही रहता । यही कारण है कि साहित्य की श्रीवृद्धि एव उसका सरक्षण उनके जीवन का पुनीत व्रत वन जाता है और वे इसका आमरण पालन करते हैं । इतनी निष्ठा के द्वारा तैयार किया साहित्य-संचय अति विस्तृत एव परमोपयोगी होना स्वाभाविक है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेप बात यह है कि जैन साहित्य साधक एकमात्र अपने साम्प्रदायिक घेरे के बन्धन में ही नहीं रहे और उन्होंने अनेक शान-शासाओं को अभिवृद्धि की ओर ध्यान लगाया। उन्होने अपने ग्रन्यागारों में सभी उपयोगी विषयो की रचनाओं को सगृहीत एव सुरक्षित किया फल यह हुआ कि देश के अनेक विकट परिस्थितियों में मे गुजरने पर भी जैनभण्डारों में भारतीय ज्ञान-साधना का अमृत-फल किसी अग में सुरक्षित रह सका। इस प्रकार बहुत अधिक साहित्य-सामनी नष्ट होने से बचा ली गई। जैन ज्ञान-भण्डारों की यह सेवा सदैव अविस्मरणीय रहेगी। राजस्थानी साहित्य को तो जैन-विद्वानो का दिगेप योगदान मिला है। प्राचीन राजस्थानी-साहित्य प्राय. जैन-विद्वानो का ही सुरक्षित प्राप्त हो सका है और यह सामग्री बडी ही महत्वपूर्ण तथा विस्तृत है। जहा राजस्थानी साहित्य अपने वीर कवियों के सिंहनाद के लिए प्रसिद्ध है वहा इसके भक्तों एव सन्तों की अमृत-वाणी भी कम महत्वपूर्ण नही है। अभी तक अन्य सम्प्रदायों के समान जैन भक्ति-साहित्य का अध्ययन समुचित रूप से नहीं हो पाया है, अन्यथा राजस्थानी साहित्य और भी अधिक गौरव की वस्तु माना जाता। हर्प का विषय है कि कुछ समय से इस दिशा में भी विद्वानो का ध्यान आकर्पित हुआ है और कई अच्छे सग्नह-ग्रन्य प्रकाशित हुए हैं। ये ग्रन्थ जहाँ साहित्यिक अध्ययन को आगे वढाते है, वहाँ भाषा शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से भी परमोपयोगी है। जसराज राजस्थानी जनता के कवि हैं। किसी कवि के लिए जनजीवन में घुल मिल जाना परम सौभाग्य का सूचक है। इस से कविवाणी विस्तार पाकर लोकवाणी का रूप धारण कर लेती है। अनेक लोगों को Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] जसराज के दोहे याद मिलेंगे परन्तु वे यह नही जानते कि उनका प्रिय कवि जसराज कौन हुआ है। भारतीय जनता काव्य रसिक तो अतिमात्रा में है परन्तु कवि जीवन की ओर यहाँ विशेष ध्यान कभी नही दिया गया। यही कारण है कि भारत के अनेक मनीषी कवियों को देशव्यापी सम्मान एव गौरव प्राप्त होने पर भी उनका इतिवृत्त लगभग अज्ञात सा ही है । जसराज अठारहवीं सदी के सुप्रसिद्ध जैन कवि जिनहर्प हैं। वे खरतर गच्छीय मुनि शान्तिहर्ष के शिष्य थे। उनकी साहित्य सेवा लगभग पचास वर्षों तक सतत चलती रही और उन्होंने अनेक सरस तथा उपयोगी रचनाए प्रस्तुत की । 1 कवि जिनह की भाषा सुललित प्रसाद गुण सम्पन्न एव परिमार्जित है । उसका साहित्यिक स्वरूप बडा मधुर एव आकर्षक है । सरस्वती का कवि को यह वरदान है । कवि ने जन्म भर सरस्वती की उपासना की है और प्रायः उनकी सभी रचनांए वदना - पूर्वक प्रारम्भ हुई हैं । प्रस्तुत प्रकाशन में कवि को अनेक फुटकर रचनाओं को सम्मिलित किया गया है कवि की राजस्थानी भाषा भी अत्यन्त सुललित एव साहित्यिक है । उदाहरण लीजिए मभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी । तिण अवसर आवीयउ, एक मागध परदेसी ॥ ऊभो दे आसीस, राइ पूछइ किहां जासौ । अठा लगें आवीयो, कोइ तें सुप्यो तमासो ॥ कर जोडि एम जंपइ वयण, हुकम रावलो जो लहु । जिनहर्ष सुणण जोगी कथा, कोलिंग वाली हैं कहु ॥ १ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] श्री वल्लभपुर मवल, तासु पति श्रीपति सोहै। कुमरी जोवनवंत, रूप रति सुर नर मोहइ । चवि चौबोली नाम, तेण हठ एम सबाह्यउ। बोलावेसी बहसि, वार मो च्यार उमाह्यौ । जिनहर्ष पुरुष परणिनी तिको, तां लोग नर निरखु नही । वह भूप आइ वदी हुआ, वोल न वोले मैं कही ॥२॥ ( चौवोली कथा, पृ० ४३६) इसी प्रकार कवि की ब्रजभाषा भी अत्यन्त मधुर एव आकर्पणमयी है :फागुन मास उलामह खेलत, फाग रमै बहु नारि की टोरी। ताल कसाल मृदग वजावत, ल्यावत चन्दन पेसर घोरी ॥ लाल गुलाल अवीर उडावत, गावत गीत सुहावत गोरी। नीरसुगन्ध सरीर कु छांटत, रीझत गेह करी जव होरी ॥४॥ ( राजुल वारहमास, पृ० २१६) कवि की पनावी भापा का भी एक उदाहरण पृष्ठ २२५ तथा सिन्धी भापा का भी इसी अन्य के पृ० ३४१ में देखना चाहिए। ___कवि जिनहर्ष का ऐसा भाषाधिकार आश्चर्यजनक है। साथ ही इन सभी भाषाओं की रचनाओं में मापने साहित्यिकता का गण बनाए Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 8 ] रखा है और कही भी शिथिलता प्रकट नहीं हो पाई है। कवि की यह विशेषता और भी अधिक सराहनीय है। __ जिनहर्ष स्वाभाविक कवि होने के साथ ही जैन मुनि थे। जैन परपराओ एक मान्यताओ के प्रति आप को परम निष्ठा थी। फलत: आपकी अनेक रचनाओ में यह भक्ति-भावना प्रवल तरगवती के रूप में प्रकट हुई है। भक्त जिनहर्प ने जैन तीर्थकरो एवं आचार्यों की विनम्र भाव से अनेकश स्तुति की है। इन स्तवन-गीतो में उनके हृदय का दृढ एव अटूट विश्वास भरा हुआ है । उदाहरण देखिए - ___अभिनन्दन गीतम् ( राग नट) मेरउ, प्रभु सेवक कुं सुखकारी। जाके दरसण वछित लहीये, सो कइसइ दीजइ छारी ॥१॥ हिरिदइ धरीयइ सेवा करीयइ, परिहरि माया मतवारी। तउ भव दुख सायर तइ तारइ, पर आतम कउ उपगारी ॥२॥ अइसउ प्रमु तजि थान भजइ जो, काच गहइ जो मणि डारी ॥ अभिनदन जिनहरख चरण गहि, खरी करी मन इकतारी ॥३॥ (चौवीसी, पृ० २१) मुनिसुव्रत भीतम् ( राग-तोडी) आज सफल दिन भयउ सखी रो॥ मुनिसुव्रत जिनवर की सूरति, मोहनगारी जउ निरखी री ॥१॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] आज मेरइ घरि सुरतरु ऊगड, निधि प्रगटी घरि आज अखी री। आज मनोरथ मकल फले मेरे, प्रभु देखत ही दिल हरखी री ॥२॥ ताप गए मवहि भव-भव के, दुरगति दुरमति दूरि नखी री । कहइ जिनहरख मुगति कु दाता, सिर परि ताकी आन रखी री ॥३॥ (चौवीसी, पृ० ३०) प्रभु भक्ति (राग वेलाउल) प्रमु पद-पकज पाय के, मन भमर लुभाणउ । सुन्दर गुण मकरन्द के, रसमइ लपटाणउ ॥१॥ राति दिवस मातउ रहइ, तिम भूख न लागइ। चरण कमल की वासना, मोह्यठ अनुरागइ ॥ २ ॥ नुमनस अउर की सुरभता, फीकी करि जाणइ । रहइ निनहरख उलासमइ, अविचल सुख माणइ ॥३॥ (पद सग्रह, पृ० ३४७ ) इन पदों से कवि के हृदय का भक्ति रस मिश्रित प्रेमतत्व टपका पडता है। असल में जिनहर्प प्रेमतत्व के गायक है और इसी के कारण कवि को इतनी अधिक लोकप्रियता मिली है। आपके प्रेममय उद्गारों को सरलता और स्वाभाविकता सहज ही हृदय पर अधिकार कर लेती है। प्रेम तत्व का ऐसा उज्ज्वल निदर्शन कम ही कवियों में मिलता है। सर्वप्रथम कवि द्वारा किया हुआ प्रेम तत्व निरूपण द्रष्टव्य है। इसमें प्रेम की गम्भीरता एव विस्तार का प्रकाशन ध्यान देने योग्य है : Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ .११ ] प्रीत म करि मन माहरा, करे तो काची काइ। काचा मिणिया काच रा, जसराज भांजे जाइ ॥४५॥ धन पारेवा प्रीति, प्यारी विण न रहे पलक । ए मानवियां रीति, देखी जसा न एहडी ॥४६॥ एक पखीणी अंग, प्रीति कियां पछताइजे। दीपक देखि पतग, जल वलि राख हुवै जसा ॥४७॥ साजनिया ससार, जो कीजै तो जायने । ' नेह निवाहण हार, जसा न विरचे जीवता ॥४८॥ निगुणा सेती नेह, थिर न रहै कीधां-थकां । छीलर सर ज्यु छेह, जल जातौ दीस जसा ॥८६॥ निगुणां हन्दो नेह, ऊगत दिन छाया जिसी । सुगुणां तणौ सनेह, जसा ढलती छाहडी ॥६॥ (प्रेम पत्रिका) कवि ने विरह-वर्णन बहुत अधिक किया है। यह प्रसग बडा ही मार्मिक है। इसमें विरही के मन को विभिन्न दशाओ का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। इस प्रकार के चित्र अनेक हैं। प्रेम की पीडा का प्रकाशन देखिए जिण दिन सजन बीछडया, चाल्या सीख करेह । नयणे पावस ऊलस्यौ, झिरमिर नीर झरेह ॥१॥ सजण चल्या विदेसडे, ऊभा मेल्हि निरास । हियडा में ते दिन थकी, मावे नाही सास ॥२|| जीव थकी वाल्हा हता, सजनिया ससनेह । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] आडी भूय दीधी घणी, नयण न दीस तेह ॥३॥ सावी पोवो खेलवो, कांई न गमइ मुझ । हियडा मांही रात दिन, ध्यान धरू इक तुज्झ ॥४॥ नयणां मेती प्रोतडी, कीधी घणे सनेह । देव विछोहो पाडियो, पूरी न पडी तेह ॥५॥ ( दोषक छत्तीसी, पृ० ११७ ) प्रेमी की अभिलापा देखिए भुज करि वे भेलाह, मिलस्य जदि मन मेलुआं। वाल्ही साई वेलाह, जनम सफल गिणस जसा ॥६६॥ नवणे मिलसै नैण, उर सु उर मेलिस जसा । मुख पामेस्ये सैण, माया लेस्य वारणा ॥७०॥ (प्रेम पत्रिका) माहित्य जगत् में बारहमासा एवं तिथि-क्रम वर्णन की पुरानी तथा सुपुष्ट परम्पराए हैं। इनमें ऋतु परिवर्तन एव सामाजिक जीवन से प्रभादित प्रेमी जन की मनोदशा का चित्रण किया जाता है। प्रेमतत्व के पारखी कवि जिनहर्ष ने इन साहित्यिक विधाओं का भी बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है पिट वैसाखे हालियो, *णा सीख करेह । मो पूरे गोग्डी, व डब नैण भरेह ॥६॥ र बाजे दिणयर तप, माम अतारो जेठ। आंग्णं पावस उल्लचो, ऊभी मेडी हे० ॥७॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ । काती कत पधारिया, सीघा वछित काज | घरि दीपक उजवालिया, गोरगी जसरान ॥१२॥ (बारहमास रा दूहा, पृ० १२०-१२१) पडिवा पोउ हालीमओ, मइ हालन्तौ दीठ । मनडो ज्याही सु गयो, नण वहोड्या निठ्ठ ॥१॥ वीज स आज सहेलियां, ऊगो चन्द मयन्द । दुनिया वदै चन्द नै, हु वन्दू प्रीयचन्द ॥२॥ सखीयां तन सिणगार सजि, खेलो साँवण तीज । मो मन आमण-दमणो, देखि खिवन्ती बीज ॥३॥ चौथि भगवती पूजतां, आवै वहुली रिद्धि । जो प्रीतम घरि आवसी, चोथि करिस प्रीत वृद्धि ॥४॥ (पनरह तिथि रा दूहा, पृ० १२२-१२३ ) जैन कथाओं में नेमिनाथ एव स्थूलिभद्र विषयक कथानक अपने आपमें विरह से परिपूर्ण है। इनके सम्बन्ध में अनेक कवियो ने रचनाए की हैं। ऐसी स्थिति में प्रेम पथिक कवि जिनहर्ष के द्वारा इनका अपनाया जाना तो स्वाभाविक ही है। इनकी कथा-नायिकाओं के विरहोद्गार कविमुख से अनेकश प्रकट हुए है। उदाहरण देखिए (१) कातिग मास उदास भई, रांणी राजुल नेम बिना दुख पावै । प्राण सनेही सोई जसराज, ___ जो रूठे पीयारे क आणि मिलावे ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] ठोर ही ठोर दिवाली करे, नर दीपक मन्दिर ज्योति मुहावें । हू रे दिवाली करूगी तबे, मुझ सूं साढा लेई बोल अमोल मनमोहन कन्त जवे घरि आवे ॥४॥ ( नेमि राजीमती गीत, पृ० २११ ) ( २ ) तीन रहे कर मांहिक मांहिक वेगली | मन रली ॥ तिहा करे । रह्यां तिहां पटरस भोजन सरस सदाई जोवन रूप अनूप बिन्हेई आयो पावस मासक अम्बर ऊमट आयो इन्दक मेहा काली कांठल भबूकै बाहे वेहूँ पसारि मिलुं पूजे इण परे ॥४॥ गाजियौ । राजियौ ॥ बिजली । रली ॥५॥ ( स्यूलिभद्र गीत, पृ० ३६१ ) कवि जिनहर्ष ने प्रेमतत्व का बड़े विस्तार और साथ ही अत्यन्त बारीकी से वर्णन किया है। इस विषय में उनके उद्गार बडे ही मार्मिक है । उनके दोहें तो ऐसे हैं, जो एक बार सुन लेने पर कभी विस्मरण नहीं होते । जिनह मुनि थे और सद्धर्म का प्रचार उनका जीवनव्रत था । ऐसी स्थिति में उन्होंने प्रबोधन- गीत भी काफी लिखे हैं और उनमें शान्तरस की Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १५ ] निर्मल धारा प्रवाहित की है। सांसारिक मोह में फंसे हुए जीव को चेतावनी देकर उन्होंने अनेकश. मार्ग दर्शन किया है। इस रूप में सतवाणी के उदाहरण द्रष्टव्य हैं (१) इ धन चदन काठ करे, सुरवृक्ष उपारि धतूरज बोवे । सोवन थाल भरे' रज रेत, ___ सुधारस सू करि पाउहि धोवे । · हस्ति महामद मस्त मनोहर, भार वहाई के ताहि विगोवे । मूढ प्रमाद ग्रह्यो जसराज, न धर्म करे नर सो भव खोवे ॥८॥ (मातृका वावनी, पृ० ८३) (२) नमिय देव जगद्गुरु, नमिये सद्गुरु पाय । दया जुगत नमिये धरम, शिवगत लहै उपाय ॥२॥ मन ते ममना दूर कर, समता घर चित मांहि । रमता राम पिछाण के, शिवपुर लहै क्यू नाहि ||३|| शिव मन्दिर की चाह घर, अथिर मदिर तज दूर । लपट रह्यो कहा कीच में, अशुचि जिहां भरपूर ॥४॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] घधा ही में पच रह्यो, आरम्भ किउ अपार । ऊठ चलेगो एकलौ, सिर पर रहेगो भार ॥५॥ ( दोहा वावनी, पृ० १४ ) ( ३ ) ज्यु नदी तोर जातहइ जोवन काहें फूलि रह्यउ यउ तउ अथिर जोवन मइ रातउ मदमातउ फिरइ ཧུ नहीं काम कउ मरोर्यु कछु देखइ कामिनी सु चाहइ भोग सक्ल सुख, बहुत रूप देखि जाणइ मो सौ, न को अलप जीवन मुगति अयाण रे । जाणि रे || जोर रे ओर रे || सयोग रे । की वियोग रे इसउ अभिमानी तेरी गत हुइगी अजुरी कउ नीर रहइ, कहउ तइसउ घन जोवन, न कोई तामड केती भजि भगवन्त जोवन कउ जउ जिनहरख तीन भवन रे 11 1 लड लाह रे | चाह रे ॥ 1 कउण रे ॥ वेर रे । फेर रे ॥ ( पद - सग्रह, पृ० ३५२ ) कवि की प्रबोधन-वाणी वडी प्रभावोत्पादक है । इसी प्रकार कवि ने नीति तत्व का प्रकाशन भी किया है, जो जीवन-व्यवहार के लिए वडा उपयोगी तथा सारपूर्ण है । कुछ उदाहरण देखिए Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] थानिक-थानिक घट्ट | वदे सुर नर त्रय वखत, गावे जस मिलिमिल गुणी, गीत गुणे गहगट्ट ॥ ४ ॥ ( छंद त्रोटक ) गहगट्ट सदा नर गीत गुणे । थिर थानिक थानिक जस्स थुणे ॥ महिमा नव खड अखड मह । गह पूरत मत्त मसत गह ॥५॥ ( गणेशजी रो छद, पृ० ३६५-६६ ) ( २ ) पारंभ करी परमेसरी, केहर चढी सकोप | अडीया सन्मुख कोप ॥१॥ असुर तथा दल आय ने, रगत नॅण रातमुखी, रातंबर से साल | वैताल ॥२॥ सहस भुजे हथियार सझि, विड रूपण असुर निकै असलामरा, मिलीया वेढक मल्ल । देवी ने देता दल, हूकल लागी हल्ल ॥३॥ ( छंद पाढगति ) हल्ल हल्ल लागी हूक, टोले ऊडै लोह टूक, सागडदा गिड़दा वाजे सोक, बेरियां विचाल । सणण वहत सर, सूरिमा फिर समर, 'गडड वाजत गोला, 1 नाडिग्डिदा नाल ॥५॥ (देवीजी री स्तुति, पृ० ३६८-६६ ) * Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] प्रणम् मरसति सुमति दातारो। हसगमण पुस्तक वीण बारो॥ नाम लीया दिन होइ सवाडो। आदि जिणेसर कहिस्य पवाडो ॥१॥ (आदिनाथ सलोको, पृ० १६६) ऊपर के अनेक उद्धरणो से प्रकट होता है कि कवि जिनहर्ष की रचनाओं में माश्चर्यजनक वैविध्य है, जो उनकी विद्वत्ता, प्रतिभा तथा क्षमता का परिचायक है। कवि ने अपने समय की प्रायः सभी शैलियों में रचनाए प्रस्तुत करने की सफल चेष्टा की है। यह उनकी काव्य-शक्ति का असाधारण प्रकाशन है। कहा जा चुका है कि मुनि जिनहर्ष का साहित्य वडा विस्तृत है। उन्होंने बड़ी संख्या में रास' सशक रचनाए प्रस्तुत की हैं, जैसे कुमुमत्री रास, श्रीपाल रास, रत्नसिंह राजर्पि रास, उत्तमकुमार रास, कुमारपाल रास, अमरसेन-वरसेन रास, यशोधर रास, अमरदत्त मित्रानद रास, चदन-मलयागिरि रास, हरिश्चद्र रास, उपमिति-भव-प्रपचा रास, २० म्यानक रास, पुण्यविलास रास, ऋपिदत्ता रास, सुदर्शनसेठ रास, अजितनेन-कनकावती रास, महाबल-मलयासुदरी रास, शत्रुजय माहात्म्य रास, सत्यविजय-निर्वाण रास, रलचूड रास, शीलवती रास, रत्नशेपर रत्लवती राम, रात्रिभोजन त्याग रास, रत्नसार रास, जवूस्वामी रास, श्रीमती रास, आरामशोभा रात वसुदेव रास, जिनप्रतिमा हुडी राम आदि मादि । इन बहुसख्यक "रास' काव्यो का स्वतत्र अध्ययन किए जाने ये कथा साहित्य विषयक मूल्यवान ज्ञातव्य प्रात हो सकता है। इसी वर्ग Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] मे कवि की विद्याविलास चौपई, मृगापुत्र चौपई, मत्स्योदर चौपई, विक्रम___ सेन चौपई, गुणावली चौपई आदि रचनाए ली जानी चाहिए । - इनके अतिरिक्त कवि ने स्तवन, सज्झाय, गीत, सलोको, नीसाणी, छद दहा, कवित्त, वारहमासा, बहुत्तरी, वावनी, छतीसी, पचीसी, चोबीसी, वीसी आदि अनेक नामों वाली परम्परागत शैलियो में रचनाए प्रस्तुत की हैं। इन में से चुने हुए उद्वरण ऊपर दिए जा चुके हैं। इतना ही नही . कवि जिनहर्ष के काव्य में अपने समय की शैली के अनुसार, प्रहेलिका एवं समस्या पूर्ति के उदाहरण भी प्राप्त है । इन दोनों काव्य विधाओ के नमूने देखिए - । प्रहेलिका ( ध्वजा)। उडे मग याकास धरणि पग -कदे न धार।। पीवे मह निसि पवन नाज नवि कदे माहार। सुकलीणी , सुदरी चप्प सिणगार विराज। * जीव विहूणी जोइ जिले नेहागलि जाजै ।। काठ सु .प्रीति -अधिकी करे, पख चरण करयल. पखे । - जसरान तास सावासि जपि, अरथ जिको इणरो लसे॥ (पृष्ठ ४२०) . . समस्या-सिंह-के कौन सगा' । - काहे कु मित्त ज्यु प्रीति ने पालत, प्रीति की रीति समूल न जाणइ । नेह करइ करि छह दिखावत, मयण कुसयण उभय न पिछाणइ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोस करइ [२०] विचार सनेह, सनेह पुरातन चीत न ज्यु असगा, सव ही सरखा जसराज सिंह कइ कवण सगा आणइ । वखाणइ ॥ (पृष्ठ ४०१) कवि जिनहर्ष काव्य के साथ ही संगीत के भी ज्ञाता थे और उनके द्वारा विरचित अनेक पदो में शास्त्रीय राग-रागिनी का प्रयोग हुआ है । प्रस्तुत संग्रह में उनके दो सवैये 'रागकरण समय सूचनिका' के रुप में दिए गए है ( पृ० ४०७) । इसके अतिरिक्त कवि ने अपने समय के लोक सगीत की धुनों की ओर भी पूरा ध्यान दिया है । लोक प्रचलित घुनो में किसी चीज को प्रस्तुत किए जाने से उसका अच्छा प्रचार हो सकता है क्योकि वे स्वय जनजीवन की अगभूत होती हैं । इस प्रकार अन्य अनेक जैन कवियों के समान कवि जिनहर्ष के द्वारा भो अठारहवी शती के काफी लोक गीत की आद्य पक्तियां लोक संगीत के प्रेमियों को अव्ययनार्थ मिल गई है । ऐसी आद्य पक्तियो की एक अति विस्तृत सूची 'जैन गुर्जर कविओ' भाग ३ खड २ में सग्ग्रह कर के प्रकाशित की गई है, जो द्रष्टव्य है । प्रस्तुत सग्रह के अत में कवि जिनहर्ष द्वारा प्रयुक्त 'देशियो' की सूची दी गई है, जो बडी उपयोगी है । इन देशियो पर स्वतंत्र शोध की आवश्यकता है । इनमें तत्कालीन जन समाज का हृदय स्पदित है । कुछ उदाहरण देखिए : १ हो रे लाल सरवर पाले चीखलउ रे लाल, घोडला लपस्या जाई । ( पृ० ४२ ) २ नवी नवी नगरी मा वसई रे सोनार, कान्हनी घडावर नवसरहार ( पृ० ४४ ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] ३. सासू काठा हे गहूँ पीसावि, आपण जास्या मालवड, सोनारि भणइ | ( पृ० ५४) ४. झीणा मारू लाल रगावउ पीया चूनड़ी । ( पृ० ६० ) ५. थे तउ अगला रा खडिया आज्यो, रायजादा लाइज्यो राजि । ( पृ० १६१) ६. वाटका वटाऊ वीरा राजि, वीनती म्हारी कहीयो जाइ, अरे कहीयो जाइ, अब पके दोऊ नीवूअ पके, टपक टपक रस जाइ । ( पृ० १६१) ७ आठ टके ककणठ लीयउ री नणदी, थरकि रह्यउ मोरी वांह, 5 ककणउ मोल लीयउ | ( पृ० १६३) काव्य विवेचन का एक अंग भावसाम्य भी है। राजस्थानी कवियो की रचनाओं में इस दृष्टि से विचार करते समय कई पक्ष सामने आते है । कवि जिनहर्ष संस्कृत के विद्वान थे । अत यत्र तत्र उन्होंने संस्कृत - सुभाषितों का अपनी नीति वाणी में अनुवाद प्रस्तुत किया है ·-- खल सगत तजिये जसा, विद्या सोभत तोय | पन्नग मणि संयुक्त तें, क्यू नदी नखी नारी तथा नागणि खग जसराज 1 J नाई नरपति, निगुण नर, आठे करें अकाज ॥३२॥ दोहा वावनी ) दुर्जनः परिहर्तव्यो मणिना भूषित. सर्प न भयकर होय ॥१६॥ विद्ययालंकृतो सन् । किमसो न भयङ्कर ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] नदीनां नखिनों चैव शृ गिणा शस्त्र पाणिनाम् । विश्वासो नैव कर्तव्यो स्त्री राजकुलेषु च ॥ • यत्र तत्र कवि जिनहर्ष की रचनाओं में अन्य कवियों के भाव अथवा शब्दावली तक ज्यों के त्यों दृष्टिगोचर होते है १-अठि कहा मोई राउ, नइन भरी नींद रे, काल आइ ऊभउ द्वार, तोरण ज्यं बीद रे। मोह की गहल माझि, सोयउ बहु काल रे, कछु बूझ्यु नहीं तु तउ, होइ रह्यउ बाल है। (पृ० ३५१) सोवू रै सोवू वन्दा के करे, सोयां आवे रे नींद, मोत सिरहाणे बन्दा यू खडी, तोरण बायो ज्यू वीद, वोलि म्हारा भवरा तू काई भरम्यो रे। (काजी महमद ) २-दस दुवार को पीजरो तामै पंछी पनि । रहण अचूवो है जसा, जाण अचूवो कौन ॥४॥ जो हम ऐमे जानते, प्रोति वीचि दुख होइ । सही ढढेरो फेरते, प्रीत करो मत कोड ॥८॥ (पृ० ४१६) नो द्वारे का पीजरा, तामें पछी पोन । रहने-को आचरज - है, गए अत्रम्भो कोन ।। (कवीर) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ . २३ ] जे में एसो जानती, प्रीत कियां दुख होय । नगर ढढेरो फेरती, प्रीत न करियो कोय ॥ (मीरांवाई) ३-बीजुलियां खलभल्लिया, आभे आभे कोडि । कदे मिलेवें सजना, कचू की कस छोडि ॥१७॥ वीजलियां गली वादला, सिहरा माथै छात। कदे मिलेमुं सजना, करी उघाडी गात ॥१८॥ वीजलियां चमके घणी, आभइ-आभइ पूरि । कदे मिगी सजना, करि के पहिरण दूर ॥१६॥ (बरसात रा दहा, पृ० ४२४) वीजुलिया चहलावहलि, आभइ-आभइ एक । कदी मिलू उण साहिवा, कर काजल की रेख॥४४॥ वीजुलियां चहलावहलि, आभइ आभइ च्यारि । कद रे मिलउली सजना, लांबी वांह पसारि ॥४५॥ 'वीजुलिया चहलावलि, आभय आभय कोडि । कद रे मिलउली सजना, कस कचुकी छोडि ॥४६॥ (ढोला मारू रा दूहा ) ___ इस प्रकार मुनि जिनहर्ष के काव्य पर विचार करने से उसमें अनेक प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर होती है और वे एक साथ ही समर्थ एवं सरस कवि के रूप में प्रकट होते हैं। वे परम भक्त है और उद्बोधक हैं । वे प्रेममार्गी हैं और नीतिज्ञ हैं । उन्होंने अपने समय की सभी काव्यशैलियो में रचनाए प्रस्तुत करके साहित्य के भडार को भरा है। उन्होने Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] अनेक भाषाओं में काव्य प्रणयन किया है परन्तु वे विशेष रूप से गुजराती तथा राजस्थानी के कवि है । उनकी कृतिया सरस एव साथ ही शिक्षाप्रद है । उनसे सम्बन्धित गीत में यथार्थ ही कहा गया है सरसति चरण नमी करी, गाम्य श्री ऋषिराय । श्री जिनहरप मोटो यति, समय अनुसार कहिवाय ॥शा मन्दमती ने जे थयो, उपगारी मिरदार । सरम जोडिकला करी, कर्यो ज्ञान विस्तार ॥२॥ उपगारी जगि एहवा, गुणवन्ता व्रतधार । तेहना गुण गातां थकां, हुइ सफल अवतार ॥३॥ हिन्दी विभाग, सेठ आर एन रुइया कालेज रामगढ (सीकर) दि० १-१-१९६४, -मनोहर शर्मा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकवि जिनहर्ष यो तो राजस्थान के सैकडो जैन कवियों ने मातृभाषा राजस्थानी की अनुपम सेवा की है, पर उनमें अठारहवी शती के जैन कवि जिनहर्प अपना विशिष्ट स्थान रखते है। उनकी रचनाए प्रचुर परिमाण में पायी जाती हैं। आपने राजस्थानी, हिन्दी, गुजराती-तीनों भाषाओ में विशाल साहित्य निर्माण कर साहित्य की बडी भारी सेवा की है, फिर भी आपकी गुरु-परम्परा के अतिरिक्त जन्मस्थान, वश, माता-पिता, जन्म व दीक्षाकाल एवं जीवन के विशिष्ट कार्यादि सभी इतिवृत्त अज्ञात है। आपके अन्थादि में जो भी ज्ञातव्य उपलब्ध हैं, उन्ही के आधार से सक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है। । गृहस्थावस्था का नाम व दीक्षा ___आपने जसराज बावनी, दोहा-मातृका बावनी, बारहमास द्वय तथा दोहों में अपना नाम 'जसा' या 'जसराज' दिया है, जिसे आपका गृहस्थावस्था का नाम समझना चाहिए। जैन-दीक्षा के अनन्तर आपका नाम 'जिनहर्प' प्रसिद्ध किया गया था। आपकी सर्वप्रथम रचना चन्दनमलयागिरि चौपाई सवत् १७०४ में रचित उपलब्ध है । अनुमानत आपकी अवस्था उस समय १८-१९ वर्ष की तो अवश्य रही होगी। अत आपका जन्म स० १६८५ के लगभग और दोक्षा स० १६६५ से १६६६ के मध्य श्री जिनराजसूरिजी' के कर-कमलों से होना सम्भव है। १-इनके विषय में विशेष जानने के लिए परिषद द्वारा प्रकाशित जिन__ राजसूरि कृति-कुसुमाञ्जली देखिये। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु परम्परा दादाजी के नाम से प्रसिद्ध खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनकुगलबूरिजी' की शिष्य परम्परा में आप वाचक श्रीसोमजी के शिष्य शान्तिहर्षजी के शिष्य थे। अन्य साधनों से आपका वश-वृक्ष इसप्रकार है-१ श्रीजिनकुशलसूरि ( स्वर्ग स० १३८६), २-महोपाध्याय विनयप्रभ, ३ उ० विजयतिलक, ४ क्षेमकीर्ति गणि, ५ उपा० तपोरल, ६ वाचक भुवनसोम, ७ उ० साघुरग, ८ वा० धर्मसुन्दर, ६ वा. दानविनय, १० वा० गुणवर्द्धन, ११ वा० श्रीमोम, १२ वा० शातिहर्ष, १३ जिनहर्प। जन्म-स्थान, विहार एवं रचनाएं ___ आपकी कृतियों से स्पष्ट है कि सवत् १७३५ तक आप राजस्थान में ही विचरे थे। वील्हावास, साचौर, मेडता, वाहडमेर आदि में रचित आपकी कई रचनाए उपलब्ध हैं। हमारे विचार में आपका जन्मस्थान भो मारवाड ही होगा। आपकी प्रारम्भिक रचनाए और दोहे इत्यादि अधिकांश राजस्थानी भाषा में और कुछ हिन्दी में रचित है । सं० १७३६ से आप पाटण में अधिक रहने लगे थे। वीच में स० १७३७ में मेहता, सं० १७३८ में राधनपुर, स० १७४१ में राजनगर में रचित रासादि उपलब्ध है एव तीर्थयात्रा के हेतु आप समय-समय पर शत्रुञ्जय (सं० १७४५, स० १७५८ ), सम्मेतशिखर (स० १७४४) तारगा, सोवनगिरि, धुलेवा, नीवाज, नारगपुर, कसारी, पचासरा, फलोधी, कापरहेडा, गौडीजी, चारूप, सखेश्वर आदि स्थानो में पधारे थे पर स० १७३६ से १-देखें-दादा जिनकुशलसूरि । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] १७६३ तक अन्तिम जीवन पाटण में ही विताया और स्वर्गवासी भी वहीं हुए थे अत. स० १७३६ के वाद की कृतियो में गुजराती भाषा का पुट पाया जाना स्वाभाविक ही है। सुकवि जिनहर्पजी का अपनी कृतियो के निर्माण में प्रधान लक्ष्य सर्वजन कल्याण का था। इसीलिए प्राकृत, सस्कृत भाषा में आपने एक भी कृति न रचकर समस्त रचनाए लोकभाषा में ही निर्माण की। दीवालीकल्प बालावबोध, पूजा पचाशिका एव मौनेकादशी बाला~ये तीनों रचनाए टीका रूप होने से गद्य में हैं, अवशिष्ट छोटी-चडी सभी रचनाए पद्यात्मक है, जिनकी सख्या बड़ी विशाल है और छोटी रचनाए तो इस ग्रन्थ के साथ दे दी गई है, यहाँ रचना सवतादि उल्लेखयुक्त कृतियों की तालिका दी जा रही है । कवि की सबसे बडी रचना १ शत्रुञ्जय माहात्म्य रास है, जो ८५०० श्लोक परिमित है। आपकी समस्त कृतियो का परिमाण सम्भवतः एक लाख श्लोक के लगभग होगा। इतने अधिक रासादि चरित्र काव्य और वह भी केवल लोकभाषा में रचना करने वाले कवि आप एक ही है। अतः राजस्थानी-गुजराती के साहित्य स्रष्टाओ में आपका स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण है। (१) चन्दन-मलयागिरि चौपाई, स० १७०४ वै० शु० ५ गुरु गा० ३७२ (स० न० ४२०४) . (२) कुसुमश्री महासती चौपाई ढा० ३१ स० १७०७ मि० ब० ११ गा० १०३४ (सं० १३२०) (३) गजसिंह चरित्र चो० स० १७०८ पत्र ३६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ । (४) विद्याविलास रास स० १७११ श्रा० सु० ६ सरसा, ढाल ३० (५) उपदेश छत्तीसी सवैया (हिन्दी) स० १७१३ सवैया ३६ (६) मगलकलश चौ० सं० १७१४ श्रा० सु-६ गुरु० ढाल २१ . (७) गजसुकुमाल चौ० स० १७१४ आ० सु० १ कुजवार पत्र ५ डुगरसी भण्डार, जैसलमेर (८) नन्द बहुत्तरी-विरोचन मेहता वार्ता (हिन्दी) स० १७१४ कार्तिक, वील्हावास दोहा ७३ (९) मृगापुत्र चौ० सधि स० १७१५ मा० २०१० साचौर (उत्तराध्ययन से) (१०) मत्स्योदर रास स० १७१८ भा० सु० ८ बाहडमेर ढा० ३३ गा० ७०२ (११) जिन प्रतिमा हुँडी रास स० १७२५ मिगसर गा०६७ . (१२) विहरमान वीमी स० १७२७ चै० सु० ८ गा० १४४ (१३) कापरहेडा पार्श्व स्त० गा०-७ (१४) आहार दोष छत्तीसी स० १७२७ आषाढ बदि १२ गा० ३६ (१५) वैराग्य छत्तीसी सं० १७२७ लि० गा० ३६ (१६) रात्रिभोजन रास (हस केशव चौ० ) स० १७२८ आ० सु० १२ राधनपुर पत्र १६ वद्रीदास सग्रह (१७) शील नववाड स० १७२६ भा० व० २ ढाल ११ (१८) दोहा मातृका वावनी (हिन्दी) स० १७३० आषाढ सु०६ (१६) नेमि बारहमासा सं० १७३२ (२०) सम्यत्त्व सत्तरी सं० १७३६ भा० सु० १० पाटण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] (२१) कापरहेड़ा पार्श्ववृद्धस्त० गा० ११ (२२) ज्ञातासूत्र सज्झाय सं० १७३६ फाल्गुन २०७ पाटण ढाल १६ (२३) दशवकालिक १० अध्ययन गीत स० १७३७ आ० सु० १५ मेडता गा० २०८ (२४) शुकराज चौ० स० १७३७ मि० सु० ४ पाटण, ढाल ७५ गा० १३७६ (श्राद्धविधि से०) (२५) श्री आदिनाथ स्त० गा० २८ स० १७३८ राधनपुर (२६) चौवीसी (हिन्दी) स० १७३८ फा० बदि १ गा० ७५ (२७) जसराज वावनी (हिन्दी) स. १७३८ फा० व० ७ गुरु सवैया ५७ (२८) श्रीपाल चौपाई स० १७४० चै० सु०७ पाटण ढाल ४६ (२६) रत्नसिंह राजर्षि रास ( उपदेशमाला रत्नप्रभ टीका से ) सं० - १७४१ पो० ब० ११ पाटण, ढाल ३६ गा० ७०६ (३०) अयवन्ती सुकुमाल स्वा० गा० १०२ ढाल १३ स० १७४१ ।। वै० (आ०) सु० ८ राजनगर (३३) श्रीपाल रास ( लघु ) स० १७४२ चै० व० १३ पाटण गा० २७१ (३०१) (३२) कुमारपाल रास स० १७४२ आश्विन सु० १० पाटण, ढाल १३० गा० २८७६ (३३) समेत शिखर यात्रा स्तवन स० १७४४ चै० सु० ४ गा०६ . ' (३४) चन्दन-मलयागिरि चौ० स० १७४४ श्रा० सुदी ६ गु० ( स० १७४५ पाटण में स्वय लि. ) ढाल २३ गा० ४०७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] (३५) हरिश्चन्द्र रास सं० १७४४.आ० ० ५ पाटण, टाल ३५ गा० ७०१ (भावदेवसूरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र में) (३६) अमरमेन वयरसेन रास स० १७४४ फा० सु० २ बुध, पाटण (३७) उत्तमकुमार चरित्र मं० १७४५ आश्विन सुदि ५ पाटण, गा० ५८७ ढाल २९ (३८) शत्रुञ्जय यात्रा स० १७४५ मौनेकादगी (३६) बीसी स० १७४५ वै० म० ३ गा० १३७ न० १६४ (४०) उपमिति-भव-प्रपंचा (कथा) रास सं० १७४५ ज्ये० नु० १५ पाटण ढाल १२७ गा० ४३०० (४१) हरिवलमच्ची रास सं० १७४६ आ० सु० १ बु० पाटणं, डाल ३२ गा० ६७६ (जीवदया विपये, वर्द्धमान-देशना से) (४२) यशोधर रास--स० १७४७ वै० सु० ८ पाटण, ढा० ४२ गा० ८८८० ११६६ (४३) वीस स्थानक (पुण्यविलाम) रास-स० १७४८ वै० सु० ३ पाटण ढाल १३२, गा० ३२८७ न० ५०२५ ( विचारामृत मनह से) (४४) मृगांकलेखा रास-स० १७४८ आषाढ व०६ पाटण,ढाल ४१ (४५) सुदर्शन सेठ रासस० १७४६ भा० सु १२ पाटण, डा० २१ गा० ३८२ न ० ५५२ स्वय लि० (योगशास्त्रटीकासे)(४६) अमरदत्त मित्रानद रास-स० १७४६ फा० व० २ सोम, पाटण, ढाल ३६ ग्० ११५० गा० ८५० (शातिनाव चरित्रसे) (४७) ऋपिदत्ता रास-सं० १७४६ फा०. व० १२ वुध, पाटण, ढाल २४ गा० ४५७ स्वय लि. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] (४८) गुणकरण्ड गुणावली रास-स० १७५१ आश्विन व. २ पाटण __. ढा० २६ न ० ६०५ हमारे सन्नह में (४६) महावल मलयसुन्दरो राम-स० १७५१ आ० १० १ पाटण _____ ढाल १४२ प्रस्ताव ४ (जयतिलकसूरिकृतचरित्र से) (५०) अजितसेन कनकावती रास-स० १७५१ माघ ब० ४ पाटण, 1 ढाल ४३ गा० ७५८ न० १०१४ (५१) दीवालीकल्प वालाववोध-स० १७५१ चै० सु० १३ पाटण __में लि० (जिनसुन्दरमूरिकृत से ) (५२) शत्रुञ्जय माहात्म्य रास-स० १७५५ आषाढ व० ५ पाटण, खंड ह गा० ६४५० म ० ८५६८ स्वयं लि० (धनेश्वरसूरिकृतसे) (५३) मत्यविजय निर्वाण रास-स० १७५६ माघ सु० १० पाटण, (जैन ऐ० रासमाला भाग १ में प्र०) - (५४) रत्नचूड़ रास-स० १७५७ आश्विन सुदि १३ शुक्र, पाटण ढाल ३१ गा० ६२७ न०८९७ (५५) अभयकुमार रास -स० १७५८ श्रा० मु० ५ सोम, पाटण, ढाल ११ (५६) शोलवती रास-स० १७५८ भा० सु०८ गा० ४८० स्वय लि. (५७) शत्रुजय यात्रा स्त० स० १७५८ फाल्गुन व० १२ गा० १४ (५८) रात्रिभोजन परिहार ( अमरसेन जयसेन ) रास-स० १७५६ आपाढ, व० १ पाटण, ढाल २५ गा० ४७७ (५६) रत्नसार नृपरासस० १७५६ प्र० श्रा० २०११ सो० पाटण ढाल ३३ गा०६०४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] (६०) वयरस्वामी चौ०-सं० १७५६ आश्विन सु० १ ढाल १५ हमारे सग्रह में नं० ४०२६ (६१) कलावती रास-सं० १७५६ पाटण ढाल १६ गा० ३२८ (६२) रत्नशेखर रत्नवती रास-स० १७५६ माघ सु० २ ढाल ३६, गा० ७७० (६३) स्थूलिभद्र स० स० १७५६ आ० मु० २ पाटण, ढाल १७ गा० १५१ स्वय लि० (६४) जवू स्वामी रास-सं० १७६० ज्ये० १० १० बुध, पाटण, ४ अधिकार ढाल ८० गा० १६५७ नं० २०७५ (६५) नर्मदासुन्दरी स०-स० १७६१ चै० व० ४ सो० पाटण, ढाल २६ गा० २१४ न० २७० स्वय लि. (६६) आरामशोभा स०-स १७६१ ज्ये० सु० ३ पाटण, ढाल २१ गा० ४२६ स्वय लि० (६७) श्रीमती रास-स० १७६१ माघ सु० १० पाटण, ढाल १४ गा० ८६६ (६८) वासुदेव रास-स० १७६२ आसोज सु० २ पाटण, ढा० ५० गा० ११६३ (६६) स्नात्र पूजा पंचाशिका वालाववोध-स० १७६३ लि. (७०) नेमि चरित्र-स० १७७९ (?) आषाढ सु० १३ पाटण, ४ खंड गा० १०७८ पत्र ३३ स्वय लि. (७१) मेघकुमार चौ० (७२) चित्रसेन पद्मावती चौ० (७३) चौबोली कथा (७४) ज्ञानपंचमी कथा वाला० आदि प्रचुर कृतियां उपलब्ध हैं। इस ग्न थ में भी बहुतसी रचनाए प्रकाशित की जा रही हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] सद्गुण और स्वर्गवास उपयुक्त दीर्घ रचना-सूची से स्पष्ट है कि आप निरन्तर साहित्य निर्माण में ही अपना समय व्यतीत करते थे। आप स्वाभाविक काव्यप्रतिभा सपन्न थे और आपकी लेखनी माविश्रान्त गतिसे चलती रहती थी। इसी प्रकार सयम साधना में भी आप निरतर उद्यत थे । आपके व्रत, निय. मादि अन्तिम अवस्था तक अखण्ड रहे। आपके अनेक सद्गुणों में गुणानुरागिता भी उल्लेखयोग्य है जिसके उदाहरण स्वरूप तपागच्छीय पन्यास सत्यविजय का निर्वाणरास बनाया। आप प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी अहङ्कार त्यागकर निर्लेप व निरपेक्ष रहते थे। अपनी रचनाओं में कही पाठक, वाचक या कवि शब्द तक का प्रयोग नहीं किया जिससे आपमें आत्म-श्लाघा या अभिमान का अभाव प्रतीत होता है। सवत् १७६३ से १७७६ (२) के बीच व्याधि उत्पन्न होने से आपकी सेवा सुश्रूषा तपागच्छीय मुनिराज श्री वृद्धिविजयजी ने बड़ी तत्परता से की और अन्तिम आराधना भी उन्होने ही करवायी थी। श्रावकों ने अन्तिम देहसंस्कार बडी भक्तिपूर्वक किया इस विषय में हमारा "ऐतिहासिक-जैन-काव्य सग्रह" देखना चाहिए । आपका स्वर्गवास पाटण में हुआ था सभव है वहां उनके चरणपादुके स्तूपादि भी हो तथा उनके संबन्ध में गीत, भास आदि ऐतिहासिक सामग्नी भी अन्वेषण करने पर प्राप्त हो । गुरु-भ्राता एवं शिष्य-परिवार आपके गुरु श्री शान्तिहर्षजी के आपके अतिरिक्त निम्नोक्त अन्य शिष्यों का उल्लेख पाया जाता है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ । १ शान्तिलाभ (ठाकुरसी)-इनकी दीक्षा स० १७०७ फाल्गुन यदि १ को मेडता में श्री जिनरलसूरिजी के द्वारा हुई थी। २. सौभाग्यवर्द्धन (सांगा)-इनकी दीक्षा स० १७१३ अक्षय तृतीया को श्रीजिनचन्द्रसूरि द्वारा हुई थी। ३ लाभवर्द्धन ( लालचन्द )-इनकी दीक्षा भी नं० १७१३ अक्षय तृतीया के दिन सीरोही में घीजिनचन्द्रसूरिजी द्वारा हुई। ये राजस्थानी के अच्छे कवि हुए है, इनकी निम्न रचनाए उल्लेख नीय हैं। (१) विक्रम चौपाई (नौसौ कन्या खापराचोर-पंचदड-म० १७२३ भा० सु० १३ जयतारण, खंभात संघ आग्रह (२) लीलावती रास-स० १७२८ काती सु० १४ सेत्रावा (३) लीलावती (गणित) रास-म० १७३६ आपाठ वदि ५ वुध, वीकानेर। (४) धर्मवुद्धि रास-स० १७४२ सरसा . (५) स्वरोदय भापा दोहा-सं० १७५३ भादवा सुदि अक्षयराज • हेतवे। (६) पाण्डव चोपाई-स० १७६७ वील्हावास नन्थ ३७६५ (७) शकुनदीपिका चौ०-स० १७७० वै० शु० ३ गुरु न ० ५६४ अध्याय ५ (८) चाणक्य नीति । (९) विक्रम पंचदड चौ० स० १७३३ फाल्गुन (१०) छन्दोत्तम (सस्कृत छंद ग्न थ) वाकान Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] (११) नीसाणी अजितसिंह-सं० १७६३ । इनके अतिरिक्त मूर्ख सोलही, -छिनाल पचीसी आदि कृतियां . भी यापकी ही सभवित है। ४ सौख्यधीर (सुखा )-इनकी दीक्षा स० १७४६ माघ सुदि ११ बीकानेर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी द्वारा हुई। ५ सोमराज ( श्यामा)- इन्हें श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने स० १७४७ फा०व० ७ को बीकानेर में दीक्षित किया था। । ६ विद्याराज (वीठल)-इनकी दीक्षा भी उपर्युक्त सोमराज के साथ हुई थी। . ७ सत्यकीर्ति ( सुन्दर )-इनकी दीक्षा स० १७५२ फाल्गुन वदी ५० को बीकानेर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी द्वारा हुई थी। ८ सजयकीर्ति (साऊ)-इनकी दीक्षा उपर्युक्त सत्यकीर्ति के साथ ही हुई थी। मुकवि जिनहर्षनी के शिष्य सुखवर्द्धनजी (समाचन्द) हुए, जिन्हें वि० स० १७१३ वै० सु० ३ के दिन सिरोही में श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने दोक्षित किया था। सुखवर्द्धन के शिष्य दयासिंह हुए जिनका गृहस्थ नाम डाबर था । इनकी दीक्षा स० १७३६ वै० व० १३ को नागौर में श्री जिनचन्द्र सूरिजी के हाथ से हुई थो। आपके शिष्य उपाध्याय रामविजय (रूपचन्द्र) वडे विद्वान हुए। इन्हें म० १७५५ मिती वैसाख मुदि २ वील्हावास में श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने दीक्षित किया था। ये उपाध्याय क्षमाकल्याणजी के विद्या-गुरु थे। मापके बनाये हुए लगभग २८ ग्रन्थ उल्लेखनीय है। इनके सम्बन्ध में 'अनेकान्त' व 'सप्त सिन्धु' में प्रकाशित मेरा लेख देखना चाहिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त रामविजयजी के शिष्य वा० पुण्यशीलगणि के शि० वा० समयसुन्दरगणि के गिज्य वा० शिवचन्द्र गणि (शम्भूजी ) मी अन्चे विद्वान हुए है। इसी परम्परा में जयपुर के यति श्यामलालजी हुए जिनके शिष्य और खरतरगच्छ की भट्टारक शाखा के पट्टधर श्री जिनविनयेन्द्र सूरिजी बडे प्रभावशाली हुए जिनका दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हुआ है। जिनहर्पजी की परम्परा-क्षेम शाखा में अनेक विद्वान हो गए हैं। उनके गुरुभ्राता आदि की परम्परा भी लम्बे समय तक चलती रही है जिनकी नामावली हमारे पास है, पर विस्तार भय से उसे नहीं दिया जा सका। -अगरचंद नाहटा Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहियो ३ अनु क्रम णि का १ चौवीसी ( १) कृतिनाम गाथा आदि पद पृष्ठ १ ऋषभ जिन स्तवन ३ देख्यौ रे ऋपम जिणंद १ २ अजित जिन स्तवन ३ मेरो लीन भयो मन जिन सेती १ ३ सभव जिन स्तवन ३ बहुत दिनां थी मै साहिब ४ अभिनदन स्तवन ३ मेरो एक सदेशौ कहियो ५ सुमति जिन स्तवन ३ समरि समरि सुख लालची मनां ३ ६ पद्मग्रभ स्तवन ३ पदमप्रभु सूरति त्रिभुवन सोहै ४ ७ सुपार्श्व जिन स्तवन ३ दोइ कर जोरि अरज करु अरिहंत ५ ८ चन्द्रप्रभु स्तवन ३ देखेरी चन्द्रप्रभु में चंद समान ५ ६ सुविधि जिन स्तवन ३ मेरा दिल लगा साई तेरा न १० शीतल जिन स्तवन ३ जव ते मूरति दृष्टि परी री ११ श्रेयास जिन स्तवन ३ मेरौ मोह्यो श्रेयास जिनवर १२ वासुपूज्य स्तवन . ३ वासुपूज्य स्वामी सेती ८ १३ विमल जिन स्तवन ३ प्राण धणी सुप्रीति बणाई. ६ १४ अनन्त जिन स्तवन ३ मैं तेरी प्रीति पिछाणी हो १५ धर्म जिन स्तवन ३ अब मेरो मनरौ प्रभुजी हरलीनो १० १६ शाति जिन स्तवन ३ कैसे कर पहुंचा संदेश ११ १७ कथु जिन स्तवन . ३ मन मोहन प्रभु की मुरतिया ११ १८ अर जिन स्तवन ३ कहि कहि रे जिउरा प्रभुजी आगे १२ 99 vww Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] १६ मल्लि जिन स्तवन २० मुनिसुव्रत स्तवन २१ नमि जिन स्तवन २२ नेमि जिन स्तवन २३ पार्श्व जिन स्तवन २४ महावीर जिन स्तवन २५ कलश ३ मल्लिनाथ निसनेही निरंजन १३ ३ ऐसो प्रभु सेवो रे मन ज्ञानी १४ ३ नैना मे नमिनाथ निहार्यो १४ ३ बलिहारी हुँ तेरे नाम की १५ ३ भोर भयो उठ भन रे पास १६ ३ साहिव मोरा हो अब तो महिरकरो१६ ३ जिनवर चउवीसे सुखदाई १७ __( स० १७३५ लि०) चौवीसी ( २) २६ आदिनाथ गीतम् २७ अजितनाथ गीतम् २८ संभव जिन गीतम् २६ अभिनंदन गीतम् ३० सुमतिनाथ गीतम् ३१ पद्मप्रभु गीतम् ३२ सुपार्श्व जिन गीतम् ३३ चंद्रप्रभु गीतम् ३४ सुविधिनाथ गीतम् ३५ शीतलनाथ गीतम् ३६ श्रेयासनाथ गीतम् ३७ चासुपूज्य गीतम् ३ रे जीउ मोह मिथ्यात मई १९ ३ स्वामि अजित जिन सेवइ न क्यु प्राणी ३ अव सोहि प्रभु अपणो पद दीले २० ३ मेरउ प्रभु सेवक कुं उपगारी २१ ३ जीउ रे प्रभु चरण चितलाई २१ ३ हो जिनजी अब तु महिर करीजै २२ 3 कृपा करी सामि सुपास निवाजउ २३ ३ चंद्रप्रभु अष्ट कर्म क्षयकारी २३ ३ नाथ तेरे चरण न छोड़ २४ ३ शीतल लोयणा हो जोवउ सी० २४ ३ श्रेयांस जिनेसर मेरउ अतरजामी २५ । ३ हो जिनजी अब मेरइ वनि आई २५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ३८ विमलनाथ गोतम् '३ मेरु मन मोह्य प्रभु की मूरतीया । २६ ३६ अनतनाथ गीतम् ३ वाल्हा थारा मुखड़ा ऊपरि वारी २६ ४० धर्मनाथ गीतम् । ३ भजि भजि रे मन पनरम जिनद २७ ४१ शान्तिनाथ गीतम् ३ प्यारु पेमकु.मेरउ साहिब हे सिरताज २७ ४२ कुथुनाथ गीतम् ३नानी विण किण आगइ कहिय २८ ४३ अरनाथ गीतम् ३ अर जिन नायक सामि हमारउ २६ ४४ मल्लिनाथ गीतम् । मल्लि जिणंद सदा नमिय २६ ४५ मुनिसुव्रत गीतम् ३ आज सफल दिन भयउ सखीरी ४६ नमिनाथ गीतम् । ३ नमि जिनवर नमीये चितलाई ३० ४७ नेमिनाथ तीतम् ३ नेमि जिन यादव कुं कुल तायु ३१ ४८ पार्श्वनाथ गीतम् । ३ मान तजि मेरे प्राणी, वेर २ कहुं वाणी ३२ ४६ महावीर गीतम् ३ मइ जाण्यु नहीं, भव दुख औसो रे होइ ३२ ५० कलश ३ जिनवर चउवीसे गाए 7 . . ( स० १७३८ फा० व० १ रचित) ३ विहरमान वीशी (१) ५१ सीमधर स्तवन ३७ पुंडरीकणी नगरी वखाणीयइ ५२ युगमधर स्त० - ६ हीयर्ड मिलिवा रे प्रभुजी ५३ वाहुजिन स्त ८ रामति रमवा हुं गई .... ५४ सुबाहु जिन स्तवन ६ चउथा रे विहरमाण विहरता रे... ३६ ५५ सुजात जिन स्तवन ८ आपणा सेवकनइ सुख दीजइ कि ४० ५६ स्वयंप्रभ स्तवन ७ हारेलाल छठा स्वयप्रभु स्वामि जी रे ४२ ५७ ऋपभानन स्तवन ६ ऋषभानन जिन सातमउ गुण प्रभुजीरे४४ ३३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ : ५८ अन्तवीर्य स्तवन ६ अनतवीरज आठमउ जिनराय, . ४४, ५६ सूरप्रभ स्तवन ६ तु तइ सहु रसनउ लाण हो रसीयाः ४५. ६० विशाल जिन स्तवन ६ सारद चंद वदन अमृत नउ , ४७ ६१ वज्रधर स्त० ६ श्री वज्रधर गुणरागी जो . ४७. ६२ चन्द्रानन स्तवन ६ चद्रानन स्वामी चंद्रथी अधिक० .४८ ६३ चद्रबाहु स्तवन ५श्रीचदवाहु तेरमा . .४४ ६४ भुजंग जिन स्तवन ६ गामागर पुरवर विहरता रे -५० ६५ ईश्वरप्रभ स्तवन ६ जगदानंद जिनंद ५१ ६६ नेमिप्रभ स्तवन ६ नेमिप्रभु सुण वीनती , ५१ ६७ वीरसेन स्तवन ६ सहीरो रे चतुर सुजाण १८ महाभद्र स्तवन ६ अढारमा साहिब हो, कीधी बात कहुँ ५३ ६६ देवयशान्तवन ६ कता सुणि-हो कहुँ इक वात.. ५४ ७० अजिन वीर्य स्तवन ६ अजितवीर जिन वीसमा रे . ५५ ७१ कलश १० मारद तुझ सुपमा उलइ रे (सं० १७४५ द्वि० ० सु० ३), ४ विहरमान वीगी (२) ७२ मीमवर स्तवन ७ सामि सीमंधर साभल उजी ७३ युगमयर स्तवन ७ प्राण सनेही जुगमंधर स्वामी ७. बाहु जिन स्तवन है तु तर सायर मुत रलियामण उ . ६० ७५ सबाह जिन स्तवन ७ चाल्हेसर सभालीयउ ७६ नुजान जिन म्न० ७ मनमोहन महिमानिलउ ७५ स्वयंप्रभ नुवन ७ माहरा मन नी वात Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) ७८ ऋपभानन स्तवन- ७ ऋषभानन सुं प्रीतड़ी ॐ अनंतवीर्य स्तवन ७ आज ऊमाही जीभड़ी ७ आवउ मोरी सहियर सूरप्रभु० - ८० सूरप्रभ स्तवन .८१ विशाल स्तवन ८२ वज्रवर स्तवन ८३ चंद्रानन स्तवन ८४ चद्रबाहु स्तवन ८५ - भुजंग जिन स्त० ८६ ईश्वर प्रभ स्त ८७ नेम प्रभु स्तवन ८८. वीरसेन स्तवन ८६ महाभद्र स्तवन ६० देवयशा स्तवन ६१ अजितवीर्य स्त० ६२ कलश ७ आज लहाउ मई भेदो ६ अधिक विराजे वज्रधर साहिबा री ७ माहरा मन नी वातड़ी रे ७ जउ कोई चाले हो उण दिसि आदमी ७ निशिभर सूता आज मइ जी ७ श्री देवयशा श्रवणे सुण्यो ७ अजितवीरज अरिहत सु ६. वीरमान वीसे जिन वदियं रे ७ श्रीचंद्रानन चतुर विचारियै ७ सुणि सुणि मोरा अंतरजामी ७१ ७ स्वामि भुजंग विनती एक सुणउ महाराज ७२ ७ ईसर प्रभु अवधारियइ ७३ 1 ५. " ६७ ६८ ६८ ७० ७४ ७६ ७६ ७७ ८० ८० (स० १७२७ चै० सु० ८ ) ८२ ६३ मातृका वावनी ५७ ओकार अपार जगत आधार ( स० १७३८ फा० व० ८ गु० ) ६४ दोहा बावनी- ३ ओम् अक्षर सार है (१७३० आषाढ सु० १) ६४ ६५ उपदेश छत्तीसी ३६ संकल अरूप जामै प्रभुता अनूप भूप १०० i. ( स १७१३ ) १६ दोधक छंतीसी ३८ निण दिन सज्जण वीछड्या ११७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ १७ बारहमास रा दूहा १२ पीउ न चलो पदमिणि कहै - १२१ १८ पनरह तिथि रा दूहा १५ पड़िवा पहिलै पक्खड़े ___आदिनाथतीर्थ स्तवन १६ शत्रुजय तीर्थ स्त० शत्रुजय यात्रा तणी मो मन लागी १२५ १०० विमलाचल आदि स्त०७ श्री विमलाचल ऋषभ निहाल्या १२६ १०१ , ६ श्री विमलाचल गुण निलउ रे १२७ १०२ शत्र जय आदिनाथ स्त० ११ श्रावक सहु कोई आगलि १२८ । (चैत्री पूनम यात्रा स्त०) १०३ ,, ,, १४ म्हारा साहिबा रे सोरठ देश रलियामणउरे १२६ ( स० १७५८ फा० व० १२ ) १०४ विमलाचल आदि स्न० १३ रात्रि दिवस सूता जागता १३१ -१०५ , १३ श्री विमलाचल मंडण ऋषभजी १३: ( स० १७४५ मौन एकादशी) -१०६ , , हजी हो आज मनोरथ माहरा १३३ १०७ , श्री विमलाचल गुण निलउ १३५ १०८ शत्रुजय आदि स्त० ८ आज मई गिरिराज भेट्यउ १३६ १०६ " .. हवंदु रिषभजिणंद विमलाचल० १३७ ११० , .." ह ऋपभजिणेसर अलवेसर जय उ१३८ .१११ .,. ७ विमलगिरि तीरथ भेटियइजी १३६ ११०विमलाचलआदिचौमुखस्त०७ खरतरवसही आदि जिणंद 1 जुहारीयइ १४० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) ११३ शत्रुंजय आदि स्त० ३ प्रथमजिणेसर आदिनाथ १९४ " अद्भुतनाथ स्त० ७ अद्भुतनाथ जुहारियइ रे स्तवन ७ सुणि शत्रु जय ना सामि रे ७ विमलाचल तीरथ वासीजी ११५ ११६ 39 ११७ विमलाचल आदि स्त०६ श्री विमलाचल शिखर विराजै ११८ शत्रुंजय आलोयणा स्त० ११६ सोवनगिरि आदि स्त० १२० विमलाचल आदि स्त० १२१ आदिनाथ वृहस्त ० ५. १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ "" 33 21 14 133 "" "" स्त० " "" " "" १२७ १२८ १२६ धुलेवा आदि स्त० "3 23 ܙܙ १३० शत्रुंजय स्त० १३१ आदिनाथ सलोको (२) अजितनाथ १३२ अजितनाथ स्तवन ९४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १६ सुण जिनवर शेत्र जाधणीजी ७ प्रथम जिनेसर प्रणभियै रे १४६ ८ अम्मां मोरी सामल बात हे १५० २८ सरसति सामिणि पाय नम रे १५१ स० १७३८ कुमार राधणपुर ७ ऋषभ जिन भावइ भेटियइ १५६ ८ आदि जिणेसर आज निहाल्या १५७ ५ आदि जिन जाऊ हुं बलिहारी १५८ ६ ऋषभ जिणेसर सामी १५६ ११ माहरा मननामान्या रेसाहिबा १६० २१ म्हेतो साहिबा रे चरणे आया १६१ ११ विमलाचल साहिब साभलउ १६४ ५ जिन तेरी छाय रही है १६५ १६५ ७ अबला आखै सगला साखै १५ प्रणमुळे सरसति सुमति दातारो १६६ ११- अजित जिणेसरमाहरीरे लाल १६८ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) ११ मनमा हंस हंती घणी रे १६६ १३३ तारगा-अजित स्त० (३) संभवनाथ १३४ संभव जिन स्तवन ७ निशिदिन हो प्रभु निशिदिन । ताहरउ ध्यान १७० ११ सुखदायक संभव जिन से वियइ १७१ १३५ , " सुमतिनाथ १३६ सुमतिनाथ स्त० चन्द्रप्रभ १३७ चंद्रप्रभ स्त० ११ अरज सुणउ जिन पाचमा १७२ '७ श्रीचंद्रप्रभ स्वामी शिवगामि । अवधारि १७४ ३ मैं तेरी प्रीत पिछानी हो प्रभु० १७५ १७५ अनंतनाथ १३८ अनन्त प्रभु स्त० शांतिनाथ १३६ शान्तिनाथ स्त० १४० " " १४१ , " ५४२ , " १४३ , , १४४ , " १४५ " १४६ , , ८ शाति जिनेसर वीनति ७ मन रा मानीता साहिब व छित १७६ ११ सोलम सतीसर राया रे १७७ ६ समकित दायक सोलमा रे १७८) ७ पूरउ म्हारा मनड़ा नी आस रे १७४ ७ अचिरा नदन चदन सारिखउ १८० ७ शाति जिणेसर साहिबा साभलउहो १८१ ६ मोहन मूरति शाति जिणेसर १८२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ , १४८ , , मल्लिनाथ १४६ मल्लिनाथ स्तवन ( ६ ) ४० गुण गरुअउ प्रभु सेवीयइजी ६ शाति जिणेसर राया हुं तो० १८३ १८८ ७ मल्लि जिणेसर वाल्हा उपगारी १८८ नेमिनाथ १५० नेमिनाथ स्तवन २१ नयण सलूणा हो साहिब नेमजी १६० १५१ " " ७ श्री नेमीसर स्वामी । ११२ १५२ , , ५ आज सफल अवतार , १५३नेमिराजिमती ,, ७ ऊभी राजलदे राणी अरज कर छ.१६४ __ १५४ , " " ६.पथीयड़ा कह रे सदेशड़ो १६५ १५५ १, ५ जब म्हारो साहिब तोरण आयो १६६ २५६ ,, , १ काई रीसाणा हो नेम नगीना -१६७ १५७ , ५ नाहलिया निसनेह कि पाछा किहा १६८ २५८ नेमि राजिमती गीत ६ वीनवइ राजुल बाल वीनतडी अ० १६६ १५६ नेमिनाथ लेख गीत ३६ स्वस्ति श्री जिन पय-प्रणमी करी २०० १६० नेमि राजिमती गीत ७ स्यु कीधउ इणि जादवइ २०३ १६१ . , , ५ नेमि काइ फिरि चाल्या हो २०४ १६२ . . , , ६ राजुल विनवे हो राजि २०५ २६३ ', ८ राजुल कहे रागइ भरी २०६ १६४ , ११ होजी रथ फेरि चल्या जादुराइ २०७ १६५ , बारमासा १५ वैसाखा वन मोरिया , १६६ , , १३ राणी राजुल इण परि वीनवे २८६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) २१७ १७५ १६७ १२ सावण मास घनाघन वास २११ १६८ १५ कहिजो संदसो नेम नै १६६ १६ सरसति सामिणी वीनवू २१५ १७० राजुल , , २५ पीउ चाल्यो हे पदमणी पार्श्वनाथ१७१ प्रभातवर्णन पार्श्व स्त० ३ जागो मेरेलालविशालतेरे लोयगा २२२ १७२ पार्श्वनाथ स्तवन ७ अमल कमलदल लोयणा हो २२३ १७३ " ५ माहरा मननी वातड़ी जी २२४ १७४ , , ५ मूरति मोहणगारी दिट्ठां आवे दाय२२५ ७ मनना मानीता हो साहिव साभलउ २३५ १७६ , , ७ सखीरी भेट्या मइ जिनवर आजो २२३ ७ सखीरी भै १७७ , ७ मनरा मान्या साहिब मोरा २२७ १७८ पार्श्वनाथ स्त० ७ भावइ पूजउजी, दोहीलउ नरभव २२८ १७६ ,, (सखेसर) स्त० ७ वे कर जोडी साहिवा अरन करूंछ २०६ १८० , ५ सहीयर टोली भांभर भोली २३० १८१ , ५ श्री पास जिणंद जुहोरीयइ २३० १८२ , ५ श्री पास कुमर खेलइ वसंत २३१ २८३ , ३ मोरी वीनती एक अवधारउजी २३१ १८४ , (सखेश्वर ) ७ सदा विराजै सामि संखेसरो रे २३२ ४ उछरंग सदा आज हुआ आणदा २३३ १८६ ७ वयण अम्हारोलाल हीय. धरीजे २३४ १८७ , १० साहिबाजी सुगुणा सनेही पासजी २३५ १८५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ १८६ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ २०१ २०२ २०३ २०४ 33 २०५ २०६ २०७ २०८ २०६ २१० 39 139 41 "" " " " 13 " 11 33 " " 35 १६७ १६८ पार्श्वनाथ स्तवन रहह २०० ? 23 35 11 33 " 39 39 39 " 11 " 35 ر, " 35 34 37 ८ " 36 " " " : 99 -99 39 " 39 पंचासरा ( ११ ) ७ अंतरजामी साहिब मोरा ११ माहरी करणी सुगति हरणी ६ भयभंजण श्री भगवंत जी २३६ २३८ २३६ ८ पास जिणेसर वीनतीरे मनमोहना २४० ७ सुंदर रूप अनूप मूरति सोहइ हो २४१ ६ था नइ वीनती करा छा राज २४२ २४३ २४३ २४४ ७ मुखड़ दीठ हो ताहरू पास जी २४५ ७ म्हारा साहिबा सुण मोरी वीनती २४६ ७ मन उमाउ माहरउ रे काइ २४७ ७ वामानदन वीनवु रे ८ परम पुरुप प्रभु पूजीयइ रे लो ७ पास जिणेसर तु परमेसर ५ भगवंत भजउ सगला भ्रम भाजइ २४८ ५ आज सफल दिन माहरउ २४८ ७ म्हारउ मनडर मोह्यउ बासजी २४६ २५० ५ सकल मंगल सुख संपदा रे १२ सुणि सोभागी साहिब रे लाल २५१ ७ सुगुण सनेही साहिब सांभलि २५२ ७ मनरा मानीता साहिब पास ८ परम सनेही पास आज सफल अवतार पाटण पास पंचासरा ५ प्राण सनेही प्रीतमा २५३ २५४ २४५ २५३ २५६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ " " ५ मोहन मूरति जोवता रे २५७ २१२ , सम्मेतशिषर ६ तुहि नमो नमो सम्मेतशिखरगिरिहि २५८ (स० १७४४ चै० सु० ४) २१३ , वृहद्छदफलोदी ४० जपि जीह सरसति सुरराणी २५८ । (पद्याक २० वा त्रु०) २१४ , ८ दरसण दीजो आपणो हूं वारी २६३ २१५ , , ८ दरसण दीठौ राज रौ सामलिया २६४ २१६ , , - ८ (त्रुटित) आज सफल दिन माहरो २६५ २१७, (संखेश्वर) ८ सकल सुरासर सेवइ पाय २६६ २१८ पार्श्व (संखेश्वर) स्त० ५ अतजामी सुण अलवेसर २६७ २१६ , , १४ वाणारिसी नगरी भली २६७ २२० , , ७ सदा विराजे साम संखेसरै २६६ २२१ कापरहेडा पार्श्व वृद्ध स्त० ११ वालेसर सुण वीनती हो (सं० १७३५) २७० । ७ तें मन मोह्यो माहरोरे २७२ ७ मोरा लाल अंग सुरगी० - (१७२७) २७३ २२४ गौड़ी पार्श्व स्तवन - पिया सुदर मूरति गुणसरी २७४ २२५ , श्री गोडीचा पास जी २७५ २२६ , , ७ ते दिन गिणस्युं हुँ तो लेखइ २७६ २२७ , . ......, ५ गुणनिधि गोडी पास जी २७७ २२८ , . , . ५ श्री गोडीचा पास हारे २७८ २२२ " २२३ १५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) २६० २२६ वाडीपुर (लि.) , २५ साइ धण कहै करजोडि २७१ २३० " " ७ मनमोहन मूरति जोवता २८२ । २३१ ,, ७ आज नइ मइ भेट्या हो २८३ २३२ चिन्तामणि पार्श्व स्तवन ___ ७ मन मोहयं रे श्रीचिंतामणि २८४ ___ २३३ विजय, विजय चिंता०पास जुहारियइ२८५ -- २३४ कलिकुड १२ श्री कलिकुड जुहारियइ २८६ __२३५ अजाहरा ७ पो दसमी दिन जाया २८७ २३६ पचासरी , . , १३ परम तीरथ पचासरउ २८८ २३७ चारूप ७ श्री चारूपइ पास जी २३८ भटेवा पार्श्व स्त० ७ मूरति प्रभुनी सोहइ २६० २३६ कमारी" "ह कंसारी पार्श्व अरज सुणउ २६१ ०४८, नारगपुर" " ७ श्री नारगपुर वर पास जी २६२ २४१ " " ७ मुरति तेरी मोहनगारी २४२ नवलखा पार्श्व " ५ साहिवा वेकर जोड़ी वीनवं २६४ २४३ नीवाज " .” ७ नयर नींबाजइ दीपतउ रे २६४ २४४ अठ्ठातर सो” ” ७ श्री खंभाइत पास नम सदा २६५ २४५ दशभवगर्भितपार्श्वस्त०५० पोतनपुर रलियामणुरे लाल २१७ २४६ पार्श्वनाथ दोधक छत्तीसी ३६ पासचरण चितलाइ ३०२ २४७ पार्श्वनाथ वारहमास १३ श्रावण पावसऊलस्योसखी ३०६ २४८ पार्श्वनाथ घग्घर नीसाणी २८ सुखसंपतिदायकसुरनरनायक३०६. महावीर२४६ महावीर जिन स्तवन । त्रिभुवन रामा चौबीसम जिनचंद ३१५. २६३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] २५० " " १६ सुणि जिनवर चवीसमाजी ३१६. चतुर्विशति जिन२५१ चतुर्विशति जिन स्तवन ११ रिपभ अजित अभिवदीयइ ३१८ २५२ ” बोधक नमस्कार २५ श्री नाभेय नमुं सदा ३१६ २५३ चौवीस जिन स्तवन १३ प्रथम जिणेसर रिषभनाथ ३२१ २५४ चौवीस जिन २० विहर० ४ शास्वत जिन स्तवन १३ रिषभनाथ सीमधर स्वाम ३२४ २५५ वौवीस जिन स्तवन ७ पहिलउ प्रणमुं आदि जिणद ३२५ २५६ " " २८ चउवीसेजिनवर ना पायनमु३२६ २५७ " स्तुति ४ जप रे तुं चउवीसे जिनराया ३२६२५८ चौवीस जिन स्तवन १३ पहिलो आदि निणंद ३३० २५६ श्री सीमधर स्त० ५श्री सीमंधर साहिवा - ३३२ २६० " " . ५ पूर्व विदेह पुखलावती ३३२ २६१ " " १५ चादलियासंदेशोजिनवरने कहै रे ३३३ ११ श्री सीमंधर सांभलउ ३३४ २६३ " १३ सामि सीमंधर मोरइमनवस्यउजी३३५ २६४ " " १३ आज मनोरथ फलिया .३३७ २६५ विहरमान नाम स्त० ६ सीमंधर पहिलउ जिनराय ३३८ २६६ " जिन स्त० १३' विहरमान प्रणमैं मन रंगइ ३१ २६७ जिन स्तवन ४ भजि भजि रे मन तु दीन दयाल ३४० २६८ सिंधीभापा मय गीत ५ तं मैंडा पीउ साजना वे ३४१ पद संग्रह-- ... २६ विमलाचल ऋषभ० ३ लागइ २ हो विमलाचल नीकउ ३४२ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० " . . " ३ सखी री विमलाचल जाणुजइयइ३४२ २७१ नेमि राजुल० ३ नेमि काहेकु दुख दीनउ हो ३४३ २७२ " " ३ पियाजी आइ मिलउ एक वेर ३४३ २७३ " " ३ पावस विरहिणी न सुहाइ ३४३ २७४ राजुल विरह ३ सखी री चदन दूर निवार ३४४ २७५ " " ३ मोपे कठिन वियोग की ३४४ २७६ . " ३ सखी री घोर घटा घहराइ ३४५ २७७ " ३ अब मइ नाथ कबइ जउ पाउं ३४५ २७८ ३ काहु सु प्रीति न कीजइ ३४५ । २७६ महावीर गौतम ३ हो वीर, काहे छेह दिखायउ ३४६ २८० जिन दर्शन ३ सखी री, आज सफल जमवारउ ३४६ २८१ जिन पूजा ३ जिनवर पूजउ मेरी माई ३४७ २८२ प्रभु भक्ति ३ प्रभुपद पंकज पाय के ३४७ २८३ " ३ भविक मन कमल विवोध दिणंदा ३४७ २८४ प्रभु शरण ३ प्राण पियाके चरण शरण गहि ३४८ २८५ प्रभु बीनति ३ जिनवर अव मोहि तारउ ३४८ २८६ जिन वीनति ३ जिणदराय हमकु तारउ तारउ ३४६ २८७ " ३ कृपानिधि अब मुझ महिर करीने ३४६ २८८ " ३ जगत प्रभु जगतनकउ उपगारी ३४६ २८६ प्रभु वीनति ४ अवतउ अपणइ वास बसउ ३५० २६० जिनेन्द्र प्रीति प्रेरणा ३ मन रे प्रीति जिणंद सू कीजे । २६१ निरंजन खोज ४ खोजे कहा निरंजण बौरे ३५१ २६२ प्रबोध ३ ऊठि कहा सोइ राउ ३५१ ३५० Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ૩ चार मंगल २६४ प्रथम मंगल गीत २६५ द्वितीय २६६ तृतीय " २६७ चतुर्थ २६८ ऋपि बत्तीसी २६६ गौतम पंच परमेष्टि २४ जिन छप्पय 35 35 23 " 32 37 "" ३०० वीश स्थानक स्त० ३०१ मौन एकादशी स्त० ३०२ गौतम स्वामी पचीसी ६ सुखकरण दुखहरण ११ श्री वीर जिणेसर भापइ २४ सयल जिणेसर पायनमी २५ धण पुरगुव्वर गाम ३०३ गौतम स्वामी छंद १ नामे नवनिधि होय ( २६ ) ३ जीवन ज्यु ३०४ ३०५ सुधर्म स्वाध्याय ३०६ ग्यारह गणधर ३८७ ३०८ श्रुत केवली पढ ३०६ स्थूलभद्र स्वाध्याय " ३१० वारामासा " ३११ ३१२ ५ प्रथम मंगल मन ध्याइये ५ बीजउ मंगल मनि धरउ ५ हिवइ तीजउ मंगल गाईयइ ५ चउथउ मगल नित नमुं ३२ अष्टापद श्री आदि जिणंद स्वाध्याय १५ मन मंत्रित कमला आइ मिलै ७ वीर तणउ गणधर पटधारी चउमासा नदी नीरजात है अयाण २३५२ 27 पद ८ गणधर ग्यारै गाइयै ४ प्रातसमें उठी प्रणमीयै ३५३ ३५३ ३५४ ३५५ ३५५ ३७७ ३७८ ३७६ ५ श्रुत केवली नमुं प्रहसमे ३७६ ६ पिउडा आवो हो मन्दिर आपण ३८० १६ श्रावण आयड वालहा १४ प्रथम प्रणमु मात सरसत ५ श्रावण आयउ साहिबा रे ३५६ ३६१ ३६३ ३६८ ३७५ ३७५ ३८१ ३८२ ३८६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ३१३ ” गीत ११ भलै ऊगउ दिवस प्रमाण । ३86 ३१४ दादाजी(जैतारण)गीत ७ मनडो उमाह्यो दादा माहरउः ३६३ ३१५ जिनकुशलसूरि गीत : सद्गुरु सुणि अरदास हो दोनो स० १७३५ लि०] ३६४ ३१६ श्री गणेसजी रो छेद २६ संपति पूरै सेवा - ३६५ ३१७ देवीजी री स्तुति ११ पारंभ करी परमेसरी ३६८ ३१८ वर्षा वर्णनादि कवित ५ प्रथम तपइ परभात, मेह के कारण ४०१ सिंह के कोन सगा० काहे कं मित्त ज्य प्रीति० गोरउ सो गातक शृंगारो परि सवैया० जा के आछे तीछै० ३१६ दुर्जनो परि० . २ नयन कं देखी० जात छुटे भयप्राण०४०२ ३२० सगासज्जनोपरिकवित १ सरवर जल तरू० ४०३ ३२१ पनरहतिथ रा सवैया ५५ आज चले मन मोहन कत ४०३ ३२२ राग करण समय कवित्त २ रसिक हीडोल राग ४०७ ३२३ प्रेम पत्री रा दूहा , १०६ स्वस्ति श्री प्रभु प्रणामीये ४०८ । . , . . . (दो० १०२-५ त्रु.) ३२४ फुटकर दोहे' १०र्चित चिंते काइ वात ४१८ ३२५ प्रहेलिकाएं (8) इनर एको निकलंक ४१६ ३२६ वरसात' राहा. २० मनड़ी आज उमाहियो , ४२२ ३२७ फुटकर कवित्त: १ पचम प्रवीण वार . . ४२४ ३२८ सतयुग के साथ गये १ रयणि खाण नहीं काय, ४२४ ३२६ सुदरी स्त्री - १ संदर वेस लवेस अनौपम ४२५ ३३० राधाकृष्ण ! ., .. १ उमटी घन घोर घटा कि । - ४२५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) ३३१ यौवन १ जोवन मे राग रंग ३२५ ३३२ रागिणी स्त्री १ लोयण भरि निरखंत ४२६ ३३३ उरसीउ २ उरसीउ आणि हे सखी ४२६ ३३४ मानिनी वर्णन ३ महल्लाँ मालिया ४२६ ३३५ नंद बहुत्तरी दो० ७२ सवे नयर सिरि सेहरो ४२६ ( स०१७१४ काती वील्हावास ) ३३६ चौवोली कथा २१ सभा पूरि विक्रम्म ३३७ कलियुग आख्यान सतयुग मा वल राजा थयो ४४२ सज्झाय संग्रह ३३८ रहनेमि राजिसती गीत : नेमभणी चाली व दिवा हो लाल ४४७ ३२ह ढंढणकुमार सज्झाय ६ ढंढण रिपि ने वंदणा हुं वारी ४४८ ३४० चिलाती पुत्र-, ३० साधु चिलातीपुत्र गाईयइ ४४६ ३४१प्रसन्नचंद्र रानर्षि, ७ जी हो राजगृह पुर एकदा जी ४५२ ३४२ हरिकेशी मुनि ,, १६ हरिकेशी मुनि वंदिये . ४५३ ३४३ मेतारज मुनि , ह श्रेणिक राजातणो रे जमाई ४५५ ३४४ काकंदी धन्नर्षि., वीर तणी सुणि देसणा ४५६ ३४५ गजसुकमाल , ८ गजसुकमाल वइरागीयउ ४५७ ३४६ अरहन्नक मुनि ,, , १५ विरहण वेला हो रिषिजी पागर्या ४५८ ३४५ नंदिषेण मुनि ॥ ११.विरहण वेला पागुर्या रे हा ४५६ ३४८. सती सीता , जलजलती मिलती घणी रे लाल ४६१ ३४६. , धीज करे पावक नउ जानकी ४६२ ३५० सुभद्रा सती , १६ सील सलूणी सुभद्रा सती रे ४६३ ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ३५१ नवग्रहगभितमदोदरीवाक्य १४ जिणि आदी तम्ह सीखड़ीजी४६४ ३५२ पच इन्द्रियां री समाय ६ काम अंध गजराज ३४३ परनारी त्याग गोत ११ सीख सुणो प्रोउ माहरी रे ४६७ ३५४ माया स्वाध्याय ६ माया धूतारि मोह्या मानवी रे ४६८ ३५५ जीव प्रबोध स०५ सुणि रे चचल जीवडा ४६ ३५६ चतुर्विध धर्म स० ६ जीवड़ा कीजे रे धरम सुंप्रीतड़ी ४७० ३५७ पच प्रमाद स० ७पंच प्रमाद निवारउ प्राणीवेगलारे४७० ३५८ आत्म प्रबोध स० १० सुणि प्राणी रे तुझ कहुंइक बात ४७१ ३५६ जीव, काया स० ८ काया कामिणि वीनवे जी ४७२ ___३६० नारी प्रीति स० १४ मन भोला नारि न राचिये रे ४७३ _ .३६१ काया जीव स० १२ काया सलूणी वीनवे ४७५ ३६२वारहमासग०जीवप्रबोध १३ चेत रे तुचेत प्राणीम पडिमाया०४७६ ३६३ पनरह तिथि स० १६ पडिवा दुर्गति वाटडी रे ४७८ ३६४ तेर काठिया स० १५ सांभलि प्राणी सुगुण सनेह ४७६ ३६५सामायकबत्तीसदोषसह सामायक नो दोष बत्तीस ४८१ ३६ तेतीसगुरुआसातनास०१६ गुरू आसातन जाणिवी ४८२ ३६७ सम्यक्त्व स्वाध्याय ११ सांभलि तु प्राणी हो मिथ्यामति० ४८४ ३६८ सम्यत्व सत्तरी २+७० एको अरिहंत देवसाभलिरेत पणीया४८५ (स० १७३६ श्री. सु० ७ पाटण) ३६६ सुगुरु पचीसी... २५ सुगुरु पीछाणउ इण आचरणे ४६३ ३७० कुगुरु पचीसी २५ श्री जिन वाणी हीयड़े धरे १६५ ३७१ नववाड़ समाय ६८ श्री नेमीसर चरण युग ४६८ ( स० १७२६) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ३७२ मेघकुमार चौढालीया ४३ श्रीजिनवर नारे चरण नमी करी ५०८ ३७३ पचम आरा सज्झाय २४ वीर कदै गौतम सुणो ५१३ ३७४ श्री राजीमती ,, ५ काइ रीसाणा हो नेम नगीना ५१५ ३७५ गजसुकमाल , १४ वासुदेव हेव उच्छव करें ५१६ ३७६ परस्त्री वर्जन ,, ११ सीख सुणो पिउ माहरी रे ३७७ छप्पय २ हरखे किस्युं गमार ५१६ ३७८ श्रावक करणी २२ श्रावक ऊठे तु परभाति ५२० कविवर जिनहर्प गीतम् १२ सरसति चरण नमी करी , , ११ श्री जिनहर्ष मुनीश्वर वंदीइ ५२४ देशी सूची ५२५ ३७६ नेमि राजुल वारहमासा १२ ५२३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी श्री ऋषभ-जिन-स्तवन राग-ललित देख्यौ रे ऋषभ जिणंद तव तैरे' पातिक दूरि गयौ । प्रथम जिणंद चंद कलि सुरतरु कंद, सेवे सुरनर इंद आनंद भयौ ॥१॥दे०॥ जाकी महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार, कोऊ न लहत पार जगत नयौ । पंचम अरै में आज जागे ज्योति जिनराज, भव सिंधु को जिहाज आणि के ठव्यो ॥२॥दे.॥ बण्यो अदभुत रूप मोहनी छवि अनूप, धरम को साचौ भूप प्रभुजी जयौ । कइइ जिन हरखित नयण भरि निखित, सुख घन वरपित इलि उदयौ ॥३॥दे.॥ . श्री अजित-जिन-स्तवन राग-वेलाउल मेरो लीन भयो मन जिन सेती । । उमगि उमगि मग चलत सनेही, १ मेरो, २ कयौ, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली निशदिन ऊठि करण जेती ॥१॥मे.।। कूरम नयण निहारो प्रभुजी, करू चीनति हूँ' केती। अपणो जानि आणि मन करुणा, अरज सुणौ मेरी एती ॥२।।मे।। ज्ञान भोर प्रगव्यी घट भीतर, अब मेरी मनसा चेती । कहै जिनहरख अजित जिनवर कु, निकट राखि मांजउ छेति ॥३॥मे.।। श्री संभव-जिन-स्तवन राग-पागावरी बहुत दिनां थी मैं साहिब पायौ, माग बड़े चित चरणै लायौ ।.। पूरब भव सब पाप खपायो, __सभरण आगैचांणी आयौ ॥१॥३॥ रसना रस बसि जिन गुण गायौ, नयन वदन देखत ही सुहायौ ।व.। श्रवण सुयश सुणि हरख बढायौ, कर दोऊ पूजन प्रेम सवायौ ॥२॥व.॥ १ अव. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौत्रीशी तैं मेरो मन छिन में छिनायौ, सो फिर मेरे पास नायौ । व. । शा पूरण विरुद कहायौ, कहै जिनहर संभव जिन मायौ ॥ ३ ॥ . ॥ श्री अभिनन्दन - जिन - स्तवन राग - सामेरी मेरो एक संदेशो कहियौ । पाड़ पर मन वीर वटाऊ, विच में विलम्ब न रहीयौ ॥ १ ॥ मे. ॥ खूनी खून घणा मंई कीना, सुप्रसन्न होड़ कै सहयौ । निगुणौ तो पण तेरो चेरौ, मोकु ले निरवहीयौ ॥२॥ मे. ॥ भव सायर में है जेहूँ, करुणा करि कै' गहियौ । अभिनन्दन जिनहरख सामेरी, आरति चित्ता दहीयाँ || ३मे. ॥ श्री सुमति - जिन - स्तवन राग - वैराडो समरि समरि सुख लालची मर्ना । १ कर my Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली जाकै नाम होइ साता, अन्तर जामी विख्याता, सुमति को दाता भलो सुमति जिनां ॥१॥स.॥ पंचम जिणंद नीको, सिद्धि वधू सिर टीको, जग यश प्रभुजी को, त्रय भुवनां । एक तूं मेरइ आधार, कहा कहूं वारवार, सार करि करतार, लेखवि के अपना ॥२॥ जिंद ते अधिक प्यारो, जाको नाम मंत्र झारौ, भुजंग संसार चारौ, दूर दुख हरनां । कहै जिनहरख सु, प्रभु के निकट वसु, वैरादि के राग नसु, मेरे कोऊ कामनां ॥३स.॥ श्री पद्मप्रभु-जिन-स्तवन राग-कन्हरी पदम प्रभु सूरति त्रिभुवन मोहै। नयन कमल अणियारे ता विच, तारिका सिली मुख सोहै ॥१५॥ वदन चंद अमित गुण मंगल, सोह अधिक अधिरोहै। भाव भगति इक चित देखत ही, कामदुधा परि दोहै ॥२५॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी तू सब जा अन्तर गति की, मेरे मन में जों है । पर उपगारी साहिब समवरि, कहै जिनहरख न कोहै ॥ ३५ ॥ श्री सुपार्श्व - जिन - स्तवन राग-केदारी दोह कर जोरि रज करु अरिहंत । श्रागम वचने न चल्यो जे है, तरिहुं क्युं भगवंत || १ दो ॥ धरम कौ मरम न पायौ इतना, दिन ति भमही भमंत । दुख पायौ प्रभु चरणै आयो, व तारो गुणवंत || २दो॥ सांमि सुपास महिर करि मुझ सुं, तुम हौ चतुर अनंत | कहै जिनहरख भवो भव संचित, के दारुण दुःख जंत ||३दो. ॥ श्री चन्द्रप्रभु - जिन - स्तवन राग-नट्टी देखेरी चन्द्रप्रभु मैं चंद समान । 'जा तन की छवि शीतल अनुपम, ५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली _ चित चकोर सुख दान ॥१दे.।। यह अधिकाई घटत न कबहूँ, वढत ज्योति असमान । पाप तिमिर चूरन निकलंकित, मदन विरह अपमान ॥रदे.॥ दुई पख पूरण अस्तंगत कर, होइ न कला निधान । कहै जिनहरख ईश नट नागर, करत सदा गुण गान ॥३दे.॥ श्री सुविधि-जिन-स्तवन राग काफी । मेरा दिल लगा सांई तेरा नाम सुं। और कछु न सुहाये मौक, चित्त न लागै काम सु॥१मे.॥ राखि राखि निज शरण साहिब, चीनती करसोरा खाम सु। झटकि छुराइ पाय पर अब, जनम जरा दुःख वाम सुनारमे।। एक त ही आधार जीड़का, चाह वरु गुण ग्राम मुं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी सुविध नाथ जिन हरख प्रभु मोहि, दीजै शिव सुख माम सु ॥३॥ श्री शीतल-जिन-स्तवन राग-तोडी जब तै मूरति दृष्टि परी री। कूर कहुँ तौ तेरी ही सु, तव तैं छतियां मेरी ठरी री ॥१ज.॥ नयन न अटके रसिक सनेही, __ हटकै न रहै एक घरी री। अनमिष देखि रहै प्रभु सूरति, सुधि बुधि मेरी सहु विसरी री ॥२ज.॥ तुझ सुनेह लग्यो-दिल' भीतर, . और वात दिल तें उतरी री। कहै जिनहरख शीतल जिन नायक, ... तू है मेरे जिइ की जरी री ॥३ज.॥ श्री श्रेयांस-जिन-स्तवन राग-गूजरी मेरौ मोह्यो श्रेयांस जिनवर । देखत ज्योति होत मन सुप्रसन्न, १ सुधरी, २ उर अतर,। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ St जिनहर्ष - प्रन्थावली रूप यति सुन्दर ||१ मे. ॥ भूले भरम परे उनमारग, भेद न पावै जे नर । कंचन तजि कै पीतल' लेहै, न भजड़ जे सुरवर || २ मे. || हाजर सेव करै सुर सुरपति, गावै मिलि मिलि पछर । सेवक सनमुख देखौ साहिब, कहै जिनहरख निजर भर || ३ मे. || श्री वासुपूज्य - जिन - स्तवन राग - मारू वासपूज स्त्रांमी सेती, जो मै नेह न मंड्यो री माई वा. तौ मोकु व करुणासागर; निज हाथन सु छंड्यो री ॥१मा.वा. ॥ नव नव वेष धरी चौगति में, बहुत भांति करि मंच्यौ री । कब ही राज रंक भयौ कवही, वही भेप त्रिदंड्यौ री ॥२मा. वा. ॥ हूँ तेरे चरणै आयौं, १ पातर । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीशी जामन मरण विहंड्यौ री। कहै जिनहरख स्वामि सुप्रसन हुइ, मेरो पातिक खंड्यौ री ॥३मा.वा.।। ___ श्री विमल-जिन-स्तवन राग कल्याण प्राण धणी सुप्रीति बणाई । तन मन मेरो अरस परस भयो, जैसे चंबुक लोह मिलाई ॥१प्रा.।। कोरि भांति करै जो कोऊ, तो भी प्रभु सुनेह न जाई। अंगि अंगि मेरै रंग लागौ, चोल मजीठ की भांति दिखाई ॥रमा.। और नाह न धरु सिर ऊपर, और मोहि देखे न सुहाई। विमल नाथ मुझ सेवक जाण्यौ, . तौ जिनहरख नवे निध पाई ॥३प्रा.।। श्री अनन्त-जिन-स्तवन राग-सोरठ मैं तेरी प्रीति पिछाणी हो, मैं० मनकी बात कही तुझ आगै, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली तो भी महिर न आणी हो ॥१मैं।। हिरदै नाम लिख्यौ मति गहिले, डरपुं पीवत पाणी हो ।मैं। आव न आदर करहुँ न पायौ, ऐसी मुहब्बत जाणी हो ॥२में.।। सुपने ही ते दरसण न दीयो, अब तूटेगी ताणी हो मैं.। कह जिनहरख अनंत प्रभु मोकुं दीजै निज सहिनाणी हो ॥३॥ श्री धर्म-जिन-स्तवन राग-पूर्वी गौड़ी अब मेरो मनरौ प्रभुजी हर लीनौ । सिर पर भुरकी प्रेम की डारी, मानूं काहु नै कामण कीनो ॥१प्र.।। गति देखि मोहनी लागी, रोम रोम माई से भीनी । धरमनाय देसत दृग शीतल, भए जांणि अमृत रस पीनौ ॥२.।। सब नायर में भरना मेरे, लागौ हाथ नगीनौ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौचीशी मन कौ मान्यौ सैंण सनेही, जिन - हरख सगीनौ ॥ ३ प्र . ॥ श्री शान्ति - जिन - स्तवन राग - सारंग मल्हार जाति कैसे करि पहुँचाऊ संदेश | जिन देसन निवसै सोलम जिन, जाय न को तिण देस ॥ १ कै . ॥ पंथ विषम विषमी है धरणी, घ घाट विशेस | कहै न कोऊ सिलाम' न वतियां, ताथै बहुत देस ॥ २ कै ॥ यही लाख पौण दिशि, करिहुं चित्त प्रवेश | जौ कबहु जिनहरख मिलै प्रभु, जब करु मन पेस ॥ ३ कै ॥ श्री कुंथु - जिन - स्तवन राग - खभायती मन मोहन प्रभु की मूरतियां । निरखि निरखि नयनन सु अनुदिन, कुसलात न वतीये 1 G ११ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली ___ हरखित होत मेरी छतियां ॥१मन.।। अंतर जामी अंतर गति की, जाणत है मेरी नतियां । कछु इक महिर करौ दुखियन सु ध्यान धरूं वासर रतियां ॥रम.॥ और किसी की चाह धरूं नहीं, दरशन देहि भली भतियां । कुंथुनाथ जिन हरख नामि सिर, जोरि कमल करि प्रणमतियां ॥३म.॥ श्री अरि-जिन-स्तवन राग-परजयो कहि कहि रे जिउरा प्रभुजी आगे, अपने मन की चोरी रे। साच कहत कोउ कबहुँ न मारे, कूर कपट सब छोरी रे ॥१क.॥ आगे भी इण बहुत निवाजै, अपराधी लख कोड़ी रे । रीस न आणे काह ऊपरि, - जिण तामुदिल जोरी रे ॥२क.।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चौवीशी ज्यु' तौकु' भी महिर करैगो, तारैगो भ्रम धोरी रे | कहै जिनहर से रि साहिब, राखैगौ पति तोरी रे ॥ ३क. ॥ श्री मल्लि जिन स्तवन राग - मालवी गोडी मल्लिनाथ निसनेही निरंजन, कैसे करियै प्रीती रे । कहै न किसी बात दिल की, कठिन जाकौ चीत रे ॥ १म. ॥ दिल साच सौ दिल साच राखै, एह जग की रीति रे | एकंग कैसे नेह निवहै, समझ देखो मीत रे ॥ २म. ॥ दीप देखि पतंग जरि है, मच्छ जलधर नीत रे । भांति प्रभु जिनहरख एैसी, मांजि है क्युं सीति रे ।। ३म. ॥ १ त्यु । १३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जिन हर्ष - ग्रन्थावली श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन राग - विहागरौ ऐसौ प्रभु सेवो रे मन ज्ञानी । घट घट अंतर जिन लय लाइ, आप रह्यौ ठौर छानी रे, शुद्ध ध्यानी ॥१ऐ . ॥ काहू क्रू दे सुखियन कीनौ, कहियतु है बड़दानी रे शुद्ध ध्यानी । किस ही कुळ हसि बात न बूझै, मन वालो अभिमानी रे शुद्ध व्यानी ॥ २ऐ . || तीन लोक में प्रभुता जाकी, रिकनै सहकांनी रे शुद्ध ज्ञानी ॥ कहै जिनहरख स्वामी मुनिसुव्रत, छै अपनी राजधानी रे शुद्ध ध्यानी ।। ३ऐ. || श्री नमि जिन स्तवन राग-गौडी aar मैं नमि नाथ निहार्यो । देखत ही रोमाञ्चित तनु भयौ, जाए कि अमृत रसभरि ठार्यो || १ नै . ॥ सुरतरु यम सुख पूरण साहिब, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी अघ घन मेरो दुरि मार्यो। - सूरति मूरति देखि सलूणी, सो मन थै क्यु जात विसार्यो ॥२॥ तारण तरण जिहाज जगत गुरु, ___ मैं मेरै मन मांहि विचार्यो । परम भगत जिनहरख कहत है, प्रभु दरसण आपौ निस्तार्यो ॥३नै.।। श्री नेमि जिन स्तवन राग-वसत बलिहारी हुँ तेरे नाम की । नाम लैण की मैं हर कीनी. और किसी की चाह न की ॥१५.।। भव सागर तरणे कुंतरणी, जम भय से मैं प्रोट तकी । निस्तारण को कारण यौ ही, दुःख कण चूरण नाम'चकी ॥२व.॥ नाम लिए सोई नर जीए, नाम वस्तु सब मांहिज की । कहै जिन हरख नेमि यदुपति, नाम लेत दिल मेरी छकी ॥३व.।। - १ काम Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली श्री पार्श्व जिन स्तवन राग-भैरव भौर भयौ उठ भज रे पास, जो चाहै तु मन सुख वास भो.। चंद किरण छवि मंद परी है, - पूरब दिशि रवि किरण विकाश ॥१भो.।। शशि तें वियत भए हैं तारे, निशि छोरत हैं पति अाकाश मो.। सहस किरण चिहुं दिशि पसरी है, कमलन के वन किरण विकाश ।।२भो.॥ पंखियन ग्रास ग्रहण कुँ ऊडे, तम चर बोलत है निज भास भो.। आलस तजि भजि भजि साहिब कुँ, कहै जिनहरख फलै ज्यु अाश ॥३भो.।। श्री महावीर जिन स्तवन राग-जयत श्री साहित्र मोरा हो अब तौ महिर करो, ___ आरति मेरी दूरि हरो (सा.। खानां जाद गुलाम जाणि के, मुझ ऊपरि हित प्रीति धरौ ॥१सा.॥ तुम लोभी हुइ बैठे साहिब, १ काम, २ प्रकाश, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी हुँ तौ श्रति लालची खरौ । सा. | तुम माज हूं तो भाजूं नहीं, भाव मुझ सुरौ ॥ सा. २ ॥ साहब गरीब निवाज कहावौ, हुँ नही भरौ डावरौ । सा. । वीर जिणंद सहाई जाके, कहैं जिनहरख सों काहि' डरौ || सा. ३ || = कलश = राग धन्याश्री जिनवर चउवीसे सुखदाई | भाव भगति धरि निज मन स्थिर करी, कीरति छन शुद्ध गाई ॥ जि. १ ॥ जाकै नाम कल्प वृक्ष सम वरि, प्रणमति नव निधि पाई । चौवीसे पद चतुर गाइयो, राग बंध चतुराई ॥ जि.२ ॥ श्रीसोम गणि सुपसाउ पाह कै, निरमल मति उर आई । शान्तिहर्ष जिनहर्षं नाम ते, stea प्रभु वरदाई ॥ जि. ३ || ॥ इति श्री चतुविशति जिनानां पदानि समाप्तानि ॥ १ कहरे । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली सं० १७३५ वर्षे माहं सुदी १४ दिने श्री बीकानेर मध्ये । वा. 1 श्री दानविनय गरिग तशिष्य मुख्य वा. गुणवर्धन गणि तशिष्य मुख्य वा. श्रीसोमगरिण तशिष्य मुख्य वा. श्रीशांतिहर्ष गणि, ततशिष्य मुख्य प. जिनहर्ष गणि तद्भातृ पं० शांतिलाम गणि, तभ्रातृ प० सौभाग्यवर्द्धन, तभ्रात पं० लाभवर्द्धन जो, भ्रातृ पं० सुखवर्द्धन, तत्शिष्य पं० दयासिंघ लिखितं । श्री बीकानेर मध्ये । पारख साह खेहसी जी . तत् पुत्ररत्न पारख साह नाबर जी, तत्पुत्ररत्न पारख साह पोमसोजी, तत् पुत्ररत्न पारख साह प्रतापसी, तत् पुत्ररत्न पारख साह प्रासकरण, तस्य भ्रातृ पारस साह सहसमल पठनार्थ लघुभ्रातृ अमरराज सहितेन श्री रस्तु ।। [ गुटका-प्रमय जैन ग्रन्थालय, नं० १६1] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. चौवीशी आदिनाथ-गीतम् राग-वेलावल रे जीउ मोह मिथ्यातमई, क्या मूभयउ अग्यानी। प्रथम जिनंद भजइ न क्यु, शिव सुप कु दानी ॥१२॥ अउर देव सेवइ कहां विषयी केई मानी। तरि न सकइ तारइ कहा, दुरगति नीसानी ॥२॥ तारण तरण जिहाज हह, प्रभु मेरउ ज्यानी । कहे जिनहरप सु तारि हइ, भवसिंधु सुन्यानी ॥३रे.॥ अजितनाथ-गीतम् राग-भैरव स्वामि अजित जिन सेवइ न क्यु प्राणी । जउ तु चाहइ शिव पटराणी स्वा.ना Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जिनहर्ष - प्रन्थावली उर सकल तजि कथा विराणी, निसिकरि प्रभुजी की कहाणी ॥। १ स्वा. ॥ भव वन सघन अनि प्रजलाणी, मिथ्यारज व्रज पवन उडाणी || स्वा. || जइसड़ तिल पीलण कु घाणी, तैस करम पीलण प्रभुवाणी || २स्वा. || क्रोध दवानल पावस पाणी, उज्जल निरमल गुणमणि खाणी ।। स्वा. || प्रभु जिन हरष भगति मन आणी, साहिब उ अपणी नीसाणी || ३ स्वा. || संभवनाथ - गीतम् राग-गौडी व मोही प्रभु अपणउ पद दीजड़ । करुणा सागर करुणा करि कह, निज भगतन की अरज सुणीजइ ॥ १८. ॥ तुम हउ नाथ अनाथ के पीहर, पणे जन भव त तारी जइ । तुम साहिब मई फिरु उदासी, तर प्रभु की प्रभुता क्या कीजड़ || २ || तुम हउ चतुर चतुर गति के दुप, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- चौवीशी ___ सो तनु मई अब सही नस कीजइ । -- संभव जिन जिनहरप कहे प्रभु, दास निवाजी जगत जस लीजे ॥३.॥ अभिनन्दन-गीतम् राग-नट मेरउ प्रभु सेवक कु सुपकारी । जाके दरसण वंछित लहीये, सो कइसई दीजइ छारी ।।१मे.॥ हिरिदइ धरीयइ सेवा करीयइ, परिहरि माया मतवारी। तउ भव दुप सायर तई तारइ, पर आतम कउ उपगारी ॥रमे।! अहसउ प्रभु तजि ान भजइ जो, काच गहइ जो मणि डारी । अभिनंदन जिनहरष चरण गहि, परी करी मन इकतारी ॥३मे.।। सुमतिनाथ-गीतम् राग-केदारउ जीउ रे प्रभु चरण चित लाइ । सुमति चितथरि सुमति जिनकु', Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली ___ मजन करि दुप जाइ ॥१जी. मोह माया जाल मे क्यु रह्य तु मुरझाइ । कंठ जम जब आइ पकरइ, काहु पई नर हाइ ।।२जी.।। भव अनंत दुप टारिवइ कु, करत क्यु न उपाइ । मुगतिकुजिन हरप दायक, अचल प्रीति वणाइ ॥३जी. पद्मप्रभु-गीतम् राग-कनडउ हो जिनजी अब तु महिर करीजे, निज पद सेवा दीजे हो जि.। दरसण देहु दयाल दया करि, ___ ज्यु धीटउ मन छीजइ हो ।।१जि.।। इकनारि धारी मड़ तुम, अपार करि जाणी जड़। अर गवई मुर नट चिट जाणे, निरपि निति मन पीजर जि.|| अन्तर जामी अन्तरगत की, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चौवीशी जाउ कहा कहीजे | पदम प्रम जिनहरप तुम्हारी, सोम नजर सु जीजइ || ३ जि. ॥ सुपार्श्वनाथ गीतम् राग—देवगन्धार कृपा करी सामि सुपास निवाजउ । तुम साहिब हुँ खिजमतगारी युतउ सगपण भाभौ ॥ १ कृ.॥ तुम ही छोरी अवर सुर ध्याउं, तउ प्रभु तुम ही लाजउं । भगत वछल भगतन के साहिब, ता कारण दुषभाजउं ॥ २कृ. ।। प्रभु मधुकर सब रस के नायक, हिरिदय कमल विराजउं । चरणसरण जिन हरप कीए मड्, भए निरभइ अब गाजरं | ३ | 1 चन्द्रप्रभु-गीतम् राम- सामेरी २३ चंद्रप्रभु अष्टकर्म क्षयकारी । आप तरे उरनकु तार, अपण्ड विरुद विचारी ॥१ चं ॥ जिन मुद्रा सुप्रसन प्रभुजी की, उलसत नईन निहारी । सुंदर सूरति मूरति ऊपरि, जाउं हु बलिहारी ॥२चं ॥ इसी तनकी छवि त्रिभुवन मइ, अउर किसी नही धारी । सास चरण जिनहरप न तजिहुँ, दुखीयनकु उपगारी ॥३चं ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिनहर्ष - ग्रन्थावली सुविधिनाथ-गीतम् राग- जइ जयंती नाथ तेरे चरण न छोरूँ । जो छुरावह तोड़ पकरि रहुँगर, जइसई बाल मा के अंचर | ना. | बहुत दिवस भए प्रभु के चरण लहे, अव त करण सेवा मन भया चंचरा । नाः। J कृपाजल सींचे दास वृद्धिवंत हुइ उलास उदकसु, सींचे जइस घड़ हड़ उदचरा ॥ १ना || सुविधि जिणंद गुणगेह न दिपावड़ छेह, सेवक निपर निज होइ जउ उछछरा | ना. | इस प्रभु पाइ कई चरण गहुं धाइ, कह उपाड़ जिनहरप हरप सुप संचरा || २ना || शीतलनाथ - गीतम् राग - माल सीतल लोयां हो जोवउ सीतलनाथ । ★ भवदुष ताप मिट सहु, थड़यड़ प्रभुजी सनाथ ॥१ सी. ॥ तुम्ह समरथ साहिब छतां हो, हुँ तर फिरूँ अनाथ 1 I सेवक सुप देता नथी, तर सीलही तुम प्राथि ॥२सी ना - Į 1 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी पोतानउ जाणी करी हो, घउ मुझ पूठइ हाथ । कहइ जिनहरष मिल्यउ हिवइ, साचउ सिवपुर साथ ॥३॥ श्रेयांसनाथ-गीतम् राग काफी श्रेयांस जिणेसर मेरउ अंतरजामी । अउर सुरासुर देखे न रीझु, प्रभु सेवा जउ पामी ॥१ ॥ रांकन की कुण आण धरइ सिरि, तजि त्रिभुवन सामी । दुपभाजइ छिनमांहि निवाजइ, शिवपुर धइ शिवगामी।२।। क्या कहीयइ तुमसु करुणा निधि, पमीयो मेरी पामी । कहइ जिनहरष पदमपद चाहुं । अरज करू' सिरनामी ॥३॥ वासुपूज्य-गीतम् राग-मल्हार हो जिनजी अब मेरइ पनि आई । अउर सकल सुर की सेवा तजि,इक तुझसुलयलाई॥१हो।। वासुपूजि - जिनवर विणु चितमइ, धारू तमा न काई । परम प्रमोद भए अब मेरइ, जउ तुझ सेवा पाई ॥रहो।।। त्रिभुवननाथ धर्यउ सिर ऊपरि, जाकी बहुत बड़ाई । हुँ जिन हरप अवर नहीं मागु, घउ भव पास छुराई।।३हो।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जिनहर्प-प्रन्थावली विमलनाथ-गीतम् राग - पुरवी गउउउ मेरु मन मोहा, प्रभु की मूरतीयां । सुंदर गुण मंदिर छवि देवत. उलसत हड़ मेरी छतीयां ॥१ मे. ॥ नयन चकोर वदन शशि मोहे. जातन जाणु दिनरतीयां । प्राण सनेही प्राण पीया की, लागत हइ मीठी वतीयां ॥ २ मे. ॥ अंतरजामी सब जागत हइ, क्या लिखि कइ भेजु पतीयां । / कहइ जिनहरप विमले जिनवर की, भगति करू हुं बहुमतीयां ॥ ३मे. || W अनन्तनाथ - गीतम् राग - परजीयउ वाल्हा थांरा मुखडा ऊपरि चारी । अरज सुणेज्यो एक माहरी, Pr कोई तुम न कहुँ छु विचारी ॥१ वा ॥ आठ पहूर ऊमऊ थकउरे, सेवा तमारी । अंतरजामी साहिबा, कांई लेज्यो “खबरी हमारी ॥ २वा. || करू M 4 " सुंदर सूरति ताहरी रे, लागइ पेम पीयारी 1 सात धात भेदी करी, कांई पड़ठी हीया मकारी ॥ ३वां ॥ 14 f Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 चौत्रीशी २७ } सामि अनंत तुम्हारडारे, गुण अनंत पारी । मुझ जिनहरप संभारी ज्यो, कांई मत मुकउ वीसारी ॥४वा. ॥ धर्मनाथ - गीतम् राग-वसत t भजि भजि रे मन - पनरम जिनंद, y छेड़े भव भव के निवड फंद भि. । जाकु सेवड़ सुरपति सुरनरिंद, पाम दरसण देख्यई याद | उलसे मन जइस चकोर चंद, काट दुप करम कठोर कंद ॥ १म. ॥ समकित दायक सुखनिधान, सब प्राणी कुं धड़ अभयदान | अगन्यान मह तेम उदय भान, ता प्रभु कउ धरीये रिदय ध्यान || २ || लहीये जाथ संसार पार, अविचल सुप संपति देणहार | 1 आधार नहीं ताकउ आधार, जिनहरष नमीजड़ वार वार ||३भ. ।। शान्तिनाथ - गीतम् राग - जइतसिरी प्यारु पेमकु, मेरउ साहिब हे सिरताज ॥ प्या. ॥ i Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जिनहर्प-ग्रन्थावली प्रभु दरसण मन ऊलसेरे, ज्यु केकी धनगाज । अउर सकल में परिहरे,मेरइ एक जीवन सुकाज ॥१प्या॥ प्रीतम आया पाहुणा रे, मो दिल मंदिर आज । भगति करुवहुं तेरीयां,अब छोरी सकल भइ लाजारप्या।। हिलि मिलि सुख दुखकी कहुँ रे, साहिब धइ सुखसाज । अंतरजामी सोलमउ, तासुप्रीति करू जसराज ॥३प्या।। कुन्थुनाथ-गीतम् राग-सोरठ. ग्यानी विणि किणि आगई कहीयइ, मनकी मनमें जाणी रहीये हो ग्या.। भूडी लागइ जण जण आगइ कहतां कोई न वेदन भागइ हो ॥१ग्या.॥ संगतइं अपणउ भरम गमावइ, साजन परजन काम न आवई हो ।ग्या.। दरजन होइ सु करिहइ हास. जाणी पर्या मुहुँ मांग्या पास हो ॥३ग्या.॥ ताथइ मुष्टि भली मन जाणी, धरि के धीर रहावर पाणी हो ।ग्या.। कहइ जिनहरप कहइ जो प्राणी, कुंथु जिणंद आगइ कहि वाणी हो ॥३ग्या।।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी अरनाथ-गीतम् राग-गूजरी अर जिननायक सामि हमारउ । आठ करम अरियण बलवंते, जीते सुभट करारउ ॥१॥ अइसउ कोई अउर न होई, प्रभु सरीखउ वल धारउ । मयन भयउ जिंणि भे असरीरी,कहा करइ सुविचारउ।।२।। दोष रहित गुण पार न लहीयइ, ता की सेवा सारु । कर जोरी जिनहरय कहत है, अब सेवक कु तारउ ॥३॥ मल्लिनाथ-गीतम राग-श्रीराग मल्लि जिणंद सदा नमीये । प्रभु के चरण कमल रसलीणे, । मधुकर ज्यु हुँइ कइ रमीयइ ॥१म.॥ निरपि वदन ससि श्री जिनवरकु, निसिवासर सुष मइ गमीयइ । उज्जल गुण समरण चित धरीये, कबहुँ न भव सायर भमीये ॥२मा.॥ समतारस मे जउ जीलीजइ, ___राग देप थइ उपसमीयइ । तउ जिनहरण मुगति सुख लहीये, करम कठिन निज आक्रमीयइ ॥३मा.।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली मुनिसुव्रत-गीतम् राग-तोडी आज सफल दिन भयउ सखी री। मुनिसुव्रत जिनवर की सूरति, मोहणगारी जउ निरपी री ॥१आ.॥ आज मेरइ घरि सुरतरु ऊगल, निधि प्रगटी घरि आज अपीरी। आज मनोरथ सकल फले मेरे, प्रभु देपत ही दिल हरपी री ॥२आ.॥ ताप गए सबहि भव भव के, दुरगति दुरमति दूरि नपी री । कहइ जिनहरष मुगति कु दाता, सिर परि ताकी आण रपी री ॥३आ.|| नमिनाथ-गीतम् राग-कल्याण नमि जिनवर नमीये चितलाई । जाकड़ नाम नवे निधि लहीये, विपति रहइ नही घर मइ काई ॥१ना.।। दरसण देपन ही दुप छीजह । पातक कुलटा ज्यु तजि जाई । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___३१. - चौवीशी .. सुख संपति कउ कारण प्रभुजी, ताकु समरण करहु सदाई ॥२ना.॥ कहा वहुतेरे जउ सुर सेवे, निज कारज की सिद्धि न पाई । - 'प्रभु जिनहरप एक सिर करीयइ, बोधिवीज सिव सुप कुदाई ॥३ना.॥ नेमिनाथ-गीतम् राग-रामगिरी नेमि जिन यादव कुंकुल तायु । एक ही एक अनेक उधारे, कृपा धरम मन धायें ॥१॥ विषय विपोपम दुप के कारणे, ... जाणि सवई सुप छायु । संयम लीयौं प्रभु हितं कारण, मदन सुभट- मद- गायु ॥रने.॥ आप तिरे राजुल कुतारी, पूरवः प्रेम. समायु ।। कहइ जिनहरप हमारी वरीयां, क्या मन मांहि विचायु ॥३॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ३२ जिनहर्ष-ग्रन्थावली -पार्श्वनाथ-गीतम् राग-ललित ___ मान तजी मेरे प्राणी वेर बेर कहुं वाणी । काहे मूढ भजनकु आलस करइ हइ । अउर कोऊ नावइ काम सगेस इंण दाम धाम, नाम एक प्रभुजी के काम सब सरइ हइ ॥१मा।। भवकु भंजणहार सुषकु देवणहार । ताकु हीयइ धारिजउ तुकरम सुडरई हइ । जपि जपि जगनाथ यउ तउ हइ मुगति साथ । जाकउ दरसण देषि अंपीयां ठरइ हइ ॥रमा।। अइसउ प्रभु कोई अउर देख्यु हइ अपर ठउर । ग्यान कु भंडार तजि काहे भूल उपरइ हइ । तेवीसमउ प्रभु पास पूरइ हइ सकल आस । कहइ जिनहरप जनम दुप हरइ हइ ॥३मा.।। महावीर-गीतम् राग-केदारउ मे जाण्यु नही भव दुप अइसउ रे होइ । मोह मगन माया मे घूतउ, निज भवहारे दोइ ॥१मः।। जनम मरण ग्रभवास असुचिमइ, रहिवनु सहिवनु सोइ । भूष त्रिपा परवश वध बंधन, टारि सके नही कोई ॥२म.॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीशी छेदन भेदन कुंभी पाचन, पर वैतरिणी तोइ । कोइ छुराइ सक्यु नही जर दुष, मइ सर भरीया रोड़।।३म।। __ सबहि सगाई जगत ठगाई, स्वारथ के सब लोइ । __ एक जिनहरप चरम जिनवर कुं, सरण हीया मइ ढोइ ॥४म।। - इलश - राग-धन्यासिरी जिनवर चउबीसे गाए। भाव भगति इक चितमती जइसी, गुण हीयरा मई ठाए ॥१हो जि।। चउनीसे जिनवर जगनायक, -सिवपुर महल वनाए । चरण कमल की सेवा सारइ, हइ भी पासि रहाए ॥२ हो जि।। मतरइ अठतीसह संवच्छर, फागुण यदि परिवाए । वाचक शांतिहरष सुपसायई, जिन जिनहरष मन्हाए ॥३हो जि।। इति श्रीचतुर्विशति जिन-गीतानि समाप्तानि Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी सीमन्धर-जिन स्तवन ढाल-पाटण नगर वपणीयइ । सपी माहेरे म्हारी लषमी देविकि चालउरे, आपण देपिवा अईयइ ॥ पुंडरीकणी नगरी वपाणीयइ, सपी श्रेयांस घरे जायउ पुत्र रतनकि, चालउरे । आपण देपवा जईयइ, नयणे कुमार निहालीयइ । सपी कीजड हे एहना कोडि जतन्नकि ॥१॥ साहीलीयउ सुजाण मोरउ जीवन प्राण, सपी कीजइ हे एहनी मस्तकि । हे सपी धरियइ आणक्ति वा प्रा।। घरि घरि थया वधावणा, वारू वाजइ हे सपी ढोल नीसाणकि चा। धवल मंगल गायइ गोरडी, जोवा श्राव्या हे सपी सुरनर राणकि ॥२॥ योवन प्राप्त प्रभुजी थया, सपी वॉल्हा हे सीमंधर कुमार कि चा। राय महोच्छन बहु करी, परणाव्या हे सपी रुकमणि नारि कि ॥३॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसी • राज्य लीला सुख भोगवी, - प्रभु लीधल हे सषी संयम भारकि ।चा। समिति गुपति सूधी धरई, 'गामागर हे सपी करइ विहार कि ॥४॥ करम खपाची. घातीया, प्रभु पाम्यउ हे सपी केवल नाणकि ।चा। समवसरण देवे रच्यउं, तिहां वइसी हे सपी करइ धपाणकि ॥५॥ इंद्र ऊतारइ आरती, इंद्राणी हे सखी गायइ गीतकि ।चा। सुरनर ल्यइ सहु भामणा, __ जोतई जीवउ हे सपी जिणि अादीतकिं ॥६॥ सुंदर सूरति जोवतां, भव भव ना हे सषी जायइ पापकि चा। ए जिन हरप बधारणउ, टालइ सगला हे सपी ताप संतापकि ।।७।। युगमन्धर-जिन-स्तवन ढाल-मोरु मन मोबउरे रूडा राम स्युरेः॥एदेशी।। हीयडुमिलिवारे प्रभुजी जइ ऊलसइरे, एतउ जिम चातक जलधार । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली सुदर सोहइ रे रूप सुहामणउ रे, एवउ म्हारा आतम नउ आधार ॥ तई गन मोबउं रे श्री युगमंधरा रे, एतउ राणी प्रिय मंगला भरतार ॥१॥ प्रभुजी नी काया रे कंचण सारिपी रे एतउ झलकह तेज अपार । सास ऊसास कमलनी बासनारे, एतउ गुणनउ नहि कोई पार ॥२॥ मीठी वाणी रे योजन गामिनी रे, एतउ सुणतां उलसइ देह । निज निज भाषा रे सहको सांपलइरे, . सहुना टलइ संदेह ॥३॥ ते दिन कईयई रे थास्येइ साहिवा रे, ए तउ देखिसिहुँ दीदार । चरण कमलनी करिस्यु चाकरी रे, एतउ साथई ऋरिस्यु विहार ॥४॥ नयणे प्रभुजी ना सामु निहालिस्युरे, हुँ तउ नमिस्यु तेहना पाय । तेहनइ पासई रे किरिया सीपिस्युरे, एतट मिरमल करिस्यु काय !!५!! Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी पूरि मनोरथ प्रभुजी माहरा रे, तु तउ सहुनर छइ हितकार। बीजा जिनवर कहुँ जिनहरष नह रे, एतउ देई दरसण दिल ठारि ॥६॥ बाहु-जिन-स्तवन ढाल-उचा ते मदिर मालीया नड, नीचडी सरोवर पाली रे माइ ए देशी। रामति रमिवा हूं गई, मोरी सहीयर केरइ साथी रे माइ । समोअसरण मां सोभता, मइ दीठा श्री जगनाथ रे माइ ॥१॥ रूपद तउ प्रभु रलीयामणा, रवि प्रतपइ कोडी निलाडि रे माइ । चार गुणउ प्रभु ऊपरई , असोक विराजइ झाड रे माइ ॥२॥ ममवसरण मां देवता करइ, कुसम वृष्टि ततकाल रे माइ । साकर पांहई अति घणु', मीठी वाणी सुविलास रे माइ ॥३॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली । । चामर ढालइ देवता, सिंहासण रतन जडाव रे माइ । भामंडल झलकइ घणु, जाणे कोडि गमे दिन राव रे माइः॥४॥ वाजतह मधुरी दुंदुभी, त्रिण छत्र विराजइ सीस रे माइ । आठ प्रातीहार सोमता , जगनायक जगदीस रे माइ॥५॥ निरमल काया जेहनी, पीर वरण लोही नइ मंस रे माइ, सास ऊसास सुगंधता , जाणे कमल कुसम अवतंस रे माइ ॥६॥ करतां कोई दैवइ नही, प्रभु नइ श्राहार नीहार रे माइ । अतिसय जिन ना एहवा, थाइ जनम थकी एव्यारि रे माइ ॥७॥ विहरमाण ए तीसरउ, श्री बाहु जिणंद सुपकार रे माइ । भेट्या मइ जिनहरप स्यु, मोरउ सफल थयर अवतार रे माइ ॥८॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीशी ३६ - सुबाहु-जिन-स्तवन ढाल-आवउ गरबा रमीयइ रूडा रामस्यु रे ।एदेशी। चउथा रे विहरमाण विहरता रे । काइ आव्या इणि नगर मझारि रे, आवउ नइ रे जईयइ जिन नइ वांदिवां रे । समवसरण देवे रच्यां रे, काइ कहितां नावइ तेहनउ पार रे । आवउ नई रे जईयइ जिन नइ बांदिवा रे, म्हारउ साहिबीयउ सुबाहु सुजाण रे । लोकालोक प्रकासतउ रे, म्हारा साहिबीया नउ निरमल नाण रे, म्हारउ साहिवीयउ जीवन प्राण रे ॥१।। बारइ रे जेहनइ परपदा रे, ते तल बइठी निज निज ठाम रे ।आ। गणधर वैमानिक सुंदरी रे, कांई साधवी अगनि कूणि नाम रे ॥२॥ नैरति कूणि भुवनपती रे, काई योतिषी वितरनी नारी रे (आ.! वायव कूणि वपाणीयइ, कांई बइठा तेहना भरतार रे ॥३॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहप-प्रन्थावली नर-नारी वैमानिका रे, काई ईसान कूणइ त्रिगण एहरे ।आ.। बइसइ प्रभुजी नई आगलहरे, काइ आणी आणी परम सनेह रे ॥४॥ धरम धजा लहकइ मली, काई सहस योजन परमाण रे ।आ.। धरमचक्र प्रागलि चलइ रे, काइ धरम चक्र सुजाण रे ॥शा धरम देसण जिनवर दीयइ रे, काई मीठी मीठी अमीय समाण रे ।आ.। सुणतां रे तनमन ऊलसइ रे, कांई कहइ जिनहरख सुजाण रे ॥६॥ सुजात-जिन स्तवन ढाल- गरवउ कउण नइ कोराव्यउ कि नंदजीरे लाल । एदेशी ।। आपणा सेवकनइ, सुख दीजइ कि, वारी म्हारा लाल । काइक करुणा मुझस्यु कीजइ कि वारि। तुमे छउ माहरा अंतरजामी कि । वा ।। . पमिज्यो प्रभुजी माहरी खामी रे कि ॥१॥ . हुंतर सेवक छु प्रभु तोरउ कि । वा।। वली वली तुमउइ करू निहोरउ कि । वा ! - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी ४१ हुं तउ भव दुप माहि पीडाणउ कि । वा। . चउपट चिहुं गति मांहि भीडाणउ रे कि ॥२॥ -वली मइ नारिकिना दुष पाम्यां कि । वा । मुप मांहि तातां तरुयां नाम्यां कि । वा। अगनई धग धगती पूतलीयां कि । वा। मुजनइ तेहनी संगति मिलीयां कि ॥३॥ मुज नइ पावक माहि पचाव्यउ कि । वा। नदी वैतरणी मांहि तराव्यउ कि । वा। देवे सूलारोपण कीधउ कि । वा। मुझनइ लोहयंत्र मांहि लेई दीधउ कि ॥४॥ वली हुँ तिरयंचनी गति पायउ कि । वा।। परवसि घणु घणु दुप पायउ कि । वा। तिहां तउ नाक फाड्यउ कान काप्यां कि ।वा । बहु परि भूप त्रिपा दुख व्याप्यां कि ॥शा वली मई नरगतिना दुख वेश्यां कि । वा । तिहां तउ सात विसन मई सेव्यां कि । वा। परनी लुली लुली सेवा कीधी कि । वा। तउ ही आस्या कांई न सीधी कि ।। ६ वा ।। - करमई किंकर सुरपद पाम्यौ कि । वा। तिहां तउ जोरई मुजनइ दाम्यउ कि । वा। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली पर स्त्री पर सुख देखी भूर्यउ कि । वा । लेप सुरनउ जनमन पूर्यउ कि ||७|| पांचमां श्रीयसुजात सिवगामी कि । वा । भव भव तु हीज माहरउ सामी कि । वा । ४२ चउपट चिहुॅ गतिना दुख चूरउ कि । वा । प्रभुजी सुप जिनहरप नड़ पूरउ कि ||८|| -:: स्वयंप्रभ - जिन - स्तवन [ ढाल - होरे लाल सरवर पाले चीपलउ रे लाल, घोडला लपस्या जाइ ॥ ए देशी ॥ ] हो रे लाल छठा स्वयंप्रभु स्वामिजी रे लाल, विहरमाण जिनराय । हो रे लाल नाम तर नवनिधि संपजइ रे लाल, पातक दूरे पलाइ ॥ १ ॥ हो रे लाल भगति करड़ बहु भांतिस्यु रे लाल, चरणे नमः त्रिकाल । हो रे लाल ततपिणि ते नर नारीयां रे लाल । कापड़ करमनी जाल ॥ २ ॥ हो रे लाल जे वांद प्रभुन सदा रे लाल, देपइ जे दीदार | Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ वाशी हो रे लाल सुणइ सदा जे देसणा रे लाल, धन धन ते नरनारि ॥३॥ हो रे लाल पुन्यवंत मांहि वषाणीयइ रे लाल, ___महा विदेह ना लोक । हो रे लाल देवी दरपण ऊलसइ रे लाल, जिमि रवि देपी कोक ॥ ४ ॥ हो रे लाल विचरइ प्रभु जिणि देसमा रे लाल, पगला जिहां ठवंत । हो रे लाल ते धरती पावन करइ रे लाल, ___ करइ उपगार अनंत ॥५॥ हो रे लाल भरतपेत्र ना आदमी रे लाल, पोतइ बहु संसार । हो रे लाल ज्ञानीनउ विरह पड्यउ रे लाल, संसय भयो अपार ॥६॥ हो रे लाल स्वामी अमन्यु करि मया रे लाल, रापउ आप हरि । होरे लाल कहइ जिनहरय वाल्हां थकी रे लाल, किम रहिवायइ दूरि ॥ ७॥ ५ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदर्प-ग्रन्थावली ऋपभानन-जिन - स्तवन [ बाल - गावउ गुरण गरवारे | ए देशी । ] ऋपमानन जिन सातमउ गुण प्रभुजी रे, विहरमाण जिनराय गावउ गुण प्रभुजी रे, सुरनर विद्यावर सहु | गु.। प्रणमड़ जेहना पाय गा. ॥१॥ केवल सूर्योदय करी । गु.। लोकालोक प्रकास । गा । मनना संसय अपहरड़ || अतिसय अधिकउ जास ॥गा. २ || दीठा सुरम प्रतिघणा । गु। ते सगला मां पोड । गा. । केई लंपट केई लालची | गु। नावइ एहनी जोडि ॥गा. ३ || चंद्र वदन देपी करी | गु| हरपड़ चित्त चकोर । गा । महाविदेहना मानवी | गु| नाच मन जिम मोर ॥ गा. ४॥ कीज निसि दिन चाकरी |गु । जउ रही यह प्रभु पासि । गा । पड़ पदवी आपणी । गु । अविचल लील विलास || गा५|| महाविदेहमां विहरता | गु। जग गुरु जगदानंद | गा. | जास पसाय पामीयड़ । गु| कहइ जिनहरप आणंद || गा६ || ४४ अनन्तवीर्य - जिन - स्तवन [ ढाल - नवी नवी नगरीमा वसइरे सोनार । कान्हजी घडावर नवसर हार । एदेशी ॥ ] अनंतवीरज ठमउ जिनराय । सुरनर इंद्र नमड़ जसु पाय ॥ त्रिगढड़ बइठा करइ रे चपाण। साकर पाहई मीठी वाण ॥ १ ॥ + Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी ४५ , संसय सहुना दूर टलइ । मिथ्यात्वी मन पिणि परघलड् ॥ प्रभुजी विचरइ जिणि २ देस । न करइ ईति तिहां परवेस ॥२॥ महिमा मोटर जिणवर तणउ। दीपावह जिण सासण घण।। जिहां एहबउ जिन सासनधणी। न्यायइ बाधा कीरति घणि३। कंचण चरणी प्रभुजीनी काय । लाप चउरासी पूरव आय ॥ जउरे म्हाराप्रभुजी नउ देपूरूपातउमन माहि बाधइ हरपअनूप४ घउ नइ रे दरसण मुझनइ सामि । लय लाई राउ ताहरइ नाम। तुतउ रे करुणा सागर सही । मुझनइ तारउ बांहई ग्रही ।५। ध्यान धरूंछुताहरउ हीयइ । हीयउ ठरइ परतपि देपीयइ । विरुद परउ करि घउ सिवराजाकहइ जिनहरप वधइ जिमलाज६ सूरप्रभ-जिन-स्तवन [ ढाल- म्हारी लाल नणदरा वीर हो रसिया। वे गोरीना नाहलीया ।। एदेशी ॥] तु तउ सहु गुण रसनउ जाण हो रसीया, तुसमता रस पूरीयउ । तुझ नामइ लील विलास हो रसिया, सुभ तरु वीज अंकुरीयउ ॥१॥ म्हारा मनना मान्या मीत हो रसीया, सुणि सेवकना साहिबीया ॥ आंकणी ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जिनहर्ष - ग्रन्थावली तुज वाणी गुणनी खांणी हो रसीया, सुणतां तृपति न पामीयः । तु तर त्रिभुवन उदयउ भाग हो रसिया तिणि तुझन सिर नामीयइ || २ || तु तर म्हारा ही डानउ हास हो रसीया, तु तर म्हारा सिरनउ सेहरउ । तु तउ म्हारउ जीवन प्राण हो रसिया, सूरप्रभु मुझे दुख हरउ ||३|| हठ करि रहिस्यु तुझ साथि हो रसीया, पिणितुज केडि न छांडिस्यु | जउ आल तर सिवसुख प्रालि हो रसीया, नहीं तर झगडउ मांडिस्युं ॥ ४ ॥ तुरंत सहु अवसरनउ जाण हो रसीया, बुरउ केहनड़ न मनावीयड़ | हठ चडीया देवी बाल हो रमिया, जिम तिम करि समझावीयइ ||५|| तुज सरिषा जे जगमांहि हो रसीया, जस त्यइ जिणि तिणि वातडी । सुक्क दरमण द्यउ महाराज हो रसीया, कहड़ जिनहरप सफल घडी ||६|| 1 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी विशाल-जिन-स्तवन [ ढाल-ग्राज माता जोगिणि नइ चालउ जोवा जईयई ] सारद चंद्र बदन अमृतनउ, सदन अनोपम सोहइ । नयन कमल देखी अणीयाला, सुरनरना मनमोहइ रे ॥१॥ आज म्हारा साहिवनइ चालउ जोवा जईयइ । जेइनइ देवी हीयडउ हरपइ, निरपइ चित्त चकोरा । घन गजोल सांमली बाणो, नाचइ मन जिम मोरा रे ॥२॥ जेहनउ दरसण छइ अति दोहिलउ, देखेवउ प्राणीनइ । पूरण पुण्य संयोगइ लहीयइ,मिलियइ हित आणीनइ रे ३। प्रभुसुसूधी मोह विलूधी, धर्म राग रंगाणी । चोलतणी परि रंग न जायइ, सातधात भेदाणी रे ॥५॥ साहिब म्हारउ चतुर सनेही, रूडउ नइ रलीयामणउ । नयणांथी अलगउ नवि कीजइ, रसीयउ रंग रसालउ रे ।। श्रीविसाल दसमउ वइरागी, विहरमाण चडभागी । कहइ जिनहरष सुथिर लयलागी, पुण्य दसा हिब जागी रे ६ वज्रधर जिन-स्तवन ढाल-गोकल गामई गादरइजो महीडउ वेवण गईथीजो । एदेशी।] श्रीवज्रधर गुणरागी जो, सुणि साहिब सोभागी जो । तुझ मइ क्रोध न लहीयइ जो, समता सागर कहीयइ जो।१। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली लोभ नही तुझ पासई जो, सम त्रिण मणि प्रति भासइ जो। करुणानउ तुदरियउ जो, गुण रतने करी सरीयउ जो २१ धरम तणउ तु धोरी जो, हुं बलिहारी तोरी जो । तुझ सरिपउ उपगारी जो, कोइ नही संसारी जो ॥३॥ भव सायर तुतारइ जो, जनम जरा दुप बारइ जो । सेवक नइ हितकारी जो, भव भव भंजण भारी जो ॥४॥ जंगम सुरतरु विचरइ जो, जोगी भोगी समरइ जो । तुझनइ लेप न लागइ जो, राति दिवस तु जागइ जो ॥५॥ तुझनइ काम न व्यापइ जो, करम तणी जड कापइ जो । आप सरीपउ कीजइ जो, जिम जिनहरप पतीजइ जो ॥६॥ चन्द्रानन-जिन-स्तवन [ ढाल-गरवै रमिवा प्रावि मात जसोदा तो नइ वीनवु रे । ए देशी] चंद्रानन स्वामी चंद्रथी अधिक तु सीयलउ रे । चंद्र कलंकित जोइ तुतउ दिन दिन ऊजलउ रे ॥१॥ थाइ कला ते हीण, वधती घटती नहीं सारिपी रे।। ताहरी कला नहीं पीण, परतपि कीधी नई पारिपीरे ॥२॥ तेहनइ लंछण लोक, कोई लावइ छइ केहवा रे । तुज नहीं कोई, पुन्यइ पामीयइ एहवा रे ।। ३ ।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रीशी पख ग्रह तसु राह, बड़ी वैर आवी लीयड़ रे । तुजन सेवड़ राह, ताहरड़ बड़री नवि पामीयड़ रे ॥ ४ ॥ तेहनइ रोहिणि नारि, रोहिणि वाल्हउ सहू कहइ रे । तई तउ छोड़ी नारि, समता नारी रातउ रहह रे ||५|| तु त्रिभुवन नउ चंद, वारसां जिनवर सांभलउ रे । उनिहरप आनंद, महिरि करी मुकनउ मिलउ रे ||६|| ४६ चन्द्रवाहु - जिन - स्तवन [ ढाल --- गीदूडउ महकइ राजि गीदूडउ महकइ । ए देशी ] श्री चंद्रवाहु तेरमा, तुरंत सांभली रे साहिब अरदास | सां म्हारा हो गुणवंता लाल, म्हारा हो केसरिया लाल । म्हारा हो मानीता लाल, म्हारा हो व्हालेसर लाल || मुजरउ जी लेज्यो राजि मुजरउ जी लेज्यो । हुं सेवक प्रभु तुम ताउ, तु माहरउ साहिब सुखवास ॥१॥ मोहणगारा साहिबीया, मन मोह्यउरे प्रभुजी तुझ नाम | मो राति दिवस मनमड़ वस, मइ भमतां रे पाम्यउ विश्राम । २ आइ मिलु किम तुज भणी, नवि दीधी रे पांपडली देव | दी | चरणे ग्राउं ताहरे, कर जोडी रे करू ताहरी सेव । जो३ || भवसायर बीहामणउ, तरि न सकुरे साहिबजी तास |न। तारू' मेल्हड़ आपणा, तर तरिनड़ पहुचें सिववास ॥त. ४॥ 1 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जिनहर्प-ग्रन्थावली करुणा सागर तुसही, हुँ करुणा रे केरउठ्ठाम ॥ क ।। अोलग घउ जिनहरपस्यु,नही वीजउ रे माहरइ कोई काम।५ सुजंग-जिन-स्तवन [ ढाल-राजपीयारी भीलडीरे । एदेशी] गामागर पुरवर विहरता रे, भय भंजण स्वामि भुजंग कि । प्रभुजी ईहां पधारिज्यो रे । सेवक नइ पाय वंदावीयइ रे, जिम थायइ मन उछरंग कि।१प्र छइ स्वामि तु मनइ पूछिवा रे, माहरा मन केरा सदेह कि ।प्र। संसय मिथ्यात टलइ नहिरे,कुण टालइ तुज विणि तेहकि।२। सामाचारी थई जूजूइ रे, निज निज थापइ सहु कोइ कि ।प्र। सी साची करिनइ मानीयइ रे, मनडा मा डोलउ होइकि ।३प्र। सहु कोकवरायइ जिन मती रे, सहु वांच सूत्र सिद्धांतकि ।प्र। एक थापइ बली एक ऊथपइ रे,मनमांहि पडइ तिणि भ्रांतिकि४ ईहां अतिसय ज्ञानी को नही रे, पूछी करीयइ निरधारकि ।प्र। मनना संदेह निवारीयड रे, करियइ सुध धरम विचारकि । ५ करुणा सागर करुणा करी रे, सेवकनी पूरवउ आसकि।प्र। सफली करि जिनवर चउदमा रे, जिनहरप तणी अरदासकि ६ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीशी ईश्वरप्रभ-जिन-स्तवन [ ढाल-बाईरे चारणि देवि । एहनी ] जगदानंद जिनंद, बाइ रे जगदानंद जिनंद । त्रिभुवन केरउ राजीयर, वाई रे ईश्वर देव । सेवइ चउसठि इंद्र था। अनंत गुणे करि गाजीयउ ॥१॥ ईश्वर कहइ जे लोक । या । पारवती नउ वालहउ । बा । भसम लगावइ अंग था। ते ईश्वर मत सद्दहउ ॥२ वा ॥ वहसइ वृपभनो पूठि । वा । अलख जगावइ जोगउ । वा । भांग धतूरड़ प्रीति । वा । संग न छोडइ भोगनउ ॥३ वा ॥ यावर गजचर्म । या । लहकइ रंडमाला गलइ । वा । दीसइ अति विद्रप । बा । नाद सबंद धुनि ऊछलइ ॥४वा।। ते इश्वर नही एह वा। भोलइ मत को जाणिज्यो । वा। निरमोही निकलंक वा। तेह नइ ईश्वर मानिज्यो वा५॥ विहरमान जिन राय था। केवल ज्ञानह दीपतउ ॥॥ करि जिनहरख समान वा। ईश्वर प्रसुअरि जीपत उ ॥६ वा।। नेमिप्रभ-जिन-स्तवन [ढाल-साहिबा फुदी लेस्य भी। ए देशी ] नेमि प्रभु सुणि बीनती, थारी चाकरी करू करजोडि रे । साहिबा लाहउ लेस्युजी । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्य ग्रन्थावली लागी रहस्यु पाउले, हुँ तउ आलस अलगउ छोडिरे ।१सा) प्रभु मुप चंद निहालित्यु, मुझ नयण चकोर पसारि रे। नृत्य करिसि आगले रही, प्रभुना गुण हीयडइ धारि रे ।२सा वइसी प्रभुजीनइ आगलई, सांभलिस्यु सरस वपाण रे । सीस ऊपरि हुँ रापिस्यु, जगनायक ताहरी आण रे ॥सा३॥ प्रभुजी नउ गायर गाइसु, प्रभुजी नउ वचन प्रमाण रे । प्रभुजीना चरण पपालिस्यु, सुध पाणी सूजतउ आंणिरे ।४। आगलि भावन माविस्यु, उपजाविसि प्रीति अपार रे । सफल मनोरथ थाइस्यइ, ते दिन धन २ अवतार रे ॥सा.॥ दक्षण भरतई हुं रहुं, तुमे रहउ महाविदेह मझारि रे । ईहां थकी मुझ वंदना, जिनहरप सदा अवधारि रे ॥सा०६।। वीरसेन-जिनं-स्तवन ढाल-सोनलारे केरडीरे,वावि, रूपलाना पगथालीयारे । ए देशी सहीरो रे चतुर सुजाण, आवउ वीरसेन वांदिवारे । कीजइ रे धन अवतार, पातक कसमल छांडिवा रे ॥१॥ श्रापणउ रे साहिब एह, मेल्हीजइ नही वेगलउ रे । निसि दिन रे एहनइ पासि,रहीयइ प्रेमई आगलउ रे ॥२॥ मनना रे मेटइ दाग, केवल ज्ञान दिवाकर रे । तजीयइ रे अंतर मइल, रहीयइ साहिब स्यु सरु रे ॥३॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी ५२ छोडी रे विपय विकार, कीजइ प्रभुनी चाकरी रे । थायइ रे जो ए पुस्याल, आपइ मुगती पुरी सिरी रे ॥४॥ एहवउ रे कोई नही देव, एहनी करइ तडो वडी रे । देवना रे देव नउ देव, एहनी ठकुराई वडीरे ॥ ५ ॥ घरीयइ रे हीयडइ ध्यान, करम पपइ भव केरडां रे । थायइ र प्रभु सुपसाय, कहइ जिनहरप न फेरडां रे ॥६॥ महाभद्र-जिन-स्तवन [ ढाल-दल वादल उलट्या हो नदी ए नीर चल्यो । ए देशी ]. अढारमा साहिब हो, कीधी बात कहुं । तु अंतर जामी हो, चरणे लागी रहुं ॥१॥ हुं तउ प्रभु अपराधी हो, कुटल कदाग्रही । मिथ्यातइ मुक्यउ हो, सुमति न मन रही ॥२॥ मइ जीव संताप्या हो, आल वचन कह्यां । मई अब्रह्म सेव्यां हो, दान अदत्त ग्रह्यां ॥३॥ परिग्रह बहु मेल्या हो, रात्री भोजन कर्यां, बहु कपटइभरीयउ हो, क्रोधादिक धर्यां।।४।। मइ किरीया कीधी हो, लोक दिपावणी । मन माहे करडू हो, हुं त्रिभुवन धणी ॥५॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली मुज करणी माटी हो सी संभलावीयइ । मावीत्रां प्रागलि हो, काउ पिणि चाहीयइ ।६।। म्हारा मनमां घोपउ हो, स्यु थास्यइ हिवइ । दुख पामिसी बहुला हो, हुँ तउ भव भवई ॥७॥ पिणि सरणउ सरलउ हो, महाभद्र तुम तणउ । जिनहरप समापउ हो, सिवसुप अतिवणउ ।' देवयशा-जिन-स्तवन [डालसामू काठाहे गहुँ पिसावि, आपण जास्या मालवड, सोनारि भरगइ, एहनी ] कंता सुणि हो कहुं एक बात, आपण जास्यु प्रेमसु, गोरी एम लणइ । चालंभ देवजसा जिनराय, घरको नमीयइ पेमत्यु ॥गो।। एतउ विचरइ हो विदेह मझारि, नरनारी प्रति बृझवदागो। उगणीसमउ साहिब सुजाण, बाणी अमृतधारा श्रम ॥गो२।। कंता एहनउ हो रूपनिहालि,नयण पाल कीज आपणा|गो कंता प्रभुना हो अतिसय जोइ, करम सलूला कापणा ॥३॥ कंता रमित्यु हो राम सुरंग, प्रभु प्रारबलि ऊमा रही यो। आपण करिस्यु हो जनस प्रमाण, गायु प्रभु गुण गहगही।४|| पंता एहनउ हो सुरभ मरीर, कपल तणी परिसहइ गो। कंता एहनउ मोहनरूप, देपी मुक मन अमहइ ।।५।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी ५५ कंता एहनाहो गुण निकलंक, जिम कसोटी कंचन कस्य उ । गो । कंता माहरड़ हो जीवन प्राण, ए जिनहरप हीयड़ वस्यउ | ६ | अजितवीर्य - जिन - स्तवन [ ढाल - लटकउ पारउ रे लोहारणीरे । ए देशी ] अजितवीर जिन वीसमा रे, तुरंत मोह मोहण वेली, मटकउ थारा र े मुपडा त उरे । नव कमले सोना तो र े, चालइ गजगति वेलि ॥। १ म ॥ नय कमल अणीयालडां र े, सीतल नइ सुसनेह | म | चंद्रवदन अमृत कर रे, वाणी पावस मेह ॥ २ म ॥ निरमल तीपी नासिका रे, दीप सिवा उ हार | म | दंत पंति हीरा जख्या रे, जाणे मोतीहार । ३ म । वर प्रवाली पीयारे, बांह कमलना नाल | म । आगलीयां मगनी फलीरे, सुंदर नइ सुकमाल | ४ म । रूपड़ सुरनर मोहीया रे, मोह्या चउसठी इंद | म । समवसरण बसी करी रे, प्रतिबोध नर वृंद ॥ ५ म ॥ दीठां विणि मन ऊलसह रे, मिलिया तुम जिनराय । म । कह जिनहरप यात्री मिलउरे, कड़ ल्यउ सुज बोलाइ | ६म | Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जिनहर्प-ग्रन्थावली कलश [ढाल-मा पावागढथी जर्या मा । ए देगी ] सारद तुझ सुपसाउलइ रे, मा गाया गरवा वीसरे । जुगतिस्यु भावे दे भगतिस्यु मइ थुण्या रे । मा ए तीसे जगबंधवा रे, मा ए बीसे जगदीश रे ॥१॥ मा जंबूढीव विदेहमां रे, मा विचरंता जिन च्यारि रे । मा आठे अरिहंत उपदीसइ रे, मा धातकि विदेह मझारि ॥२॥ मा पुष्कर अरथ विदेहमां रे, मा पाठे करइ विहाररे । मा केवल ज्ञानइ सोहता रे, मा धरम तणा दातार रे ॥३॥ मा ए वीसे जिनवरतणारे. मा सारीपा बल रूप रे। मा कंचण वरण सह तणा रे, मा पाय नमइ सुर भूप रे।।४॥ मा काया सहुनी पांचसइ रे, मा धनुष ऊंची इम दापी रे । मा पाऊपा सह जिन तणारे,मा पूरव चउरासी लापरे।। मा वीसे जिनवर माहरा रे, मा साहिब हुँ तउ दास रे । मा प्रभुजोनी पगरज सिर घरमा सेवा करू उलास रे। मा ते दिन कहीयई थाइस्यइ र, मा देवीसि हुँ दीदार रे । मा वीनविसु मन वातडी रे,मा प्रभु आगलि किणि वार रे७ मा चउविह संघमां परवर्या रे, मा बइठा त्रिगढा मांहि र । मा बीसे जिननी साहिबी रे, मा देषु परम उछाहि रे ।८।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी मा धन दिन मास सुहामणउ रे,मा गिणिस्युजनम प्रमाणरे। मा विहरमाण हुँ भेटिस्युर,मा पवित्र हुस्यइ मुझप्राण हा मा सतरइ पचतालइ समइरे,मा द्वितीय वैशाप सुदि त्रीज रे । मा मइ जिनहरपई गाईया रे, मा निर्मल थयौ बोधिबीज रे ॥१० जु॥ 'इति श्री वीस विहरमाण स्तवनानि समाप्तानि । सर्वगाथा १३७॥ थान १६२॥ सवत् १७६१ वर्षे ज्येष्ठवदि १ दिने शनिवारे लिखितानि जिनहर्षेण श्री पत्तनमध्ये ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंधर-जिन-स्तवन [ ढाल-वीर वखाणी राणी चेलणा जी, एहनी ] सामि सीमंधर सांभलउजी, माहरी एक अरदास । हीयडउ मिलण उमाहीयउ जी,प्रीति तणइ पड्यउ पास ॥१॥ नाणइ भय मन केहनउ जी, राखीयउ न रहइ अनीत । आवइ जाइ हे जालूअउ जी, राजि चरणे मुझ चीत ॥२सा.॥ एक वाल्हेसर तु धंणी जी, सीस धरूं तुझ आण । अवर सुमिलण मुझ आखडी जी, तुं हीज देव प्रमाण ॥३ सा.॥ भरम भूलइ थकइ मई घणाजी, जाणि शिव सुख तणी खाणि । सेविया हुसी सुर सांमठा जी, खून खमि त्रिजग दीवाण ॥४सा.॥ माहरा अवगुण जोइस्यउ जी, तउ न सरइ कोइ काज । अवगुण गुण करि जाणिस्यउ जी. तउ ही ज रहिसी मुझ लाज ॥५सा.।। माहरी प्रीति लागी खरी जी, जेहवी चोल मजीठ । १ भाखर गिरणइ न भीति । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी ५६ रंग विदरंग न हुवइ कदे जी, अधिक अधिकी सदा दीठ ॥६सा.॥ - राजि पुखलावती हुँ इहां जी, भेटीयइ किण परि पाव । कहइ' जिनह म वीसारिज्यो जी, अउहीज' लाख पसाव ॥७सा.।। युगमंधर-जिन स्तवन [ ढाल-सहीया सुरताण लाडउ आवइलउ, एहनी ] प्राण सनेही जुगमंधर सामी, वीनती सुणउ प्रणमुसिरनामीहो मुझ हीयडउ हेजइ गहगहीयउ, चरण कमल भेटण ऊमाहीयउ हो ॥१प्रा.॥ भाखर भीति गिणइ नही काइ, आवइ तारइ पासि सदाइ हो । मनडउ जाणइ जाइ मिलीजइ, दोइ कर जोड़ी सेवा कीजइ हो ॥२प्रा.।। तु साहिब हुँ सेवक तोरउ, वाल्हेसर तुप्रीतम मोरउ हो । 'नवली प्रीति प्रभु सु लागी, रागी सुमत थाज्यो नीरागी हो ॥३प्रा.।। १ प्रभु । २ एतलइ । ३ मिलिवा मुझ हीयडउ गहगहीयउ । ४ प्रीति परम गुरु तुम सु लागी। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थवाली नवला सेवक पासइ राखउ, छिह कदे मुझ नइ मत दाखउहो। तु ही ज साजण सयण सनेही, तुझ उपरि वारू मुझ देही हो ॥४प्रा.॥ . प्राण करूं कुरवाण अम्हीणा,साहिव सूरति सुलय लीणा हो जिण दिन देखीस सूरत नइणे, दाखिस निज वातडीयां चरणे हो ।प्रा.॥ सेवक नइ दीदार दिखावउ, वइगा हुइ नइ वार म लावउहो । इवडी ढील कहर किम कीजइ, पोताना जाणी सुख दीजइ हो ॥६प्रा.।। आइ सकुनहीं हुँ तुझ तीरइ, दूरि थकी बलिहारी प्रभुजी रइहो कहह जिनहर्प किसी पर कीजइ, मिलीयां विण किम प्राण पतीजइ हो ।।७प्रा.।। वाहु-जिन-स्तवन [ढाल-झीणा मारू लाल रगावउ पीया चूनडी, एहनी] तु तउ सायर सुत रलियामणउ, थाहरउ अमीय भर्यो छह गात । १. सेवक जाणी पासइ राखड़, वयग सु शीतल प्रभुजी भाखउ हो। २, परतखि भावी दरसण दीजे हो । ३. इहा थी पाय नमू प्रभुजी रे हो । ४. पाख हुवइ त उ ऊडी मिली जइ हो। . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी चंदा तु तर जाड़ कहै बाहु सामिन, तु तो सहचारी गयणंगराई, तु तर' फिरइ सदा दिन राति ॥ १ चं ॥ - थांरा दरसणरी म्हानु खांति | चंदा | कणी । थांन चार परपदा लगह, थांनड़ सेवइ सुरनर कोडि | चं । साहिबा रूप वण्यउ थाहरउ अति मलउ, साहिबा' वर न को प्रभु जोड़ी || २|चं ॥ . तुळे तउ' भव भय भंजण सांभल्यउ, हुं तर भवदुख पीड्यउ जोर दुख भंजउ सेवक' जाणि नड़, तर तुझ' नइ करू रे निहोर || ३ चं ॥ ६१ जेतर अधिकान श्रोछा गिरह, ते तर निज स्वारथीया मीत | चं० | मोटा विहड तर पडिहड़ नहीं, एतउ उत्तम माणस रीति ॥ चं. ||४|| महंत कीधी साची मो दिसा, म्हारा साहिविया सु प्रीति । चं। १. प्रभु वदरण जाये प्रात । २ वीजउ नाव नाहरी जोड । ३ तुझ नइ | ४ महिर घरो करो । ५ एतलउ । ६ निस्वारीया | Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली जम वारा लगि तुटइ नहीं. जिम पंकज नइ आदीत ॥चं.॥ ५॥ थेतउ साहिव करुणा रस भर्या, लहि अवसर करज्यो सार । जिनहरष हीयइ धरि भेटि सु, धन दिन धनधन अवतार ।। सुबाहु-जिन-स्तवन [ढाल -हमीरीया नी अथवा मालीना गीतरी।] वाल्हेसर संभालीयइ, विरुद गरीव निवाज सुबाहु । करुणा निधि करुणा करी, सारउ वंछित काज । सुवाहु.।१। दुखीयउ दीन दया मणउ, राज तणो हुँ दास ।सु.। दीनदयाल कृपालु तु, राखि सनेहा पास ।सु.। २ ।वा.। 'देवल देवल देवता, फिर फिर मुक्या जोइ ।सु.॥ तुडि आवइजे ताहरी, तिसउ न दीसइ कोइ ।सु.।।३।वा. 'भवसायर पडता थकां, जउ मुझ आपउ बाह ||सु.॥ तउ तरि पाऊतो कन्हइ, रहुं चरणां री छाह सु.।।४। १ ज्ञानी ध्यानी मइ घणा । २ ताहरी समवडि जे करइ, तेहवउ न दीठउ कोइ । ३ जउ एक सुर मेल्हउ इहा तास विलबी बाह । ४ तुम्ह । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी करि न सकु हुं ताहरी, सेवा' भगति न कांइ ।।सु.॥ कोइ क दिन मिलिवा तणी, दीसइ छइ अंतराइ ।सु.।।। दूरि थकी पिणि आपणा सेवक चीतारेह । सु. । कुंझाझी लालब चांह ज्यु, मू नाम वीसारेह ।सु. ।६। वा. प्रीत पतंगा रंग ज्यु, मत करिज्यो जिनराज ।सु.। देखण जिनहरपइ हीयउ, मेलउ दे महाराज |सु.।।७। वा.। सुजात-जिन-स्तवन [ढाल.-श्रावक लिखमी हो खरचीयइ ।ए।] मनमोहन महिमा निलउ, गुणसायर गंभीर रे लाल । मय भंजण भगवंत जी, क्रोध दवानल नीर रे लाल ।१। समता रस संपूरीयो, ममता नहीं लवलेस रे लाल । दमता इंद्री आतमा, नमता इंद्र नरेस रे लाल ॥२ म.॥ गति प्रागति सहु जीवनी, जाणइ केवल धार रे लाल | सा. मन संदेह निवारता,विहरइ उग्र विहार रे लाल ॥३॥म. । भूख तृषा सहु वीसरह, सुणतां सरस वखाण रे लाल । वयर विरोध न सांभरह करतां प्राण प्रमाण रे लाल 181 बदन कमल जिम विकसितउ, देखइ ते सुकयत्य रे लाल । भेटइ उलट आणिनई, धन २ ते मणिमत्थ रे लाल ।। १ तिहां किरिण आइ । २ उलसित थायइ प्राण रे । ३ धन धन्न । ४ निति ऊलसतइ मन्न रे । - - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली मुझनइ मेलउ किहां थकी' ताहरउ हुइ जिनराज रे लाल । तउ पिण सेवक जाणिनई,करिज्यो काइ निवाज रे लाला६। विहरमाण मुझ वंदणा, जाणेज्यो निसदीस रे लाल । वात सुजात किसी कहुं, तु जिनहरप जगीस रे लाल ७/ स्वयंप्रम-जिन-स्तवन . . [ढाल -राजरनी] माहरा मननी बात, दाखु सगली हो आगलि ताहरइ । तु मांहरड़ पित्त मात, अलगउ न रहइ हो मन थी काहरइ।१ हुँ भमियउ भव मांहि जनम मरणना हो बहुला दुखसह्या । तु जाणै जिनराड, एकणि जीभ हो किम जायह कह्या २॥ नह रहइ चंचलचीत, वार्यउअहनिसि हो रति प्रारति सहुँ । पर रमणी सुप्रीति, काम विटंबण हो हूं केही कहुं ॥३॥ विनडइ माया मोह, क्रोध न छोडइ हो माहरी पाखती । न मिटड् किमइ लोह', मान माया तउहो न घटइ इक रती।४। नयण वयण नहीं ठाम विकथा च्यारे हो राति दिवस करू हीयडइ ताहरउ नाम, नावइ किण परि हो भवसायर तिरू माहरउ पापी जीव, केइ वातां हो मनमइ चीतवइ । . . . करिसी नरगइ रीव, सूची सेवा हो ताहरी नवि हवइ ।६। १ भाग विना।२ मुझनइ सामि । ३ कांडक । ४ सोह न वाधइ हो जेह पी रथ रिती । ५ दुरगति । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी निसुणी स्वयंप्रभु सामि, हुं तउ खूनी हो सेवक ताहरउ | कहइ जिनहरष सुठाम दीजइ कीजइ हो ऊपर माहरउ १७ ऋषभानन जिन स्तवन ढाल - भरणइ देवकी किणि भोलव्यउ । - ऋपभानन सुप्रीतडी, हुं तउ करिसु२ अंतर खोल साहिबा । · कपट न कोइ राखिसु,मइ तउ पायउ २ भेद अमोल ।सा.। इतरा दिवस लगी भम्यो, बहुला दीठा दीठा देवी देव ।सा.। ___ भरम मिथ्यात वसई पड्यो, साचा जाणी नइ रूडा जाणी नइ कीधी सेव।।२॥रि.॥ के कामी के लोभीया, केतउ 'क्रोधी क्रोधी रुद्र अतीव सा.। दूपण भरिया देखि नइ, म्हारउ न मिलइ न मिलइ त्या सु जीव (सा.परि.॥ रससागर समता रस तणउ, रूडि सूरति नीकी मूरति मोहनखेल संतोषइ सहु को भणी, मीठी वाणी आछी वाणी अमृत रेलि ॥सा.॥१४। रि.। पांति विचई विहरउ करइ, एतउ अोछा २ नउं प्राचार ।सा। एक नजरि सहु ऊपरै, तु राखइ प्राण आधार सा.।।। जेहनी प्रीति न पालटइ, तिणि सुमिलियइ वार हजार । -१ क्रोधइ भर्या Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जिनहर्ष ग्रन्थावाली गरज न का जिणसु सरह, कीजड़ ऊभा ऊभा ऊभ जुहार । साहिब तुम विरण को नही, म्हांरा मनरउ मान्यउ मीत । कes 'जिन' निवाहिज्यो, मुझ सेती सेती अविहड़ प्रीत | अनन्तवीर्य - जिन - स्तवन [ ढाल - हिवरे जगत गुरु शुद्ध समकित नीमी प्रापियइ ] आज ऊमाही जीभड़ी, होजी करिवा प्रभु गुण ग्राम । जन्म सफल' माहरउ हुसी, होजी हियड़ड़ धरतां नाम ॥१॥ हिव रे सखाइ श्री अनंत - वीरज थासी माहरउ जी । तउ फलिसी हो मुझ यश जगीश कि, दिवस हुसी मुझ पाधरउ जी ॥२॥ मोटां नी मीटर करि, होजी सीझड़ सगला काज | फल मनोरथ मन तणा, होजी जउ तू सह महाराज || ३ हि. || मोटा तर विरचइ नहीं, होजी कदेय न दाखड़ छेह | सा पुरसा री प्रीतड़ी, होजी पाथर केरी रेह ॥ ४ ॥ हि । I हिला न किया था, होजी तुझ विणि जे दिन जाइ । श्राशा लूधां सेवकां, होजी दरसण न दियइ कांइ ॥ ५ हि . ॥ उ' ही कां सु करइ, होजी इवड़ी खांचा ताण | , हेज हीयाली दे' मिलउ, होजी हियड़ड़ करुणा आण ॥ ६ हिं. ॥ १ सफला थास्यइ हिवे । २ यु । " Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ वीशी हु उ दीन दयामण्ड, होजी - साहिव दीन दयाल | मुझ जिन हरख सदा हुवड़, होजी वंछित पूरि कृपाल । ७हि. ॥ सूरप्रभ - जिन - स्तवन [ ढाल - जोवउ म्हारी आई उरण दिसि चालतो हे ] श्रावर मोरी सहिय' सूरप्रभु स्वामि ना हे, हिल मिलि नई गुण गावां हे । अंतर जाभी वाल्हेसर तणी हे, मउज - कदे किणि पावां है | १ | प्राण सनेही परमेसर विना हे, वंछित फल कुण आपई हे । करुणानिधि कर आपणी है, सेवक थिर करि थापड़ हे । २ । सेवा सूधी प्रभु ती हे, किम ही कीधी जायड़ है । तउ कुमणा न रहइ किणि बातरी है, दिन २ दौलति थायइ हे ३ इणि साहिब री मूरति मोहणी है, दीठा ही वणि श्रवइ है । ते देखइ जे साहिब ना हुबइ है, अवर न देखण पावड़ है | ४ | अंतरगत नी अलवेसर परवड़ है, पीड़ कहउ कुण पालड़ है. जन्म मरण भव सागर बृडतां हे, हितसु ं हाथे झाला हे ॥ ५ ॥ अरियण कोइ गंजी सकड़ नहीं है, थायड़ बलवंत वेली हे | श्राप समोवड़ि लगतां करइ है, रूख प्रमाणड़ वेलि हे | ६ जे जग मांहे आप सवारथी हे, तेहनउ सग न कीजड़ है । काम कढू जिन हर्ष जिके हुबइ हे, आपण पउ तसु न दीजड़ है । ७ 1 १ सूरति । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली विशाल-जिन स्तवन [ढाल-सूहव री] आज लाउ मंइ भेदो, हियडइ जागी हो सुमति सुनिरमली। मनमई अधिक उमेदो, पूगी माहरी हो सगली ही रली ।१। अंतर कंचण काचो, अंतर जिबड़ो हो सर सायर खरउ । अंतर मिथ्या साचो, जिनवर बीजां होड़ बड़ो आंतरउ ।२। दीठा देव अनंतो, ताहरी समवड़ हो को नावइ सही । ताहरा गुण अरिहन्तो, किण ही माहे हो मइ दीठा नहीं।३ केहा ते कहउ देवो, स्वारथ भीनां हो जे अहनिशि रहइ । तेहनी करतां सेवो माहरउ मनड़ो हो हिवइ तो नवि वहइ।४। __ ज्यां सुपड़ि मन भ्रातो, __ त्यां सुहियडउ हो कहउ नइ किम हिलइ । भेटण नावइ खांतो, मन मोताहल हो भागा नवि मिलइ।५ तु साहिब सिरदारो, तुझ नइ छोडी हो नाथ न को करु । मई कीधी इकतारो, इण भवि तू ही हो वीजो नादरू।६। श्री विशाल गुण गेहो, मुझ नइ दीजई हो दर्शन रावलउ । कहइ जिनहर्ष सनेहो, तुझ नइ मिलिवा हो मन उतावलऊ ७ वज्रधर-जिन स्तवन [ढाल–चवर ढुलावइ गजसिंह रउ छावी महल मे] . अधिक विराजड् वज्रधर साहिवारी साहिवी जी, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी अर सेवइ सुर नर कोड़। सोवन सिंघासण हीरे जड़ियउ वैसणै जी, अर झलकै होडा होड ।१।।.। समवशरण में हो बैठा जिनवर उपदिसै जी, अर धर्मना च्यारि प्रकार । - परपद वारइ हो देसण नीकी संभलइ जी, अर सुर बोलइ जयकार ।२।।अ. कुसम वरसावे हो साहिवा जी रा महल में जी, अर विकसित जानु प्रमाण । चमर विन्हे दिशि ढालइ उमा देवता जी, अर भामंडल ज्यु भाण ॥३॥ . . . वाजित्र वाजइ हो साहिबा जी रा अति भला जी, अर श्रवणे अधिक सुहाइ । प्रभु गुण गावइ हो अप्सर मीठा कंठ सुजी, अर चारू वेश वणाइ 18 . इन्द्र उतारइ हो साहिब जी री आरती जी, अर चंदण लेपइ गात । . . कंचण वरणी हो काया तेजइ झिग-मिगइ जी, अर वदन कमल विकसात ।। ।अ.। एहची निहालू हो नयणे रूडी साहिवी जी, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जिनहर्प-ग्रन्थावली अर सेव॒ अहनिश पाय । महिर करीनइ हो सेवा घउ जिनहरख सुजी, अर शिव सुख तणउ उपाय ।६।अ.। चन्द्रानन जिन स्तवन [ढाल पथोडा रो] श्री चन्द्रानन चतुर विचारियइ रे, विरुद पोतानउ गरीव निवाज रे । जे पाछइ ही करिवउ पिणि आपनइ रे, ते तउ पहिली कीजइ काज रे ॥१॥ श्री.॥ मुझ नइ तउ तरिवर तुम थी हुसी रे, भव सायर हुती जिनराज रे ।। तउ हिवइ केही करउ विचारणा रे, बांह गह्यां री वहिज्यो लाज रे ॥२॥ श्री.।। चोरी कीधी मई तुझ सुघणी रे, चोरां सेती कीघउ गूझ रे। सार लहेसी आगली प्राणियउ रे, करम उदय जदि आसी सूझ रे ॥३॥ श्री.।। हूं मिथ्यात कदाग्रह मोहियउ रे, पोता नउ मत कीध प्रमाण रे। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I वीशी पिणि तर साची खबर न का पड़ी रे, तिणि भ्रम भूलउ फिरू या रे || ४ || श्री . ॥ कामी क्रोधी कुटिल कदाग्रही रे, धरम तणी न सुहावड़ बात रे । हसि हसि पाप दिसि पगला भरू रे, कुण गति थासी माहरा तात रे ||५|| श्री. ॥ माहरी तउ करणी छड़ एहवी रे, जेह थी लहिय नरक निगोद रे । पिण साहिब नउ बल सबलउ छई छे, तिणि मन मांहे अधिक प्रमोद रे || ६ || श्री . ॥ आझउ झाझउ मुझ नह ताहरउ रे, करिज्यो जुगती बात सुजाण रे । कहइ जिनहरख चरण शरण हुज्यो रे, ताहरा माहरा जीवन प्राण रे || ७ || श्री . || ७१ चन्द्रबाहु - जिन-स्तवन [ ढाल - गोडी मिश्र ] सुणि २ मोरा अंतरजामी, तोनह वीनति करू शिरनामी हो । तु त्रिभुवन नाथ कहावह, स्युं देइ नइ वरतावड़ हो । सु. १ | तोरउ तारक नाम कहीजड़, तार्यउ कोइ न सुखीजड़ हो । सु. | तु तर मोह तथा दल मोड़, किम सेवक नइ सुख जोड़ हो२ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जिनहर्ष-ग्रन्थावली परिग्रह राखड़ नहीं पासइ, चउनिह संघ तउ किम वासइ हो। किणही न कांई न दीवउ तउ,पिण त्रिभुवन जस लीधउ हो३ धुरि क्रोध इग्यागारा सुणिया, तउ आठ करम किम हणीया हो । अभिमान नहीं तुझ महे, तउ बड़ी प्रभुता काहे हो ।सु.४। माया केलवि नवि जाणा, सुरनर तउ किम वसि आणइ हो । निरलोभी तुझनइ कहियइ,गुण संग्रह तउ किम वहियइ हो५ तांहरा अवगुणपिणि मीठा मई तउ परतिख नयणे दीठा हो। ईसर जे करै सु छाजइ, वीजा करेइ तउ ढीढी वाजइ हो ॥६॥ मुझ सरिखउ तारि मह वासी,साचउ विरुद तारक तउ थासी हो जिनहर्ष हिवइ वणि आई, चन्द्रबाहु कोध सखाइ हो ।सु.७/ भुजङ्ग-जिन-स्तवन [ ढाल-रहउ रहउ बालहा एहनी ] स्वामि भुजंगम वीनति, एक सुणउ महाराज ||जिनजी॥ भगत वच्छल मिलि भावसु, राज गरीव निवाज ॥जि.१॥ गुण ताहरा जिम सांभलु, रोमांचित हुवइ देह । जि. ।। दीठा पाखड हो प्रीतडी, लागी अचिरज एह ॥जि.२सा ।। जाणु मिलियइ हो जाइ नइ, पूछीजइ हित वात जि.॥ पूरीजइ मन खांतड़ी, सेवीजइ दिन रात ।। जि० ३ सा.॥ १ मुझ माहे क्रोध न सुणिया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी अनमिप नयणे हो निरखिये, प्रभु सूरति सुसनेह ॥ जि०॥ आंखड़ियां ताढिक बलइ, जिस ग्रीपम रिति मेह ।।जि. ४॥ तु अंतर्गत आतमा, तू साजण तू सइण ॥ जि०॥ तुझ नइ देखिसि जिण घड़ी,सफल गिणिस दिन रइंण ।जि.५ घड़ी घड़ी नइ अंतरइ, चीता आवइ सामि ॥ जि०॥ प्राण सनेही हो ताहरइ, हुं बलिहारी नामि ।।जि० ६ सा.।। जउ मिलिवउ सिरज्यो हुवइ. तउ हिज मिलिवउ थाइ ।जि.। कहइ जिनहर्ष चीतारिज्यो, दूरि थकी महाराइ ।जि.७।सा.। ईश्वर-जिन-स्तवन [ढाल-सुरिण सुणि वालहा.] ईसर प्रभु अवधारियइ. माहरी एक अरदास । करुणाकर करुणा करउ, सेवक देखि उदासो रे ॥१॥ प्रीतम माहरा. अलवेसर अरिहन्तो रे, - भेटण ताहरा चरण हियो उलसंतो रे ॥श्री.।।२।। जाणुहूं सेवा करू. तुम'ची वेकर जोड़। राति दिवस हाजर रहूं. ए मुझ मन मई कोड़ो रे ।३। प्री.। आंखडियां अलजउ करे, देखण तुझ दीदाह । मन तरिसई मिलिवा भणी. जिम चातक जलधारो रे ।४।पी.। । १ सामी। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-प्रन्यायला सुहणा माहे सांभरई. साहित्र बार हजार । पिणि परतखि दीसई नहीं. पोतई पाप अपारो रे १५१ प्री. जिम मन चालइ माहरउ. तिम जउ चरण चलंत । इबड़ी ढील न तउ करूं, ततखिण अाइ मिलंतो रे ।६। ग्री. । जाणेज्यो मेरी चंदणा. अह ऊगमतह सूर । कह ई जिनहरख सहेजसु, मुझ नई राखि हजूरो रे।७ श्री.! नेमप्रभु-जिन-स्तवन ढाल-वडरागी थयउ. एहनो] माहरा मन नी बातड़ी रे, तुं जाणइ जगदीश । अंतरजामी माहरा रे, तिणि तुझ नाम्शीशो रे ॥१॥ सेवक बीनवई, मुझ भव सायर तारो रे । शरण ई ताहरइ. कीजई प्रभु उपगारो रे ।।२।। से.॥ तारक तउ तारइ जिको रे. अवर न तारक होई । तारक विरुद कहाविउ रे. तउ मुझसाम्हो जोयो रे ।३। से.। तई तार्या तारइ तुही रे, तू ही तारण हार । माहरी वेला कांइ करउ रे, इतरउ सोच विचारउ रे ।४। निगुण उ तउ पिण ताहरउ रे, हूं सेवक महाराज । छोरू होई उछांहला रे. मावीतां नइ लाजो रे ।। से.। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी जे कहिबउ छह तुम मणी रे, ते तउ अम्ह नइ लाज । . सीख किसी सुपरीछनइ रे, सुणि साहिव सिरताजो रे ॥६से.।। नेमप्रभु म चीसारिजो रे, धरिज्यो अविहड़ नेह । कहइ जिनहर्प विचारिज्यो रे, सइंण न दाखइ छेहो रे ॥७से.॥ वीरसेन-जिन-स्तवन [ ढाल- अाज नइ बघावो सहिया माहरइ ] जउ कोइ चालइ हो उण दिसि आदमी, तउ लिखि द्य' संदेश। __ प्राण सनेही हो श्रीवीरसेन नइ, मिलिवा मन अंदेश ॥१ज.।। कागलवाही हो जउ कीजइ किमइ, थायइ सईध पिछाण । दिन दिन थायइ हो ववती प्रीतड़ी, मिलिवा उलसइ प्राण ॥२ज.।। कागल माहे हो खांति करी लिखु, ठावा वोलि विचारि । मत निसनेही हो रीझड वाचिनइ, _ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली चापड़ मौजि पार मौजि अपार ॥ ३ज. ॥ साहिबनड़ त हो कुमणा कांन थी, पूरण पूरण चाहि । ७६ सेवक मउज न पावड़ प्रभु तणी, चूक चाकरी मांहि ॥४ज. ॥ माहरइ तउ गरज न का किणि वातरी, कहिवउ छड़ मुझ तारि । साहिब उ बाते इक बातड़ी, आवागमण निवारि ॥ ५ज. ॥ ठावा' संदेशा हो जर पहुंचाईयर, फेरि पड़ड़ कुज कोई । निज मन मांहे हो प्रभु मानइ भलो, जउ दिन सावल होड़ ॥ ६ज. ॥ करम सखाइ हो मुझ छोडड़ नहीं, पड़ियर सबल पासि । जउ जिनहर्ष महिर प्रभुनी हुई, पूगड़ सबली ग्राश ॥ ७ज. ॥ महाभद्र - जिन-स्तवन [ ढाल - मोरा प्रीतम ते किम कायर होइ ] निशि भर सूतां आज मंहजी, दीटां सुपनां मांही । १ मीठा । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीशी रोम रोम मुझ ऊलस्या रे, अंग अधिक उच्छाहि ॥१॥ जगतगुरु सुणि महाभद्र जिणंद। प्रभु सुलागी मोहनीजी, जेम चकोरां चंद जि.in. जाणु प्रभु संइमुख मिल्याजी, भागी अंतर वाड़ि । मुझ मन रलियाइत थउ जी,हिचइ ई केहनइ पाड़ि रज. रे हियड़ा तु दउड़तो जी, जेहनइ मिलिवा काज । ते साहित्र आवि मिल्या जी, पाम्यउ' त्रिभुवन राज ॥३ज.।। जेहनी बाट निहालतउ जी, धरतउ निश दिन ध्यान । ते परतखि दीठा सही जी, महिमा मेरु समान ॥४ज.।। मन मानीता मीत सु जी, केही कीजइ कांणि । कहतउ कहतउ वातड़ी जी, हियड़ा संक म आणि ।५ज.। साहिव नंड गुदराइतु जी, निज सुख दुख नी वात । इम चिन्तवतां जागियर जी, ततखिण मन मुरछात।६ज.। जउ सुहणे आवी मिलो जी, परतखि न मिलो काइ । कहइ जिनहर्प अक्यारथा जी, तुझ विण जे दिन जाई ।।७ज.।। देवयशा-जिन-स्तवन [ ढाल-के के ईश्वर लाधउ-एहनी] श्री देवयशा श्रवणे सुण्यो. १ पामिसि हिवइ शिव ! २ साहिब कचरणवान । ३ उगरणीसमउ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली दुःख भंजण रंजणहार रे. बाल्हेसर मोरा । परमेसर पीहर तो पखड़, कुण तारइ जलधि संसार रे बा.||१|| सुख दुख पाणी सुमरयड, कोइ नावइ थाग अथाह रे वा. वहइ जन्म मरण कल्लोल मई, मद आठेड् मच्छ ग्राह रे ।वा.२।। अइतो राग द्वष पारा विन्हे, क्रोधादिक गिरि सुविशाल रे ।वा.। अउ तर झूठ मिथ्यात भरम विपया रस सरस सेवाल रे वा.॥३॥ माहरो प्राणी तलफइ घणु, पड़ियउ भवसायर मांहि रे वा.। करुणा कर तर हूं नीकल, जउ काढइ तुकर माहि रे वा.||४|| तू तारइ तउहिज हूं तिरू, बीजउ नहीं तारणहार रे वा. मुझनइ आझर छह ताहरउ, बड़गी करज्यो मुझ सार रे बा.||५|| त्रीजा मुगला अवहीलनइ, हुं लागउ ताहरइ केडि रे ।वा.। १ जागि जवाल। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी निज भगत निरास न मेलिज्यो, पासइ राखेज्यो तेडि रे वा.॥६॥ कोइ तउ केहनइ अोलगइ, कोइ केहना हुइ रह्या दास रे ।वा.। जिनहर्ष भवो भव माहरइ, एक तुहीज सास वेसास रे बा.||७|| अजितवीर्य-जिन-स्तवन [ ढाल-महाविदेह खेत सुमणहउ ] अजितवीरज अरिहन्त सुं, मिलियर माहरउ मन्न लाल रे । अवर न को वीजउ लखड्, आवइ जावइ प्रछन्न लाल रे ॥१५॥ हटकु तउ पिणि नवि रहइ, रसियउ प्रेम विलूध लाल रे । प्रभु गुण मीठा मन गमइ, ज्यु साकर सुदूध लाल रे ॥२प्र.।। पलक न छोड़इ पाखती, रहइ जपतउ जगदीश लाल रे । भमर कमल ज्यु मोहियउ, चित चरणे निशदीश लाल रे ॥३प्र.! Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जिनहर्प-ग्रन्थावली तंइ कीधी काइ मोहनी, देखण तरसइ नइण लाल रे । वाल्हउ लागइ ताहरउ, दरसण वाल्हा सहण लाल रे ॥४॥ ठामे ठामे ठावका, देवल देवल देव लाल रे । पिणि ते मन माना नहीं, न करू तेहनी सेव लाल रे ॥५॥ सेवा कीजइ तेहनी, जे पूरइ मन आश लाल रे। सेवा फल लहियड नहीं, संग न कीजइ तास लाल रे ॥६.।। साहिब गुण परिमल भर्या, कहइ जिनहर्प विकाश लाल रे । वीजा सुर डहकावणा, फूल्या जाणि पलास लाल रे ॥७य.।। = कलश - [ढाल-कागलियउ करतार भणी सी परि लिखू -एहनी] विहरमान वीसे नित चंदिय रे, अढीयां दीपां मांहि । भवियण मन संदेह निवारता रे,सेवइ सुरनर पाय ॥१वि.।। ए बीसेइ सुरतरु सारिखा रे, मन वंछित दातार । भाव भगति इक चित्त आराधतां र, . - लहियइ भव जल पार रवि.।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीशी काया धनुप विराजइ पांचसइ रे, सोवन वरण शरीर । आउ चौरासी पूरव लाख वखाणिये, ___ सायर जेम गंभीर ॥३वि.॥ बारह परपद आगलि उपदिशहरे, च्यारे धरम सुरङ्ग । लंछन वृषम सहु नै सोहता रे, दीठां मन उछरंग ॥४षिः।। त्रिकरण सूधे वीसे जिन संस्तम्या रे. वीसे गीत रसाल । गुणियण गायो मिलि मिलि वे जणा रे, झिलती मिलती ढाल । ५वि.।। मुनि लोपण वारिधि निसिपति (१७२७) समे रे, मधु सित आठम दीस । वाचक शान्तिहर्ष सुपसाउले रे कहै जिनहर्ष जगीश ॥६वि.।। इति श्री वीस-विहरमान-गीतानि समाप्तानि । संवत् १७२७ वर्षे निती ज्येष्ट बदि १० दिने ॥श्रीरन्तु।श्री।] १ नउ २ समवसरण माहे बैठा थका रे. ३ तवन । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मातृका-बावनी ओंकार अपार जगत आधार सवे नर नारि संसार जपें हैं, वावन्न अक्षर मांहि धुरक्षर ज्योति प्रद्योतिन कोटि तपे हैं। सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेंद्र थपे हैं, एसो माहातम हे ओंकार को पाप जसा जाके नाम खपे हें ।१। नग्ग चिंतामण डारि के पत्थर जोउ गहें नर मूरख सोई, सुंदर पाट पटवर अंबर छोरि के ओढण लेत हे लोई । काम-दुघाघर तें जु विडार के छैल गहें मति मंद जि कोई, धर्म कू छोड़ अधर्म करे जसराज उणें निज बुद्धि वगोई ॥२॥ मच्छर तो मन को तजीयइ भजीयइ भगवंत अनंत सदाई, श्री भगवंत के जाप किये भव ताप संताप रहई न कदाई । पूजत जो प्रभु के चरणांबुज ताहि सुराधिप मांने वडाई, जो गुण गात जसा जगनाथ कोताहु कि जात मिथ्यात जडाई।।३।। सिद्ध सोई उपजें न संसार में रिद्ध सोई कह खात न खूटें, कंचन सो कसवट्ट चडे फुनि वज सोई धन घाउ न फूटें । पंडित मोई सभा • रिजाउत सूर सोई सनमुखहि जु, दांन सोई बहु मांन सुदिजें ससनेह जसा कबहुं जुन तुट्टे।४। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली ८३ धंध सवे सनबंध जसा कुण काको पिया पिय माय सनेहि, कामनि कामकला विकला सुत बंधु अग्यारथ हे निज देहि । मंदिर सुंदर घोष आवास विणास लहें खिण में फुनि एहि, जो कछु पुन्य करोगे तो साथि न साथहि आयेंगे और सवेहि |५| अगर अग्ग में जोरे दहावत तौ तो सुगंध सवे विस्तारें, चंदन काटत है जु परस्तु तो ताहि परस्सु वदन सुधारें । यंत्र में पीलत ईपन कु जन क्रू उह मिष्ट जसा रस छारें, सज्जन क्रू दुख देत दुरज्जन सज्जन तोहि न दोष विचारें || ६ || आज में काज करूगो सहि यह कालि करू गो कछूक घटे हे, गुं न कियो में कियो यह काहे क्रू राति रच्यो सविचार घटें हैं। में जूं ं कियो मेरो होत कियो सब श्राप जू आपहि माहि कटें हैं, तू जू करें जसराज वृथा प्रभु को ज्ं कियो कबहुँ न मढ़ें हैं ||७|| इंधन चंदन काठ करें सुर वृक्ष उपारि धतूरज बोवें, सोवन थाल भरें रज रेत सुधारस सू कर पाउहि धोवे । हस्ति महामद मस्त मनोहर भार बहाड़ के ताहि विणोवें, सूट प्रमाद ग्रयो जसराज न धर्म करे नर सो भत्र खोवें ||८|| ईप कह कहां आक धतूर कपूर कहां कहां लूंग कि खारि. सर कहां कहां ज्योति सद्योत निसाउ नृ आरि कहां अंधियार | रिरि कांहीं कांहां कंचन है कहां लोह कहा गज वेलि समारि, हाथि कहां खर उंट कहां कहां धर्म धर्म पटंतर भारि ||६|| Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सातृका-बावनी उद्यम थे रिद्धि वृद्धि नवे निद्धि उद्यम थे सब काज सरे हैं, भोजन मात सजाई मिलें सव उद्यम थे दुख दूरि टरें हैं। उद्यम थे सुख संपति भोग संयोग मिलें धरि केलि करे हे, उद्यमवंत जसा नर सोई निरुद्यम जाणि पर विचरे हे ॥१०॥ ऊग्यो दिवाकर दारि गमे निसि उग्यो निसाकर घाम समे हैं, पावस होत सु वृष्टि घना धन की ततकाल दुकाल में हैं । नीर त्रिखातुर पीर हरें फुनि लुंखण कू भैया अन्न दमें हैं, सीत बीतीत अगन ते होत त्यु पुन्य जसा सब पाप गमें हें ॥११॥ रिद्धि लही अरू दान दीउ नहि तउ कहा रिद्धि लही न लही है, गालि सही अरू काल सह्यड नही तउ कहां गालि सही न सही है। देह दही अरू नेह दह्यो नही तो कहा देह दही न दही हैं, प्रीत रही अरू प्रेम रह्यो नही तो कहा प्रीत रही न रही है ।१२॥ रीस क् मारि विपाक विचारि के रिस महानल देह ॥ वालें, रोस से पादर मान लहि नहि रीस पुरातन प्रीत प्रजालें। । रीस थे मात पिता प्रिय वल्लभ सज्जन सयण सम्बन्ध न पालें, गैस जमा सव लोक कू गालें जोरावर सो जोउ रिस कूचालें१३ लिप्यि लखि विधिना सिर में तन में कछु टालि जसा न टरें हैं, आरति संद्र धरे मन में यूहि देस विदेम वृथा विचरें है। उद्यम माहम बुद्धि पराक्रम कोटक दाय उपाय करें हैं, तो लख्यो सुख दुक्ख फला फल ते तो जहां तहां पान परे हे१४ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली लीयो नहि जस बास जगत्त में तो ती जसा कहा पाइ कीयउ हे, रोणस रूप मयों मृग मावज पेट भयउं भूई भार दिउं है । लाकन मई पति जाकि नहि अक्रियारथ ताहु को जनम्म जीयो हैं, मात को जोवन यात कियो कछू जातन संबल साथि लियो हें ।१५। एकन कू गजराज सुखासण एक कूपाउ न पानहि पाई, एकण कूचित्तसाल महल्ल रू एकन कू मढ़ियां जु बणाई । एजण घरिणी तरुणी सुख एकन कूपरणी दुखदाई, ए सुखी दुखीया एक दीसत सर्व जसा निज कृत्य कमाई ॥१६॥ ऐ ऐ मोह नरिंद कि राजधानि जग तीन को लोक हरायो, मोह थे सरि सज्यंभव पूत के कारण नैन में नीर वहायो । मोह थे अंध भइ मरुदेवी जगौतम केवल ग्यान न पायो, मह जसा छल्यो आद्रकुमार कूस्त के तांतण मांहि बंधायो ।१७। नोट गहि नहि कोट की चोट सहि पै सुभट्ट अहट्टत नाहिं, धान सनमुख लेतन देत हे पीठ कनें जस लेत सांहि । त्रु हणे न गणे बल नाहु को प्रांण की हाणि गण न कहांहि, हर को पंथ रु एंथ निग्रंथ को दोन बरावर हे जग माहि ॥१८॥ प्रोग्य सो करिये जसराज बरा मृत्यु रोग वियोग समावं, जन मो करियं मयमत्त सदा रहिह कह और न मा । मा मरणो करिई डरिये नहि क्र र कृतांत न आवण पावें, सत सो करिये विग्चें नहि रयण अमुलिक गांठि बंधावें ॥१६॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृका-बावनी अन्न खरो धन हे जसराज दुरभख अन्न जगत आधारें, अन्न करें उपवास तप जप दिन वुभुक्षत भूख निवारें । कीरति अन्न करें त्रय लोक में अन्न गइ अखियात वधार, जहां परग्घल अंन्न तहां हैं अन्न चतुर्गति दुक्खविडारें ॥२०॥ अक्क कटुक्क जगत्त कहावत ताके कह्यौं गुण पार न आवें, जो कछू पीर सरीर में होत ताहु परि दिनौ दरद्द गमावें । अंतरसाल रहें नहि जाहु थें सुख संजोग मिलें तनु पात्रे, सज्जन ऐसे जसा करिये गुण उगुण उपारे जोर दिखावें ॥२१॥ कूकर पूंछ हलायत पाउन वीची परें तोहि टक न पावें, देखि मतंगज मान न छारत काहु प्रवाहत चित्त हरावें । तोउ न को नव निधि मिलें बहु आदर सूजतना रहा, धीर पणो जन्मराज भलो विण धीरज सो वपरो जू कहा ॥२२॥ खार तजो मन को अरे मानव खारत देह उधार न होई, शांति भजो मन भ्रांत तजो कछू होई गजो तो करो वस्तु लोई । जीव की बात की बात निवारि के आप समान गणो सब कोई, राग न द्वप धरो मन में जस राज सुगति जो चाहिई जोई ।२३। गाज सरद्दकि रद्द मिरद्द की भीति को थिरता न रहाई, औस को तेह रहें कालुथल में जल बारि कित्ति ठिहराई । तेज कितोक झिगे खजुश्रा को नदि गीर कि जु मूतो बहि जाई, देखन कोडह को जसराज में नीको नेह न ह सुखदाई ॥२४॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %EO जिनहर्ष-ग्रन्थावली घन घोर घटा करि के वरसिं घन चातक बंद लहें न लहें, दीनानाथ को होत उद्योत दसो दिसि कोसीक तांहि न तेज सहें। सरितापति वारि अपार निहारि सछिद्र न कुभ में नीर रहें, सब दायक को लहें दान जसा किस ही न लह्यो कहा दोस कहें ।२५ निफल नागर वेलमई अरू तूं वनवेलि भई सफली हे, सोवन में सुर माई नहि दुम सुरभाई अत्यंत मिले हैं । सुंदर सोमत हे मृग के हग नारि के हीन न पूगी रली हैं, नाथ अधन्न किए सुदता जुगति नाहि वात सबे विचली है ॥२६॥ चोरि करें धन माल हरे न किसी सू डरें हैं धरे पग खोरें, मोहन मंत्र लगाई कछु ठग लोक ठगें पुनि गांठरि छोरें । अंजन चक्षु अदृश्य जहां तहां जाइ के कृत्य करे निज जोरें, चोर एते न कहा जसा भैया चोर सोउ मन माल कूचोरें ।२७। छोरि कपट्ट निपट्ट जू उवट्ट दवट्ट जो तू सुख चाहें, काम मरट्ट विकट्ट पछट्ट के क्रोध निझट्ट सुघट्ट विराहें । लोम लपट रह्यो क्युसुमट्ट उगट्ट समकित चित्त उमाहें, सुख्ख गरट्ट लहें सिव थट्ट में नट्ट जसा सव तट्ट अगाहें।२८| जिण पाणी के विंद थें पिंड कीउ जीउ आपण पंतिण में विचरेहें, चख नाक श्रवन्न वदन्न रसन्न रदन्न चरन्न हसत्त थरें है। जसराज सवे मन वंछित पूरत थंम विना ब्रह्मड धरे हैं, जिण एवो कियो सोई चिंत्त करेंगो रे तु मन काहे कूचित करे हे २६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृका-बावनी झूरें कहा धन काज अग्यानि रे झुरें कहा धन आई मिलेगो,' जो धन की चित चाहि धरें तो करे न क्यु पुन्य तुरत्त फलेगी। सुख को मूल गह्य सुख पाइए मूल विना फल केसे तू लेगी, पुन्य किया जसराज नवे निद्धि सुख सरोवर मांहि मिलेगो ।३० नारि के कारण रावण कू रघुपनि हरयो गढ लंक लियो हे; .. नारि के कारण पांडव मू पनोत्तर राय संग्राम कियो हैं । नारि के कारण भ्रात हण्यो युगवाहु सनेह विडार दियो हे, नारि जसा अनरत्थ को कारण जोउ तजे जग में सुखियो हे।३१। टेक न छोरि न छोरी रे नायक टेक अलि प्रभुता पद पायें, टेक थें रिद्ध नवे निद्धि संपद कीरति लोक जगत्त में गावें। प्राण की हांण जो होड तो होण, टेक गड कव फिहिनादे टेक को मांणम होइ जसा विणी टेक पम् उपमान कहाचें ॥३२॥ ठार के नीर कुभ भरातन वातन सुन बरे निपजें हैं, धान विना नवि जीयत बाल दलिद्र विना धन सो तो न जे हैं। चांम चिर्ये विन लोहु दिखांतन दांन बिना सनमान भनें हैं, सुख की आस धरे मन में जसराज उपाय तो दूरि तजें हैं ।३३] डरीय नहि भूत पिसाच तहें कहा भूत पिसाच करें वपरो, रन वन्न भयंकर मांहि कहा डर चोर मिल तो गहें कपरो। समसांण हैं राण परि जहां प्रांण जहां डर होइ न कोई खरो, डरीय विणु मांन लह्य जसराज अकाज मनुष्य करे निखरो।३४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली ढील भली करे ते फछु प्रारंभ आरंभ छोरत ढील न कीजें, ढील भलि अपसोण हुवें तव सोण भलें ततकाल चलीजें । ढील भलि करीइं जहा वेढि निवारण वेढि न ढील खमीजें, ढील भलि जसराज पटंतर दीजें जो दान तुरंत सो दीजें ॥३॥ नीर अथाह तरें रजनि सर छिलर मांहि तो बूडि मरें हैं, सावज कान धरें जसराज सीयालन को सुणि साद डरें हैं। फूल की माल हणि हवे अचेत न सांकल घाड निसंक धरें हैं, इगर ढूंक चडे जु पडे सुई नारि अनेक चरित्र करें हें ॥३६॥ तो लू महामति मंत मनोहर तोलू भलें गुण ताहु के लागें, तोलू कुलीन सुशास्त्र विसारद सज्जन कीरति बोलत रागें । तोलू कहें यह उत्तम वंस को सुर भले इणीक भए आगे, तोलू जसा तजि मांन महातम जात कछू किणी आगे न मांगे ३७ थोक इते जसराज कलयुग मांहि गए धन हाणि सई हे, ग्यान विग्यान सुदांन की हाणि सुमति उकचि सुरचि गई है। सुख की सीर में भीर परि अरू धीर पुरष्प कू पीर दई हैं, धर्म अधर्म विचार गयो सब सृष्टि रची विधि मानू नई हैं ।३८ देह तो व्याधि को गेह कह्यो मलमूत्र अपावन द्वार झरे हे, हाड रू मांस भरी चमरी मढी मढीया जैसें नीर गरे हैं । काच को भाजन भाजत हे छिन में तसे देहविभाज परें हैं, देह तो खह में जाइ मिलेगी जसा कहा देह को नेह करें हे ३६ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मातृका-बावनी धन्न जगत से सो जसराज संपत्ति विपत्ति में सच धरें हैं, आपकी कीरति आप करें नहीं प्रीति के वेण सदा उचरे है। दीन दुखि-जन को हित वच्छल सज्जन सूउपगार करे हे, गर्व करें नहि पाइ विभूति विभूति सुपुण्य भंडार भरें हैं।४० नैकु विचारि कहु मेरे प्राणी ममत विपत्ति को कारण हेरे, खुचि रहे हे ममत्त कुमत्ति में सो तो अनेक उदेस सह रे । देस विदेस फेरे मम नाज कर यो सुख मांन रिति न लहें रे, एह ममत्त कुमत्ति देखावत्त झत्ति तजो जसरास कहें रे ॥४१॥ पंडित नांम धरावें अनेक पे पंडित सोई सभाकू रीझावें, दान के देवणहार अनेक पें दाइक सोउ जगत्त जिवावें । दक्ष विचक्षण हे जू अनेक पे दक्ष सोई परतक्ष हसावे, सुर अनेक कहावे जसा फुनि सुर सोई अमरापुरि पावें ॥४२।। फोज विचे रण तूर नगारे घुरे केइ सुर संग्राम करें हैं, केइ प्रचंड महा भुजदंड मृगाधिप खंड विहंड करें हैं। केइ महामद मस्त पटाजर ताहि सनमुख जाइ अरे हैं, दर्प कंदर्प विदारक अल्प तिसी के पगें जसराज परे हैं ।४३॥ बृव परें तब उत्तम मध्यम कायर सूर सवे मिल धावे, आम प्रयोग होवें तब लोक सवे मिलि आइ के लाय वुझावें । जीमणवार निहार सवे नर नारि विचारी उछाह सूावें, दिन वभुक्षित घोरे कहें जसराज तवे दिग कोन रहावें ॥४४॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ जिनह प - प्रन्थावली भूख कुलीन करें अकुली नह भूख घरा घर भीख मंगावे ं, नीच की चाकरि भूख करावें रू निम्मल वंस क्रू मेंल लगावें । भूख ममावे विदेस विपत्त में दीन दुखी मसकीन कहावें, भूख समो नहि दुख जसा कोई पापनि भूख मक्ख भखावें ४५ मेह के कारण मोर लवें फुनि मोर कि वेदन मेह न जाणें, दीपक देखि पतंग जरें अंग सोक बहु दुख चित्त में नांगे । मीन मरें जल के जू विछोहन सोह वरेन न प्रेम पीछा, पीर दुखी की सुखी कहा जागे रे से सुगो जसराज बखाणें ४६ याग रच्यो बलराय छलन क्रू वामन रूप द्विजन्म हो यो, तिन चरन्न रहन्न क्रू नैकु धरा मोहि देहुइ तेहु अघायो । पावक तो गुरुङद्वज दान महीवल दायक राय कहायो, बैकुंठ दांन सुपात्र थें पावें जसा बल सो तो पताल पठायो ४७ राज्य तज्यो हरिचंद नरेसर सत्यवती निज सत्य रहायो, सत्य के कारण सीत- सती सव्य पावक पैठि कै अंग नवायो । सत्य के कारण श्री रघुराय भन्यो बनवास प्रवास पठायो, सत्य तजो सत वीर विचक्षण सत्य जसा तिहां वित्त वसायो ४८ } लूंग गलें जल संगत तें जल सीतल पावक थे प्रजले धन्य जयारि भिखारी को सांन प्रवास की नारि को सील चलें हैं । आलस विज्ज पमायें से दान संदेमें उलग्ग कछू न फले हैं, हाथ परायें करमण त्युं गुण उत्तम गर्व किये जु गलें हैं ||४६|| Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृका - बावनी aircut नारि लह्यो सपनो मन मांहि जाणई सेरे पूत भयो हैं, गावत मंगल गीत महा धुनि नांम भलो विप्र देखि दयो हैं । यस फलि डर की गुरु कि बहु पूज करी सुख मान लियो हैं, युं करतां जसराज जगी सुख डार निसास उलास गयो हैं ५० शंकर तो वृख वैठि निरंतर भीख पिया संगी मांगि जीमें हैं, ब्रह्म करें हैं कुलाल को कांम दिनेसर तो दिन राति ममें हैं । विष्णु जगत के नाथ सू तो अवतार में संकट पीर खरें हैं, कर्म थें कोई न छूटो जसा बलवंत करम्म न कोई क्रमें हैं ।। ५१ ।। खूचि रह्यो कला कीच में नीच तुमी चतो तेरे समीप रहें हैं, ना घर में थिर वास भुयंगम सो तो अचानक मृत्यु लहें हैं । सोचि जसा तेरो या घटे सरिता जल ज्यों दिन राति वहें हैं, धर्म सुधाफल छोरी के काहें कू सुख्य किपाक संराचि रहें हैं ५२ ६२ मीख भली गुरु की मानु ईप समान गुमान निवार गहें जो, दीपक ग्यान हीयें प्रगढ़ें अग्यान पतंग को अंग दहें जो । सम्यग धर्म धर्म लखे न चखें जु मिथ्यात न घात लहे जो, सिद्ध को राज लहें जसराज सदा गुर कि सिर आंख वहें जो । ५३ । हंस रू काग रहे तरु ऊपर दोड़ परस्परें चित्त मिलायो, कोई समें एक भूपति खेलत छांह निहार जसा तहां आयो । काग कुया तर्फे विट भई नृप तांग कांग से वांण चलायो, काग गयो रह्यो हंस सुवंश को नीच की संगत मृत जं पायो ५४ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली लंक महागढ बंक त्रिकूट समुद्र की खाय वनाय लही हे , रावण राज की जोर आवास विणस्सण काल कुबुद्धि भई हे। सीत हरी हरी फोज करी हण्यो रावण कू कहा बुद्धि गई है, राज गरीब नवाज बडे जसराज विभीषण लंक दई हें ॥५५॥ क्षोर सीस मुंडावत केई लंव जटा सीर केई रहावे, लू चन हाथ सू केई करे केई अंग पंचागिनी माहें धूखावें । राख यूं केइ लपेट रहे केई मोन दिगंबर केई कहावें, कष्ट करें जसराज बहुत्त में ज्ञान विना सीव पंथ न पावें ॥५६।। सेवत सर अठतिस में मास फागुण में बहुल सातिम दिनवार गुरु पाए हे, वाचक शांतिहरख ताहू के प्रथम शीख भलके अक्षर परि कविच बनाए हैं । अवसर के विचार वैठि के सभा मझार, ____ कह्यो नर नारी के मन में सु आए हैं । कहे जिनहर्ष प्रताप प्रभुजी के भई, पूरन बावन्नि गुणीयन क्रीझाए हैं ॥५७।। ॥ इति श्री मातृका-वावनी ।। The Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा बावनी पक ओम् अक्षर सार है ऐसा अवर न कोय : ____ शिव सरूप भगवान शिव सिरसा बंदू सोय ॥१॥ नमियै देव जगद्गुरु नमियै सद्गुरु पाय । दया जुगत नसियै थरम शिवगत लहै उपाय ॥२॥ मन तें ममता दूर कर समता पर चित मांहि । रमता राम पिछाण के, शिवपुर लहै क्यु नाहिं ॥३॥ शिव मंदिर की चाह घर अथिर मंदिर तज दूर । लपट रह्यौ कहा कीच में अशुचि जिहां भरपूर ॥४॥ धंधा ही में पच रह्यौ प्रारंभ किउ अपार ।। उठ चलेगो एकलौं सिर पर रहेगौ मार ॥५॥ अन्यायोपार्जित अदत्त धन बहुत रीत फल सोय । दान स्वल्प फुनि फल बहुत न्यायोपार्जित होय ॥६॥ आतम पर हित आपकु क्या पर को उपदेश । निज आतम समझ्यौ नहीं कीनौ बहुत कलेश ॥७॥ इतना ही में समझ तु बहुत पढ़े क्या ग्रंथ । ___ उपशम विवेक संवर लद्यौ यात शिवपुर पंथ ॥८॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनह - प्रन्थावली ईति मीति यातें रही प्रगट भई शुभ रीति । f नीत मार्ग पैदा किउ सो गाउ ताके गीत ॥६॥ उदय भयें रवि के जसा जायें सकल अंधार | त्युं सद्गुरु के वचन तें मिटे मिथ्यात अपार ||१०|| ऊगत बीज सुखेत में जसा सकल संजोग । त्युं सद्गुरु के वचन तें उपजत - बोध प्रयोग ॥ ११॥ एक टेक घर के जसा निर्गुण निर्मम देव | दोप रोप जाम नहीं करहुं ताकी सेव ॥ १२ ॥ ए विषम गति कर्म की लखी न काहू जाय । रंकन तें राजा करें राजा रंक दिखाय ||१३|| ओस विन्दु कुश अग्र तें परत न लागै वार | आयु अथिर तैसें जसा कर कछु धर्म विचार || १४ || औषध न मिले मीच कु यातें मरै न कोय | कर औषध जिन धर्म कौ जसा अमर तु होय ॥१५ अंध पंगु जो एक है जरै न पावक मांहि । 'त्युं ज्ञान सहित क्रिया करे जसा अमरपुर जाहि ॥ १६ ॥ अमर जगत में को नहीं मरे असुर सुरराज । गढ़ मढ मंदिर ढह पड़े अमर सुजस जसराज ॥१७॥ कंचन तैं पीतर भए मूरख मूढ गमार । तजै धर्म मिथ्यामति मजै धरम अपार ॥ १८ ॥ L { ६५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा-बावनी खल संगत तजियै जसा विद्या सोभत तोय । पन्नग मणि संयुक्त तँ क्युन भयंकर होय ॥१६॥ . गाज शरद की कारमी करत बहुत आवाज । ___ तनक न वरसै दीन त्यु कृपण न दै जसराज ॥२०॥ घरटी के दो पड़ विचै कण चूरण ज्यु होय । त्युदो नारी विच पड्यौ सो नर उगरै नहीं कोय ॥२१॥ नहीं ज्ञान जामै जसा नाहिं विवेक विचार । ____ताको संग न कीजियै परहरियै निरधार ॥२२॥ चपला कमला जान कै कछु खरचौ कछु खाउ । ___ इक दिन भोइ सोबौ जसा लंबा करकै पाउ ॥२३॥ छल कर बल कर बुद्धि कर कर के जसा उपाय । आतम वरावर आपणौ दुरिजन दूर नसाय ॥२४॥ जुवती सब जुग वश कियौ किसी न राखी माम । ___ जो यातै न्यारौ रहै ताकु जसा प्रणाम ॥२५॥ झाझी वात न कीजिये थोरा ही में प्राण । जसा वरावर लेखवो सो आप प्राण पर प्राण ॥२६॥ नग दुहिता पति आभरण ताको अरि जसराज । तस पति नारी विण पुरस न बधे शोभा लाज ॥२७॥ टाणा टूणा छोर दै याते न सरै काज । चोखै चित जिन धर्म कर काज सरै जसराज ॥२८॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली ठग सो जो परमन ठगै पर उपजावै रीझ । जसा करें वश जगत को साचा ठग सोईज ||२६| करे कहा जसराज कहै जो अपने मन साच । far में परगट होयगा ज्यु प्रगटाये काच ॥३०॥ ढा कोट अज्ञान का गोला ज्ञान लगाय । मोहराय कु मार ले जसा लगे सब पाय || ३१ ॥ नदी नखी नारी तथा नागणि खग जसराज । नाई नरपति निगुण नर आठे करें अकाज ||३२|| वारे ज्यु नर कु जसा भवसागर में पोत । त्युं तारे गुरु भव निधि करै ज्ञान उद्योत ||३३|| थोम लोभ नहिं जीव कु लाख कोड़ धन होत । समता ज्यु या जसा सुख सदा मन पोत ||३४|| दक्षिण उत्तर च्यार दिश जसा भमै धन काज । प्रापति विना न पाइयें करौ कोड़ि का ||३५|| , धन पाया खाया नहीं दीया भी कुछ नांहि । सोवां गुल होवें जसा ढुंढत है धन मांहि ||३६|| निगुण पूत नारी निलज कूप हि खारौ नीर । निपर मित्र जसराज कहै चारु दहै शरीर ||३७|| पर उपगारी जगत में अलप पुरुष जसराज | शीतल वचन दया मया जाके मुख पर लाज ||३८|| さい ६७ " Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दोहा-बावनी फौज दिशौ दिश में लगी जसा धुरे नीसाण । - झूझै सन्मुख जायके सूर गणे नहीं प्राण ॥३६।। व परै सब दोरहै ले ले आयुध हाथ । बदन मलीन करै जसा जाचै कोई अनाथ ॥४०॥ भगत भली भगवंत की संगत भली सुसाधः । औरन की संगत जसा आपहर उपाध ॥४१॥ मूरख मरण न देखियत करत बहुत आरंभ । __सात विसन सेवै सदा करै धर्म विच दंभ ॥४२॥ . याग करै प्राणी हणे भाखै धर्म उलंठ। देखो ज्ञान विचार के क्यु पावै वैकुंठ ॥४३॥ , रीस त्याग वैराग धर हो योगी अवधृत । शिव नगरी पावै जसा कर ऐसी करतूत ॥४४॥ लहणा दैणा कुछ नहीं मुंह की मीठी वात । रिदय कपट धरै जसा ताके सिर पर लात ॥४॥ वरसै वारधि अहो निशि खाखर तीतो पान । भाग्य बिना पावै नहीं जाचक दाता दान ॥४६॥ संख सरीखा ऊजला नर फूटरा फरक । __ जसा न सोभै ज्ञान बिन ज्यु बुटी काम धरकः ।।४७॥ खरौ पंथ है सूर को रण विच मुड विहंड । पाछा पाव धरै नहीं जो होवे सतखंड ॥४८॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली सायर भोती नीपजै हीरा हीरा खाण । ज्ञान ध्यान तिहां-नीपजै जिहां सदगुरु की वाण ॥४६॥ ' हस्त हि मंडन दानं है घर मंडन वर नार । ___ कुल मंडन अंगन जसा मानव मंडन सार ॥५०॥ लंछन निशिपति शान्तरुचि सूरज लंछन ताप । दाता लंछन धन बिना सबहु दिया सराप ॥५१॥ क्षान्त दान्त समता रता हणो नहीं षटकाय । जसा ज्ञान क्रिया मगन सो साधु कहवाय ॥५२।। सतरै सै त्रीसै समै नवमी सुकल प्राषाढ । दोधक बावन्नी जसा पूरन करी कृत गाह ॥५३।। ॥ इति दोधक बावन्नी सम्पूर्णम् ।। लिखित । वच्छराज श्री इन्दोर मध्ये लिपिकृत स्व हस्तेन] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M CORPORDAN % EWS उपदेश-छत्तीसी अथ जिन स्तुति कथन सवइया ३१ सकल सरूप जामै प्रभूता अनूप भूप, धृप छाया माया है न जैन जगदीस जू । पुन्य है न पाप है न सीत है न ताप है न, जाप के प्रताप कटै करम अनीस जू । ज्ञान को अंगज पुज सुख वृक्ष को निकुंज, अतिसे चोतीस फुनि वचन पैंतीस जू असो जिनराज जिनहरख प्रणमि उप देश की छतीसी कहुं सवइयै छतीस जू ॥१॥ अथ अथिर कथन सवइया ३१ अरे जीव काची नींव ताह परि अमारति, ते तो अति गति करि जोर सी उठानी है । __ तू तो नही चेतता है जानता है रहगी दिढ, मेरी मेरी कर रह्यौ यामै रति मांनी है। ग्यांन की निजरि खोलि देखि न कछू है तेरा, , मोह दारू में छकानो भयो अग्यनांनी है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप ग्रन्थावली कहै जिनहरख न ढहत लगैगी बार, कागद की गुडी कोलु रहै जहां पानी है ।।२।। अथ काया स्वरूप कथन सवइया ३१ काहे काया रूप देखि गरव करै है मूढ, छिन मै विगर जाय ठाम है असार की । पट्खंड जाकी आंण भांण सोम बन तेज, - चक्रवर्ति की समृद्धि भी अपार की । चात इंद्रलोक मांहि असो कहू रूप नाहि, देय तहां आए जात करण दीदार की ।। ___ कहै जिनहरख विगर गई पलक मै, यैसी खुब काया होती सनत कुमार की ॥३॥ पुनः काया स्वरूप कथन सवइया ३१ काया है असुची ठाम रेत की मढी है ताम, चांम सौ गही है भया बंधी नसां जाल सू । ठोर ठोर लोहं कुंड कसन के बधे झुड ___ हाडन सु भरी भरी बहुत जंजाल मूं। __ श्लेखमा को गेह मलमूत तूं बंधी है देह, निकसे असुभ नवद्वार परनाल स् । असी देह याही के सनेह तूं तो मयो अंध, कहै जिनहरख पचै है दुख झाल तूं ॥४॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ उपदेश छत्तीस अथ लोभ स्वरूप कथन सवइया ३१ माया जोरि कुंजीव तलफत है अतीव, देस तजि जाय परदेस परखंड जूं । जंगली जिहाज बैंठौ जल निधि मांहि पैसे, लोभ को सरोय गा है गिर पर चंम जू । भूख सह प्यास सहै दुर्जन की त्रास सहई, तात मात भ्रात छोरि हाॅ खंड खंड जू । सो लोभी लोभ के लिये हैं दुख सह कोरि, कहैं जिनहरख न जांगें है त्रिभड जू ||५|| अथ क्रोध कथन सवइया ३१ को छोरि मेरे प्राणी कुगति की सहिनाणी, इहे वीतराग वांणी सुख सुणि लीजियें । क्रोध तैं सनेह छूटै मै प्रेम तै हू, क्रोध तें सुजस नांहि प्रथम गिणीजीयै । खंदक सरीस को क्रोधन तै देस दह्यो, तप सब हारि गयो वेद में सुगीजीयें । द्वारिका को कीनो दाह दीपायन क्रोध ठाह, सो क्रोध है जिनहरख न कीजिये ॥ ६ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली अथ मान दूषण कथन सवइया ३१ अधम न करि मांन मांन कीयै है है हांन, मांन मेरी सीख मांन सुख ग्राही मान रे । मांनतें रावण राज लंका सू गयो वेकाज, कियो हैं अकाज लाज गई सब जाग रे । दुर्योधन मान करि हारी सब धर अरि, मांन तै गयो हैं सुज चातुरी की खांणि रे । कहै जिनहरख न मांन ां मन मै, यह तो दसारणभद्र जैसो मांन आण रे ||७|| अथ माया दूषण कथन सवइया ३१ माया का करें मूढ छोर दे माया की रूड, माया भली नांहि जांणि तोनू है विचारी ज् 1 नासिजै है मित्राचार प्रीत मै वढै विकार, सजन की सजनाई छूटै तूटै मांरी जू । t १०३ माया हुं टूट सूट हैं खर वृखम उंट, मलिनाथ माया साथ भयो वेद नारी ज् । माया दुरगति ठौर छौरि कहा करूं और, कहै जिनहरख ज्यू है है अविकारी ज् ||८|| Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ उपदेश छत्तीसी अथ लोभ दूपण कथन सवइया ३१ __ माया काहें कु वढावइ काहू के न साथि श्रावै, आई न आवैगी देख चित्त में विचार कै । माया कटायै सीस लार वहै निस दीस, भूप गहै दहै आगि चोर ल्यहइ मारि के। सुपन लह्यो ज्यु राति कारमी ह बात जान, तैसै माया क्युन देखै आंखिन उघारि के । कह जिनहरख हरख धरि करतूत, मेरे यार नंदराय कुल्दो संभारि कै ॥६॥ अथ संसार असार स्वरूप कथन सवइया ३१ यौ तौ है संसार सविक्रार कछु सार नही, दीसता है मेरे यार छार ज्यु असार ज्यु। काहै लपटाय रहै काहे कुतु दुख सहै, काँहै भ्रम भूलो श्रम भूला है अपारी जू । जासु तू कहत सुख सो तो दुख रूप आही, - माखी जैसे रही लाग मिठाई मझार जू । काहै जिनहरख न उडि सकै धकै परी, तकै चिहुं ओर असो जाणिले संसार जू ॥१०॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली अथ प्राणातिपात कथन सवइया ३१ जीव जो मारै नर पातिक को सौउ घर, पर भव कौ न डरै महा जम राण जू । तनक भी दया नावै सुचि कबहु न पावै, ... डांण बाहै भैसै ज्यु कपोत कु सींचाण ज्यु । खायै तो उपर मंस तामै नही धर्म अंस, वंसन को जारिवै कु पावक प्रमाण जू। दुरगति वास वाळू सुगति न ठाम ताकू, दुख सहै कहै जिनहरख सुजाण जू ॥११॥ अथ मृषावाद कथन सवइया ३१ प्राणी मेरे कर जोर तो मैं करू निहोर, सृखावाद छोरि छोरि कोउ न सवाद रे । वचन सके न बोल निपट निटोल कीरति जै है अमोल अंग उदमाद रे। बदन की गंध दुरगंध सहीजै न बंध, अंध''कंध धंध ही मै मति छवि छाद रे । कहै जिनहरख न सांन सनमान अग्यान व है- जाथे ऐसो मृषावाद रे ॥१२॥ अथ अदत्तादान कथन सवइया ३१ लहै जो अदत्ता-ममता-मै रत्ता मत्ता रहे. तत्ता फिरै लोह ज्युदुचिता नांहि चैन ज्यु। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ उपदेश छत्तीसी कहुं न वेसास ताहि आस पास धन नास, हास करै डरै सब कोई वाके सैन ज्यु। चोर सो कहावै भावै कुल कलंक लावै, चावै अपजस पावै पाप भरै नैन जू । कोउ न प्रतीत धरइ पातिक सुजाइ अरै, कहै जिनहरख श्रवण सुंणि वैन जू ॥१३॥ अथ मैथुन कथन सवइया ३१ कामनी रुचि भोग हिलि मिलि कै संयोग, मानै सुख सब लोक नाम लेवै ताक जू । तासू लागि रहै मता बंध है करम सत्ता, परभव दुख मानू फल है विपाक जू । आप सु कहु न बूझै करम जाल में अरूम, विषयन में अमूझै सूझै न वेपाक जू । कहै जिनहरख न काम तै बढे है मान, व्रत भंग कीधइ परै ठोर ठोर धाक जू ॥१४॥ अथ परिग्रह कथन सवइया ३१ परिग्रह छोरि देहु सुगुरू की सीख लेहु, बंध मै परै है काहै रहै निरवंध रे । परिग्रह भीर पर्यो लोह जंजीरन जर्यो, निकसि सकै न अर्यो तूं तो भयो अंध रे । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pove जिनहर्ष ग्रन्थावली यौ तो है कठिन अंग तिछन जैसो निषंग, अंग अंग सालि संग दुकृत को खंध रे । तू तो परिग्रह छोरि रहै तो अखंड तैरे, कह जिनहरख समझि सब बंध रे ॥१५॥ अथ रात्रिभोजन वर्जित कयन सवइया ३१ रैण चोर वहै वाट सव रोकि रहै घाट, रैण पसू अन्न गल बंध न बंधाइयै । पितर न झेलै पिंड कालिमा अखंड दंड, दान सील तप भाव धर्म न पाईयै । मृतक न जारीयत भुइ मै न गारीयत, सतीय न काठ गहै पूजा न रचाईयै । अन मांस सम वरि लोहूं जल एक एक, रैण जिनहरख भोजन कैसे खाईयइ ॥१६॥ अथ दान महिमा कथन सवइया ३१ देहु दांन सीख मांन दोन तें अचल थान, राव रांणा छ है दांन ग्यानी दान देहु रे । सवा भार कंचन करण दीधो लीधो जस, दांन तै विक्रम भयो सुजस को गेह रे । भोज मुज विद्या पुंज दान तै भए अगंज, चलिराउ आगै हरि धरा दांन लेह रे । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उपदेश छत्तीसी वीरोचन तन तैं छुडाय दीयो विप्र सुत, दांन तै वढे हैं जिनहरख सनेह रे ||१७|| अथ सील महिमा कथन सवइया ३१ बैट को करईया महाजन को मरईया उपशम को हरईया क्रोध भयो ही रहतु है । तप को गमईया जांगे खांग को समईया नही, मौर ज्यु समईया श्रम खेध मै सहेतु हैं । तुष्ट को दमइया रंग रास को रमईया सब, नागर न मैया भया स्वईच्छा मैं तु हैं । सो दुराचारी मारी नारद लह है मोख, सील तैं सलिल जिनहरख कहते हैं || १८ || तप कथन सवइया ३१ सु दिढपहारी चोर महापातिकी अघोर, च्यार हत्या कीनी जोर साहुकार नंद जू । अर्जुन मालागार मोगर हथ्यार ग्रहि, पट नर नारि एक करति निकंद ज् । सौ महापापी दोउं तप तें तरे है सोउ, सेवै सुरनर हरकेसी कु आणंद जूं । विसनकुमर जिनहरख जोयण लाख, रूप कियौ तपहुं तै चाढ्यौ नाम चंद जूं |१६| Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिनर्प-ग्रन्थावली १०६, अथ भाव महिमा कथन सवइया ३१ प्रसनचंद मुनीस संयम गहि जगीस, कंवली भयो है सब करम खपाइकै । इलापुत्र वंस परि खेले है हरख धरि, “ . केवल लडो सु परि ज्यांन मन लाइ कै । कूरगडू अणगार केवली कपिल सार, खंदक सुसीस अइसुकमाल भाइ कै । ददुर भयो देवेस दुरगता सरग लह्यो, भाव जिनहरख अचल होत जाइ कै ॥२०॥ ' अथ अल्प आयु कयन सवइया ३१ तेरी है अल्प आयु तू तो खेलता है डाव, जाणे है जीवन मेरो कबहुं न तूटैगो । यो तो है नदी का पूर दिन दिन घटै नूर, करत अकाज नहीं लाज कैसे छुटैगो । कंठगति प्राण तेरै हगे वल प्राण घेरे, आई जमरांण जब तोकू गहि कूटैगो । कहै जिनहरख न कोउ तेरो रखवाल, देखत ही काल ठाल काया कोट लूटैगो ।२१। अथ शिक्षा कथन सवइया ३१ । जागि रे अग्यानी जागि काहं माया सू लागि, रह्यौ है. जलत आगि मांहि क्रांहि दामे है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० उपदेश छत्तीसी करि कै कपट कोट खेल कै अतारी चोट, . धन मेलवे कूदोर दे कै काम साझै है । जाणै है मै जोरवर मोहूं सुन कोउ नर, - धन की कमाउ वर पिंड प्राण जाम है। काहुं कुकठोर पाप करि कै बंधावै आप, आपणी ही वुद्ध आपलूत जैसे बाझै है ॥२२॥ अथ एकत्व भावना कथन सवइया ३१ ___ काके कहौ घोरे हाथी काहू के सवल साथी, काको माल घरा भया देस गढ़ कोट रे । काहू के हिरण्य हेम काकी मृगनैणी पेम, तात मात भ्रात काके काके धोट जोट रे । काके छूने धवलहर मंदिर महिल काके, काहू के भंडार भरे एते सब खोट रे। कहै जिनहरख काहू के न का कौतुही, ताथै मन चेत चेत आयो धरम ओट रे ॥२३॥ अथ धर्म प्रीति कथन सवइया ३१ जैसी तेरी मति गति रहत एकाग्रचित, गति द्यौस दौरि दौरि हौस सु कुमाव है। रूप की धरणहार अपछर अणुहार, श्रेसी नारि देखि देखि जैसै मन ल्याव है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-प्रन्थावली पिंडहू ते प्यारे पूत को रहा सूत, निरखि निरखि जाको दरस सुहा है । जिनवर धर्म जो सी प्रीति धरै जिनहरख तुरत परम गति कु पावै है ||२४|| अथ प्रयु स्वरूप कथन सवइया ३१ जैसे अंजुरी कौ नीर कोउ है नर धीर, छिन छिन जाइ वीर राख्यौ न रहात है । तैसें घटि जै है उ कोटिक करो उपाउ, थिर रहै नही सही वातन की बात है । मैं जीव जांणि कै सुकृत करि धरि मन, समता मै रमता रहै तो नीकी घात है । CRONES जोउ जोग ध्यान धरै काहू की न आस करै, श्ररज सबद जरै लागे है न दाग जू । थिर देही सु उपगार यौ हो सार जिनहरख सुथिर जस मौन मै लहातु है ||२५|| श्रध वीतराग स्वरूप कथन सवइया ३१ मन ममता न माया कारमी गिरौ है काया, र ग्यानामृत धाया जब सो ताग जू । छोय है संसार पास जाई रहै वनवास, रहत सदा उदास अजब सोभाग जू । १११ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ उपदेश छत्तीसी सरल तरल मन राग दोष कौं न धन, जिनहरख कहै वीतराग जू (१) ॥ २६ ॥ अथ शुद्ध गुरू कथन सवइया ३१ गैर उपदेश हरें आराम उपदेश धेरै, विरुद्ध करै न भव जल निधि पाज है । पुन्य पाप दोनू कहें धरम को भेद लहै, परिसह सब सह कारो धन सु काज है । कृत्य अरू अकृत्य स्वरूप सब उपदिसै, ग्यान दरसण विध चरण समाज है । सुगति कुगति जिनहरख कहत पंथ, जुगवासी तारवै कु सुगुरु जिहाज हई ||२७|| ' अथ महा रूढ कथन सवइया ३१ अरे हो अग्यानी अभिमानी गुरु वांगी सुगं तू तो भव भ्रम करत नही लाज है । , के काल भये तोकू जाणे न तो बूझि मोकू श्रवण सिद्धांत सुणि कर्म दल भाज है । जागि, है सचेत चित समता समेत यहाँ लहौ मेदह जमरां नित खाज है । कहै - गुरू तो ते न धरै उर, पांणी मै पांखण जैसे किधू सरद गाजै है |२८| Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली अथ गुरु हितोपदेश कथन सवइया ३१ चौगति को फैर असो पात ज्यु वव्युला कैसो, कंदुक चौगान बीच दुख त्यौ सहीजीये । लहै न विश्राम जीउ जहां तहां करै रीउ, खेध मै पर्यो ही रहै सदेव कहा कीजिये । । भ्रमत भए उदासी धर्म की जो लेव भासी, __ तोरि कै संसार फासी धर्म ओट लीजीय । धर्म तई न कर्म लागें मन के भ्रमण भागै, बोध बीज जागे जिनहरख कहीजीय ॥२६॥ अथ स्वभाव मिलन कथन सवइया ३१ .. जैसै घनघोर जोर आय मिलै चिहुं ओर, पवन को फोर घटत न लागै वार जू । सिरता को वेग जैसे नीर तै बढे है तैसे, छिन में उतरि जाइ सुगम अपार जू । माय मिलै आय उद्यम कीयै विनाय, सुकृत घटै है तब जैहैं कई लारजू । असो है तमासो जिनहरख घन (१) धन दोउं मिलै आइ जोईयो विचारजू ॥३०॥ अथ पाप फल कथन सवइया ३१ पाप तै बढे है कर्म कर्म तई बर्दै है भर्म, .. 'दोनु भया पातिक के वीजरे (?)। . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ उपदेश छत्तीसी सौ बीज जोउ वावै सुकृत कमाई खोवें, सै ताके फल होवै वचन पतीज रे । प्रथम लहै है जाति भटकत द्यौस राति, श्रीतम वियोग जोग खल देख्यां खीजरे । दरिद वढै है गेह अपजस को न छेह, क्रूर जिनहरख कहूं तौ करि धीज रे ||३१|| अथ नवकार महिमा कथन सवइया ३१ सुख को करणहार दुख को हरणहार, मुगति कौ दैहार मध्य उर हार जू । भय को संजहार रि कौ गंजणहार, मन कौ रंजणहार नित अविकार जू । यौही नीको मंगलीक समरण निरभीक, महामंत्र तहतीक महिमा अपार जू । चवद पूरव सार जीव को परम आधार, जिनहरख समर नित प्रति नवकार जू ||३२|| अथ पुन नवकार महिमा कथन सवइया ३१ याकै समरण भयो नाग फीट धरणिंद, इंद पद लौ सब जात संसार जू । 7 संबल कंबल बैल aft निज मन मैल लही सुरगति सैल लह्यौ सव पार जू । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली श्रहि हि फीट फूलन की माल मह दई फेर, श्रीमयमती महासती कुल उजवार जू । सोवन पुरस सिवकुमार सिद्ध भयो, सो जिनहरख सुं मंत्र नवकार जू ||३३|| ग्रंथ जीव परिग्रह लोलप कथन सवइया ३१ सदन मै अदन मिले न कहूं नैकुवार, पेट पीठ एक कीनी भूख न पछारी कै । वैर कि वैरणी रिणी अनंत अंत से, पूत अवधूत करे तातन कुमारि कै । बहुत फिरे हैं नाग नकुल खेलें है फाग, गेह मांडी चूटे घूसि छ दर मारि कै । ऐसt परिग्रह जिन्हरख न छोरें तोउ जीव की कठिनताई देखौ धू विचारि कै । ३४ | ग्रंथ धर्म परीक्षा कथन सवइया ३१ धरम धरम कहै मरम न कोउ लहै, भरम मै भूलि रहै कुल रूह कीजीये । कुल रूढ छोरि कै भरम फंद तोरि कै, सुगति मोरि कै सुग्यान दृष्टि दीजीयै । ११५ दया रूप सोइ धर्म तह कठै है कर्म, भेद जिन धरम पीउप रस पीजीयै । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश छत्तीसी करि कै परिख्या जिनहरख धर्म कीजै, कसिकै कसौटी जैसे कंचन लीजिये ॥३५॥ अथ ग्रंथ समाप्त कयन सवझ्या ३१ भई उपदेश की छत्तीसी परि पूर्ण चतुर है जे याको मध्य रस पीजीयै । मेरी है अलपमति तो भी मैं कीयों कवित्त, कविताह सौ हौ जिन ग्रंथ मान लीजिये । सरस है है बखाण जोड अवसर जाण, दोइ तीन याके भया सवइया कहीजीयै। .. कहै जिनहरख संवत गुण ससि पराय. कीनी है जु सुणत स्यावास मोकू दीजिये ।३६। ॥ इति श्री उपदेश छत्तीसी । - ६ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM दोधक-छत्तीसी जिण दिन सजण बीछड्या, चाल्या सीख करेह । नयणे पावस ऊलस्यौ, झिरमिर नीर करेह ॥१॥ सजण चल्या विदेसड़े, ऊमा मेल्हि निरास । हियड़ा में ते दिन थकी, मात्र नाहीं सास ॥२॥ जीव थकी वाल्हा हता, सजनिया ससनेह । आडी झुंय दीधी घणी, नयण न दीसै तेह ॥३॥ खावी पीवों खेलवौ, काइ न गमई मुझ । हियड़ा मांही रात दिन, ध्यान धरू इक तुज्क ॥४॥ सयणां सेती प्रीतड़ी, कीधी घणे सनेह । दैव विछोहो पाड़ियो, पूरी न पड़ी तेह ॥५॥ सयणां सेती जीमतौ, संतो पिण सैण । कहियै सैण न वीसरइ, ध्यान धलं दिन रैण ॥६॥ सुणि सजण तुझ नै कहूं, मुझ मन बीसारेह । एक बार इक बरस मंइ, हित सू चीतारेह ॥७॥ - थोड़ा बोला पण सहा, नाणे मन में रीस । एहा सजण तो मिले, जो तू जगदीस ॥८॥ पंजर छइ मुझ पाखती, जीव तुमारे पास । राति दिवस दोलौ भमै, (ज्यू) चंदो भमै अकास ॥६॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली सजण तू मो मन वस, जिम चकवी मन भाण । बीसारू तुझ नैं नहीं, जो लगी घट में प्राण ॥१०॥ सलन करा गुण घणा, न लहूं अंत न पार । ते सञ्जण किम वीसरे, आतम ना आधार ॥११॥ सज्जन मीठा बोलड़ा, जेही मीठी खंड । आरी नै संभळावता, सीतळ करता पिंड ॥१२॥ मन ऊल्हसतो माहरौ, देखि सुरंगा सैण । ते सज्जण थी बीछड्यां, झूरण लागा नैण ॥१३॥ सञ्जण वैण सुणावता, सीतळ करता गात । दैव विछोही पाड़ियो, किम जास्यै दिन रात ॥१४॥ सजण मुख देखि करी, पूरवतो मन हाम। ते सजण थी बीछड्या, हिवे जीवणौ हरांम ॥१५॥ सज्जनिया मो चित्त चढ्या, (ज्यू) चावळ चटै निलाड़ि। वाल्हा अकरसौ चळे, माहिन तिके दिखाड़ि ॥१६॥ 'चतुराई, छति, मति, उकति, नैण, वैण मुख मिट्ट । अकणि मोरा चित्त मई, अवर न क्या ही दिड ॥१७॥ सज्जण तै चोरी किरी, किणे पुकारू जाय । हियड़े लोही काढि ने, तन मन लियो छिनाय ॥१८॥ तू ही मोरी प्रातमा, तू हीज मोरो जीव । सास तणी परिसासतो, संभारि सदीन ॥१६॥ मज्जण संनड़ी मांहरो, दीघौ छ तम हाथ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोधक छत्तीसी जिम जाणो तिम राखिज्यो,मरण जिवण तमः साथ॥२०॥ सज्जणम नड़ो माहरो, मूक्यो छै तम पास । जतन करीनै राखज्यो, मत मेलौ नीरास ॥२१॥ घाघरा कहिये किसू, कहतां आचै लाज । अातमा ना आधार छौ, सज्जनिया सिरताज ।।२३।। सज्जण तुम झू वातड़ी, कीधी छै दोय च्यार । ते संभारी जीव सू, एहिज मुझ आधार ॥२३॥ जे सूमननी प्रीतड़ी, ते सज्जण परदेश । हियड़ा कांई फाटै नहीं, जीवी कहा करेस ॥२४॥ 'हियड़ा भीतरी तूं वसइ, अवर न जाणे सार । कै मन जाणे माहरो, के जाणे करतार ॥२५॥ सूतां सपनां में मिले, जो जागू तो जाय । चित्त वसतां सज्जणां, इण परि रयण विहाय ॥२६॥ सैणां साथै प्रीतड़ी, कीधी सुख नै काज । सुख सपना ज्यू वह गयौ, दुख लीधौ तंइ काज ॥२७॥ रे चतुरंगी चोरड़ी, तैं मन लींधौ चोरि । राख्यो आपण वस करी, वांध्यौ गुणनी डोरि ॥२८॥ वीसरियां न वीसरइ, चीतारियां दहदंति । सज्जण हियडै बसि रह्यो, सुपनै आय मिलंति ॥२६॥ सज्जण सेती गोठड़ी, जो मेले करतार । (तो)काई विछोही पाड़ियौ, काई दुख दियौ अपार॥३०॥ . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जिनहर्प-ग्रन्थावली सज्जण हियडै बसि रहया, नयणै नवि दीसंति । जमवारो किम जायसी, मुझ मन सवळी चिंत ॥३१॥ नमणा खमणा बहु गुणा, कंचन जिम कसियांह । एहा सज्जण माहरै, हीयड़ा में बसियांह ॥३२॥ सज्जण सेती गोठडी, जे मेलै जगदीस । हित सूहियड़ा ऊपरे, तउ राखू निसदीस ॥३३॥ सज्जण तू मो बालहो, जेहो वाल्हो दाम । आठ पहुर हियड़ा थकी, कदे न मेलू नाम ॥३४॥ सज्जण थया विदेलड़इ. क्यू करि मिलियै जाई । देव न दीधी पांखड़ी, न मिला कोई उपाइ ॥३५॥ मुख मीठा दीठा गमइ, अमी अरया दोय नैण । सज्जनिया सालै नहीं, सालै सज्जन वैण ॥३६॥ सयण संदेसा श्रापबो, सैगू माणस साथि । आणि नै ते मो भणी, आपै हाथो हाथि ॥३७॥ दोधक-छत्तीसी रची, सैणां हंदै काज । हेत प्रीत कागळ लिखी, सोकळिजो जसराज ॥३८॥ (श्री अगरचंद नाहटा रै संग्रह) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बारह मास रा दूहा :पीउ न चलो पदमिणी कहै, आयौ मगसिर मास । चहुं दिसि सीत चमकियो, वाल्हा हियै विमास ॥१॥ ऊनषियो' उतराध रो, पाळो पवन सू जोय । पोख मास में गोरड़ी, कदे न छडै कोय ॥२॥ माह महीनै सी पड़े, इणि रिति चले वलाय । ऊडै पड़वै पोढिये, कामणि कंठ लगाय' ॥३॥ फागुण मास वसंत रित, रीत सुणि भरतार । परदेसां री चाकरी, जाइ कुण गमार ॥४॥ चतुर महीने चेत रे, हुप्रो ज चलणहार । तुंग कसै तुरियां तणां, साथीडां सिरदार ॥ ५ ॥ पिउ वैसाखे हालियो, सैणा सीख करेह । ऊभी भूरै गोरड़ी, डव डब नैण भरेह ॥ ६॥ लू बाजै दिणयर तपै, मास अतारौ जेठ । आंख्यां पावस उल्लस्यो, ऊभी मेड़ी हेठ ॥७॥ (१) उल्हरीयो उत्तर दिसा (२) सयोग (३) जोग (४) रुकाय (५) सुण भोगी (६) चाले (७) थी खडहड पडी । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जिनदर्प-प्रन्थावली पीउ मोसे परदेसड़े, यो मासा | निसनेही परिहरि गयो, गोरी स्रं करि गाढ ॥८॥ सैयां श्रावण श्रावियो, उमहिं" आयो मेह | चमकण लागी बीजली, दाभण लागी देह ॥६॥ माद्रवड़ौ भरि गाजियो, नदी ए खलक्या नीर | बावहियो" पिउ पिउ करें, घरि " नहिं नणदल वीर ॥१०॥ मास विदेस पीउ, विरह लगावै वाळ | सेजडियां विस घोलियां, मंदिर हुआ मसाण ॥११॥ काती कंत पधारिया, सीधा वंछित काज । घरि दीपक उजवाळिया, गोरंगी जसराज ॥ १२ ॥ — नरह तिथि रा दूहा - * पड़िवा पहिलै पक्खड़े, कर सूती सिणगार । अस नायौ बल्लहौ, गोरंगी भरतार ॥१॥ (८) दुख दे पापी हालियो ( ९ ) सखि हे (१०) उमडि ( ११ ) पापहीओ (१२) वली नरणदल रा वीर । * अन्य प्रति में प्रारंभ के ६ दोहे निम्न प्रकार से हैं:-- पडिवा पीउ हालीप्रो, मइ हालंतो दीठ 1 मनड़ो ज्याही सु गयो, नेण बहोड्या निट्ठ ||१|| बीज ज प्राज सहेलियां उगो चद मयंद दुनिया वदे चंद ने, हुं वढू प्रीय चद ॥२॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरह तिथि रा दूहा वीज स अाज सहेलियां, वाळौ ऊगौ चंद । दाडिम जेहा दंतड़ा, सेज न रम्यौ कंत ॥२॥ तीज स आज सहेलियां, तीजड़ियां तिहवार । गोरी सोहै आमरण, काजळ कुंकुमहार ॥३॥ चौथ चमक्को लाइऐ, दे चूना सुचित्त । आवै धण रौ वालहौ, जो घर रौ वित्त ॥४॥ पांचम आज सहेलियां, पांचे बांध्या ठाण । उकणीया केकाण ज्यु, करै पलाण पलाण ॥५॥ छट्ट छड़ा छड़ जोवता, पिउ पाटण परदेश । चंपा जाण महक्किया, चंगा माढू देश ॥६॥ सातम दिन तौ' वडलियौ, किम वउलेसी रैन । नयणे नावै नींदड़ी, सालै घट में सैण ॥७॥ सखीया तन सिणगार सजि, खेलौ सावरण तीज । मो मन आमरण दू मरणो, देखी खिवंती वीज ॥३॥ चौथी भगवति पूजता, आवै बहुली रिद्धि । जो प्रीतम घरि आवसी, चोथि करिस प्रीत वृद्धि ।।४।। पाचमि आज सहेलिया, आई एहवे वंचि । तन मन जीवन नीद सुख, प्रीतम ले गयौ पच ॥५॥ छट्ठी सहेली साहिबौ, छाय रह्यौ परदेस । झुरि झुरि पजर हुइ रही, वालि जोवन वेस ।।६।। १. जो, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहष-प्रन्थावली आठम हवा आठ दिन, प्रीउ वीछड़ियां अाज । प्राण हुवै जो प्राहुंणौ, तो हिज राखै लाज ॥८॥ सखी सहेली सांसलौ, मैं मन काहल छाड़ । नव दिन कीधा नवरता, प्रीतम हंदी चाड ।।६।। सखी सहेली साहिबौ, आइ मिलै भर बाथ । जो पूजू परमेसरी, दसराहौ पिउ साथ ॥१०॥ सहियां आज इग्यारसी, म्हें तो आज व्रतीक । करिस्यां तोही पारणौ, मिलसी वर तहतीक ॥११॥ वारस आज सहेलियां, ऊगा बारह भांण । जारा साहिब प्राविया, तीन्हा तुरी पलांण ॥१२॥ ते रस तेरह वही गया, अजे न लामै थाग । माथै देहे हत्थड़ा, ऊमी जोऊ माग ॥१३॥ चउदस खेलै चांदणी, सुखिया लोग सदीव । म्हें तौ वाली श्राखडी, खेलेवा विण पीव ॥१४॥ पूनिम पूरा प्रेम ढूं, घरे पधार्या राज । मृगनयणी उच्छव करै, पिय कारण जसराज ॥१५॥ ॥ इति पनरह तिथ रा दूहा संपूर्ण । २. दिन, ३. खरा, ४. प्रीउ मिलसी, ५. दीये, ६. प्रीउ, Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शत्रुजय तीर्थ स्तवन ढाल-गोडी मन लागउ ॥ एहनी ॥ शत्रं जय यात्रा तणी, मो मन लागी धांखरे । म्हारउ मन मोबउ । नयणे देखी डूंगरउ, पवित्र करिसि हुं आखिरे ॥१ म्हा.॥ सिद्ध क्षेत्र कहीयई इहां, सीधा साधु अनंत रे । म्हा०।___ वली अनागत सीझिस्यई, भाखई इम भगवंत रे ॥२ म्हा.॥ इणि गिरि ऊपरि देहरा, सोहे जिम सुरलोक रे । म्हा. दीठां तन मन ऊल्लसइ, पातक थापई फोक रे ॥ ३ म्हा. मूरति मूल नायक तणी, सुन्दर रुप निहालि रे । म्हा. हीयड़े हरख मावई नहीं, जिम बहु जल परनाल रे ॥४म्हा. वीजा पणि जिनवर तणा, देवल देवविमान रे । म्हा. धन्य जिणि एह करावीया, वंछित दीयण निधान रे॥५म्हा. सिवा सोम जी साहनउ, चउमुख नयण सुहाय रे । म्हा. ___ च्यारि मूरति एक सारिखी,खामी नहीं जिहां काइ रे । ६म्हा. प्रतिमा अदबुद नाथनी, पूजीजे चित लाइ रे । म्हा. केसर चंदन बहु घसी, कीजई निरमल काय रे ॥७ म्हा.. ए गिरि नउ महिमा घणउ, कहता नावे पार रे । म्हा. धन धन जे जात्रा करइ, छहरी ने विस्तार रे ॥८ म्हा.. उतकंठा मुझ नइ घणी, भेटण श्री गिरिराय रे । म्हा. कहइ जिनहरख प्रापति विना, किणि परि दरसण थाइरे। -- Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आदिनाथ स्तवनानि श्री विमलाचल आदिनाथ स्तवः नाल- मोतीना गीतनी श्री विमलाचल ऋषभ निहाल्या, पूरव कृत सहु पाप पखाल्या । माहरउ मन मोबउ रिखम जी माहरउ मन मोबउ । मन मोबउ जिम चंद चकोरी, मन मोबउ जिम ईश्वर गोरी ।मा०। हियडु हेजइ अधिक भराणु, जनम सफल धन दिवस विहाणु।१। वाल्हेसर मुझ दरसण दीधु, मानव भवनउ मइ फल लीधु। मा०। पोतानउ प्रभु सेवक जाणी, करुणासागर करुणा आणी । २ मा०। सूरति मूरति मोहणगारी, दीठां हरषइ सुर नर नारी मा० तई बसि कीधर त्रिभुवन सारउ,तुतउ परतखि कामणगारउ ।३मा. जाणु अहनिसि चरणे रहीयइ, प्रभु आगलि निज सुख दुख कहियई वे कर जोड़ी सेवा कीजइ, सिवपुरना अविचल सुख लीजई।४मा०। परम सनेही पर उपगारी, पर दुख भंजण जन सुखकारी मा०। मुझनइ कुरम दृष्टि निहालउ,मात पिता बालक नई पालाश्मा०। राति दिवस हीयड़ा मां धारु, नाम थकी प्रातम निस्तारमा चरण कमल नी सेवा देज्यो, मुझ विनतड़ी सारे लेज्यो॥६मा०॥ जात्र सफल ए थाजो म्हारी, साहिब जी कीधी छइ ताहरी । मा०। अरज सुणउ श्री आदि जिणंदा,घउ जिनहरप परम पाणंदा ७मा. ॥ इति श्री आदिनाथ स्तव ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १२७ श्री विमलाचल मण्डन रिषभनाथ स्तव ___ ढाल-कोइलउ परबत धुंधल लउरे लो ।। एहनी ॥ श्री विमलाचल गुण निलउ रे लो, जिहां श्री रिखम जिणंद रे । जात्रीड़ा । शिखर ऊपरी सोहइ भला रे लो, जिम एरावण इंद रे ॥जा.१श्री। दरसण जेहनउ देखता रे लो, हियड़उ हरषित होउ रे । जा. । मन विकसइ तन उलसइ रे लो, नयण ठरई वारु दोइ रे।।जा. २॥ जोइ रहियइ सामहउ रे लो , नयणे नयण मिलाइ रे । जा.। तउहि त्रिपति न पामीयइ रे लो, सूरति सरस सुहाई रे ।जा.३श्री। पुन्य प्रबल पोतइ हुवह रे लो, तउ पामी जइ संग रे । जा० । जेहनइ संगई उपजइ रे लो, नव नव रंग अभंग रे । जा.४श्री ।। सुन्दर रुप सुहामणउ रे लो, देखी मोहइ मन रे । जा० । वाल्हउ लागइ वाल्हउ रे लो, जिम लोभी नई धन्न रे ।जा०५श्री। प्रभु चरणे चित लाइयह रे लो, निशि दिन रहीयइ पासिरे ।जा०] खासी खिजमति कीजियइ रे लो, तउ पुगइ मन आसरे जा०६श्री। साहिब नी सेवा थकी रे लो, लहिये लील विलासरे । जा० । फूल तणी संगति थकी रे लो, तेल लहइ जिम वासरे ॥जा०७श्री।। सोम न झरी मोटा तणी रे लो, थईयइ तुरत निहाल रे । जा० । जनम मरण संसार ना रे लो, टालइ सगला सालरे ।।जा०८श्री।। नामिनंदण चंदण जिसउ रे लो, मरुदेवा नउ जातरे । जा० । मेटिजइ जिनहरख सुरे लो, भावई करी विख्यात रे॥जा०६श्री।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ स्तवनानि श्री शत्रुजय मंडन श्रीआदिनाथ स्तवः ढाल-आज माता जोगिणि ने चालउ जो वाजईयइ ॥ एहनी ॥ श्रावक सहु कोइ अागलि धर्म तणा जे धोरी । मधुर गीत गाती गुणवंती, पाछलि थई सहु गोरी रे ॥१॥ आज माहरा आदीसर नइ, इणि परि वांदण चाल्या । शत्रुजयनी पाजइ चढतां, पाप कर्म सहु पाल्या रे । आ. । तावत्ता 2 गंध्रप नाचइ, गुहिरउ मादल गाजइ । ताल कंसार तणी बली जोडी, रमक झमक तिहां वाजइ रे ॥२॥ जोता नाटारंभ जुगति सु, अरिहंत चरणे आया । म्हारा प्रभु नु दरसण देखी, परमाणंद सुख पाया रे ॥३ श्रा.॥ प्रेमइ त्रिगण प्रदक्षण देई, मूल गंभारइ पइसी । अम्हे चैत्य वंदण तिहां कीधर, श्रीजिन सनमुख वइसी रे।४ा.। हिवइ श्रावक द्रव्य स्तव विरचइ, तजी राग ने रोष । न्हाई धोई पहिरि धोतीया, मुख बांधी मुहकोस रे ॥ ५ श्रा..॥ केसर कपूर अने कस्तूरी, चंदन घसी उछांहई 1 भरी कचोली हाथे लेई, आवइ मंडप माहे रे ॥ ६ आ.॥ करी पखाल अंग प्रभु जी नइ, पूजक श्रावक भावई । । अंगी चंगी रची कुसुमनी, अलंकार पहिरावे रे ॥७ आ.॥ तीन लोकना स्वामि आगलि, धूप दीप दीपावइ ।' Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जिनहर्ष-ग्रन्थावली पछइ करे भावस्तव भगते, ध्यान साहिवरउ ध्यावे रे ॥आ. ।। तिमज श्राविका विधि पूजई, प्रभु प्रतिमा अति नीकी। बाली भोली रंग रसाली, ते पिणि सहु धइ टीकी रे ॥ आ.।। जिन मूरति जिन सरिखी बोली, मूरख संसय लावे । मूरति देखि रिपम जी केरी, यादि रिपम जी पावइ रे ॥१०॥ घणु घणु प्रभु रंगइ राच्या, सहुनी आस्या सीधी । इम चैत्री पूनिम दिन यात्रा, कवि जिनहरप कीधी रे ॥११ आ. ॥ इति श्री शत्रुञ्जयमडन श्री अादिनाथ स्तव ॥ . श्री शत्रञ्जय महातीर्थ स्तवन ढाल-पालीताणु नगर सुहामणु रे जाज्यो । रूडी २ ललता सरनी पालि । म्हारा साहिबा रे, सोरठ देश रलीयामणउ रे जोज्यो । पालीताणइ नगर उछाह सुरे जोज्यो,आव्या२ पुन्य पसायाम्हां। शत्रुजय शिखर सुहामणउ रे जोज्यो, ललित सरोवर निरखीयउ रे जोज्यो,हीयडले हरख न माय ।१म्हां सत्ता चावि सोहामणी रे जोज्यो, निर्मल सीतल नीर॥म्हां । से।। तीहां थकी पाजइ चड्या रे जोज्यो, पामेवा भवनउ तीर ।म्हारसे विचिमइ कुड रलीयामणां रे जोज्यो,वीसामा वली रूड़ा पंचाम्हां गिरि मूले नेमि पादुका रे जोज्यो, वांद्या छोड़ी खलखंच । ३म्हां वीजे गढ अाव्या सुखे रे जोज्यो, दीठी वाघणी पोलि । म्हा. । ऊभउ साधु सुकोसलउ रे जोज्यो, नमतां हुई रंगरोल । ४ म्हा. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३० आदिनाथ स्तवनानि अनुक्रमि मांहे आवीया रे जोज्यो,दीठी चवरी नेमि जिणंद ! म्हां. मोक्ष बारी मां नीसर्या रे जोज्यो, हूअउ मन मांहि आणंद ।५म्हां पूरव दिसि साम्हा रह्या रे जोज्यो, दीठा २ श्री आदिनाथ । म्हां मन विफस्यु तन ऊलस्यु रे जोज्यो, थया अम्हे परम सनाथ । ६ भाव पूजा भली कीधी रे जोज्यो, खरतर वसही निहालि । म्हां. सहस्र कूट भगतई नम्या रे जोज्यो, भागा सहुं जंजाल । ७ म्हां. राइणि तणि पगला मला रे जोज्यो, प्रभुजीना सुविशाल म्हां. पगलां गणधर ना नम्या रे जोज्यो, पाप गया ततकाल | ८ म्हां. देवल संहु जुहारीया रे जोज्यो, भेट्या गणधर पुंडरीक । म्हां. भावी तिहां बहु भावना रे जोज्यो, कीधी मुगति नीजीक । म्हां. 'वाहिरि नीकलीया हिवइ रे जोज्यो, पूज्या अदबुदनाथ । म्हां. से सिवा सोमजी नइ देहरइ रे जोज्यो, चउमुख शिवपुर साथ । १० मरुदेवा माता गज चड़ी रे जोज्यो, सांतिसर जिन सुखदाय ।म्हां. पांचे पांडव निरखीया रे जोज्यो, द्रुपदी कुती माय । ११ म्हां. सूरज कुंड ऊपरि थई रे जोज्यो, वली गया उलखा झोल । म्हां. सिद्धसिला सिधवड वली रे जोज्यो,देखी गम्या दंदोल ।१२म्हां. संवत्-सतर अठावनइ रे जोज्यो, फागण वदी वारस दीस । म्हां. तीरथ यात्रा कीधी भली रे जोज्यो, पूगी मननी जगीस । १३म्हां. जनम सफल कीधउ आपणउ रे जोज्यो, जीवित जनम प्रमाणजी। गिरिवर दरसण थाज्यो बलीरे जोज्यो,कहइ जिनहरप सुजाण १४ ॥ इति श्री शत्रुञ्जय महातीर्थ स्तवन ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली श्री विमलाचल मंडण श्री आदिनाथ स्तवन राति दिवस सूतां जागतां, मुझ मन एह ऊमाहउ । जाणु श्री रिसहेसर भेटु, ल्युं मानव भव लाहउ ॥ १ ॥ भावसु श्री विमलाचल जईयइ, भव भव ना पातक परिहरीयड़ । पवित्र सुथिर मन थय ॥ भा० ॥ ए तीरथ गिरुाउ गुण आगर, ए सरिखउ नहीं कोई । ऊपर साधु अनंता सीधा, कर्म तणी जड़ खोई ॥ २ मा० ॥ समवसर्या आदीस्वर स्वामी, पूरव निवाणु वार | उत्तम थानक ए जांणी नह, लेई बहु परिवार ॥ ३ भा० ॥ 'डरीक गणधर इहां सीधा, तिणि पुंडर गिरि नाम । चैत्री पुनम यात्रा करीयड़, लहीयइ अविचल ठाम || ४ भा० ॥ कर्म शत्रु जीपेवा कारण, शत्रु ंजय मेटीजइ । डगलइ डगलड़ पातक नासह, दोड़गति दूरड़ की जड़ ॥ ५ भा०॥ जिन शासन तीरथ छड़ बहुला, तिथि मां ए सिरताज । सहु तीरथ सैल मिली नड़, पद दीघउ गिरिराज || ६ भा० ॥ विधि सु जउ गिरि यात्रा कीजइ, गिरि देखी हरखीजड़ । दान सुपात्रई तिहां जउ दीजइ, करम कठिन छेदीजड़ ॥ ७भा० ॥ व्रतधारी ने सचित प्रहारी, एक आहारी थईयड़ | १३१ भूमि संथारी समकित धारी, निज पदचारी जईयइ ॥ ८ मा० ॥ सामायक- पड़िकम करीय, तर भावसायर तरींयह । वाट सुगुरु संघात चली यह, तर भव माहि न फिरीयइ ॥ भा० ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ आदिनाथ स्तवनानि सात छठि चउविहार करइ जे, दोइ अहम सुविवेक ॥ लाख गणइ नवकार मावसु । ते करइ भवनउ छेक ॥१०भा०॥ मोहणगारउ तीरथ सारउ, देखीनइ ऊमहीयइ ।। ए डूगर थी अलगा कहीयई, पाणी वल नवि रहीयइ ॥११भा०॥ रिपम जिणेसर नयणे देखी, जुगतई करइ-जुहार ॥ पूजइ जे हित सुंजिनवर नइ, ते लहइ सुक्ख अपार ॥१२भा०॥ जिन दरसण थी पाप पणासइ आगलि शिवपुर राज । ___ कहइ जिनहरष विमलगिरि यात्रा, थाज्यो मुगति ने काजिमा.१३॥ इति श्री विमलाचल मंडण श्री आदिनाथ स्तवनं । श्री शत्रुजय मंडण श्री रिषभदेव स्तवन - ढाल-जाटणीना गीतनी श्री विमलाचल मंडण रिपम जी, म्हारी विनतड़ी अवधारी। आव्यउ हूं प्रभु चरणे ताहरे , मुझ नइ भवसायर थी तारि॥१श्री।। तुं करुणाकर ठाकुर मांहरउ, तुं माहरउ सिर ताज । दरसण देखेवा हुं प्रावीयर, ऊमाहउ धरि मन मई आज ॥२श्री।। दरसण दीठउ मीठउ प्रभु तणउ, नीठउ सगला भवनउ पाप । आठ करम अरीयण थया दूवला, टलस्यइ जनम मरण संताप।३। दीनदयाल कृपाल कृपा करी, दीजइ मुझनउ अविचल राज । आप समान करउ सेवक भणी, जिम वाधइ तुझ लाज ॥ ४श्री ।। तु समरथ साहिब सिर माहरइ, हुं जउ पादुक्ख कलेस । तउ प्रभु नइ छइ लाज विचारिज्यो, सेवक लाज नही लवलेस ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १३३ सेवक जाणी आस्या पूरवउ, सहु सुनिज संपति नउ सीर । अवगुण देखी छेह न राखवइ, गरूआ जेह गंभीर ॥६श्री॥ परम सनेही तु परमातम, दउलति दायक तु दीवाण । तुतउ माहरा सिरनउ सेहरउ,तुतउ माहरउ वल्लभ प्राण॥७॥ मव मव माहे मइ भमता थकां, पाम्या चउगति भ्रमण अपार । भ्रमण निवारउ तारउ साहिबा, तुम नइ दाखुचारोवार ॥श्री।। सोवन वरण सरुप सुहामणउ, पांचसइ धनुप शरीर ॥ आउ चउरासी पूरव लखनउ, निर्मल गुण प्रभुना जिम खीर॥६॥ श्री शत्रुजय गिरि महिमा निलउ, मरुदेवा उअरई अवतार । 'नामि कुलांबुज दिनकर सारिखउ, जुगला धरम निवारण हार ।१० सूरति मूरति प्रभुनी जोवतां, नयणे अधिक सुहाइ । राति दिवस जाणु पासइ रहु, सेव॒ प्रभुजी ना हु पाय ॥११॥ मन मधुकर तुझ चरण कमल रसई, होय रह्यउ लयलीण । पाणी वल पिणि न रहइ वेगलउ, दूरि रहइ तउ थायइ खीण ।१२ संवत सतरइ पचतालइ समइ, मून इग्यारस दिन सुविहाण । कहइ जिनहरष विमलगिरि भेटीयउ,यात्राचड़ी माहरी परमाण।१३ ॥ इति श्री शत्रुञ्जय मंडण श्री रिपभदेव स्तवनं ॥ . श्री शत्रुञ्जय मंडण श्री आदिनाथ लघु स्तवन ___ ढाल-जीहो मिथला नगरी नउ राजीवउ-ए देशी ___जी हो आज मनोरथ माहरा , जी हो सफल थया जिनराय । जी हो आज दशा जागी भली, जी हो भेट्या प्रभुना पाय ॥१॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आदिनाथ स्तवनानि विमलगिरि मंडण रिषभजिणंद, जी हो नयणे मूरति जोवतां । ___ जी हो पाम्यउ परमानंद ।वि। जी हो ऊमाहउ बहु दिन तणउ, जी हो आज चड्यु परमाण । जी हो दीठउ मीठउ साहिवउ, जी हो त्रिभुवन नउ दीवाण ।रवि। जी हो रूप अधिक रलीयामणउ, जी हो नयणे अधिक सुहाइ । जी हो मूरति मां कांइ मोहणी,जी हो मन मेल्हणी न जाइ ।।३वि॥ जी हो तु करुणा-सागर सही, जी हो हु करुणा नउ ठाम । जी हो मुझ ऊपरि करुणा करी, जी हो आपउ सुख विश्राम ।४वि। जी हो तुझ मूरति दीठां पछी, जी हो अवरन अावइ दाइ । जी हो पाच रयण जउ पामीयउ,जी हो तउ किम काच सुहाइ ।वि। जी हो समरथ साहिब तु लाउ, जी हो भय भंजण भगवंत । जी हो चरणे करिसुचाकरी, जी हो लहिसुसुक्ख अनंत ।६वि। . जी हो मरुदेवा नउ वालहउ, जी हो नाभि नरिंद मल्हार । जी हो शत्रुजय नउ राजीयउ, जी हो मुगति रमणि उर हार ।वि। जी हो सुरतरु सुरमणि सारिखउ, जी हो चंछित पुरण हार । जी हो तिणि तुझ नइ सेवइ सहु,जी हो दीसइ एह विचार ॥वि॥ जी हो धन दीहाड़र वन घडी, जी ही धन वेला धन मास । जी हो भेट्या मइं जिन हरखस्यु,जी हो पूगी मननी आस ।वि। ॥ इति श्री शत्रुजयमंडण श्री आदिनाथ लघुस्तवन ।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनह - प्रन्थावली शत्रुञ्जय - स्तवन ढाल - साधु गुण गरुप्रारे ॥ए देशी श्री विमलाचल गुण निलउ मन मोहाउ रे, जिहां सीधा साधु अनंत । शत्रुंजय मन मोह्यउ रे । तीरथ नही ए सारिखउ | म । वीजउ कोई गुणवंत ॥ करइ कुगति नउ करइ | म । ते विधि सु जे यात्रा सात आठ भवमां सही | म । बारह परसद गलई | म | श्री सीमंधर ते १३५ १श ॥ छेद | श मुगति लहइ द्र वेद || २ || शत्रु जय यात्रा तराउ | | प्रभु पुन्य विम कुंडल गिरई । म । रुचक त्रिगुण फल पामीयइ | म । 7 तेह थी पुन्य विम हुवइ | म | छगु खंड धातकी | म | ं ं कहह एम शि पुन्य कहइ धरि प्रेम || ३ || नंदीश्वर द्वीप थी होड़ श | चउ गुण गजदंते जोई ||४|| जंबू विरख मन आणी । श पुक्खर बावीस वखाणी ॥५॥ सात गुणउ कनकाचलड़ | म । वली श्री सम्मेत गिरिं । श सहस गुणउ फल तिहां लहइ | म| सांभलिज्यो इंद नरिंद || ६ || लाख गुणउं फल पामीय | म | अंजण गिरि फेरि यात्र | श दश लक्ष अष्टापद गिरह | म पुन्य करइ निरमल मात्र ॥ ७ ॥ कोडि गुण फल पामीय | म शत्र जय भेट लहंत | श एह थी अधिक को नही । म कहइ सीमंधर भगवंत || ८ || यात्रां छहरि पालतां |म भाव करिस्य कहा जिनहरप सदा सुखी | म तरिस्य लंहिस्य इति श्री शत्रु जय स्तवन ।। नर नारि |श | भवपार || || Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ स्तवनानि श्री शत्रुञ्जय स्तवन ||ढाल || होडोलरगानी ॥ ए देशी ॥ आज मंह गिरिराज भेट्य, शत्रुंजय सिरदार | साधु सीधा जिहा अनंता, कहत नाव पार । विमल गिरि वर नमड़ सुर वर, तीन भवन विख्यात | पाप ताप संताप नासह, विधि सु जउ करीयड़ जात ॥ १ ॥ मनमोहनां माइ भेटीयर विमल गिरिंद | सचित प्रहारी पादचारी, एक आहारी होइ । じ समकित धारी भुई संथारी, ब्रह्मचारी जोड़ । करs पड़िकमण निरंतर पूजा जिन शुभ माय । १३६ वर आरंभ कोइ न करह, दुरगति तेह न जाइ || २ || एक जीभ एहनउ सुजस कहतां, कदी नाव पार । ए डुंगरउ मनमोहन गारउ, देखतां सुखकार । जिम २ निहालु पाप टालु, हीयइ हरख न माइ । एह थी किम दूरी रहीयह, दीठड़ां आवई दाइ || ३म || जिणिऊपर श्री रिखम जिनना, देहरा दीपंत । गगन सु जाणे वाद मांाउ, दंड धज लहकंत । सुर भुवन सरिख चित्त मोह, देखतां आनंद | मांहि त्रिभुवन नाथ सोहड़, नाभि नृपति कुलचंद || ४ || मूरति मोहन नी अधिक दीपर, कांति झाक झमाल | जोयतां सीतलथाइ लोयण, टलइ पातक जाल ॥ 1 + Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदर्प प्रन्थावली सीस सोहड़ मुगट सुघटउ, कान कुंडल दोड़ | एक जाणे चंद्र मंडल, एक दिनकर द्यति होइ ॥ ५म || उर हार एकावली विराजड़ कनकमाल विशाल । बांहेत सोहड़ बहिरखा, वण्यउ तिलक सुंदरमाल | अंग चंगी अंगीया अति, जटित कटि कणदोर | फल्यउ फुल्यउ जागि सुरतरु, देखी नाचइ मन मोर ॥ ६म || मन आस पूरइ दुरित चूरह, होइ कोड़ि कल्याण । नव निधि पास रह उलासई सुजस झलकड़ माग | स्वामि नाम मुगति पामई, अवरनी सी बात । ए सकल तीरथ नाथ समस्थ, जय २ त्रिभवन तात ॥७ म|| पूरव निवाणु वार प्रभु जी, कीयउ इहां विश्राम । रायण हेठ समवसरिया, पवित्र करिवा ठाम | धन धन्न भरथ जिहां शत्रुंजय, कहह सीमंधर स्वामि । भविक जन नइ तारिवा, जिनहरप करइ गुण ग्राम इति श्री शत्रु जय स्तवनं . श्री शत्रुंजय मंडण श्रीरिषभदेव स्तवन ||ढाल।। म्हारा ग्रातमराम किरिए दिन गेत्रु ज जास्यु । ए देशी ।। बंदु रिपम जिणंद विमलाचल नउ वासी । विमलाचल नउ स्वामि नमिसु, हीयडड़ धरिय उलासी ॥ १६ ॥ कंच काया धनुष - पांचसह, लंछण वृषभ सुहासी । ऊषु प्रभुजी न कहीयइ, पूरव लाख चउरासी | २ | " १३७ 1 ||८|| Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ आदिनाथ स्तवनानि ऊचउ परवत अनुपम सोहइ, अपर जाणि कैलासी। .. साधु अनंता इणि गिरि सीधा, सिद्ध अनंत निवासी ३५। मुरति प्रभुनी अधिक विराजई, सूरज ज्योति प्रकासी । जिम २ नयणे हरि करि निरखु, तिम २ रिदय विकासी ॥४व।। केसर चंदन मृग मद मेली, जिनवर पूज रचासी । ते त्रिभुवन मई पूजा लहिस्यइ, त्रिभुवन कमला दासी ।।५।। भाव धरी डूगर जे फरसइ, दुरगति तेह न जासी । रोग सोग भय भूत भयंकर, नामई जायइ नासी ॥६व।। पाजइ चड़तां ऊलट प्राणी, जे प्रभुना गुण गासी । भव भव ना पातक थी तेहनउ, आतम निरमल थासी ॥७॥ शत्रौंजा नउ संघ चलावइ, यात्रा करई निरासी । चउगति ना भय भ्रमण निवारइ, छेदइ भवनी पासी ॥८॥ धन धन नर-नारी शत्रुजय, आवी रहइ उपासी । छहरी पालइ पाप पखालइ, लहइ जिनहरष विलासी ॥६॥ इति श्री शत्रु जय मडन श्री रिषभदेव स्तवनं विमलाचल मंडन श्री रिषभदेव स्तवनम् ___ढाल।। रसीयानी ।। एदेशी ।। रिपभ जिणेसर अलवेसर जयउ, श्रीशत्रुञ्जय रे नाथ । मोरा प्रीतम चालउ जइयइ रे प्रभुनइ पूजिवा, पावन करीयइ रे हाथ ।मो१रि।। ए तीरथ नर महिमा अति घणउ, कहतां नावइ रे पार मो। - समवसर्या जिहां प्रथम जिणेसरु, पूरव निवाणु रे वार ।मोररि। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १३६ नेमि विना वीसे जिन चड्या, ए गिरि पुन्यनी रे रासी ।मो। अजित जिणेसर शाँति जिन सोलमा,इणि गिरि रह्या रे चउमासिामो खरतर वसही मूरति मन गमइ, पूजा करीयइ. रे जास । सहस्रकूट नमीयइ बहु भाव सु, पूगइ मननी रे पास मोथरि।। अष्टापद ना देव जुहारीयइ, पगलां रायणि रे हेठि ।मो। - 'पगला नवलां गणधरनां भला, तेहनी करीयइ रे भेटि मोरि।। गणधर श्रीपुडरिक जुहारीयइ, वीजा पिणि बहु रे देव ।मो। मोटी मूरति अदवुद नाथनी, तेहनी करीयइ रे सेव ॥मो६। रि।। चउमुख प्रतिमा च्यारी सुहामणी, शिवा सोमजी नइ उद्धार |मो। उलखा झोल चेलण तलावड़ी, सिधवड़ घणई रे विस्तार मो७। ए तीरथ सरिखउ जग को नही, सीधा साधु अनंत ।मो। तारइ ए तीरथ संसार थी, जिनवर एम कहंत ॥ मो०८ रि०॥ अधिक विराज्या गिरिवर ऊपरइ , नाभि नृपति ना रे नंद मो। मरुदेवा नउ रे अंगज भेटइयइ, यह जिनहरप आनंद मोह।। , इति श्री विमलाचल मडन श्री रिपभदेव स्तवनं . श्री शत्रुञ्जय स्तवनम् ढाल ॥ धीर वखाणी राणी चेलणा जी एहनी ।। विमलगिरि तरथ भेटीयड् जी, मेटोयह भव तणा पाप । आपदा दूरि निवारीयइ जी, तारीयइ आतमा आप ॥ १वि ॥ ए गिरि नउ महिमा घणउ जी, एक जीभई न कहवाय । सुरपति सहस जीमई कहइ जी, तउ पिणि कबउ रे न जाइ ।२वि। R Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० आदिनाथ स्तवनानि हिंसक जे हतीयारड़ा जी, पातकी जे नर होई । ए गिरि दरसण फरसाई जी, सुगति पामड़ सही सोइ ॥ ३वि ॥ एह तीरथ समउ को नही जी, जोवतां त्रिभुवन मांहि । अनंत तीर्थंकर हम कह जी, नवनिधि नाम थी थाइ ॥। ४वि ॥ सरथ तथा धन्य श्रादमी जी, शत्रु जय दरसण पामि । सफल कर भव आपणउ जी, कहड़ सीमंधर सामि || || सिद्धि इणि गिरि अनंता थया जी, वली हुस्य काल प्रमाण | एह गिरि राज छह सास्वतउ जी, ज्ञानी वदड़ इम वाणी ॥६॥ जेह विधि सु कर यातरा जी, छहरी पालड़ घरी भाव | कहइ जिनहरख नर नारि नह जी, मत्र जलधि तारिवा नाव | ७ व इति श्री शत्रु जय स्तवन श्रीविमलाचल मंडण श्री चतुमुख रिषभदेव स्तवन || ढाल - मारू राग ॥ खरतर वसही यदि जिणंद जुहारीयइ रे । शत्रुज गिरि सिणगार, चउगति रे २ आवागमण निवारीयइ रे |१| ऊलट भावधरी नपणे निति जोईयह रे । चउमुख प्रतिमा च्यारि, भवना रे २ पातक कसमल धोईयड़ रे |२| सुंदर मूरति सूरति अधिक सुहामणी रे । दीठां जाय दुक्ख, साता रे २ थायड़ मन माहे घणी रे || ३ || आशापूरण सुरतरु सुरमणि सारिखउ रे | उपगारी अरिहंत, ताहरी रे २ जोडि न को ए पारिखउ रे ||४|| ५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ जिनहर्ष-ग्रन्थावली अवर सुरासुर ध्यावइ जे तुझ अवगणइ रे । तृष्णातुर मति हीण, गंगा रे २ कांठइ ते कूई खणइ रे ॥५॥ अमृत फल तजि हंस करइ किंपाक नी रे । विस पीयइ अमृत छोड़ि, सुरतरु रे २ कापड आशा आकनी रे॥६॥ मंदमती कुमती सठ परिहरि पाचनइ रे । देखी झलहल ज्योति, गाढउ रे २ गांठई बांधइ काचनइ रो॥७॥ ऐरापति सारीखउ गईवर परिहरी रे । खर बांधइ घरवार, रूडउ रे २ आवइ ऊकरड़ी चरी रे ॥८॥ मोटा साहिब सुरीसाई रहइ रे । जे ल्यइ रांक मनाइ, तेतउ रे २ रांक तणी सोभा लहइ रे ।।६।। कंचण नाखी मूरख पीतल आदरइ रे । मिथ्याती मतिमंद,तुझ नइ रे २जे तजि अवर धणी करइ रे ।१०। शिवा सोमजी रूपजी साह सभागीया रे । न्याति भली पोरवाड़, एहवा रे२ देवल जिणे करावीया रे ॥११॥ अभिनव जाणे वीजड शेत्रौंजय अवतर्यउरे । शिव सुख तणउ उपाय,महीयल रे २ समरथ ए तीरथ कयुरे।१२। नवउ करावइ जिन गृह निज द्रव्यइ करी रे । ते पहुँचइ सुर लोक, वाणी रे २ महानिसीथई ऊचरी रे ॥१३॥ पुन्य तणउ खातउ बांधइ ते आदमी रे। जोडइ कर्मना वर्ग, मुझ मन रे २ साची सदहणा रमी ॥१४॥ रिपम जिणेसर विमलाचल नउ राजीयउ रे। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रे १ १४२ आदिनाथ स्तवनानि चउमुख त्रिभुवन नाह, महिमा रेरजेहनउ त्रिभुवन गाजीयु रे।१५॥ राज रिद्धि संपद रंमणी इह लोकनी । मांगु नही महाराज,मुझ नहरे २ घउ संपद शिवलोकनी रे॥१६॥ साचउ साहिब मई पादरीयउ-परीखनइ रे। .. खोटा दीधा छोड़ि, तारउ रे २ निज सेवक जिनहरप नइ रे ॥१७॥ इति श्री विमलाचल मंडण श्री चतुर्मुख रिभपदेव स्तवने __ शत्रुञ्जय आदिनाथ नमस्कार . प्रथम जिणेसर आदिनाथ शत्रुजय मंडण, पाप ताप संताप मरण जामण दुख खंडण, सुख पूरण सुरतरु समान सेवक नइ स्वामी, . मरुदेवा नउ अंगजात नमीये सिरनामी । नाभिराय कुलवर कमल दीपावण दिणराय ! . . वंस इषांगई सोहतर प्रणमइ सुरपति पाय ॥१॥ करम खपाची जिण वरिंद केवल जब पामड, समवसरण सुर रचइ ताम प्रभु ना सिर नामह, अणवाया वाजिन कोडि वाज नभ मंडल. तीन छत्र प्रभु धरे सीस आवी आखंडल । चामर वीजई देवगण दीयह मधुर उपदेश । मीठउ लागे सहु भणी साकर थकी विसेस ॥२॥ अतिसय च्यारे जनम थकी प्रभुजीनइ थायई, . . . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १४३ करम खप्या थी वलि इग्यार अतिसय कहिवाये, देव तणा कीधा विसेस अतिसय उगणीस, सर्व मिल्यां जिनराय तणा अतिसय चउत्रीस । सुरज कोडि थकी घणु ए केवल ग्यान प्रकास । घउ सेवा जिनहरेख ने सफल करउ अरदास ॥ ३॥ .. ॥ इति शत्रुञ्जय आदिनाथ नमस्कार ।। ... शत्रुञ्जय अबुदनाथ स्तवन । - ढाल-नंद्या म करिज्यो कोई पारिकी रे ॥ एहनी-।। अबुदनाथ जुहारीयइ रे, काई शत्रुजनउ सिणगार रे । सुंदर रूप सुहामणउ रे, वारू नखसिख अवल आकार रे ॥१॥ मोटी रे मूरति सूरति जोवतां रे,म्हारा मनथी मेल्हणी न जाय रे । नयणे लागी तुझ प्रीतडी, वाल्हा देखी२ सीतल थाय रे ॥२॥ धन कारीगर तेहना रे, काई सोनइ मढीयइ हाथ । जिणि मूरति एहवी घड़ी रे, धन थाप्या अबुदनाथ रे ॥३॥ ऊचारे इग्यारे पावडी ए चडी रे, वारू तिलक वणावइ सीस रे। एहवी रे मूरति किहां दीठी नहीं रे, आज दीठी पूगी जगींस रे।४। जोयांरेहीयडु म्हारुऊलसइ रे,जाणु अहनिशि देख्ताहरु रूपरे पलक न रहीयइ तुझ सुवेगला रे, ते तउ जाणई तुही सरूप रे । ५ माहरांरे वंछित साहिब पूरवउरे. तउ वीनती करू करजोडि रे। भववंधण माहे पड्युरे, हिवइ तेहथी मुझ न, छोड़ि रे ।६अ। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आदिनाथ स्तवनानि चरण न मुकुहिवइ हुँ ताहरा रे, साहिवीयानी करिखं सेव रे । कहइ जिनहरप भवो भवे रे, म्हारई तु वाल्हेसर देव रे ७.। इति श्री शत्रुञ्जय अबुदनाथ स्तवनं श्री शत्रुजय आदिनाथ स्तवनम् सुणि सत्रुजयना सामी रोमनमोहन जी । पुन्यइ तुझ सेवा पामीरे। मुझ नयण कमल उलसीयारेमा दीदार निहालण रसीयारे ।म। - तुतउ मुझ मन मोहणगारु रे ।म। तुतउ मुझ नइ लागइ प्यारउ रे हुंतु राति दिवस संभारू रे ।म। तुझ दरसण हीयड़उ ठारू रे,२म तुझनइ हुँ कदीय न भूलइ रे ।मा निसि दिन हीयड़ा मे झूलइ रे।म। तुंतउ समता रसनउ दरीयउ रामागुण रयण अमोलिक मरीयउरे३ तोरी सूरति अजब विराजइ रे ।म। इंद्रादिक देखि लाजइ रे ।म। एहवउ किहां रूप न दीसइ रे ।म। जेहनइ देखी मन हीमइ रे ।४। तुझ पासइ मंत्र ठगोरी रे ।म। सहुना तुचितल्यइ चोरी रे मा नयणे एक बार निहालइ रे ।म। न वीसारइते किणि कालई रे । तुझ नाम तणइ बलिहारी रे मा वाल्हेसर तो परिवारी रे मा कहतां तउ लाज मरीझइ रे ।म। पिणि आप वराबरि कीजइ रेम श्री नाभि नरिंद कुल दीवउ रे ।म। मरुदेवा सुत चिरजीवउ रे ।मा सेवक जिनहरष निवाजउ रे म। जस पामउ त्रिभुवन ताजउरे । इति श्री शत्रुञ्जय प्रादिनाथ स्तवन । -0. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १४५ श्री शत्रुञ्जय मंडण श्रीऋषभदेव स्तवन ढाल-मुख नई मरकलडइ ॥ एहनी॥ विमलाचल तीरथ वासी जी, मन रा मानीता । तुझ दरसण लील विलासी जी ॥ म ॥ तुझ मुख राकापति सोहइ जी ॥ म. ॥ । सुर नर नारी मन मोहइ जी ॥ म. १॥ जाणु प्रभु पासे निति रहियोजीमाप्रभु चरणकमल निति महीयइजी जउ महिरि साहिवनइ आवइजी,तउ साची प्रीति लगावइजी ।रम। । हितनयणे सनमुख निरखइजी |म। सेवक देखिनइ हरखइजी ।म। , सुसनेही नेह कहावइजी, पोतानइ पासि रहावइजी ॥३म।। आपण सूजे हित राखइजी।मादीन वयण आगलि रही भाखइजी तेहनइ नविछेह दिखालइजी, मोटा प्रीतड़ली पालइजी ॥४म।। तुझ सरिखा उपगारीजी म। उपगार करइ हितकारीजी ।म।। गुणवंत हुवइ गुण ग्राहीजी ।म। तेह सुमिलियई ऊमाहीजी।५म। ऊमाहउ सफलऊ कीजइ जी ।म। मनवंछित प्रभु सुख दीजे जी । सुखना ग्राहक सहु कोई जी ।म। तुम नइ कहीयइ गुण जोइजी ।६ सेवक ने स्वामि निवाजउजी ।म। भव अवनी भावठि माजउजी ।म। जिनहरख मनोरथ पूरउजी ।म। चित चिंता सगली चूरउजी ७म। ॥इति श्री शत्रुञ्जय मडण श्री रिखभदेव स्तवनं ॥ . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ढालक १४६ आदिनाथ स्तवनानि विमलाचल मंडन आदिनाथ स्तवन श्री विमलाचल सिखर विराजइ, अनुपम आदि जिणंद । युगला धरम निवारणउ, मरुदेवा केरउ नंद ॥१॥ सनेही अरज सुणीजइ वे, अरे हां रिखमजी अरज सुणीजइवे ॥ करुणा सागर गुण वइरागर, नागइ नमइ अनेक । महीयल महिमा ताहरी गावइ, मन धरिय विवेक ।। २ स..॥ तु दुख भंजण गंजण अरियण, रंजण भवियण लोक । भाग संयोगई भेटीयउ, मेटउ हिवइ भवना सोक ॥ ३ स । पर उपगारी तु सुखकारी, अधिकारी अरिहंत । सूरति देखी ताहरी, मुझ मन लागऊ एकंत ॥ ४ स ॥ बहुत दिवस मइ सेवा कीधी, तुझ साथई मन लाइ । तउ पिणि प्रभुजी ताहरि, मई मउज न पामी काइ ॥ ५ स.॥ साहिवउ मुझ आस न पूरउ, जउ न करउ वगसीस । तउ पिणि माहरही तु घणी, वाल्हेसर विसवावीस ॥ ६स.।। साचा पाच सरिखा साजन, खोटा काच न थाई । पालइ पूरि प्रीतड़ी, खल खंच न राखड़ काइ ॥ ७ स.॥ सेवा करतां धरतां हीयडई, तउही न सीझइ काज । सोचि विचारि जोइज्यो तुझ, नइ वह ए लाज ॥८ स.॥ मन वंछित पूरउ दुख चूरउ, सेवक सुधरि नेह । कहई जिनहरख कृपा करउ, आपउ अविचल शिव गेह ।। 8 स. ॥ इति श्री विमलाचल मंडण आदिनाथ स्तवनं ।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प ग्रन्थावली १४७ श्री आदिजिन वीनती आलोयणा स्तवन सुण जिनवर सेव॒जा धणी जी, दास तणी अरदास । , तुज आगल बालक परेजी, हुं तो करूं वेखास रे जिनजी । मुझ पापी ने तार । तूं तो करुणा रस भर्यो जी,तु सहुनो हितकार रे जिनजी ।१। हुं अवगुणनो झर...... 'गुण नो नहीं लवलेश । परगुण पेखी नवि शकुजी, केम संसार तरेस रे जिनजी ॥२मु.।। जीव तणा वध में का जी, बोल्या मृपावाद । कपट करी परधन हऱ्याजी, सेव्या विषय सवादरे जिनजी ।३मु. हुं लंपट हुं लालची जी, कर्म कीधां केई कोउ ... ...। त्रणभुवनमां को नहीं जी, जे आवे मुज जोड रे जिनजी ॥१४॥ छिद्र परायां अहनिशे जी, जोतो रहुँ जगनाथ । कुगति-तणी करणी करीजी,जोड्यो तेह शुं साथरे जिनजी।५मु. कुमति कुटिल कदाग्रही जी, वांकी गति मति तु .....। बांकी करणी माहरी जी, शी संभला तुझ्झ रे जिनजी।६। पुन्य विना मुज प्राणिउं जी, जाणे मेलुरे ाथ । उंचा तरुवर मोरीयां जी, त्यांही पसारे हाथ रे जिनजी ७मु.। विण खाधां विण भोगव्यांजी, फोगट कर्म बंधाय । आत ध्यान मिटे नहींजी, कीजे कवण उपायरे जिनजी ।।८।। काजल थी पण शामला जी, मारा मन परणाम ।' सोणा मांही ताहरू जी, संभारू नहीं नाम रे जिनजी मु.॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ स्तवनानि मुग्ध लोक ठगवा मणी जी, करू अनेक प्रपंच । कूड कपट बहु केलवी जी,पाप तणो करूसंच रे जिनजी मु१० मन चंचल न रहे किमे जी, राचे रमणी रे रूप । काम विटंमणशी कहुँजी, पडीश हुँ दुरगति कूपरे जिनजी।११।। किश्या कहुगुण माहराजी, किरया कहु अपवाद । जेमजेम संभारू जी हियेजी, तेम तेम वधे विखवाद रे जि.।१२। गिरूया ते नवि लेखवेजी, निगुण सेवक नी बात । नीच तणे पण मंदिरे जी, चंद्र न टाले जोतरे जिनीं ।।मु.१३॥ निगुणो तो पण ताहरो जी, नाम धरा रे दास । । कृपा करी संभारजो जी, पूरजो मुज मन आस रे जिनजी मु१४ पापी जाणी मुज भणी जी, मत सूको विसार । विष हलाहल आदर्योजी, ईश्वर न तजे तासरे जिनजी ।१५मु। उत्तम गुणकारी हुवे जी, स्वार्थ विना सुजाण । करसण चिंते सरभरे जी, मेह न मांगे दाण रे जिनजी. ११६मु । तु उपगारी गुणनिलो जी, तु सेवक प्रतिपाल । तु समरथ सुख पूरवाजी, कर माहरी संभाल रे जिनजी ।१७मु। तुजने शुं कहिये घणो जी, तु सह बाते जाण । मुजने आजो साहिवाजी,भव भव ताहरी आण रेजिनजी १८मु श्री शत्रञ्जय राजियो जी, मारु देवी नो नंद । कहे जिनहरप निवाजयो जी, देज्यी परमानंद रेजिनजी १६मु इति श्री आदिजिन बीनती बालोयणा स्तवन Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जिनहर्ष-ग्रन्थावली सोवनगिरि आदिनाथ स्तवन प्रथम जिणेसर प्रणमीय रे, वाल्हा सोवनगिर सिणगार रे । लागी २ प्रभु सुप्रीत अपाररे, म्हारे २ तुहिज प्राण आधार रे । दीजे २ मुझने सुख सिरदार रे,कीजे २ मुझसुप्रभु उपगार रे ।११ साहिबो सेवी रे सुखकार । महिमा थारी रे महियलै रे वाल्हा । देवल नित गहगाट रे, नीको नीको अजब वण्यो थारो घाट रे । आचै आवै नर नारी घाट रे, नाचे नाचे रंग मंडप चौ नाट रे । पांमै पांमै शिव नगरी नौ वाट रे ॥ २ ॥ अन्तरजाम मांहरा रे बाल्हा, एक सुणो अरदास रे । पूरो २ माहरा मननी आसरे, मुझने मुझनें प्रभुजी नो वेसासरे। दीठार हियडै मधि उल्हास रे, जाणू२ मेल्हीजे नहीं पास रे ।३। दीठां ही दौलत हु देवे वाल्हा, पूजे वंछित कोड़ रे । सेवे सेवे जे तुझ्ने करजोड़ रे, जावे नावे तेह. काइ खोड़ रे। थारीरकोण करे प्रभु होडरे,साहिब मुझनैं भव बंधनथी छोड़।४। मूरत मोहण वेलड़ी रे वाल्हा, रलिया लो तुझ रूप रे । सोहे २ प्रभुजी अधिक सरूप रे, दीये २ सुन्दर वदन अनूप रे । जोतां २ जायै दलद दुख धूपरे,माने माने मोटा सुरनर भूप रे ।। मात पिता प्रभु तु धणी रे बाल्हा, तु ही जीवन प्रांण रे । वाल्होर माहरौ तुदीवाणरे, हुँतो प्रभुजी सीसधरूं तुझांण रे। तू तो जाणे सगलवात सुजाणरे भवरमाहरा तुहिज देवप्रमाणरे। अरज सफल कर माहरा रे वाल्हा, सफल करो मन खंत रे । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आदिनाथ स्तवनानि भेट्यो भेट्यो भय भंजण भगवंतरे, चूरो सगली माहरी चीत रे। दीजे मुझने सुख अनंत रे, चरणे लाग्युइम जिनहरख कहंत रे । इति श्री आदिनाथ स्तवन विमलाचल मंडण आदिनाथ स्तवन अम्मां मोरी सांभल वात हे । अम्मां मोरी श्री विमलाचल-तीरथ भेटिये हां, हांजी। " कीजै गिरमल गात हो । अम्मां मोरी दुरगत ना दुख दूरे मेटीयै हो । हां जी ॥१॥ सेव॒जे तीरथ सार है, सीध अनंता सीधा ऊपरै हे हांजी । भेटे जे नर नार हे, नरक अने तिरजंच तस टरै हे हांजी ॥२॥ सांम्हा भरता पाव दे, पाप कदे मिट जाये आपदा हे । हांजी दीठां तीरथ राव हे, पांमीजै मन मानी संपदा हे ॥३॥ हांजी हीय. हरख न माइ हे,चहिरी पालुघर थी निकल है। हांजी पालीतणे जाइ हे,ललित सरोवर झालु मन रली हे ।४] हां जी निरमल होइ शरीर हे, आइ जिणेसर को सर पूजियै हे, - हांजी वटै करम जंजीर हे, भाव घणे जिनराज जुहारिहै हो ।। हांजी बलि पूजुमन रंग हे, राइण हेठल पगला प्रभुतणा हो। हाजी खस्तर वसही सुरंग, अदबुदनाथ जुहारुप कलाप ।६। हाजी पांडव माही ठांण रे, टुक निहाल मुरदेवा तणो हो । हांजी सिववारी सहिनांण हे,सिधवड़ देखण हरख हियौ घणैए७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १५१ हांजी पूरव निज मन कोड है, 'आउ विमल गिरि। ___ करि नीकी जातड़ी हो, हांजी मन सुध वेकर जोड़ि हे, ___ कहे जिनहरख गिणु सफली घड़ी हे हां जी -॥८॥ ॥ इति श्री आदिनाथ स्तवनम् ॥ श्री आदिनाथ बृहत् स्तवनम् । ढाल- चंद्रायण नी सरसति सामिणि पाय नमु रे, ज्ञान तणी दातारो। श्री जिनवदन निवासिनी रे, व्यापि रही संसारो । व्यापि रही सगलइ संसार, समरंता अज्ञान निवारइ ।। गुणगाउंजिनवर मन भावइई,सरसति सामिणि तुझ पसायई।१ रिषभजी जी रे,मोरा साहिब तुसिरताज, पार उतारीयइ रे । ' मुझ आपउ अविचल राज, भव दुख वारीयइ रे अ.। तुं सिद्ध क्षेत्र विराजीयउ रे, मुगति पुरी नउ रायो। ताहरा गुण गावा भणी रे, मुझ मन उलट थायो । मुझ मन उलट थाइ सदाई,श्रीजिन भगति हीयइ मुझ आई। जामण मरण भीति हिवइ भागी,सिद्धि नायक सुजउ लयलागी २ गुण गाऊ किम ताहरा रे, हूं तउ मूढ गंवारो । घूहड़ वालकस्यु कहइ रे, केहवउ छइ दिनकारो । केहवउ जइ दिन करस्युजाणइ, ताहरा गुण कुण मूढ़ बखाणई । बुद्धि विना कहउ किणि परि कहिवइ,ताहरा गुण नउपार न लहीयइ३ जे नर अंजल सूमिणइ रे, चरम सायर नउ नीरो । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आदिनाथ स्तवनानि जीपइ जे नर गति करी रे, प्रलय काल समीरो । प्रलय समीर चलइ गति जे नर, हाथे ऊपाड़इ मन्दिर गिरि । चरणे नम मारग अवगाहइ, ते नर तुझ गुण कहिवा चाहइ ।४। मुझ मति सारू ताहरा रे, गुण गाउ जगदीसो । काले वाल्हे माहरे रे, मत मन धरीज्यो रीसो । मत मन धरीच्यो रीस सनेही, तुझ उपरि वारू मुझ देही । तुं साहिब हुँ दास तुमारउ, मुझ सूए संबंध विचारउ ॥५॥ वाहरा गुण तउ ऊजला रे, जिम निरमल गोखीरो । . गंगा जल जिम निरमला रे, बहु मोलिक जिम हीरो। बहु मोलिक जिम हीरा निरमल ग्राम चंद किरण सम उज्जल । सेवक रिदय कमल विचि सोहई,ताहरा गुण सहुना मन मोहह ।६ तु चेतन गुण प्रातमा रे, तु निगुण निरलेपो । अकल सकल परमातमा रे, घट घट तुझ विक्षेपो । घट घट मध्य रह्यउ तुव्यापी, तइ सहु सृष्टि तणी थिति थापी । तु संकल्प विकल्प विवर्जित, चेतन अष्ट कर्म दल तर्जित ॥७॥ तुं शंकर शंकर थकी रे, तु ब्रह्मा ज्ञानीशो । ध्येय रूप धाता तुम्हे रे, तु पुरुषोत्तम ईसो । तुं पुरुषोत्तम विष्णु विधाता, तु जगनायक तु जग त्राता । पुरुष प्रवर पुंडरीक सुजाणु, शंकर मूर्ति त्रिमूर्ति वखाणु ॥८॥ तु शिव नारी सिर तिलउ रे, तु शिव नारी कंतो। . तु शिव नारी भोगवइ रे, अविचल सुक्ख अनंतो। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिनहप-ग्रन्थावली १५३ अविचल सुक्ख सरोवर झीलइ, पातक तिल धाणी परि पीलइ । तु निकलंक निसंक निरंजन, शिवनारी देखेवा अंजन ॥ जी । रतिपति हठ मठ भंजवा रे, तुम दूअउ गजराजो । भव दुख अंबुधि बूडतारे, तु जगनाथ जिहाजो । तु जगनाथ अनाथ नउ स्वामि, निर्ममता धर तुबहु नामी । तु कमलाकर तु परमेश्वर, रतिपति रूप परम परमेश्वर ॥१०॥ वाणी रूप वखाणीयइ, वाणी अमीय समाणो । वाणी प्राणी - बूझबई रे, वाणी गुणनी खाणो । वाणी गुणनी खाण वखाणी, मीठी जाणे साकर वाणी । वाणी सुणी हरखइ भव्य प्राणी, एहवी वाणी मइ प्रभु जाणी ।११ वारह परपद आगलइ रे, तु आपइ उपदेसो । सघन घनाघन जिम श्रवइ रे, भागइ दुक्ख कलेसो । भागइ दुक्ख कलेश सहूना, बूझड़ वाल वृद्ध नर जूना । त्रिभुवन लोक कलायर नाचह. बारह परपद इणि परि राचा १२ ताहरि पाणी , सांगली रे, बुझड नहीं नर जेहो । ते जाणे पशु सारिखा रे, अगन्यानी नर तेहो । अगन्यानी नर तेह कहीजई, तुझनइ देखी जे नवि भीजइ । बहुल संसारी ते जाणीजई, ताहरी वाणी सुणि नवि रीजइ ।१३। मइ तुझ वाणी पुरवइ रे, सुणीय हुखइ बहु वारो । पिणि आदर कोधउ नही रे, नाव्यउ भाव अपारो । नाव्यउ घणु संसार अनंतउ,वाणी न सुणी रह्यउ भमंतउ ।१४। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ आदिनाथ स्तवनानि समकित नाव्यउ साहिबा रे, पाम्यउ नही जिन धर्मो । उदय मोहनी कर्म नइ रे आया संसय भर्मो । संसय मर्म मिथ्यात पडीयउ, कुगुरु कुदेवई तिहां बहु- नड़ीयउ । करणी कधी जेह कृपाल, समकित पाखड़ जाणि पलाल ||१५|| तु तारइ त हुं तरुरे, नही तउ तरिवउ दूरो । वह विलंबण दीजीयइरे, भवसायर भरपूरो । भवसायर मां भमतु राखउ, नरकादिक गति मां मति नांखउ । दीन दयाल दुखी हुं दीणउ, तारउ तउस्युं जाइ तुम्हीणउ |१६| मोटांनी सेवा थकीरे मोटा थईय इनाहो । रूख प्रमाणइ वेलड़ीरे, पामड़ वृद्ध श्रगाहो । पामड़ वृद्धि जिसउ नर सेवइ, फूल तणी संगति तिल लेवह । तउ फूलेल सहुदय, मोटानी संगति थी तरीयइ | १७| जी। अपराधी मुझ सारिखउ रे, कोइ नहीं संसारो । दुख पीड्यु मीड़यु थकउ रे, अरज करू वार वारो । अरज करूं तुझ सरिखउ दाता, दीस अवर न कोई त्राता । बगसि बसि हिवड़ करूं' निहोरउ अपराधी हुं साहिब तोरउ | १८ | अपराधी तार्या घणा रे, भय भंजय भगवंतो । मुझ वेला यं विचारणा रे, कांई- करउ गुणवंतो । कंड करउ गुणवंत विचार, निगुणानी पिणि करिसउ सार । वयस्यु कहीयइ महाराज, निगुणा नी पिणि तुम नइ लाज | १६ | हिवड़ तुझ वाणीमुझ रुचीरे, जिम साकर सुं दूधो 1 י Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I जिनहर्ष - प्रन्थावली खरउकरी सहु सद्दहुरे, सद्दहणा 'छड़ सुद्धो । 1 तुझ चरण संवाहे । 'सहहणा सूची मन माहे, हुं तरिस्युं मुझ आधार एतउ छड़ सांई, हिवड़ मुझ पार ऊतारि गोसाई | २० | अंतरजामी माहरारे, दाखू दीन दयालो । खंडी - ए आणी या लीए रे, मुझ सनमुक्ख निहालो । • मुझ सनमुक्ख निहालउ नयणे, वार वार स्युं कहीय वयो | वेसर तु परउपगारी, अंतरजामी जाउं बलिहारी ॥ २१ ॥ जी ॥ निरधारी श्राधारा तु रे, निवली नइ बल तुज्को । नाथ अनाथां नाथ तुरे, राखउ भमतो मुझो । - - १५५ 1 --- " राखउ सुझनइ चउगति, भमतउ, जामण मरण तणा दुख खमतउ | करि उपगार हिवड़ हुं थाकउ, दे आधार त्रिजग तुझ साकउ | २२ | शत्रु ऊपर खीजइ नही रे मित्र उपरि नहिं रागो । न्यायई नीरागी कउ रे, साचउ तु वीतरागो । साच तु वीतराग कहावर, माया ममतादूरि रहावई विषय ता सुख मूल न चाखर, शत्रु मित्र स्युं समता राखई | २३ | सुर नर काम विडंवीयारे, पड़ीया नारी पासो । दासतणी हरिरोल वरे, खिणि मेल्हइ नही पासो । । खिणि मेल्हड़ नही पास खुता, लाज गमी जग माहि विगूता । स्वामी तुम्हें नारी वसि नाव्या, सुरनर सहुयइ नारि नचाव्या | २४| बलिहारी ताहरीरे, तु मुझ जीवन प्राणो । • प्राण सनेही माहरा रे मिथ्या रयणी भाणो । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आदिनाथ स्तवनानि मिथ्या रयणी भाग सरीखौ, कुमति कवच भेदण सर तीखौ । तु जग माहे महिमा धारी, हुं बलिहारी स्वामि तुम्हारी | २५ | मोहन मूरति ताहरी रे मुझ श्रातम आधारी । । î वर न दीस के हमारे, जिन मुड़ा आकारो । जिन मुड़ा जिन माहे दीसह, देखत ही मुझ तन मन हींस । करम्भ भरम्म सहु भय भागउ, मोहन मूरतिस्यु' चित लागउ | २६ | मरु देवानउ लाडलउरे, नाभि न रिदं मल्हारो । मुगति पुरीनउ राजीयउ रे, दउलति नउ दातारो । उदति नउ दातार कही जड़, एहतणी निति श्रणवही जड़ । निज मानव भव सफलउ कीजेड, मरु देवा नंदन सलहीजड़ |२७| सिद्धि भुवन जलनिधि शशीरे, अतिपद मास कुमारो | कीधा जिन चद्राउलारे, राय धरण पुरहि मकारो | राय धणपुर चउमासउ कीधउ, जिनवर स्तविरसना फल लीधउ | दुःख भंडार संसारन भमिसु, सिद्धि भुवन जिन हरपई रमिसु |२८| श्री आदि नाथ स्तवनम् ||ढाल || नीदडली वइरिणी हुइरही । एहनी || • रिपभजिन भाव भेटीयइ, मेटीजड़ हो भव मंत्र ना पाय || रि ॥ जेहनड़ नाभइ सुख पामीयइ, जायड़ जायइ हो दुख ताप संताप |१| पुगइ पुगड़ हो मन वंछित स रि लहीयड़ रहोसुख लील विलास । जिणि जुगला धरम निवारीयउ, जिणि थापी हो जगनी सहुनीति । निज राज्य देई सउ पुत्र नङ्, दान वरसी हो दीघउ भली बीति |२| { Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प-ग्रन्थावली १५७ संयम लीधउ मनरंगस्यु सुर सुर पति हो कीधउ उच्छवसार रि। चउ मुष्टी लोच करी चल्या, प्रभुना नहीं हो पड़ि बंध लिबार॥३॥ निज करम खपावी घातिया, पाम्युपास्यु हो प्रभु केवल ग्यान ॥ देवे समव सरण रचना करी,वारइ परपद हो आवीं सुणिवा वाणि।४। तिहां संघ चतुर्विध थापीयउ, चउरासी हो थाप्या गणधार रि।। बहु वरस लगइ चारित्र पाली,जग जीवन हो पहुता मुगति मझारि।५ पहिलउ राजा पहिलउ यती, भिक्षा चरहो पहिलउ कहवाया ॥रि॥ पहिला पिणि कहीयइ केवली,वलीकहीं यइ हो पहिला जिन राय ।६ पांच नाम थया ए प्रभु तणा,सोहइ हो कंचण हो प्रभु वरण शरीर । जिन हरप कहइ करजोड़ि नइ,कीजइ मुझसु हो निज संपति सीर७) ॥ श्री आदिनाथ स्तवनम् ॥ ढाल-आधा ग्राम पधारउ पूजि, अमघर वहिरण वेला ।।एहनी।। आदि जिणोसर अाज निहाल्या,टाल्या पातक भवना । सुद्ध थयउ आतम हिवइ माहरउ, करिसु प्रसुनी स्तवना ॥१॥ मनडु भाहरउ मोह्यउ जि रिपम जिणोसरसामी । युगला धरम निवारण तारण,करम कठिण क्षयकारी । दरसण दीठी दउलति थायइ, जय जय जग उपगारी ॥२॥ करुणासागर गुण चयरागर नागर प्रणमे पाया । सुविधे सतर प्रकारी पूजा,करे सुरासुर राया ॥३॥ कंचन वरण सुकोमल काया,सूरति अधिक विराजइ । । 'अलप संसारी प्रभु सु राचइ, वहुल संसारी भाजइ ॥४म।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आदिनाथ स्तवनानि सुन्दर छवी प्रभुजीन देखी, जेहनी प्रीति न जागह । भारी करमा ते जाणी जई, तेहना दुख किम भागः || ५ || पर उपगारी तुम परमेसर, स्वारथ विगि निस्तारइ । तउपिणि सूद प्रथम मिथ्याती, तुझनह रिदय न धारड़ || ६ || वरदेव मुझ दीठा नंगम, जे बहु अवगुण भरीया । माग संजोगे मुझने मिलीया, साहिब गुणना दरिया || ७ || नाभिराय मरुदेवा नंदन, कीरति त्रिभुवन सोहर | कह जिनहरप हरप सं जेता, भवियण जण मनमोह ||८|| ॥ इति ॥ आदि नाथ स्तवनम् राग - राम गिरी यदि जिन जाउं हुं बलिहारी । रिदय कमल मेरो कमल ज्युं उलस्य उ, सूरति नयण निहारी ||१|| सुर सुरपति नरपति सब मोहे, मूरति मोहरण गारी । सीतल नयण वयण प्रभु सीतल, सीतल कांति तुम्हारी || २ || प्रभु क अंग विराजत सुन्दर, अंगीया प्रति सिणगारी । देखि देखि उलसत मेरी छतियां, अखियां अमृत ठारी ||३ श्रा || युगला धरम निवारण जग गुरु, ईति अनीति निवारी | समता भजि संजम क्युं राचे, तजि माया संसारी ||४|| करम आठ काठ ज्यु जारे, सुक्ख अनंत लहारी । कहत जिनहरप मुगति पद दीजड़ तुम हउ पर उपगारी || ५ || Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १५६ श्री आदिनाथ स्तवन ढाल-प्रथम भौरावण दीठउ ॥ एहनी ।। रिषभ जिणसर स्वामि, चरण नमु सिरनामी । युगला- धरम निवारण, भवदुख सायर तारण ॥१॥ वीनतड़ी अवधारु, जामण मरण निवारउ । तुतउ करणा नउ सागर, तु प्रभु गुणमथि बागर ॥२॥ तुझ मूरति मन मोहइ, कनक वरण तनु सोहइ । ममता मोह निवायु, तइ समता रस धायु ॥३॥ तुझ दरसण दुःख भागइ, वाल्हर सहु नइ तु लागइ । तु मुझ अंतर जामी, नामइ नव निधि पानी ॥४॥ धन-धन मरुदेवा माता, जिणि त्रिभुवन पति जाता। प्रगट्यू त्रिभुवन दीवउ, जगनायक चिरजीवउ ॥१॥ सेवा सुरपति सारइ, देसण तन मन ठारइ । तु प्रभु मोहण गारउ, तइ मन मोबउ हमारउ ॥६॥ पलिजार साहिव तीरी, आस्या पूरउ नइ मोरी । . घणु घणु तुमने स्यु कहीयइ, तुमथी शिवपद लहीयइ ॥७॥ चाहइ चंद्र चकोरा, मेहागम जिम मोरा । . चकवी दिनकर चाहई, तिम मन मिलिवा उमाहइ ॥८॥ तुम्हे म्हारा मानीता ठाकुर, हुं तउ तुम्हारउ छुचाकर । मुझ जिनहरष संभारउ, मत साहिबजी वीसारउ ।।। ' इति है Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आदिनाथ स्तवनानि श्री आदिनाथ स्तवन ढाल-श्रावक लखमी हो खरचीयइ ।। एहनी ।। म्हारा मनना मान्या रे साहिबा, निज सेवकनी अरदास रे । सांभली श्रवने फरुणा करी, पुरउ मुझ मननी आस रे ॥१॥ म्हारा सिर नउ रे तु तउ सेहरउ, म्हारा बातमनउ आधार रे । सेवक जाणी पोता तणउ, अलवेसर करि उपगार रे ॥२ म्हा।। सुर सगला ही मइ मुकीया, कई पवन तणी परिजोइ रे । दुःख भांजइ जे दुरबीयां तणा, तुझ पाखइ अवरन कोइ रे ॥३॥ करुणा कीजइ मुझ उपरई, तुतउ करुणावंत कृपाल रे। तुम नइ वा हिवइ हुं दास, दुखियांनी लाज दयाल रे ॥४॥ तुम चइ काइ कुमणां न थी, भरीयार द्धिसिद्धि भएडार रे। मुझ वेला कठिन थई रह्या, तेत्या माटइ करतार रे ॥शा तारई वेड़ी जिम बूडतां, भीषण दरिया माहि रे ।। तिम भवसायर माहे पडियां, साहित्र तारउ कर साहि रे ॥६॥ साहिब जी सु गुणाछउ तुम्हे, हुं तउ निगुणउ तुस तोल रे । तउही पिणि मुझनइ वारिस्पुर,निज विरुद निहाली अमोल रे ७१ दीणा दीणा सुणि बोलना, भेदी जइ किम हीच जेह रे । ते साहिब नइ स्यु कीजीयइ, परिहरीयइ दूरह तेहरे ॥ ८ म्हा।। संसारी सुर सहु स्वारथी, निगुणति तउ निस नेह रे । । दुरजन सारीखा दीसता, खिणि मांहि दिखालइ छेह रे ॥म्हा।। गुणनइ अवगुण जोवड नही, गरु भा जे गुणे गंभीर रे । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १६१ पर उपगारी तुझ सारीखा, आपइ अविचल सुख सीर रे ॥१०॥ उत्तमनी अविहड़ प्रीतड़ी, जगनायक प्रथम जिणंद रे। कर जोड़ी कहुं मुझ दीजीयइ, जिनहरप अचल आणंद रे ॥११॥ आदिनाथ स्तवन ढाल-१ थेतउ अगलारा खडिया प्राज्यो, राय आदा सहेली सहेली लाइज्यो राजि ॥ एहनी ।। म्हेतउ साहिवां रे चरणे आया, सुख ताजा सनेही हो देज्यो राजि । म्हेतउ वाल्हारा दरसण पाया।सु.। म्हारड् अमीयांरा पावस वूठा। म्हारा पातक गया अपूठा ॥ १०॥ नीकउ साहिवारउ रूप विराजइ ।सु। दीठां भवतणी भावठि भाजइ । थारी सूरति अधिक सुहावइ ।सु। देखी हीयडलइ हरख न मावइ-१२, थेतउ भगतांरा अंतरजामी ।सु। थानइ वीनती करां सिर नामी सु.। थांस अलगा म्हांनइ काइ राखासु।मीठा साहिब मीठड़र माखउ-३ मोटा छेह न दाखड़ किवारइ ।सु। मोटा आपणउ विरुद संभारइ । मोटारी मोटीमति छाजइ ।सु। मोटा लीयां मूको करता लाजइ॥४॥ ढाल-२ वाटका वटाऊ वीरा राजिवीनती म्हारी कहीयो जाइ,अरे कहीयो जाइ । अब पके दोऊ नोबून पके, टपक टपक रस जाइ ॥ वी. एहनी।। प्राणरा वाल्हेसर म्हारा एक वीनती, म्हारी मानिज्यो राजि । अरे भानिज्यो राजि । थे तउ पर उपगारी छउ हितकारी,सफल करे ज्यो म्हारा काज ।५ वंछित दीजइ विलंब न कीजई,लीजइ २ जस जगमाहि वी. प्रा.॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आदिनाथ स्तवनानि मो मन लागउ चोलतणी परि, थांसुप्रभु अधिक उछाहिः ॥६वी. कामण कीधउ मन हरि लीधु, हिबइ तुझ.विणि न सुहाइ वी.प्रा.। जाणु प्रभु पासई रहुं उलासई, चरण कमल चितलाइ।७वी. प्राः। गुण रा दरिया थे छउ भरीया,अधिक अधिक सुख होइ । वी.प्रा.। राजि निवाजउमुझ दुख भाजउ, अधिक अधिक सुख होइ ॥वी.८ सेवा सारू सुख घउ वारू, मकरि मकरि हिवइ-टील ॥वी. प्रा.॥ भाणा (2) खड़हड़ न खमी जाये, मेल्हउ.मत-अवहील हवी.प्रा.॥ ढाल-३ तंबूड़ारी वट वूकइ हो चमरा, साहिबा लेज्यौ राजिंद लेज्यो । झिर मिर झिरमिर मेहां वरसइ, राजिंद रूडउ भोजइ ति। एहनी प्रभुजी नइ सुरपति दालइ हो चमरा,साहिंव सोहइ राजिंद सोहइ प्र.। सुरगिरि परिमार्नुसुचि जलधारा, जोवंतां मनमोहइ ॥ १०प्रः ।। सिंहासण मणिरयणे जडीया, ता परि. स्वामि विराजइ ।। प्रः॥ जाण कि काया छविं कंचणसी, उदयाचल रवि छाजइ ॥११प्रः।। सुरनर असुर नमइ पाय प्रभु के प्राणी भाव. अपारा ॥ प्र.॥ मिलि मिली नृत्य करइ इंद्राणी, सफल करइ अवतारा ॥१२॥ ठकुराई अधिकी जिनजी की, देखण हीयडउ. हीसइ । प्रः । करुणानिधि को होइ कृपा जर, परतखो नयणे दीसह ॥१३॥ ढाल-४ केता लख लागा राजा जी रइ मालीयइजी, केता लख लागा गढा री पोलिहों । म्हारी नणदोरा वीरा हो राजिंद ओलभउजी एहनी। मोरउ मनमोहउ प्रभुजी रा रूप सुंजी , देखि देखि मेंह घटा जिम. मोर हो। म्हारा. मनडा रा मान्य वाल्हेसर- सांभलउ जी । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष - प्रन्थावली 1 3 हुँ त थाहरु दास निरास न मेल्हिज्यो जी । - सेवक नड़ तर कहिवा नउ छह जोर हो ।। १४म्हां ॥ - चालक पिणि माग मा पास रोहनड़ जी । बीजउ कोई बालकनउ नही प्राण हो ||म्हां ॥ सेवक नह देखी नइ दीन दया मणा जी । पूरउ पूरउ त्रास विलास सुजाण हो | म्हां १५ ॥ थाहरs 'तर टोटउ नही किए ही चात रू-जी । थांहरड़ तर भरीया - छइ रिद्धि - भंडार हो ||म्हां ॥ जीवन जी कीजइ जउ निज मन मोकलउ जी । |म्हां १६ ॥ जी । 4. खरच न बइस एक लिगार हो गुण कहुं एकणि जीभडी केवा करू थांहरा वखाण हो | म्हां ॥ केता - M h “ १६३ देवाधिप थांहरा गुण न कही स कह जी । तउ बीजउ कुण गुण नउ दाखड़ प्रमाण हो । १७म्हां ।। ढा- ५ आठ टके कंकणउ लीयउ - री नणदी । परकि रह्यउ मोरी बाह । ककणउ मोल लीयउ || एहनी ॥ रूप वण्यउ थांहरउ भलउ रे जिनजी, थिरक रहाउ थिरथंभ | मो मन लागि राउ । अरे इस चुबक लोहा रीति । मो मन लागि रह्यउ । नाभिनंदन सु प्रीतंडी रे जिनजी, चित रही लाग असंभ | १८ मो. | राति दिवस हीयड बस रे । जि। जिम चकवी मनभाग । 'मो. । 'तुझ पास काई मोहणी रे । जि। ताहरइ वसि थया प्राण- ११६मो. । + L Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ स्तवनानि श्री विमलाचल राजीयउ रे । जि । त्रिभुवन दीवाण । मो. । भर २ तुझ सुनीतडी रेजि। थाल्यो मोरा जीवन प्राण ।२०मो.। मरुदेवा नउ लाडलउ रे । जि । रिषभ जिणेसर राजि । मो. । माहरी एहीज बीनती रे ।जि.। कहा जिनहरख निवाजि ।जि२१॥ आदिनाथ स्तवन ढाल-थारी महिमा घणी रे मंडोवरा ॥ एहनी ।। विसलाचल साहित्र सांभलउ, जगनायक रिखम जिणंद हो । दाखरिखं मननी चातडी, हीयडइ धरि परम पाणंद हो ॥१वि।। आज जलम सफल भयउ माहरउ,आज सफल थया मुझ नइंण हो । साबई भेट्या श्री रिसमजी, आज सफलथया दिन रइण हो ॥२॥ भामण डाल्यु प्रमुजी तणा, सनमुख देखी रहुं रूप हो।। मन मोह मान राची रघउ, एतउ भूरति देखि अनूप हो ॥३वि.।। तुक पासइ छइकाई मोहणी, मुरू नयण थई रंह्या लीण हो। चंपक लोहा जिम मिल गया, विणि दिठां थायइ दीण हो ॥४वि।। मई मन दीधूछा साहरू, तुमनइ लेख्यो संवाहि हो। .. पोता नइ चरणे राखिज्यो, लेखवीज्यो पांचां माहि हो ॥५वि॥ ताहरा सेवक तुमनइ तजी, जास्यइ अणपूगी आस हो। . इणि बातई: लाज नही रहा, जोज्यो प्रसु रिस्य विमासी हो।वि। एतता दिन तुम सु अबोलणड, जाणीजई मइ कीध हो । तिणि कापनको माहरउ सरयु,तुम्हे पिणि काई मउज न दीधहो।७ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष-ग्रन्थावली १६५ जे राचइ पिणि विरचई नही, ते साथई मिलीयई धाइ हो । राचीनइ जे विरची रहइ, तिणि सुतउ मिलइ वलाइ हो ॥वि॥ राज मुगति तणउ तुम्हे भोगवउ, कुमणा नही किणि ही बात हो । अमनइ {क्या वीसारनई, रिसहेसर एसी धात हो ॥ वि ॥ पोताना गुण जोई करी, करिज्यो जिम रुडु थाइ हो । लेखविज्यो सहुनइ सारिखा, मन भ्रांति म धरिस्यउ कोई हो।१० हित नयणे साम्हउ जोइज्यो, एतलइ मुझ लाख पसाव हो । जिनहरप सेवक सुखीया करउ, एतला मइ सगलउ भाव हो।११। धुलेवा श्रादि-जिन-स्तवन __राग-काफी ताल पजाबी जिन तेरी छाय रही हैं, महिमा जग अभिराम ॥जि०॥ नाभि नृपति मरुदेवी को नंदन, धुलेवे जग धाम ॥१ जि०॥ विपति विडारण भक्ति उधारण, तारण त्रिभुवन श्याम ।।जि.२।। तुम दरशन मुझ चित नित वसियो, ज्यू लोभी मन दाम ॥३॥ महर निजर निहारो मेरे साहिब, पूरो वंछित काम ॥ जि.४ ॥ श्री जिनहरप सुरिंद के साहिव, प्रातम तो विसराम ॥ जि. ५ ॥ शत्रुञ्जय स्तवन अवला आखै सगला साखै, प्रीतम मुझ वीनती सुणौ । चालौ श्री. विमलाचल भेटण, सफल जुमारौ कीजै आपणौ ॥१॥ तुरत कारीगर खातीडा तेडावो, वहिली घड़ावौ पातली । दोय सोरठिया वलद जोतावो, इतरी पूरो मन रली ॥२॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिनाथ स्तवनानि मारग चलतां छहरी पालौ, “टालो मनसा पाप नी । सचित विधार धन भूल न कीजै, ले लाहो लक्ष्मी छती ॥३॥ थावच्चो सेलग शुक मुनिवर, पांडव वलभद्र जाणीयै । साधु अनंता उपरि सीधा, तिण सिद्ध क्षेत्र वखाणीयै ॥४॥ पूर्व निनांणुवार प्रथम जिन, इण गिरि आई समोसर्या । श्रीमुख पंडुरगिरी गुण गावै, श्रीमंधर जिन गुण भयो ॥५॥ जिम कुंजर ‘माहे ऐरापति, देवां मांहि सुरपती । तिम सेत्र जो तीरथ मांहे, जिम सतियां सीता सती ॥६॥ सुकलीणी गुणलीणी -माखे, कीजे हो प्रीतम जातडी । जिण वेला ऊजलगिर भेटीस, ते जिनहरष सफल घडी ॥७॥ आदिनाथ सलोको प्रणमु सरसति सुमति दातारो, हंस गमण पुस्तक वीण धारो। नाम लीयां दिन होइ सबाडो, आदि जिणेसर कहिस्यु पवाडो॥१॥ पूरब देस देसां सुलहीजै, नगरी विनाता नाम कहीजै । तास धणी छौ नाभि नरिंदो, राज करै तिहां अभिनव इंदो ॥२॥ मुरदेवा मांन घणे पटरांणी, रूपै दीदार जाणै इन्द्राणी'। सेज सुहाली मंदिर सूती, सुपन लहै दूसात सपूती ।।३।। गैंवर धोरी साइलो लच्छी, दाम सिसी रवि वजा अपूछी । कुंभ पदमसर उदधि सराले, रतन तणो दिग अगनि निहालै ॥४॥ जागी मरुदेवा सुपन लहंती, राइ कन्है गई हरख घरंती । सुपन कह्या फल नाभि प्रकासे, अंगज निजघर होसी इम मासै || Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदिनाथ स्तवनानिः १६७ गरभतणी थिति-पूरी जी हुई,जनम्या रिषभ जिण हरख्या सकोइ। छपन दिसाकुमरि मिलि गायो, चौसठि सुरपति अचल न्हवायौ।६। माता मरुदेवा लूण उतारै, थारै दरसण रै जाउँ बलहारै। आवो कीकाजी गोद हमारी, पूत बलईयां ल्यु नित थारी ॥७॥ माइडी साम्हो देखि नान्हडीया,आज रीसांणा किणसौंजी लडीया। पाई सोवण में बाजै घूवरीया, मात सनेही गाथै हालरीया ॥८॥ सैसव घर तरुणायौ जी आयो, राज तणौ पद रिख जी पायो। नाभि नरेसर हिव बड़: दावै, रिपम विवाह करै परणावै ॥६॥ सुभ दिन सुभ मुहूरत सम वारो, वांभण थप्यो लगन उदारो। पंच सवद धुरि मंगल वाजै, ढोल-निसांणे अम्बर गाजे ॥१०॥ वेह वणाइ मांडी जी चंवरी, लाडिली आई अभिनव कुमरी। षोडस तण-सिनगार वणाया, मांडणा कर पग रूडा मंडाया ।११। कोर जुगल, इक साड़ी पहिराबी, पहिरण चरणा सोहे सवाई। सोवन चूडलो बांह विराजै, रतन जडित कंचू उर छाजै ॥१२॥ __ हार जडित मणि,कंचण माला,कांने कंचण.धड़ कहरती उजवाला। नाक सोवन ची लछ- लहक्क, काजल नयणां संग.गहक्क ॥१३॥ तिलक सोहै सिर-गुथी जीवणी, सुनंदा सुमंगला सारंग नैणी.. गीत झीणै सुर-कामिणी गावै, विप्र-तिहां-हथलेचो जोड़ावै ॥१४॥ च्यार फेरा विध सेती जी फिरिया, रिषम जिणेसर परण उतरीया। गौरी जी गावै तोडरमल जीती, वीवाह हुौ सबलै-वहीतौ॥१५॥ भरत प्रमुख सौ दीकरा हुआ, वांटि-नै- देस- दीया जू जूत्रा। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जिनहर्ष-ग्रन्थावली दांन संवरि तिण खिण दीधौ, आदि जिणेसर संयम लीधौ।१६। करम खपाई केवल पायौ, समवसरण तिहां देवे रचायौं । बारह जी परिषद प्रागलि भाख,धर देसण जग नायक आखड् ।१७/ चतुर्विध संघ रिपम जी थापै, त्रिभुवन मांहे कीरति व्याश् । भक्यिण नर प्रतिबोध दीयंती,शुभध्यांन मन धरि लाम लियंति।१८) आठ करम नौ अंत करी नै, वेला तप केरो लाभ वरी नै । प्रथम जिणेसर मुगत सिधाया,इम जिणहरखै भलै गुण गाया।१५। इति श्री आदिनाथ सलोको समाप्त श्री अजितनाथ स्तवन ढाल-अलबेला नी॥ अजित जिणेसर माहरीरे लाल,अरज सुणउ महाराज,सुविचारी रे । श्रास करी हुँ अावीयउ रे लाल, पूरउ चंछित काज ।।सु.१० ॥ पोताना जाणी करी रे लाल, दीजइ अविचल दान |सु०) महिमा वाधइ ताहरी रे लाल, सेवक वाधइ मान ।।सु.२।। अंतरजामी माहरी रे लाल, जउ नहीं पूरउ आस ।सु०। तउ बीजउ कुण पूरिस्यइ रे लाल, जोज्यो हीयइ विमासी ।सु.३। सेवक दुखीया देखिनइ रे लाल, नावड़ महिर लिगार सु०॥ तउ ते दुख स्यु भांजिस्यइ रे लाल,स्यु करिस्यइ उपगार ।सु.४अ। पाम्या नउ-फल तउ सही रे लाल, जे दीजइ निज हाथ सु०॥ संची कोइ न ले गयुरे लाल, जग जीवन जगनाथ ।।सु.५।। प्रभु लोभी हैं लालची रे लाल, किम चलिस्यह कहउ एम सु.। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितनाथ - स्तवन १६६ लीधा विणि रहस्यु नही रे लाल, जाणउ तिम धरु प्रेम ॥ सु. ६ ॥ हुं तउ सेवक ताहरउ रे लाल, जगजीवन जगदीस | ० | तुझ नइ छोडी साहिबा रे लाल, अवर न धारू सीस ॥ सु. ७८ ॥ तु प्रभु करुणा रस भरे लाल, हुं करुणा नउ ठाम | सु० | जिम जाउ तिम राखिज्यो रे लाल, माहरइ तुमस्युं काम ॥ सु. ८॥ जर तुझ नाम हीयड़ चस्यउ रे लाल, तर जाग्यउ मुक्त भाग | सु. | सा पुरुसां नी संगतई रे लाल, लहीयइ सुख सोभाग ॥ सु. ६ ॥ इकतारी कीधी खरी रे लाल, महं साहिब तुम साथि | सु० । मव भवतु मुझ वालहउ रे लाल, भवभव तु मुझ नाथ ॥ सु१ ० ॥ साहिब - सफली कीजीयइ रे लाल, सेवकनी अरदास | सु० 1. कहइ जिनहरण मया करी रे लाल, दीजड़ सिवपुर वास | सु. ११ । श्री तारंगा मंडप अजितनाथ स्तवन ढाल- अल वेलानी " मन मां हुं हुंती वणी रे लाल, धरतर अंग उमेद, गुणवंता, रे । भावई श्री भगवंतनी रे लाल, जात्र करू द्र वेद ॥ गु. १॥ तारंगड़ रंगई करी रे लाल, भेट्या अजित जिणंद गु० | जनम जीवित सफलउ थयउ रे लाल, आज थया आणंद | गु. २ता. । मन विकस्यउ तन उलस्यु रे लाल, हीयडड़ हेज विशेष | गु० | 1 नयण कमल विकसित थयउ रे लाल, प्रभु मुख सिसिहर देखि | गु. ३ पाम्यउ दरसण ताहरू रे लाल, हुं थयुं आज निहाल गु.। समकित मुझ निर्मल थयउ रे लाल, भागउ मिथ्या साल | गु. ४ | t 1 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प - ग्रन्थावली खडीए अलज हुंत रे लाल, चाहंतां मड़ दीठ | गु. | जनम सफल थयुं माहरउ रे लाल, पाप गया सहु नीठ | गु. ५। आठ पहुर आगल रही रे लाल, सेऊ ताहरा पाय | गु.] तउ ही थाक चडड़ नही रे लाल, ऊजम विमणु थाय ॥ गु. ६ता. ॥ देव अवर तु छइ घणा रे लाल, ते सहु दीठ सदोप | गु.। दोष रहित तु गुण भरे लाल, न्यायइ पाम्यउ मोख | गु.७ | तिथि कारण हुं ताहरइ रे लाल, सरण आयउ आज | गु. | सु नजर करि धरि प्रीतडि रे लाल, पूरउ वंछित काज ॥ गुप्ता. ॥ संसारी सुख सु नही रे लाल, माहरड़ कोई काज | गु. | मांगु करजोडि नई रे लाल, आप अविचल राज || गु. हता ॥ तुझ मूरति मन मोहणी रे लाल, रही यह सनमुख जोई | गु. तर ही लोयण लालची रे लाल, भूख्या त्रिपति न होइ ॥ गु. १०। निज सेवकनी वीनती रे लाल, वाल्हेसर अवधारि । गु. | कहइ जिनहरख कृपा करी रे लाल, चउगति भ्रमण निवारि । ११ श्री संभवनाथ स्तवन १७० || ढाल || निशि दिन हो प्रभु, निशि दिन ताहरउ ध्यान, हीयडा हो प्रभु हीयडा थीं तु नवि टलइ जी । परतखि हो प्रभु परतखि न मिलई आई, सूतां हो प्रभु सूता हो सुपना मां मिलड़ जी ॥१॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजित-संभवनाथ-स्तवन १७१ ते निसि हो प्रभु ते निसि सुख में जाई, दरसण हो प्रभु तुझ देखी करी जी । हीयडउ हो प्र० हेज भराई,तन मन हो प्र. आंखडीया ठरीजी॥२॥ सूधई हो प्र. मन सुध भाव, सेवा हो प्र० कीजइ ताहरी जी। तउ तु हो प्र. करुणा आणी, आस्या हो प्र० पूरई माहरीजी॥३॥ साहरइ हो प्र. तउ नव निद्धि,कुमणा हो प्र०नही किणी वातरीजी । लहीयइ हो प्र. सुखनी वृद्धि,ताहरी हो प्र. सुनजर हुइ खरीजी ।४। सहुनउ हो प्र० तु रखवाल, तारक हो प्र. तु त्रिभुवन तणउजी । भवदुख हो प्र. माहारा टालि, तुमने हो प्र. स्यु कहीयइ घणउजी।५) मोटा हो प्र. न दीयइ छेह, जाणी हो प्र० सेवक आपणा जी । राखड हो प्र. निवड सनेह, मोटां हो प्र. गण मोटां तणाजी ॥६॥ त्रीजउ हो प्र. संभवनाथ, सेना हो प्र. नंदन वंदीयइ जी । पूजी हो प्र० प्रभुना पाय, कहइ जिन हो प्र. हरख आणंदीयइजी ।७/ संभवनाथ स्तवन __ ढाल-रसीयानी सुखदायक संभव जिन सेवीयइ,भेली अधिकउ रे भाव । मोरा आतम त्रिकरण सुध प्रभुस्युचित लाईयइ, चूकी जड़ नहीं रे चाव ।मो.१ जेहनइ नामइ तन मन ऊलसइ, दउलति दीठां रे थाइ । मो० । भेव्यां भावठि भाजइ भव तणी, सेव्यां सहुं दुख रे जाइ ।मो. २ सु.। दास निरास न मूकइ आपणा, पूरइ वंछित काज । मोरा० । मोटा ते मन राखइ सहुतणा, अधिक वधारइ रे लाज ॥मो. ३॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जिनहर्ष-ग्रन्थावली आशा लूधा आवइ आदमी, ताहरी करिया रे सेव ।मो.। सेवा थी आशा सगली फलइ, तु जग मोटड रे देव ।।मो.४सु।। लोक सहु कलि जुगना स्वारथी, स्वारथ राचइ रे देखि | मो.। तुं स्वारथ सहुको ना पूरवइ, तिणि तुझ अधिकी रे रेख ।।मो.॥ अण तेड्या पावइ सुर नर घणा, नापड़ केहनइ रे ग्रास ।मो० तउ पिणि राति दिवस चरणे रहइ, खिणि मेल्हड़ नही रे पास ।६। मोहन सूरति अनमिप जोवतां, त्रिपति न नयणे रे होइ ॥मो०॥ घणा दिनसमा भूख्या लालची, हरपित थायइ रे जोइ ।मो.-७सु.। गुणवंता साहिवनी चाकरी, कीधी पहली रे न जाइ । मो०। पाथरसीनी पिणि सेवां कीयां, कांइक फल प्रापति रे थाइ मो.८ चिंतामणि पाहण पिणि पूरवइ, सेवा करतां रे रिद्धि । मो० । तउ प्रभु सेवाथी अचरज किसर, लहीया अविचल रे सिद्धि ।।। एक तारी करि रहीयइ एह सु, धरियइ एहनी रे आण । मो. । दास निवाजइ तर पोतातणा, हेजई न पडइ रे हाणि ।।मो.१०॥ सेना राणी राय जितारि नइ, निरमल जुल अवतंस । मो० । कहा जिनहरख हरख हीयडइ धरी, सोह वधारण रे बंसमो.११॥ श्री सुमतिनाथ स्तवन ढाल-तप सरिखउ जग को नही ।। एहनी ।। अरज सुरण जिन पांचमां, साहिब दीन दयाल हो, जिनवर । निज सेवक जाणी करी, करुणा करउ क्रिपाल हो, जिनवर १अ.। हुं चउगति दुख पीडीयउ, तुझ चरणे महाराज हो । जि० । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमतिनाथ - स्तवन १७३ आव्यउ ऊमाहउ धरी, पीडि गमउ रहे लाज हो ॥ जि. २. ॥ सेवक ऊपरि स्वामिनी, मीटी भली जउ होड़ हो । जि० । त दुसमण ते सांमहउ, देखि सकड़ नही कोई हो । जि. ३ . । राग द्व ेष सोटा अरी, आठ करम बलवंत हो । जि० । विषय कपाय करइ दुखी, जीपावउ अरिहंत हो | जि० ४ ॥ भावठि भागी भवतणी, थया अकरमी देव हो । जि० । मुझने पिणि तुझ सारिख, करउ कहुँ नित मेव हो || जि०५ ॥ दास निवाजई आपणा, साहिबनी ए रीति हो । जि० । सेवक ते साहिब तणे, चरखे राखड़ प्रीति हो । जि० ६ ० ॥ सुरनर नारी तुझ भरणी, सेवइ कोडा कोडि हो । जि० । । माहरइ साहित्र एक तु, अवर नही तुझ जोडी हो । जि०७ . ।। तु ठाकुर त्रिभुवन ताउ, सहु को ना भांजइ दुख्य हो । जि० । मुझ मांहे खोड किसी जे आपउ नही सुख्य हो । जि० ८ ॥ भोटां नइ कहतां थकां श्रावइ मनमां लाज हो । जि० । पिणि मांगु लाजतऊ, सुगति ताउ द्यउ राज हो । जि. अ. ॥ | तेहवउ कोई दीसह नही, जे भांजइ भव भीडि हो । जि . । कहेतां लाग कारिमउ, कुख जाणड़ परपीडि पर पीडा, जग गुरु लहs, समरथ भेजण हार हो | जि. | भव भव थाज्यो तेहनउ मुझ जिनहरख आधार हो । जि. ११ अ. ।। 1 छु हो । जि. १०. ॥ XX Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 १७४ जिनह - प्रन्थावली चंद्रप्रभ - स्वामि-स्तवन ढाल - फागनी श्री चन्द्रप्रभ स्वामी शिवगामि अवधारि, भव दुख वारक तारक सार करउ करतार | चंद्रवरण सुख करण धरण जगमड़ जस वास, सेवकनी मन संचित वंछित पूरउ स ॥१॥ तु सुखदायक नायक सुरनर सेवड़ पाय | समता सागर गुण आगर संपूरित काय | वदन सदन अमृत अमृत सू ओपम जास । देखी नयण चकोर मोर जिम खेलइ रास ||२॥ म चंद्र ती परि सोहड़ भाल विशाल | नयण कमल दल सुंदर निर्मल गुण मणि माल || तु साहित्र हुं सेवक सेव करूं कर जोडि । चरण ग्रह्या तुम चा अमचा भव बंधण छोडि || ३ || चउरासी लख पाटण ममीयर गमीयु काल | दुक्ख अनंत सह्या न कया जाये प्रतिपाल || मोटा ते सहु जागड़ ज्ञान प्रमाणड् चात | कहतां पार नलहीये कहीय जउ दिन राति ||४|| अरज करू छु एक विवेक हीया मइ आाणि । द्यउ सेवा ताहरी प्रभु माहरी एहिज वाणि || अवर न मागु किम ही जिम ही तिम ही आपि । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभु-अनन्त-शान्ति-स्तवन १७५ अविचल सुख नी सीर धीर माहरा दुख कापि ॥५॥ जग पालक तुझ आगलि बालकनी परि बोल । बोलु छुपिणि ते नवि थायइ बोल नी टोल || हासा मेइ पिणि हसतां रमतां कहीयेइ जेह । पोता ना जाणी मावीत्र प्रमाणइ तेह ॥६॥ चंद्रपुरी नयरी महसेन नरेसर तात । लंछण चन्द्र विराजइ राजइ लखणा मात ॥ स्वामि तुम्हारउ देह धनुप एक सउ पंचास । तु ठाकुर भव भव जिन हरख निवाजु दास ॥७॥ अनन्त-प्रभु-स्तवन राग--काफी मैं तेरी प्रीत पिछानी हो प्रभु, मैं तेरी प्रीत पिछानी । मन की बात कही तुझ आगल,तो भी महर न आणी हो प्रभुजी।मैं। हिरदे नाम लिख्यो मति गहिलो, डरपू पीवत पानी हो । आहू न अादर कवहूं पायो, ऐसी मोहबत नानी हो प्रभुजी ॥२॥ सुपने ही से दर्शन नहीं दियो, अव तुटेगी तानी हो। ' कहे जिनहर्ष अनंत प्रभु, मोकु दीजे निज सहनाणी हो ॥३॥ श्री शांतिनाथ-स्तवन ढाल-मुझ हीयडउ हेजालुअउ, एहनी शांति जिणेसर वीनती, सांभलि माहरी रे एक । तुझ विणि किणि आगलि कहुं, तु साहिब सुविवेक ॥१शां।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जिनहर्ष - प्रन्थावली १७६ ज्ञानी दानी तुं सुख तरणउ, जागड़ परनी रे पीडि । सरणे यर हुं ताहर, मांजर भवनी रे पीडि ॥ २शां || दुख कहीयs atest arउ, उत्तम माणस जोड़ । जिण तिणि आगलि बोलता, सहु मां हासी रे होई || ३शां || तुझ सरिखउ जग को नहीं, करुणावंत कृपाल । सेवक ने सुख आणिवा, तु सुर वृक्ष रसाल || शां४ || तारक तु त्रिभुवन तराउ, गाव सहु जसवास । जस साचउ करि यापराउ, पूरउ सेवक आस || ५शां|| पारेव भव पाछिलइ राख्यउ देई निज काय । गरम रही प्रभु माय नह, शांति करी जिनराय || ६शां || दीक्षा श्रवसर सहु तणा, दरद्र गम्या देई दान | ति मांगुं धउ एतलउ, साहिब अविचल थांन ॥ ७शां || विस्वसेन कुलकज दिन मणी, चिरा मात मल्हार । लंछ मिसि जिन हरप सु, सेवइ मृग गुण धार ॥ ८शां || शांतिनाथ - स्तवन ढाल - ऊभी भावलदे राणी ग्ररज करइ छइ एहनी || मनरा मानीता साहिब वंछित पूरउ, भव भव केरि भावठि चूरउ हो । अचिरा ना हो नंदन म्हांरी सांमलि महिमा थारे चरणे हूँ आयउ नय देखि नइ मइ सुख पायउ शांति जिणेसर थे तर म्हांरा वालेसर, थासु म्हे प्रीति लगाइ हो । अरज मानेज्यो । प्रीति लागड़ छड़ साहिब चोल मजीठी, अति घणु मुकने लागड़ मीठीहो Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · शांतिनाथ स्तवनानि १७७ राति दिवस थे तउ मनमांहि वसीया,थे गुणवंता गुणना रसीया हो। मन मधुकर थारइ गुण मकरंदइ, रमि रहीयउ आणंदइ हो ॥३।। थाहरइ पासइ जाणु निसिदिन रहीयइ,सुख दुख वातां कहिये हो । इम करतां जउ किम ही रीझई, तउ मन मउज लहोजे हो ॥४ ।। हुँ रागि पिणि तु तउ नीरागी, प्रीति चलइ किम आधी हो ।। खड़गतणी धारा छै सोहिली, प्रीति पालेवि दोहिली हो ।।५।। थां सरिखा जे हुई उपगारी, छेह न घइ सु विचारी हो ।। मीठे वचने देई दिलासा, पूरइ सगली आसा हो ॥६।। मोटो री ए रीति भलाइ, सेवक करे सवाइ हो । 'तउ जिनहरख सुजस जग वाधइ, निज प्रातम गुण साधइ हो । श्री शांतिनाथ स्तवन ।। ढाल-मुझ सूधउ धरम न रमीयउ रे । एहनी ।। सोलम संतीसर राया रे, पंचम चक्रवर्ति कहाया । प्रणमइ सुरपति जसु पाया रे, मृदु लंछण कंचण काया रे ॥१॥ मन मोहन त्रिभुवन सामी रे, जगनायक अंतरजामी । - प्रभु नामइ नव निधि पामी रे, प्रणमु अह निशि सिरनामी ॥२॥ नयणे प्रभु रूप सुहायइ रे, निरखंता पाप पुलायइ । दुख दोहग निकट न पावइ रे,जउ भाव भगति सुध्यावइ ॥३॥ बीजा छइ देव घणाई रे, तेहथी नवि थाइ मलाई । जिनराज मुगति सुखदाई रे, अधिकी प्रभुनी अधिकाई ॥४॥ सुर तरु नी सेवा कीजइ रे, तउ वंछित फल पामीजइ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जिनह पं ग्रन्थावली माध्यम तरु जउ रोपीजह रे, सुभ फल सी आशा कीजइ ।।५।। मृगराज गुफा सेबीज रे. मोती गयन लहीजड़ । कूकर घरमांहि रमीजइ रे, तउ हाड चरम निरखीजइ ॥६॥ . जिन नमतां जिन पद पापड़ रे, खिणि मांहि करम जड़ कापइ । अन्य देव तणइ बहु जापइ रे, निज पिंड भरायइ पापड़ ॥७॥ सहु जीव तणउ हितकारी रे, पारेवउ जीव उगारी रे । जगमां कोरति विस्तारी रे, दाता साहे अधिकारी ॥८ माय गरमइ मारि निवारी रे, कीधी जिणि शांति विचारी। शांति नाम कबउ नर नारी रे, ते देव तणइ बलिहारी ॥६॥ महीपति विश्वसेन मल्हारो रे, अचिरा उपरइ अवतारो। महीयल महिमा भंडारो रे, त्रिभुवन ठाकुर सिरदारो ॥१०॥ जिन दरसण थो दुख जायइ रे,जिन दरसण दउलति थायइ ।। जिनहरख सदा गुण गावइ रे, जिन सुपसायइ सुख पावइ ॥११॥ श्री नेमिनाथ-स्तवन ॥ ढाल-तायका नी ।। समकति दायक सोलमारे, सामलि अरज सुजाण रे।सांतिसर।। ताहरउ नाम सुहामणउ रे लाल, वाल्हउ जीवन प्राण रे ॥सांपत्तु ।। तुजगमोहण वेलड़ी रे लाल, मोह्या सह राय राण रे सां। इंद्र चंद्रादिक मोहीयारेलाल,सीस धरइ तुझ आण रे ॥सांरतु॥ सोयन वरण सुहामणु रे, काया धनुष चालीस रे ।सां। लंछण मिसि सेवा करइ रे लाल,हिरण चरण निसि दीस ॥सांस्तु ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथ स्तवनानि १७६ मार उपद्रव टालीयउ रे, देश मां थड़ सांति- रे | सां| शांति कुमर माता पिता रे लाल, नाम दीयउ घरी खांति रे || सां४ ॥ जग पूजइ पग ताहरा रे, हीयड़इ धरिय उलास रे | सां सफल मनोरथ तेहना रे लाल, पामड़ लील विलास रे || सांतु । सुरतरु सुरमणि सुरगवीरे, एक भवी यह सुक्ख रे | सां। - तु भव भव सुख पूरवइ रे लाल, टालई सगला दुक्ख रे ||सां६ ॥ तु सराइ राखड़ सहू रे, तुं प्रभु सहु नउ नाथ रे | सां हुँ पिणि सर ताहरड़ रे लाल, मुझ नइ करउ सनाथ रे ॥ सां७ ॥ भव चक्र मांहे हुं मम्मउरे, पाम्या दुक्ख अनंत रे | सां i मूंकावर दुख थी हिवइ रे लाल, कृपा करी भगवंत रे || सांवतु ॥ ग्यानी नइ कहीयड़ किसु रे, जे जाड़ सहु भाव रे | सां कहइ जिनहरख कदे सही रे लाल, चतुर न चूकड़ चात्र रे ॥ सांतु । ~ | · श्री शांतिनाथ स्तवन || ढाल - हाडाना गीत नी ॥ पूरउ म्हारा मनड़ानी आस रे । श्रचिरा ना नंदा, विश्वसेन कुल चंदा, ग्रापउ जिणेसर सांभली वीनती शांति त्रिभुवन मह जसवास रे माय || मन रगड़ सुरनर मुनिपती रे ॥१॥ जिम जिम देख तुझ दीदार रे, तिम तिम होयडर हींसह माहरउ रे । दीठा मह देव हजार रे, रूप न दीसह केह मह ताहरउ रे || २ || मोहरागारउ तु महाराज रे, कामणगारउ मन मोहि राउ रे । आनंदा | रे, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जिनहर्ष ग्रन्थावली अवर निसार्या काज रे ।। तुझ नइ जोवा मुझ मन ऊमाउरे ।३। चरण न मेहुँ ताहरा हेवरे, पात्रोलग करि सुनिसदिन ताहरी रे । भव भव माहरइ तु हीज देवरे।अाअरज सुणेज्यो साहिब माहरी ।४ तु सहनउ रखवाल रे ।श्रा, पालउ टालउ रे विषमा दीहड़ा रे । नयण सलूणे साम्हउ माली रे अकरम बयरी रे नासई वांकड़ारे।५ सरणइ हुंआयउ तुझ नई ताकि रे,तुत्रिभुवन नउ छड् उपगारीयउरे ममतउ भव माहे रहीयउ थाकि रे,तुझसरिखु करि मुझ विवहारीयउरे तुम नइ स्युं कहीयड वारंवार रे,तुसहु जाणइ मन नी वातड़ी रे । तुं जिनहरख आधार रे ।। तुहीज छइ माहरड़ जीवन जड़ी रे।।७ शांतिनाथ-स्तवन ॥ ढाल-मरवी ना गीत नो ॥ अचिरा नंदन चंदन सरिखउ, सीतल अधिक सुगंध (सनही। ताप हरइ भव भव दुख केरा, उत्तम सु संबंध ।।स०१॥ चंदन तर विसहर संसेवित, न घटइ उपम तास स०१ साहिवनइ त सजन सेवइ, खिण मेल्हड़ नहीं पास । स०२।। राती रहइ चरणे रस राता, रंगाणा मन जास ।स। वीजउन सुहावइ कोइ तेहनड, जे साचा प्रभु दास ।.स०३॥ भमरउ केतकी लीउ, न गिणइ कंटक पीड़ि स०] तिम मो मन प्रभुजी सुं मीनर, न वेवइ ही दुख भीड़ि |स.४।। सुख दुख मांहे एक सरीखी, साची तेहीज प्रीति ।स० प्रीति करीनइ जे नर विरचइ, थायइ तेह फजीत स०५।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथ स्तवनानि १८१ अोछा माणस नी प्रीतड़ली, प्रथम अरघ दिन छोहि स० उत्तमनी ढलता दिन जेहवी, पल पल वधती जांहि ।।स०६त्रा। दिल लागउ तुझसुदिन रयणी, वधती धरिज्यो प्रीति ।स० मुझ जिनहरख निवाजउ साहिब, मोटांनी ए रीति ।।स०७।। श्री शांतिनाथ जिन स्तवन ॥ ढाल-सरवर पाणी हजा मारू, म्हे गया हो लाल राजि । एहनी ।। शांति जिणेसर साहिबा सांभलर हो राजि, आपणा सेवकनी अरदास वारि म्हारा साहिवा । पर उपगारि थांनइ सांभल्यां हो राजि, चरणे हुं श्राव्य धरीय उलास चारि म्हारा साहिवा ॥१॥ करुणासागर छउ आगर गुण तणा हो राजि, माहिर करीनइ मुझनइ तारि वारि म्हारा साहिबा । तुझनइ करु छु साहिबा वीनती हो राजि, जनम मरण ना मुझ दुख बारि, वारि म्हारा साहिवा ॥२॥ ताहरी तर सूरति अति रलीयामणी हो राजि, देखि नइ वाधड हीयड़इ उलास बारि म्हारा साहिबा । प्रभु मूरति खू लागि मोहणी हो राजि, निशि दिन जणु रहीय पासि वारि म्हारा साहिबा ॥३॥ माहरी तउ लागि तुझसू प्रीतडी हो राजि, चोलतणी पर रंग न जाइ वारि म्हारा साहिबा । सोम नजरि सु साम्हउ जोइज्यो हो राजि, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रन्थावली हीयड़उमाहरउ जिम हरखित थाई वारि म्हारा साहिवा।।४।। चरण कमलनी चाहुं चाकरी हो राजि, अवर न चाहुं वीजी वात वारि सहारा साहिवा । मया करी ने देख्यो भूकमणी हो राजि, पासइ राखेज्यो दिन नइ राति वारि म्हारा साहिवा।।।। सेवक नी जउ भीड़ि न भांजिस्यउ हो राजि, पूरविस्यउ नहीं मन नी प्रास वारि म्हारा साहिबा । तउ कुण करिस्यई साहिब चाकरी हो राजि, तर किम लहिस्युजग सावास वारि रहारा साहिवा ॥६॥ राख्यउ पारेवउ सरणइ आपणइ हो राजि, आप्यु तेहनइ निरभय दान चारि म्हारा साहिबा । मुझनइ तिम सरणइ राखीज्यो हो राजि, ताहरउ जिन हरखई राखुध्यान वारि म्हारा साहिवा।।७।। श्री शांतिनाथ-स्तुति । ढाल-धन वन संप्रति सावउ राजा । एहनो ।।। मोहन मूरति शांति जिणेसर, त्रिभुवन नयणाणंद रे । भेटतां भावठि सह माजा, महिमा एह जिणंद रे ॥१मो।। सुरनर मुनिवर कर जोड़ी नड, चरणे नामई सीस रे । स्वामि नमुना सुरग राता, करि जाणई जगदीस रे ॥रमो।। शय्यंभव दरसण थी चुम्यु, मुनिवर पार्द्रकुमार रे। जाती समरण लहइ मछ जोइ,स्वयं भू रमण मझारि रे ॥३मो।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथ स्तवनानि ॥ बोधि वीज पामड़ नर नारी, श्री जिन मूरति जोड़ रे । एहीज शिवपुर नी नीसाणी, अवर न वीजउ कोई रे ||४मो० ॥ भवसायर तरिया ने काजे, श्री जिन चिंत्र जिहाज रे । ए ऊपरि संका जे प्राण्ड, तेहना विणसह काज रे || ५ मो || जिन प्रतिमा जिन सरिखी भाखी, श्रीजिन प्रवचन माहि रे । साची सद्दहरणा मन प्राणउ, एहीज समकित साहि रे || ६मो || श्री जिनवर जिनवर ना मुनिवर, श्री जिन धर्म प्रधान रे । एह सुं रंग लगाउ भावउ, दूरि तजउ श्रज्ञान रे || ७मो || सिद्ध स्वरूप सु चेतन लायउ, पावउ जिम पद तास रे । आवागमण तणा दुख छूटउ, जाइ वसउ प्रभु पासि रे || ८मो || ए. त्रिभुवन केरु उपगारी, वारी एहनई नाम रे । हूं जिनहरख न मागु किम ही, मागु अविचल ठाम रे ॥ मी ॥ श्री शांतिनाथ - स्तवन १=३ ॥ ढाल - वीर वखाणी राणी चेलरणाजी, एहनी || गुण गराउ प्रभु सेवीयड़ जी, करुणासागर सुखकार । शांति जिणेसर सोलमोजी, त्रिभुवन तणउ आधार ॥ १. ॥ सकल सुरासर पाय नमः जी, मुगति पुरि नउ दातार । माय चिरा राणी जनमीयाजी, विश्वसेन नृपति मल्हार ॥ २गु. ॥ सुन्दर रूप सुहामणउ जी, सोवन वर सरीर । धनुष चालीस प्रभु देहड़ी जी, मेरु तणी परि धीर ॥ ३० ॥ अनंत गुण देखि भगवंत ना जी, लंछण सिमि मृग आइ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जिनहर्ष ग्रन्थावली" छोड़ि वनवास पासे रह्यउ जी, प्रभु चरणे चितलाय ॥४गु.॥ पांचमउ चक्रवर्ति थयउ जी, पूरव पुन्य प्रकार । पट खंड साहिबा मोगवी जी, जिन थया सोलमा सार ॥५गु.।। मेघरथ राय तणइ भवइ जी, इंद्र प्रसंसा कीध । सरणागत बच्छल एहवउ जी, कोइ नहीं परसीध ॥६गु.॥ इन्द्र वचन सुर सांभली जी, चिन्तबई चित्त मइ एम । धरि मनुष्य तणउ किसौ जी, करु परिक्षा धरि प्रेम ।।७गु.।। एक थयउ रे पारेवड़उ जी, थयउ हो लावड़उ एक । राय खोला माहे विहतउ जी, पड़यु पारंवड़ छेक ॥गु.।। हीयड़लइ सास मावइ नहीं जी, चल चित्त निरखीयउ राय । मत मन वीहई तु पंखीया जी, तुझ भय कोई न थाय |गु.।। केमई श्राव्यउ रे हो लावड़उ जी, बइठउ राजा तणइ पासि । वचन कही नृप नइ इसुजी, सांभलि मुझ अरदास ॥१०गु.।। ॥ ढाल -२- जी हो मिथिला नगरी नउ धणी ।। जी हो हुँ भूखइ पीड्यर वणु, जी हो छूटइ छइ सुरु प्राण । जी हो एकेडेइं भमतां थकां, जी हो त्रिगण दिन थया सुजाण ॥११॥ सहाकर शांति नमुचितलाय, जी हो पारेवर जिणि राखीयउ, जी हो पोतानी देह कायास.। जी हो ते माटइ दे मुझ भणी, जी हो माहरउ छइ ए मत । जी हो पर उपगारी तुअछइ,जी हो प्राण जाता मुझ रक्ष ॥१२स।। जी हो मुझ सरणइ आवी रह्यउ, जी हो किम आपु तुझ एह । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " शातिनाथ स्तवनानि १८५ जी हो प्राण हुस्यइ तउ पाहुणा, जी हो हत्या लेइसि तेह ॥ ‘जी हो गय कहइ द्य तुझ भणी, जीहो मेवा ने मिष्ठान । - जी हो जे जे भावइ जे गमइ, जी हो परघल ो परघल लइ पकवान ॥११॥४ जी हो भाखड़ ताम होलावड़उ, जी हो सांभलि नृप अवतंस । जी हो भावह नहि मझ संखडी.जी होमझ आहार छह मंस ॥ जी हो आमिस तउ न मिले कीहां, जी हो वरतइ म्हारी आण। __ जी हो एहनइ दोघउ जोइयइ जी हो ते विणि न रहइ प्राण॥ जी हो एक राखु एक ने हणं, जी हो इम किम दया पलाय।। जी हो बेनइ राख्या जोईयइ, इणिपरि चिंतइ राय ॥१७सु।। । जी हो तु मुझ देह नउ आपिसु, जी हो एहनइ मांस आहार । __जी हो ए पिणि त्रिपतउ थाइस्यइ, जी हो कीधउ एह विचार॥ ' जी हो तुरत आणाव्यउ बाजूअर, जी हो पाली लीधी हाथ । ___जी हो एह बरावरि आपिघउ, जी हो सांभलि तुं नरनाथ ।। जी हो राणी ऊभी वीनवे, जीहो वीनवइ सचिव प्रधान । जी हो अम्हे शरीर नउ आपिसु, जी हो एहनइ मांसनउ दान।। __ ढाल|| विमल जिन माहरइ तुम सुं प्रेम ।। एहनी ३ आवी ऊभवउ आगलइंजी, पोतानउ परिवार । 'आमिष आपउ अम्ह तणउ जी, वीनतड़ी अवधारि ॥ २१ ॥ नरेसर तुं मोटउ दातार, तुझ समवड़ि कोई नहीं जी। इणि ससार ‘मझारि, नरेसर तुं मोटउ दातार ॥ . सहु वांछइ बहु जीवीयइ, मरण न वांछे कोइ । । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जिनहर्प ग्रन्थावली राय कहइ ए वेदना जो, सहुनइ सरिखी होई ।। २२ न ॥ हणुं हणाऊँ हुं नहीं जी, केहनइ माहरी देह ।। मुझ काया ना मांस सुजी, त्रिपतउ करिसुएह ॥२३ न । पारेवउ एकिणी दिसइ जी, घाल्यु बाजू माहि । निज काया कापी करी जी, एक दिशि धरइ उछाहि ॥२४ न॥ पारेवउ भारी हुवइ जी, अमिस हलुयउ थाइ। चेलेउ भरीयउ मांस सुजी, तउही ऊँचउ जाइ ॥ २५ न ॥ सहु संकलपी देहड़ीजी, होलावा तुझ काज । त्रिपतउ था भक्षण करी जी, तुझ नइ दीधी आज ।। २६ न ।। मन माहे नृप चिंतवे जी, काया एह 'असार । काजइ आवइ केहनइ जी, मोटउ ए उपगार ॥२७ न ॥ जिम तिम करिनइ राखिवाजी, प्राणी केरा प्राण । मन वचनइ काया करीजी, करुणा धरम प्रमाण ॥२८ न । अवधिज्ञान निहालीयु जी, निरमल मन परिणाम । फटिक तणी परि ऊजलउ जी, सोनइ न हुवइ स्याम ॥३६॥ काया कापइ आपणी जी, निज हाथइ कुण सूर । कुण आवइ पर कारणे जी, निलवट वधतइ तूर ॥३० न॥ __ ढाल ॥ वहिनी रही न सकी तिसइजी | एहनी ४ प्रगट थई कहइ देवता जी, माहरी माया एह। . इन्द्र प्रससा ताहरी जी, कीधी गुण मणि गेह ॥३१॥ सलणारे धन-धन तुझ अवतार । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथ स्तवनानि जणणी तुझनइ जनमीयउजी करिवा पर उपकार करण परीक्षा आवीयउजी, ताहरी हूं इणिवार । * श्रवणे सुणीयउ तेहवउजी, दीठउ तुझ दीदार ॥३२ स ॥ चरणे लागी देवताजी, पहुतउ सरग मझारि । धन धन मेघरथ नरपतीजी, अभय तणउ दातार ||३३ स || पूव भव पारेवडजी, सरण राख्यउ स्वामि | तिम सरणागत राखिज्यो जी, मुझनड़ अवसर पामि ||३४|| निस्वारथ तह पंखीयु जी, राख्यउ देई देह | पर दुख दुखीया जे हुवेजी, जग मई विरला तेह || ३५ स || सरणइ आव्यउ ताहरइ जी, हुँ दुखीयउ महाराज | १८७ भव दुख भाँजउ माहराजी, सारउ चंछित काज ॥ ३६ स || हुं अपराधी ताहरउजी, कीधा के अकाज । स्या अवगुण कहुं माहरा जी, कहतां आवड़ लाज ॥३७ स ॥ अंतरयामी माहरा जी, तुं सहु जाणइ बात । तुझ आगलि कहीय किसं जी, वीतग वात विख्यात ॥ ३८ ॥ तु साहिबछे माहरउ जी, दीन-दुखी हुं दास । कृपा करी मुझ ऊपर जी, आप शिवपुरवास || ३६ स || ॥ कलस ॥ इम शांति जिनवर सयल सुहकर, चित निर्मल संस्तन्यउ | दाता सिरोमणि आप समगिणि, दया मारग दाखव्यउ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जिनहर्ष ग्रन्थावली प्रभु शांति कारण दुक्ख वारण, जगत तारण जगधणी । जिनहरख जगगुरु जगत स्वामि, पाप तमहर दिनमणी ॥४०॥ - श्री शान्तिनाथ स्तवनं सांति जिणेसर राया हूं तो प्रहसम प्रणम् पाया हो। जिनवर सांति करौ। जालौर नयर विराजे, भेटतां भावट भाजे हो।। सांति करो प्रभु मोरा, गुण गावे श्री सिंघ तोरा हो। मूरत मोहणगारी, दीठां हरखे नर नारी हो ॥२॥ जि० दरसण सो मन भावै, दीवलां री जोत सुहावै हो। दीपै तेज दिणदा, मुख सोहे पुनम चंदा हो ॥ ३ ॥ जि. अणीयाली आंखड़ियां, जाणे कमल तणी पांखड़ियां हो। नाक सिखा दीवारी, एतौ लालच घर मनुहारी हो ॥४ाजिक जिम जिम मूरत निरखं, तिम तिम हियड़े अति हरखं हो। जाणं प्रभु पास रहीजे, निस दिन प्रति सेवा कीजे हो ॥५॥ जि० पूरो मुज मन आसा, सेवक नै दीयै दिलासा हो। जस लहिसै बड़ दागै, जिनहरख सदा गुण गावै हो ॥६॥ जि० ॥ इति शान्तिनाथ स्तवनानि ॥ श्री मल्लिनाथ स्तवनं ढाल || सौदागरनी॥ मल्लि जिणेसर वाल्हा तुं उपगारी सहुनउ छइ हितकारी लाल। तुझ मुख ऊपरि हुं तउ अहनिशि वारी लाल ॥ म ॥ तुझ दरमण मुझ : लागइ प्यारउ. . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिनाथ स्तवन १८६ दरसण देई वाल्हा नयणां नइ ठारउ लाल ॥१म।। नाम सुणी नइ होयड़उ हरषित थायइ । मिलिवा थांनइरे वाल्हा अधिक ऊमाहइ लाल । म ॥ जांणु चरणे प्रभुजी नइ रहीयइ, बदन कमल देखी देखी गह गहीयइ लाल ॥२॥ सुन्दर सूरति लाल अधिक विराजइ, त्रिभुवन माहे एहवीकेहती न छाजइ लाल ॥म।। बारह सूरज लाल निलवट दीपइ, तेज इंद्रादिक सहुना जीपइ जीपइलाल ॥३॥ मोहन सूरति लाल सहुने सुहावइ, तुझ गुण मोटा चरण सीस नमावइ लाल । म । दीठा घुणाही लाल देवलं देवा, पिणिमन न वहइ तेहनी करतां सेवा लाल ॥४ मा। तुं तउ अनंता लाल गुणनउ आगर, - तुझ नइ नत नागर तुं तउ सुखनउ सागर लाल । म । भब्य रिदियॉचुज लाल तुं तउविभाकर, ताहरी तउ वाणी लागइ मीठी साकर लाल ॥५ म।। राति दिवस लाल मनमइ तुं वसीयु, ___· कमल भमर जिम मेल्हइ नहीं रसीयउ लाल ! म । मोहणगारा लाल मोह लगायउ, . __ तुझविणि कोई माहरइ चित्त न भायउ लाल ॥६ म।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जिनहर्ष ग्रन्थावली कुंभ नरेसर लाल तुं कुल चन्दन, सेव सुखदायक नायक पाप निकंदन लाल | म।।. नील वरण लाल शिवपुर स्यन्दन ___ करई जिनहरख सदा पाय वंदन लाल ॥७॥ म०॥ श्री नेमीनाथ स्तवनं ॥ ढाल-रसियानी ॥ नयण सलूणा हो साहिब नेमजी, सुणि माहरी अरदास । या०॥ प्राण सनेही हो प्रीतम माहरा, हुं भव नउरे दास ॥या०प्रा०॥ तुझ दरसण मुझ लागइ वालहउ, जिम चकवीनइरे भाण । या । मोहणगारा रे तइमन मोहीयउ, तो परिवारूँ रे प्राण ॥या शार नयर सोरीपुर अधिक सोहामणु, समुद्रविजयनउ रे ठाम या० शिवादेवी राणी सील सुलक्षणी, उत्तम जेहनउ रे नाम |या०३ काती मास बहुल वारसि दिनइ, अपराजित थी रे आई । या०। सिवादेवी कूखइ साहिब अवतर्या, चउद सुपनलयां रे माई 181 गरभतणी थिति पूरी भोगवी, सात दिवस नव मास । या० । जनम्या श्रावण सुदि पांचिम दिनइ, पूगी सहुनी रे आस या प्रभुनइ लेई सुरपति सुरगिरइ, जनम महोच्छव रे कीध । या० : चंदकला जिम वाधइ दिनदिनइ, अनुक्रमि योवन लीध या०। वाल ब्रह्मचारी विषय ने गंजीयउ, न धर्य सुखसुरे राग या राजकंवरि परिहरि राजीमति, आण्यउ मन मइ वइराग । या० वरसीदान देई सयम ग्रा, श्रावण सुदि छठी दीस । या० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ स्तवनानि १६१ समता सागर आगर गुण तणउ, राग नहीं नहीं रे रीस ।या० चउपन दिन छदमस्थ पणइ) रया, सुक्ल हीयइ धरी रे ध्यान । मास आसोज अमावस्या दिनइ, पाम्यु केवलज्ञान । या० । श्रीगिरनार अचलगिरि ऊपरइ, समवसरण रचयउ रे ताम |या० आन्या सुरपति सुरनर सहु मिली, गावइ प्रभु गुण ग्राम । या० धरमतणी द्यइ जिनवर देसणा, मीठो अमृतधार । या० । सांभलता प्रतिबोध लहइ घणा, धरमी जे नरनारि ॥ या० ॥ गणधर अहारह प्रभु थापीया, मुनिवर सहस अहार । या० । सहस चालीस अनोपम साधवी, परम पवित्र व्रतधार । या० । लाख अधिक उगणोत्तर सहसु सं, श्रमणोपासक रे जाणि या० त्रिण लाख छत्रीस सहस भली, ए श्राविका गण खाणि या० सहस वरस आउषु भोगवी, करम तणु करी अन्त । या० । उजुआली आठिम आसाढनी, मुगतिपुरी पहुचंतः ॥ या० ॥ अजर अमर अक्षय सुख पामीया, पाम्यावली पंचानंत । या०। मझनइ पिणि अविचल सुख सास्वता, आपउ श्री भगवंत या० हुँ अपराधीनिगुणी अविरती, बहु अवगुणनी रे खाणि । या०। दोस किसा? दाखु माहरा, कहतां आवइ रे काणि ||या० ॥ करुणासागर तुं भारी खमउ, तुं सहुंनउ प्रतिपाल || या० ॥ माहरी करणी मतसंभारिज्यो, निखरउ पिणि तुझ बाल आया। पसु छोडाव्यां तइं प्रभु कुरलता, दुखिया देखीरे तेह ॥ या० ॥ तिम मुझनइ पिणि भव बंधण थकी, छोडावउ गुण गेह ।या० Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ - जिनहर्प ग्रन्थावली मात पिता तुं मुझ वाल्हउ सगउ, तुं मानी तजरे मीत या तुं साजण तुं सयण सखाईयउ, तुझ मुं लागी रे प्रीति |या०॥ मुझनइ बल सवलउ छइ ताहरउ, अवर न कोई आधार ॥ या०॥ सोम नजरि करि जोवउ साहिवा, जिम पांमु भवपार ॥ या० ॥ कलश इम नेमि वावीसम जिणेसर, शिवादेवी नंदणो । सुखसयल दायक मुगतिनायक, जगत ताप निकंदणो ।। जसु सुजस निर्मल प्रबल त्रिभुवन, काम क्रीड़ा खंडणो। जिनहरप जुगतई भाव भगतइं, तव्यउ पापविहंडणो ॥२१॥ श्री नेमिनाथ स्तवनं ॥ ढाल ।। रामचन्द्र के बाग एहनी ॥ श्री नेमिसर स्वामी, मेरी अरज सुणउ री। तुं उपगारी देव, त्रिभुवन सुजस घणउरी ॥ १ ॥ ब्रह्मचारी विख्यात, तुझ सम कोहीरी। ' छोरी राजुल नारि, अपछर रूप ,सहीरीपी२ ।। करुणावंत कृपाल, पसूआं अभय डीहा जां प्रतिपई शशि सूर, अविचल नाम तयुरी ॥३॥ करि करुणा मुझ स्वामि, भवसायर तारजी। . . जनम मरण के दुक्ख वाल्हेसर वारउरी ॥ ४ ॥ तुम्ह चरणे माहाराज, मन चंचल मोहरी-1 : पंकज रस लयलीन, ज्यूं मधुकर सोह्यउरी ॥ ५ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ स्तवनानि १६३ देखण तुझ दीदार, अलजउ अग धरूं री। . तुझ चिणि रह्यउ न जाइ, कइसइ दिवस भरूरी॥६॥ श्रा गिरनार शृंगार, दिनकर ज्यू प्रतपइ रो। नाम मंत्र प्रभु जार, निति जिनहरप जपई री ॥७॥ श्री नेमिनाथ स्तवनं ढाल-लाछल दे मात मल्हार, एहनी आज सफल अवतार, दीठउ मई दीदार । हेजइ हरपीरे म्हारी आज सलंणी आंखडी रे जो ॥ चितमइ धरतउ चाहि, भेटण श्री जिनराइ । पूगी माहरी रे आसड़ली, थई सफली घड़ीरे जो ॥१॥ जगनायक जगदीस, आण धरूं तुझ सीस । करुणासायर रे मइ साहिब तुझनइ निरखीयउ रे जो ॥ पाप गया सहु दूरि, करम थया चकचूर । आज हो माहरुरे हीयडलु प्रभुजी हरखीयउ रे जो ॥२॥ प्राणीनउ . प्रतिपाल, तुं जग दीनदयाल ।, तुं यादव ना रे कुलनु साहिब दीवलु रे जो ॥ यादव कुल अवतंस, जगसहु करइ प्रसंस । जीव ऊगारी रे जस लीघउ त्रिभुवन मइ भलउरे जो ॥३॥ सनमुख जोवउ आज, महिर करी महाराज । तुं जगनायक रे सुखदायक जगगुरु नेमजी रे जो ॥ हुँ सेवक तुं सांमि, अरज करूं सिरि नामि । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जिनहर्ष ग्रन्थावली सुख देवानी मनमइ स्यई नागउ अजी रे जो || ४ || राजि म करिज्यो रीस, कहु छं विसवा बीस । निज पद आपरउ रे नवि मांगें बीजउ हुँ सही रे जो ॥ बावीसमा अरिहन्त, भयभंजण भगवंत । बात हीयानी रे जिनहरपड़ तुझ आगलि कही रे जो ॥ नेमनाथ गीत पाइ परूं विनती करू, बूझ एक विचार | प्राण सनेही मांहरौ हो, मनमोहन भरतार ||१|| बहिनए नेमि नगीनो फिर गयौ, फिर गयौ क्युं रथ मोरी । कामणगारो नांहलौ, वासुं प्रीत अपार ॥ इण भवऔहिज वालहो हो, हुं आकी खिजमतगार ||२|| अवला विण दूषण तजी, काणौ बहुतैं रोस । ज्युं आयौ त्युं फिर गयौ हो, दे पसुअन सिर दोस ॥३॥ रहि न सकुं हुं प्रिय विना, ज्युं मछली विण नीर | राति दिवस मनमें धरु हो, म्हारां सगीय निणंदरौ वीर ||४|| राजल ऊजलगिर चढी, करि मनमें इकतार । प्रिय पहली मुगत गई हो, कहि जिनहरख सुविचार | ॥ इति श्री नेमनाथ गीतं ॥ नेम राजिमती गीत ढाल - ऊभी भावलदे राणी० ऊभीराजुलदे राणी अरजकरे छै, अबकड चउमासउ घरिकीजैहो । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ नेमि राजिमती स्तवनानि गढ़ गिरिनार वाला नेमजी चलणन देस्यां, चलण तुम्हारा राजिंद मरण हमारा रहउ रहउ रस लीजे हो ॥१।। ग ।। थाहरीतउ सूरति राजिंद म्हाने सुहावे हेकरिसउ महले आवउ हो। प्रेम अमी रससाहिबा म्हांने पावउ, विरह अग्नि ओल्हावउ हो ॥२ हीयड़उ ऊमा उ राजिंदमिलण हमारउ, मेलउ वाल्हेसर दीजे हो नरभवकेरु राजिंद लाहउजी लीजे, दिन दिन जोवन छीजे हो ॥३ म्हेतउ गुन्हउ रे साहिब कोई न कीधउ, विणिगुन्हे काई छोड़उ हो प्रेम डोरी रे राजिंद इमकिम तोड़उ, जतन करीने जोड़उ हो। थांसु तउ म्हारउ राजिन्द तनमन भीनउ, थांसु प्रेमलगायउ हो। आठ भवारा साहिब थेम्हारा वाल्हा, नवमे स्यं मन आयउहो। खोलउ विछाऊँ राजिंद थानमनाऊ, हुंचरणे सीस लगाऊँ हो । भोला बालक ज्यं राजिंद आड़उ करेस्यां, पिणिम्हे जाणन देस्यां हो थेतउ म्हांस्युं रे राजिंद नेह ऊतार्यउ, पिणि म्हे निकट रहेस्यांहो। कहे जिनहरप म्हे साथ न छोड़ा, थांसु लाहउ लेस्यां हो ॥७ (संवत् १९९२ ना श्रावण वदी तेरसने वार सनी ना दिवसे। श्री जिनहप कृत स्तवनो तथा स्वाध्यायो पूर्ण करेली छे । दः भोजक (ठाकोर) केशरीचन्द पुनमचन्द, ठे० मदारशाह पाटण । नेमि राजिमती गीत ढाल म्हारउ मनमाला मां वसि रा । एहनी ॥ पंथीयड़ा कहेरे संदेसड़ो, म्हारा प्रीतमने तुं जाइरे । दूषण पाखड़ नारी तजी, एतउ दुख हीयडइ न समाय रे ॥१॥ म्हारु मन जादव मां वसि रा । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जिनहर्य ग्रन्थावली नवभवनउ तुझ सुनेहलउ लागउ जिम चोल मजीठरे । 'पाणीवल मइ तोड़ीदीयो, मुझ भइ स्यउ अवगुण दीठरे ।।२।। सासूना जाया बालहा, मंदिर आवो एकवार रे । __ कहीये सुखदुखनी वातड़ी, कामणगारा भरतार रे ॥३॥ तुं तउ आछारे बेटा सुसराना, म्हारी वीनतड़ी अवधारि रे । मुझने राखउ आपण कन्हइ, रड़ती मू कउ कांइ नारि रे ॥४॥ मुझ नयणे नावे नोंदडी, म्हारउ जीव धरइ नहीं धीर रे। मिलीये तन मन मेली कर, म्हारी सगी नणद रा वीर रे ॥५ वासर तउ जिम तिम वउलिसु, रातड़ियां मालइ सइण रे। 'निसनेही नाह थई गयु मुझ मातउ पावस नइणरे ॥६॥ वारु गउख सुरंगा मालीया, तुझ विणि लागइ दुखखाण रे। तोरण आवी पाछउ वल्यड, एतउ वागा विरह नीसाण रे ।। ऊंची गोखइ उभी रही, थारी निस दिन जोर चाट रे। तुं तउ आवि सहेजा साहिना, जिमथाये मुझ गहगाट रे ।।८ राजुल रंग भर संदेशडा, पाठनीया पथी हाथि रे। . जिनहरप सुपरि संजम ग्रही, सिव पहुँती प्रीतम साथि रे ॥६॥ नेमि राजिमती गीत दाल-माखी नी जव म्हारो साहिब तोरण आयौ हीयड हरपन माय सांवलीया। साहिब रे हूँ साथि चलूंगी, साथ चलूगी तोलारि फिरूंगी। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती स्तवनानि १६७० साहिबा सुनेह लगाय, केसरीया साहिब रे हूँ साथ फिरूंगी ।।। जव म्हारौ साहिब फेरि सधायो, दे पसूआं सिर दोस । सां। नयण झरइ मोरा बालंभ पाखइ, ज्यु आसू रो ओस ॥ २ ॥ कुण धूतारी कामणगारी, जिण भोलायो म्हारो नाह । सां । अष्ट भवां नो नेम नगीनो, तोडि गयो देई दाह । के०||३|| किण ही री कह्यो नेम न सुणिजइ कीजै नही मन सोक । सां । देखि सकइ नहीं नेह परायो, परघर भांजा लोक ॥ ४ ॥ तूं मुझ प्रीतम हूँ तुम नारी, ए आपण री सगाई । सा । कहइ जिनहरप राजुल नेमि मिलीया साची प्रीति लगाई। ५॥ श्री नेमि राजिमती गीतम् ढाल-कालहरा रागे कांइ रीसाणा हो नेम नगीना म्हारा लाल । यो परिवार हो, सधइ भीना म्हारा लाल ॥१॥ विरह विछोही हो, ऊभी छोड़ी । म्हां । प्रीति पुराणी हो, तई तउ तोड़ी ॥ २ ॥ म्हां।। सयण सनेही हो, कुरुख न राखइ । म्हां । जे सुकुलीणा हो, छह न दाखइ ।। ३ म्हां ।। नेमि न हुइजइ हो, निपट निरागी । म्हां । केहइ अवगुण हो, मुझ ने त्यागी ॥ ४॥ म्हां ।। सासू जायो हो, मदिर आवउ हो । म्हां । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जिनहर्प ग्रन्थावली विरह वुझावउ हो, प्रेम बणावउ ।। ५ म्हां ॥ काइ वनवासी हो, कांइ उदासी हो । म्हां। जोवन जासी हो, फेरि न आसी ॥ ६ म्हां ॥ जोवन लाही हो, लीजड़ लीजइ । म्हां । अंग उमाहउ हो, सफलउ कीजइ ।। ७ म्हां ।। हूं तउ दासो हो, आठ भंवारी । म्हां । नवमइ भव पिणि हो, कामिणी थारी ।। ८ म्हां ।। राजुल दीक्षा हो, ल्यइ गहगहती । म्हां । कहे जिनहरपई हो, मुगत पहुँतो ।। ६ म्हां ॥ । नेमि राजिमती गीतं ढाल-पीछोलारी पालि चांपा दोइ मठरीया मोरा लाल, चापो दोइ मोरीया मोरा लाल। एहनी । नाहलीया निसनेह कि पाछा कहां वल्या म्हांरालाल कि पाछा कहां वल्या म्हारा लाल । यादवनी कुलकोड़ि माहे तर लाजिस्यड म्हारा लाल । " हु जाणति मनमाहि कि यादव आविस्यइ म्हांरालाल । मन गमता मुझ वेसक कि ग्रहिणा ल्याविस्यइ ।। म्हा० ॥१॥ ग्रहणानी सी बात जउ मिलीया ही नहीं म्हारा लाल जा माहरा मननी आसि कि मनमाहे रही म्हारा लाल । कि० जो गुणवंता होइ सु छेह न दाखवे म्हारा लाल सु० । मेले तन मन चित कि मुखमीठ चवइ म्हारा मु०॥२॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती स्तवनानि १६४ पालइ पूरी प्रीति कि जमवारा लगइ म्हारा लाल कि० । तुझ सरिखा ठग होइ कि इणि परि ठगइ म्हारा लाल । प्रीतम विरह वियोग अगनीनी परिदहइ ॥ म्हा० ॥ वेदन हीयड़ा माहि कि करवत जिम वहइ म्हारा ॥३॥ पिउ पिउ करू पुकार वापीहानी परइ। म्हां ॥ बेगुनही यादुनाथ कि कां मुझ परिहरइ ॥ म्हा० ॥ जो सांचा निज सईण वइण सफलउ करइ । म्हारा । न करे आस्या भंग पातक थी थरहरइ ।। म्हारा पा० ॥ चाल्हा साजन तेह राखइ आपण कन्हइ । म्हारा रा० । राजुल कहे जिनहरप मिली जाइ नेमि नइ ।। म्हा० मि० श॥ नेमि राजिमती गीतं ढाल || ऊमादे भट याणी ना गोतनी ॥ (वीनवइ राजुल वाल, बीनतड़ी अवधारउ हो गोरी रावाल्हा नेमजी हेकरिसउ रथवाली,अवगुण पाखइमुझ नइ होगोरीरा वाल्हाकांतजी माछिलड़ी विणि नीर, टलवलती किम जीवइ हो गोरी जोइ नइ मो मन रहइ दिलगीर, सरवरीयांमइ भरीयो होगोरी रोइ नइ ।। काम तणा पंच वाण, मो तनु लागइ हो गोरी रा किम सहुँ । आकुल थायइ प्राण, अन्तरना, दुख केहनइ हो गोरी हुँ कहु आठ भवांरउ प्रेम, इम किम दोषी वयणे हो गोरी तोड़ीयइ । कतुआरी ना जेम, ताँतण टानी परि हो गोरी जोड़ीयइ ॥ पंखी पिणि निजनारी, नयणां आगलि राखइ हो गोरी अह निसइ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जिनहर्प प्रन्धावली वधती प्रीति अपार, एकणि मालइ वे जण हो गोरी जइबसइ ।। नेमि न थईयइ धीठ, मोटानइ इणिवाते हो गोरी || मेहणी । तुझ सम कोइ न दीठ, जेण पराई जाई हो गोरी अवगणी ॥ राजुल राजकुमारी, अविचल पाली प्रिउ मुंहो गोरी प्रीतड़ी। कहइ जिनहरप विचारी. मुगति महल पावडीए हो गोरीजईचढी श्री नेमिनाथ लेख गीतं दाल | मीयानी ॥ स्वस्ति श्रीजिन पय प्रणमी करी, नेमि चरण सुखकार । या० प्रीतम पद पंकज रज मधुकरी, लिखितं राजुल रे नारि ! या० । आंखड़ीया नां वाल्हा रे साहिव सांभलउ, निपट निहेजारे नाह। संदेसा मोरा मनना वीनवं, आवि वुझावउ रे दाह ।। या० २ अत्र कुसल छे तुझ सुपसाय थी, तुमचा लिखिज्यो रे लेख ।या० जिम सुख सातारे मुझनइ ऊपजे, वारु वचन विसेप ।। या० ॥ अन्तरजामी रे आतम माहरा, मनना मान्या रे मीत । या० । तुझनइ मिलिवारे मुझ मन ऊलसइ, पइलां तरनी रे प्रीति ।४॥ कुण जाणइ मोरा मननी वातड़ी, किणिने कहीये रे दुख या० 'प्राण प्रिया तुम परदेसी थया, अलजउ देखण रे मुक्खाया०॥ हुविरहिणि तुझ पाखटलवलु, जिम पाणी विणि रे मीन । प्राणेसर विणि कहउ किम जीवीयइ, निसिदिन रहीये रे दीन। तुमनइ विरह न व्यापे साहिब, कठिण करी रह्या रे चीत या तुम विरहे मुझ काया परजले, जी केही रे रीति ॥ या० ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नेमिनाथ लेख गीतं २०१ दरसण दीजइ रे प्रीतम करि मया, जिम मुझ नइ सुखथाइ | या० जीव सहूना रे पालक तुम्हे थया, तर कांड परिहरि रे जाइ || जे सुकुलीणारे कुल किम लाजवइ, पालइ पूरि रे प्रीति । या० । लीया मुकी रे ते न करड़ कदी, एह सुगुण नी रे रीति ॥ या० एकर सं मिलि आवी प्रीतमा, मन ना पूगइ रे कोड । या० । मुखड़ा देखुरे वाल्हा ताहरउ, भाजइ भाहरी रे खोड़ि ॥ या० ॥ अहनिसि आपणसु राता रहा, हीयड़ा राखइ रे ध्यान | या०|| ते किम साजन सेण उवेखीयइ, दीजइ विमणउ रे मान । या० ॥ तुमे माहरा सिरना रे साहिब सेहरा, आतम तणा रे आधार । या० हीयइ राखुं रे हारतणी परह, तुम्हे माहरा सहु सिणगार | या० सेज सुहाली रे प्रीतम पोढ़ीयह, करीये मननी रे वात । या० ॥ दाखवीयइ निज सुख दुख तुम भणी, टाढउ थाये रे गात । या० सूता सुपना मां आवी मिलह, जउ जागुं तउ रे जाई ॥ या०२ १ 1 टलवलतां इणि परि प्रीतम पखर, रयणि छमासी रे थाइ | या० लागी प्रीतम प्रीति न तोड़िये, मोटा नइ छह रे खोड़ि । या० कतुआंरी नारी ना सूत्र ज्यु, जिम तिम लीजइ रे जोड़ि | या० कीजड़ तर प्रीतम करि जाणीये, सुगुणा सेतीरे संग || या० ॥ लाखी जउ चीरी हुइ लोवड़ी, तर ही न छोड़ई रे रंग | या० । हुँ तुझ पगनी रे प्रीतम पानही, केहउ मुझमा रे दोस । या० । 'आठ' भवां नी रे परिहरि" प्रीतड़ी, कां कीयउ इवड़ंड रे रोस । १ तुम मुझ ▾ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२०२ जिन ग्रन्थावली 'तुमने स्युं लिखियड़ प्रीतम घणुं, लिखितां नावे रे पार । या० माहरी एहीज साहिब वीनती, मुझने लज्यो रे लार । या० । लेख लिख्यउ राजुल श्री नेमिनड़, लह्यां अविचल सुख संग | या०| कहे जिनहरप खरा साजन तिके, राखड़ साचउ रे रंग | या० । नेमि राजिमती गीत ढाल || उढोणी चोरी रे एहनी ॥ स्यु कीधउ इणि जादवड, मां मोरी रे | t तो फिर गयउ प्रीति लगाय । यादव दिल चोरी रे ॥ मन हरि लीघउ माहरउ मा मोरी रे, प्रीतम चिणि राउ न जाय । - इम बोले राजुल गोरी, या० इणि धूरत विद्या करी मा० विणि अवगुण कीधउ रोस । या० धूती मुझ धूतारड़ड़ मां० देह पसुआं सिरि दोष ॥२ या० ॥ निसनेही सुं नेहलउ । मा । कीजड़ तर दाझइ अंग । या० । दीवा के मन में नही । मा । एतउ पड़ि पड़ि मरड पतंग | या३ चाहता चाहे नही । मा । सांमलियउ कठिण कठोर ॥ या० ॥ एक पखी करी प्रीतड़ी। मा । लेई गयउ चित चोर । या० ४ y । सिगड़ी मेल्ही मुझ हीये । मा । दाझे मोरी कोमल देह ॥ या० ॥ चहन नही दिन रातड़ि | मा। सालइ निति हीयड़े नेह । या! | हुं प्रिउ विणि विरहिणी भई । मा । वाल्हह दीघउ अपमान । या० । मूल सरीखी सेजड़ी । मा । घर मन्दिर जाणे रान ॥ या० ६ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ f आठ भवांनी प्रीती । मा । नवमइ पिणि एहिज नाथ ॥ | या० ॥ मुगति महल राजीमती । मा । जिनहरष वणायउ साथ ॥ या०७ श्री नेमि राजिमती गीतम् ढाल || नणदल नी ॥ निगुण निरागी नाहलउ हे नणदल । नणदल मुझ सुथयउ सरोस मोरी नणदल | तोरण आवी फिरि गयु हे नणदल । नणदल दोस विना देई दोस || मो १ ॥ नेमि राजिमती गीतम् 1 नलदल थारउ हे वीरउ बाइ म्हारी थांहरउ हे वीरईयउ कदि घरि आवड़ मोरी नणदल हुं मन मांहे जाणती हे नणदल नणदल माणक चड़ीयउ हाथ, मोरी नणदल, माणक फीटी मणिकलङ हे नणदल हुड़ गयउ कीधी- अनाथ || मो० २ न० || आठ भंवा री प्रीतड़ी हे नणदल नवमह दीधी छोड़ि, मोरी नणदल || राचीन विरची गयउ हे नणदल । ल्यावर रुठड़उ बहोड़ || मो० ३ न० ॥ निसदिन झूरूं एकली हो नणदल | पिउ पिउ करूं पुकार मोरी नणदल ॥ " 7 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जिनह ग्रन्थावली विरह विछोही दुख भरी हे नणदल | गयउ मोरउ प्राण आधार || मो० ४ न० ॥ पाली अविहड़ प्रीतड़ी हे नणदल । भवना दुख टलीह मोरी नणदल || राजुल नेमि जिनहरष सुं हे नणदल । मुगति महल मिलाय || मो० ५ न० ॥ नेमि राजुल गीतम् ढाल || जोधपुरी नी ॥ नेमि काइ फिर चाल्यो हो, यादवराय अरज सुणउ म्हांरी अरज सुणेज्योहो, देखण हरख घणउ ॥ १ ॥ः तुझ मिलिवा तरसइ हो, मनड़उ माहरउ । नयणे जल वरसे हो, यादवराय अरज सुणउ ॥ २ ॥ कोई खून न कीधउ हो, अवगुण कोइ नही । मुझ कोई दुख दीधर हो, यादवराय अरज सुणउ || ३ || थे तर मनरा खोटा हो, नेमि जी कांड थया । हुता गुण मोटा हो, यादवराय अरज सुणउ ॥ ४ ॥ तई तउ छेह दिखाल्यउ हो, वाल्हा विरचि गयउ | तहं तर नेह न पाल्यउ हो, यादवराय अरज सुणउ ॥५॥ तुझ ऊपरि वारी हो, नेमजी आइ मिलउ । १ तुं प्रिउ हॅू नारी हो, यादवराय अरज सुणउ ॥ ६ ॥ 1 f ta Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती गीत २०५ आपण आदरीयां हो, नेमी विरची जई। हसिस्यइ सहु फिरियां हो, यादवराय अरज सुणउ ॥७॥ मइ तउ जाण्यउ न हुतउ हो, विरचिसि वालहा। गिरनार पहुंतउ हो, यादवराय अरज सुणउ ॥ ८॥ राणी राजुल जंपइ हो, संयम लेइ मिले। जिनहरष पयंपइ हो, यादवराय अरज सुणउ ।। ६ ॥ ' नेमि राजमती गीत - ढाल-सूरिजरे किरणे हो राजि माथउ गुथायउ । राजुल विनवे हो राजि, पुन्यइ में पायउ । मुझ ने छोड्नेि हो राजि, फेरि सिधायउ ॥१॥ फेरि० ।। सिवादे राणी रउ जायउ राजि किणि विलंबायउ । हरष धरीने हो राजि तोरण आयउ, मुझने परणेवा हो राजि अधिक ऊमाघउ ॥२॥ अधिक । मइतउ तुम तुमसुं हो राजि अंग लगायउ, मन ना मानीता हो राजि तुझ न सुहायउ, ॥ तुझ न०३ सि । मुगति नारी सुं हो राजि, प्रेम वणायउ । मुझ सु अधिकी हो राजि, जाणी नइ नायउ ॥ जा०४ सि ।। तेतउ धूतारी हो राजि, भेद न पायउ । चतुर हुँतउ हो राजि, पिणि तूं ठगायउ । पि० ५ सि ।। राजुल राणी हो राजि, चित मिलायउ । व्रत संजिनहर्ष हो राजि, पिउनइ वधायउ ॥ नि० ६ सि ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जिनहर्ष प्रन्थावली श्री नेमि राजिमती गीतं दाल--थारी तउ खातर हुँ फिरी गुमानी हमा, ज्यं चकवी लांबी डोर ।' डोर रे गुमानी हमा ज्यु च० एहनी ॥ राजुल कहे रागई भरी, सनेही हंझा। . कांइतु रूठड़उ जाइ, रे सनेही कां ॥ थारे कारणिहुँ खड़ी। स । मुख जोवा यदुराय, राय रे स०मुख ।१॥ वांक दीठउ कोई माहरउ ।स। कइ तउ नाईहुँ दाइ,दाई ४रे स० कइतउ रूपई रूअड़ी।स। मुझ थी दीठड़ी काइ, काइ४ रे स० हुंप्यासी दरसण तणी ।स। दरसण दे मुझ आइ, आइ.४ रेस०), मुझ विरहिणि नइ बालहा ।स। प्रेम अमीरस पाइ, पाइ४ स०१३ तुझ विणि मुझ चकवी परइ । स । झुरत रयणि विहाइ ४ रे सा मेलउ दे मन रंग सु । स। लूंबी झूवी रहुँ पाय, पाय ४ रे स०॥ रतन अमूलक जोवतां ।स। मुझ नइ मिलियर आइ, आइ रे स० छैह देई छिटकी गयउ।स। ते दुख गम्यु न जाइ, जाइ ४ रे सा सु सनेही रूठा हुवइ । स । लीजड़ तास मनाइ, मनाइ ४ रेस० मनदीधउ जिणि आपणउ । स । मिलीये तेहने धाइ, धाइ ४ रे सा तोरण आवी फिरी गयउ । स । गड़बड़ घणी दिखाइ, दिखाइ रे।स। एहवा गुण तुझ माहि छड् । स । तउ तूंकालउ न्याइ, न्याइ रेस इम कहि राजुल रंग सुं । स । प्रिउ हथ संजम पाइ, पाइ रे स० । मुगति गया जिनहरष सुं । स । बेजण सरिखा थाइ, थाइ ४ रेस० Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ नेमाराजिमती गीत नेम राजिमती गीत - दाल-लूअर री ., हो जी रथ फेरि चाल्याजादुराइ, राजल सहीयां मुख सांभली लाल हो जी मुरछागति थइ ताम, चेत रहित धरणी ढली लाल ॥१॥ हो जी नयणे आंसू धार, जांण पावस उल्हस्यो लाल । हो जी कहती विरह विलाप, प्रीतम कांइ मुझस्युं फिरयोलाल।२ हो जी अवगुण कोइक दाखि, वाल्हा विरचीजै पछै लाल । हो जी अबला तजि निरदोष, फिरि चाल्यां शोभान छैलाल॥३ हो जी मोटो मोटौ जादव वंश, काइ लजावै सहिब सामला लाल। हो जी निज कुल साम्हो जोइ, कीजै जिम वाधेकला लाल ॥४ हो जी हुँ जाणती मन माही; माहरी समवडि कुण करै लाल। हो जी समुद्रविजय राय नंद, त्रिभुवनपति मुझनै वरै लाल ॥५ हो जी इवड़ी मन मै आस; हूँ करती नेम ताहरी लाल । .. हो जी कीधी अपट निरास, हंस रही मन मांहरी लाल ॥६॥ हो जी पहली प्रीत लगाइ, ते मुझनै नेम ओलवी लाल । । हो जी हिवं हूँ नाइ दाइ, दाइ माई काई नवी लाल ॥७॥ हो जी उत्तम माणस जेह, झकि- नेम छेहौ दीये लाल ।, - हो जी जण जण सेती नेह; करतां भला न दोसीये लाल ॥८ हो जी निपट थयौ निसनेह,प्रीत पुराणी तोड़ी नेम जी लाल । __ हो जी तुरत दिखाल्यौ छेह, दुपण विण मुझ नै तजी लाल॥६॥ हो जी सुसरै न दीठी म्हारी लाज, सासूड़ी रैपाए नां पड़ी लाल Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जिनहर्ष ग्रन्थावली हो जी नेमजी न दीठौ म्हारौ रूप, देवरीय न चखी-म्हारी सुखड़ी लाल ॥१०॥ हो जी राजल लीधो व्रत भार, प्रिय पहली शिव संचरै लाल । होजी पाल्यौ पाल्यौ अविहड़ प्रेम, कहै जिनहरख भलीपरेलाल।११ श्री नेमिराजिमती बारमासा गीतं _____ ढाल || उधव माधवने कहिज्यो | वैसाखां वन मोरिया, मउर्या सहकार । " विरह जगावे कोइली, नहीं घर भरतार ॥ १ ॥ कहिज्योरे संदेसड़उ, , जादव ने जाइ । निसिदिन झुरे गोरडी, गोरी धान न खाई ॥ २ ॥ जेठ तपे रवि आकरउ, दाझे कोमल देह । - - - विरह दवानलं ओल्हवे, प्रिउ विणि कुण एह ॥ ३क।। आसाढ़इ वादल थया , आयउ पावस मास । हुँ कहु नइ किणिपरि रहुं, एकलड़ी निरास ४ क ।। श्रावण घोर घटा करी, वरसे जलधार । वापीयड़ा पिउ पिउ करे, पिउ सालइ अपार ॥ ५क।। भादरवउ भर गाजीयउ, खलक्या जल खाल । 'चिहुंदिसि चमके वीजली, जाणे पावक झाल ॥ ६ का आसू पाणी निरमला, निर्मल गोखीर । आवउ प्रीतम पीजीये; टाढउ थाइ सरीर ॥ ७ ॥ काती काती सारिखउ, छाती मां जाणे तीरं। " Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 नेमि राजिमती बारहमासा परव दीवाली किम करू, नही नणंदी नउ वीर ॥ ८क || मगसिर मास सहेलिया, आन्यंउ दुख दे ण । - पालउ बालइ पापीयउ, आवउ वाल्हा सण ॥ ६ ॥ पोसई काया पोसीये, कीजें सरस आहार | सुईइ सेज सुहामणी, आणी हेज अपार ॥। १० क ॥ माहइ दाह पड़ई घणउ, वाये सीतल वाय । 'सीयाला नी रातड़ी, वाल्हु आवे दाये ॥ ११ क ॥ -खेले फाग संजोगिणी, फागुण सुखदाय । नेमि नगीन घरि नही खेलइ मोरी बलाइ ॥ १२ क ॥ चतुरा चैत्र सुहामणउ, रिति सरस वसंत | ↓ राती कुंपल रुखड़े, मुलकड़ी ए हसंत ॥ १३ क ॥ नयणे आंसू नखिता, उल्या वारह मास । निठूर नाह न आवीयड, जीउं केही आस ॥ १४ क ।। -रागभरी राजिमती, लीधउ संयम भार । कहे जिनहरप नहेजस, मिलीया मुगति मझारि ॥ १५ क ॥ 'नेम' राजिमतो बारहमास 1 २०६ 175 ढाल वीकारा गीतनी रांणी राजुल इणपरि वीनवें, नेम आयौ मंगसिर मास रे । कांह तोरण थी पाछा 'वल्यां, कांइ अवला तजीय निरास रे | १ | तो मोही रे साहिव सांमंला । इणि पोस महिने सीपड़े, नेम सीत न सहणौ जाय रे । 1 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० - जिनहर्प प्रन्थावली ' मंदिर न सुहावै एकली, वीनतड़ी सुणो यादवराय रे ॥ २ ॥ इम किम करि बोलुं एकली, दुखदायक आयौ माह रे । कोइ सयण न दीसे एहवौ, मैले मनमोहन नाह रे ॥ ३ ॥ वाल्हेसर सांभलि चीनती, जौ फागुन में नावेस रे । / ५ । तौहु चाचर रै मिसि, खेलती, होली मैं झंपावेस रे ॥ ४ ॥ नेम चैत महीनौ आवीयौ, यादवराय लीयौय वैराग रे मृगानयणी फाग रमै सखी, नेम तुझ विण कैसो फाग रे ॥ ५॥ वैशाखे अम्बवन मोरिया, मौरी सगली बनराय रे । विरहानल मुझ काया तपै, नेम तुझ विण घड़ी न सुहायरे ॥ ६ ॥ लू वाजे तावड़ आकरौ, नेम जेठ सुहावे छांह रे । आगुलीयां कैरी मुद्रड़ी, आतौ आवण लागी बांह रे ॥ ७ ॥ राजुल निज सखियां नै कहै, औतौ आयो मास आसाढ रे । निसनेही परिहरिनै गयो, इम गोरीसु करि गाढ रे ॥ ८ ॥ श्रावणी पावस ऊलस्यो, दुखियां दुखि सांले राति रे । बीजलियां लीये रे झब्रूकड़ा, तिम विरहिणि दाझे गात रे । ६ । भाद्रवड़ौ वरसे - चिहुदिसैं, नेम- नदीये खलक्या नीर रे । कूण सुणै कहु किण आगलै, घरि नहीय नणद रौ वीर रे ॥१०॥ आसू, आयौ अलखांमणौ, निरमल जल नदीय निवांण रे । सासू-जायौ आयौ नहीं, इस रहीये केम सुजाण रे ॥ ११ ॥ काती कता विण कामिनी, चौल्यौ बारह मास रे । राजुल मन दृढ़ करि आदयौ, संयम नेमीसर पास रे || १२ || ، 5 Wy Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजिमती गीत २११ पाल्यौ नव भव चौ नेहलौ, मिलीया शिवपुरि भलि रीत रे ।। जिनहरख कहे साजन तिके, जे पाले अविहड़ प्रीति रे॥ १३॥ इति श्री नेमि राजीमती स्वाध्याय सम्पूर्ण . . नेमि राजिमती गीत 'सावण मास धनाधन वास, आवास में केलि करे नरनारी। दादुर मोर पपीया रहें, कहो कैसे कटे निशि घोर अंधारी । वीज झिलामिल होइ रही, कैसे जात सही समसेर समारी। आई मिल्यो, जसराज कहे नेम राजुल क रति लागे दुखारी । १ भादव में यदुनाथ गर्भ, कहो कैसे रहे मेरे प्राण अकेली। ., घोर घटा विकटा करि कैं, वरसे, डर घर माहे अकेली।। आगे वियोग की देह दही, मेरी हीम दहे जैसे राज की वेली। राजुल कहे जसराज भई सखी, नेम पीया विण में तो गहेली । २ चंद की ज्योति उद्योत विराजत, मुख्य सयोगिणि चितमें पायो। पंकज फूले सरोवर मांझि, निरमल खीर ज्यं नीर दिखाया। मन्द भयो बरसात दिसु दिसि, पन्थ को कादम कीच मिटायो। राजुल भासे निहारेजसा कहे, आसू में सासू को जायो न आयो।३ कातिग मास उदास भई, राणी राजुल नेम चिना दुख पावे । प्राण सनेही सोई जमराज जो रूठे पीयारे,कॅ आणि मिलावे । वो रही ठोर दिवाली करे, नर दीपक मन्दिर ज्योति सुहावे । __हूँ रे दिवाली करूँगी तबे, मनमोहन कन्त जब घरि आवे ॥ ४ ___ मास मगसिर आयो सहेली रो, सीत अर्व मेरो देह दहेंगो। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जिनहर्ष ग्रन्थावली नींद गई तिस भूख गई, भरतार विना कण सार न हंगी । योवन तो भयो जोर मतंगज, कैसे जसा वश मेरे रहेंगी। नेम गयो मेरो प्राण रह्यो तो, वियोग की पीर सरीर सहेंगो।५ पोस मैं रोस निवारि के आई, मिल्यो यदुनाथ कृपा करिक । कि, अवगुन मेरे गले कछु देखिके, के किसही सूं गलरिके। तुम तो सब जांण प्रवीण कहावत, तोरणे आई ग फिरिके। कहा लोक कहेंगे भले जु भले, जसराज वियोग हीयें खरिकें। ६ माह में नाह गयो चित चोरिके, प्रीति पुरातन तोरिके मोस्यं । जोर न है कछु नाहस्यं आसीरी, नाह वियोग दीयो तन सोसें। नाह की प्रीति कसव के गेंग ज्यं, मेरी तो मजीठ यूं तोस । के तो मिलो जसराज यदुपति, के तोतुम्हारी सेवक होस्युं । ७ फागुण में सखी फाग रमें, सब कामिनी कन्त वसन्त सुहायो । लाल गुलाल अवीर उड़ावत, तेल फुलेल चंपेल लगायो। चङ्ग मृदङ्ग उपङ्ग बजावत, गीत धमाल रसाल सुणायो। हूँ तो जसान हैं खेलूंगी फाग, वैरागी अज्यु मेरो नाहन आयो।८ चैत महीने में पात झरे द्रुमके सवही फिरि आन अहिं । . मो तन को सखी वान चल्यो, नहे नेम पीया जवथै जं गहें। मो थे भले वपरे द्रुमही फिरि, योवन रूप सुरंग ला है। मैं कहा आई कीउ जग में, सुख पायो नहें विधि कष्ट दरहे। मास बैशाख में दाख भई, अरु अम्बन के सिर मोर लगे हैं। कोकील पीउ पीउ बोलत, पीउ तो मोही कुं दूरि भगे हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमीनाथ नो बारेमासो २१३ राति में उठं चमक्की चमक्की के, नींद न आवत नैन जगे हैं। कन्त विना जसराज विराजी में, कोण दिसी केउ कोउ सगे हैं।१०. जेठ भख सखी जेठ के वासर, आतपतो रवि जोर तप हैं। नाह वियोग दीयो करवत जो, हीयो खराखरि मेरो कपे हैं। राति रू द्योस लीये जपमाल, पीया जी पीया मन मेरो जपे हैं। नाथ मिलें तो टलें दुख को दिन, राजुल असे जसा विलपे हैं।११ चादर तो अब आदर कीनो, अवाज भइ यु धनाधन की। ऋति पावस जांणिके आविदेसी, निवारणि जारि विघातनकी। मेरो नाथ गयो फिरि आयो नहैं, किसी कुंकडं बात मेरे मनकी। दृग नींद गई विणि वींद जसा, गई भूख अउखभई अन्नकी १२ राजुल राजकुमारि विचारि के, संयम नाथके हाथ गयो है । पंच समिति गुपत्ति धरी निज, चित्त में कर्म समूल दह्यो है। राग द्वेष न मोह माया न हे, उज्जल केवल ग्यान लह्यो । दम्पति जाइ वसे शिव गेह में, नेह खरो जसराज कह्यो हैं ।१३ । . ॥ इति श्री नेमि राजिमति बारमास समाप्त ।। . ___.. नेमीनाथ नो बारेमासो कहिजो सन्देसो नेम नै, जादवपत नै जी जाय । निस दिन झूरे गोरड़ी, गोरी धान न खाय ॥ ०१॥ वैशाखे वन मोरीया, मोरी' -अ.सहंकार । . . . १ फहिज्यो रे संदेसो जाएवजी नै जाय। २ मोरी सहु वनराय। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जिनहर्य ग्रन्थावली विरह जगावे कोइली, नही घर नो भरतार ॥ ०२॥ जेठ तपे अति आकरी, सुहाचे ठही छांह । आंगुलीया री मुंदड़ी, आवण लागी बांह ॥ क०३॥ आपाई बादल हुवा, आयो पावस मास । हुँ कहो ने किणपरि रहुं, अकलड़ी निरास ।। क०४॥ सावण मास सहेलियां, बरसे बहु जेल धार । बापीयो पीउ-पीउ कर, पीउ साल अपार ॥ ०५॥ भाद्रबड़ो बरसे भलो', नदियां खलक्या नीर । चिहुँ दिस चमके बीजली, जाणे पावस झील | क०६|| आसु पाणी निरमला, निरमल'' गोहू खीर । आवौ प्रीतम पीवजो,१२ (पीयां) ठाडो होय शरीर ॥ क०७|| काती कातर सारखो, छाती मांहे तीर । परव दिवाली किम करु, नहिं नणदल (रो) वीर । क०८॥ मिगसर मास सहेलियां, आया दुखण देण । पालो वाजै पापीयौ, नहि ४ बोलो सेण ॥ क०६॥ पोसे काया पोषीयै, कीजै सरस : अहार । सुइजि'५ सेज सुहामणि, आणी नेह अपार ।। क०१०॥ ३ घर नहीं यादव राय । ४ रवि ! ५ दाझे कोमल देह । ६ विरह दावानल ते दहै पिव विण उल्हवै कुण ओह । ७ घोर घटा करि । ८ भर गानीयो। है खाले। १० पावक झाल 1.११ निरमला गो खीर । १२ पीजिये । १३ काती। १४भावी बाल्हा सैण । १५ पौढो। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि राजुल बारहमास माहे दाड़ो पड़े घणो वाजै ठाढी" वाय । सीयाला नी रातड़ी, चालो आवै दाय ॥ क० ११ ॥ फागुण मास सहेलीयां, फागुण मांने सुहाय । í سم नेम नगीनो घर नहीं, खले मोरी बलाय ॥ क० १२|| + चैत चतुर सुहामणौ, रात सरस वसन्तं । 3 राती कॅपल रूखड़े, मुलकाड़ी हसन्त || क० १३॥ आंख्यां आंसू नांखती, बोल्या वारहमास । निखरो नेम न आइयो, तेहनें" केहनी' आस |क०१४ || रंग भरी" राजेंमती, लीधो संयम भार । · "" कहे जिनहरख सुजान", मेलो" ॥ इति श्रीनेमनाथ राजेमती बारहमासीयो सं० ॥ # २१५ नेम राजुल बारहमास । सरसति सामिणी बीनबू, नेम वंदु चोवीसी पाय । गुरु प्रसादे गाइसु प्रभु, राजल नेमीसर जिनराय ॥ १ ॥ नेमीसर वरज्यो अमारो मान-आंकड़ी • राजुल ऊभी वीनवे नेम ! मत जाज्यो गिरनार - 1 यादवराय ! मत जाज्यो गिरनार || २ || नेमीसर " मेलो" मुगति मझार ।। क० १५ ।। १ सीतल २ खेल फाग सेंजोगड़ी, फागुण बहु सुखदाय ३ रितु ४ फूली कलियां ५ नयणै आसूं नाखता ६ निठुर नाह ७ जीवू ८ किणरै ६ | रागः १० भणी । ११ सहेज स् १६ मिलियां । L 1 J 1 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ . जिनहर्ष प्रन्थावली प्रीऊ चाल्या पदमणि कहो, नेम ! आयो मगसिर मास । चिहुँ दिस सीत चमकीयो, वालम ! हीये विमास ॥३॥ हुलराये उतर दिसां, नेम ! पालो पवन संजोय । पोस महीने गोरड़ी, चतुर न छंडे कोय ॥ ४॥ माह महीने सी पड़े, नेम ! इण रूत चाले बलाय । ऊनी सज्या पोढिये, प्रीउ ! कामिणी कंठ लगाय ॥शा फागुण मासे खेलीये नेम ! सुण भोगी भरतार । परदेसारी चाकरी, रसीया ! चाले कंण गमार ॥६॥ चैत मासे चित चोरीयो, नेम ! हुवो चालणहार । तंग कशीया नहीं तुरीया तणां, साथे सहस सिरदार ॥७॥ वैसाखे जादव चालीया, नेम ! सयणा सीख करेह । ऊभी झूरे राजेमती, टपटप नयण भरेह ॥ ८॥ लू वाजे दिणयर तपे, नेम ! मास अकरारो जेठ ।। आशा पावस परीघले, ऊभी गोख मेड़ी हेठ ॥६॥ चिहु दिश धरा ऊनम्यो, साहेब ! आयो मास असाढ़ । दुखदाई यादव चालीयो, गोरी तूं करि गाढ़ ॥ १० ॥ सखीयां तन सणगार कर, प्रीया खले सावण तीज । मो मन तो चमको चढ़, जेम बादल झवुके बीज ॥११॥ . भाद्रवडो भर गाजीयो, जीहो नदियां खलक्या नीर । रयण अन्धेरी वीहामणी, सहीया घर नहीं नणद रो वीर ॥१३ आसो मास विदेश पीउ, मोहं विरह लगायो बाण । 1. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजुल बारहमास २१७ सेजड़ीया विष घोलीया, ख्याली मन्दिर हुवा मसाण | १३ || कातिक में कन्तजी पधारसी, नेम सीजसी सघला काज । मृगनेणी उछव करे, नेम जादव कारण जसराज || १४ || बारे मास पूरा हुवा, नेम आव्या नहीं नेमनाथ | आठ भवा लग अकठा, नवमे शिवपुर साथ ॥ १५ ॥ मोह जंजाल तजि करी, जादव जाय चढ़ी गिरनार । प्रभु पासे व्रत आदरी, पुहता मुगति मझार ॥ १६ ॥ राजुल बारमास हो पीउ' चाल्यो हे पदमणी, आयो मिगसर मास । चिहुं दिस सीत चमकीयो, बालहा हीये विमास ॥१॥ सर्वयो मगमिर मुहुम भणी प्रीय चालत, सुन्दरि आय अरज करे । मनमोहन कन्त विचारीये चितसुं, सुंढ़ भयां नहु काम सरे ॥ इह सेझ सकोमल मन्दिर छोड़ि के, जाय उजाड़ में कोण परे । यह भांत करे समझावत सुन्दर, वेन न लोपत पाव धरे ॥ १॥ दूहो ऊलरीयो' उतराध रो पालो पवन संजोय' । पोस" महीनै गोरीड़ी, कदे न छंड़ै कोय ' ॥ २ ॥ १ प्रीतम २ पदमणि कहे ३ उल्हरियो उत्तर दिसा ४ संयोग । ५ पोस मास री गोरड़ी ६, लोग । 1 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ । जिनहर्ष ग्रन्थावली सबैयो असमांण ठंठार पड़े इण पोसमें, नीर जमै कूआ वावज केरा । चालीयै केम इसी रित मांहि, सू लीजीयै स्वाद छही रित कैरा। देह कुँ राखीय कुंकुंम रंगसी, दुख न दीजीय बालम मेरा। दुलंभ अवतार मनुष्य को जु, हारसी जनम सु होय खवेरा ॥२॥ दहो माह महीने सो पडै, इण रित चल बलाय' । ऊंडे पड़वै पोढ़जै, कांमण कंठ लगाय ॥३॥ सर्वयो माह अथाह जलै बन रूंख जु, चालण रित अजु नहीं आई। पड़िवे पति आय पल्यंग समारिक, पोढीयै कांमण कंठ लगाइ। पान लवंग कपूर सोपारी, सनूर वधै निज देह सवाइ । अतर कसतूरी जवादि मंगाय, सुवोस चंपेल फुलेल पहराइ ॥३॥ हो फागुण मास वसन्त रित, सुण भोगी भरतार । परदेसां री चाकरी चाले' कोण गमार ॥४॥ सर्वयो फागुण मास उलासह खेलत, फाग रमै बहु नारि की टोरी। लाल कंसाल मृदंग बजावत, ल्यावत चन्दन केसर घोरी ।। १ बलाइ २ ऊंचा पड़वा पोढनँ ३ लगाइ, ४ जावै । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजुल बारहमास २१६ लाल गुलाल अवीर उड़ावत, गावत गीत सुहावत गोरी। नीर सुगन्ध सरीर कु छांटत, रीझत गेह करी जब होरी ॥४॥ दहो चतुर महीनो' चैत को, पियाजी' चालणहार । तंग कसै तुरीयां तणां, साथै वड़ा सिरदार ॥५॥ सर्वयो , चैत्र सुमास वसंत की, रित सजित भये वनराय सवीने । केल कदम्बक अम्ब सु रायण. नाग पुनाग रहै डंबर कीने ॥ उंबरीक दाडिम श्रीफल खारिक, दाख विदाम विजोर समीने। कूलत मालती केतकी चम्पक, लीजियै प्रेमल नाह नगीने ॥५॥ दूहो प्रीउ बैसाखे हालीया', सैणां सीख करेह । ऊभी झूरै गोरड़ो, डव डब नैण भरेह ॥६॥ सयो वैसाख तुरंगम सझे हरि सागत, चरण जड़े उस लोह खमंगे। हथियार गुरज संभाय बंदूक, तुरस धनुष बरछी विरंगे। कमर कसे तनचारन लागत, टोप चगतर पैहर सुचंगे। मांगत सीख सुगोरी कन्या तव, बापड़ तुरीय सो जाय असंगे ॥६ १ महीने चैत रे, २ हुयोज, ३ कसिया, ४ साथीड़ा, ५ चल्लियो ६ सयणां, २ - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जिनहर्ष मन्थावली दूहो लू वाजै दियर तपै, मास अकारो' जेठ । आंख्यां पावस ऊलस्यो ऊभी छाजां' हेठ ॥७॥ 3 सवैयो दिन जेठ तपै निस वासर, ढूं पड़े इण मास अटारो । परजले वन रूख दावानल लागति, जीव अनेकको होत संहारो ॥ नीवांण न पावत नीर पंक्षिअन, सुकत गात गिरै तन सारो ॥ इण मास देसावर छांड़ि गये, खुवार कर्यो मुझ कन्त जमारो ॥७ दूहो प्रीड मोह्यो परदेस', आयो मास असाढ़ | दुख दे" पापी हालीयो, कर गोरी सुं गाढ | सवैयो $ आसाढ़ धड़कत मेह धरा, दिस मंडत कोस नवे खंड जैसी । करें सिणगार अनूप वसुंधरा, रीझत इंद सुभोग लहेसी ॥ भरतार बिना हम केम करां, किस आगल बात कहोजीयै जैसी । आपणो अंगही आप उघाड़त, इजत देहकी दूर रहैसी ||८|| दूहा सहीयां ! श्रावण आवीयो, उमटि आयो मेह | चमकण लागी वीजली, दाझण लागी देह ॥ ६ ॥ L १ उतारो । २ ऊलरो, ३ मेड़ी, ४ परदेस मे, ५ ले, ६ गोरी सुकर, ७ ऊमट । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजुल बारहमास २२१ सवैयो श्रावण मास करी घनघोर, सजोर, सुघोर दमामो बजावत आयो । जलधर वरसत चात्रक बोलत, दादुर मोर सजोर करायो || चमकत दांमनी झूरत यांमनी, सालत देह में दुख सवायो । कुंकुम काजर मेलत कूंपलि, अंग आभूषण सरख मिटायो ॥ ६ ॥ दूहो भाद्रवड़ो' भर गाजीयो', नदी खलक्यां नीर । बपीयौ ' पिउ पीउ करें, घरि आवो नणद रा वीर ॥ १० ॥ सवैयो । भाद्रव वरखत मेह अहोनिसि, निरमल नीर सरोवर भरीया । नदी नाल प्रनाल वह असराल, सुगाल भये सव डूंगर हरीया । निरखत नैण सुर्वेण न बोलत, नाम रिदै अक प्रीतम धरीया । और कछु नवि मांनत देवकुं, दीसत देवल पथर परीया ॥ १० ॥ दूहो आसू मास विदेस पीउ, विरह लगायो " बांण । सेझड़ीयां बिस घोलीयो, मन्दिर हुयो मसांण ॥ ११ ॥ सवैयो आसू गयो मोह जोवतां चाटड़ी, नावत कन्त अजेय सहेली | १ भादवड़ो २ जागीयो ३ बापहीयो ४ पीउ पीउ, ५ सुणे नणद, ६ थीए, ७ लगावे, ८ भयो । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जिनह प्रन्थावली सरीर सकोमल होत है पींजर, नीर विना जिम सके है वेली । तरवर तन विराज रहे कुच लागत है फल दोय नवेली । भोग सवादी तजया सब आज के, छाय रह्यो पिय मन्दिर मेली । हो काती कंत पधारीया, सीधां वंछित काज । घर' दीपक उजवालीयां, गोरंगी जसराज ॥१२॥ सवैया J कार्तिक मास पधारत प्रीतम, नौबत जैत नीसांण घुराओ । पैसत पोल बंदीजन सेवत, मोती वधावत नैण वरा ॥ बंटत सीरणी नयर अनोपस, गावत मंगल गीत सराओ । हास्य विनोद करै हुं चातुर, सुन्दर हंस सं देह पूराओ || १२ || दूहो इह विधि बारह मास धन, वरने सुकवि विनोद | विवेक चतुरहि जे सुनै, पवित परम प्रमोद || १३|| ॥ इति श्री बारहमासी हा सवैया संपूरणं ॥ प्रभात-वर्णन पार्श्वनाथ स्तवन राग ललित विशाल तेरे लोयणा । जागो मेरे लाल, माता वामा कहे, मेरो जीव सुख लहै । १ मंदर, २ उजवालीयो, ३ वारे मास पूरा थया, पूगी मननी आस मनमान्या साजन मिल्या, दिन दिन अधिक उल्हास । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन । २२३ उठो पूत भोर भयो, कछु भोयणा ॥१॥ प्राची दिशि सूरज की, किरण प्रगट भई । घर घर ग्यालणी, विलोवत बिलोयणा । निज निज मैया मै, आय उठी उठी बाल । आडौ कर करि रहै, मांडि रहै रोयणा ॥२॥ आलस भरे है नैण, बोलत कछु न वेण । रह्यो नहीं जात मोपे, देख्यां सुख पाइये। . कहे जिनहर्ष निहारो, मेरे प्राणनाथ । तेरी ही सूरत पर, चलि बलि जाइये ॥३॥ पाश्वनाथ स्तवन ढाल || फाग री अमल कमल दल लोयणा हो, बदन सरोज विकास । मन मधुकर अटकी रह्यो हो, देखत ही प्रभु पास । मनमोहन मूरत सांवली हो, अहो पूरण तन मन आस ॥१॥ सुर सकलंकित जग भस्यो हो, कोइ न आवे दाय । तुझ दरसण फरसण करूं हो, हियडले हरख न माइ ॥२॥ साहिव सरजणहार तूं हो, करुणा रस-भंडार । परम दयाल कृपाल तूं हो, आतम तणा आधारि ॥३॥ हुं अपराधी मो परे हो, कूरम नयण निहाल । जिम तिम करि प्रतिपालियै हो, आपणो विरुद संभार ॥४॥ गुण कीधै जै गुण करै हो, ए तो जग आचार । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जिनहर्ष प्रन्थावली अवगुण ऊपर गुण करै हो, ते विरला संसार ॥ ५ ॥ मुझ पातिक दूरै हरौ हो, तुझ विण अवर न कोइ। । सिखरां जलधर वाहिरौ हो, निरमल कहु किम होइ ॥६॥ दरसण दीजै सामला हो, पुरसांदाणी पास । सेवक सुखिया कीजिये हो, कहै जिनहरख अरदास ॥७॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवन ॥ पार्श्वनाथ स्तवन राग काल्हरो माहरा मन नी बातड़ी जी तुम्ह आगल कहुँ पास जी । सुसनेही साहिब म्हारी आस पूरौ जी। हुँ तो सेवक ताहरौजी, दरसण लील विलास जी ॥१॥ जगगुरु तुम्ह सुं प्रीतड़ी नी, नै कीधी हित जांण जी । मत विरचौ मुझ सुं हिवै जी, थे छो गुण नी खांण जी ॥२॥ आसा लुधां माणसां नी, आसा पूरै जेह जी। तेहनी सेवा कीजियै जी, कदेय न दाखे छेह जी ॥३॥ मझ मन लागी मोहणी जी. भव पैलाना काड जी। तूं मांहरै हिय. वसै जी, सेव करूं चित लाइ जी ॥ ४ ॥ वामा अंगज बंदिये जी, आससेण नृपना 'नंद जी। मनमोहन प्रभु सेवतां जी, कहै जिनहरख आणंद जी ॥१॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवनं ।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन पार्श्वनाथ लघु स्तवन ढाल || पजावी री राग काफी सिन्धु मूरति मोहणगारी दिट्ठड़ां आवै दाय । चरण कमल तड्डे सोहियां, मन भमर रह्यो लोभाय ॥१॥ सनेही पास जिणंदा वे, अरे हां सलणे पास जिणदा वे |आ० तूं ही यार सनेही साजन, तूं ही मैडा पीऊ । नैणे देखण ऊमहै, मिलवे कूं चाहे जीव ॥ २ ॥ स० हीड़ा भीतर तूं ही बसे है, और न कोई सुहाय । सांमलिया बलि मैं जाउ तैंडी, मोहसु प्रीत लगाय || ३ || स० आस असाठी क्युं नही पूरे करूंअ तुसांठी आस । लाज रखोगे आपणी, करिहउ सफली अरदास ॥ ४ ॥ स० श्री अससेण वामा दा पूता, आसत सपत जहान । दीनदयाल मया करउ, जिनहरख धरह मन ध्यान ||२|| स० ॥ इति श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवन ॥ पार्श्वनाथ स्तवन ↑ २२५ ढाल || सोहला नी ॥ मनना मानीता हो साहिब सांभलउ, सेवक नी अरदास । तेन दाखवियह हो हीयड़उ खोलिनइ, जिणि सुं मन इकलास । १ घणां दीहांरउ हो अलजउ मुझ हुतउ, देखण तुझ दीदार | भाग संजोगइ हो भेट्या पासजी, सफल थयउ अवतार ॥ २ म|| धन धन आज दिवस ऊगउ भलउ, मिलीया वाल्हा मीत । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ एल, जिनहर्ष ग्रन्थावली भव भव ना दुख सगला वीसर्या, वाधी प्रीति प्रतीत ॥३ म ।। जिणि सं मन मिलीयउ हो हिलियउ हीयडलउ, कलीयउ किणिही न जाइ । वलीयउ दिन माहरउ हो आजसुहामणु, फलीयउ सुरतरु पाय ॥४ एतला दिन तुझसे हो प्रीति बनी नही, तउभमीयउ भव माहि। प्रीति लगाइ हो मइ तुझ सं हिवइ, रहिसं चरण संवाहि ॥५ म।। पुण्य प्रबल थी हो मेल उ पामीयउ, जेहनउ धरतउ ध्यान । मन ऊलसीयउ हो तन मांवइ नही, जिम चातक जल दान ।। तुझनइ देखी नइ हो हरख वध्यउ हीयइ, अवर न आवइ दाइ । विवविराजइ हो थंभण पासजी, मुझ जिनहरख सुहाइ ॥७ म॥ - श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल ॥ प्यारउ प्यारो करती एहनी सखीरी भेट्या मई जिनवर आजो, तारण भव जलधी जिहाजो। सीधा मनवंछित काजो, पाम्यउ त्रिभुवन नउ राजो हो लाल। पासजी मन मोघउ, मन मोह्यउ वामानदा। आससेण -कुल गयण दिणंदा, देखी देखी मुख चंदा। लहइ नयण चकोर आणंदा हो लाल ॥ २॥ सखोरी प्रभु मूरति देखि सुरंगी, अंगईफावइ भली अंगी। आंखडीया अधिक उमंगी, सूरति लागइ-अति चंगी हो लाल ३॥ सखीरी जाणुं रहीयइ प्रभु पासइ, पूजं प्रभु चरण उलासइ । भव भवना दुकृत नासइ, इम हियड़ामां प्रतिभासइ हो लाल ॥४॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ स्तवन सखीरी साहिव लागइ मुझ प्यारउ, मेल्ह्यउजायइ नइन्यारउ | जिम रिदयकमल विचि धारउ, इम करि निज आतम तारउ होलाल सखीरी प्रभुना गुण मुझ मनवसिया, निरमल जिमकंचन कसीया । थाय जे वेधक रसिया, ते प्रभु संगति ऊलसीयाहो लाल ।। ६ सखीरी धन धन जे नाह निहाल, धन धन जे पाय पखाला । ते नर समकित उजुआल, जिनहरख अमरगति भालइ हो लाल । ७ श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || छाजइ वइठी साद करु, हूँ लाज मरूँ, घरि आउ क्यूनइ लो, म्हारा राजिवाजी रे ली || एहनी २२७ मनरा मान्या साहिव मोरा प्रणमुं तोरा पंकज पाय सदाई जो । म्हांरा राजेसरजी रे लो, वाल्हा बाल्हेसर पास जिणेसर, थांसं म्हे लयलाइ लो || १ म्हां ॥ साहिब उपगारी छउ हितकारी, नरनारी सहु भाखड़ लो | म्हां । भरीया गुण रा गाड़ाथेतर, सेवक म्हे तु, कहांछां सगलां साखइलोम्हां मिलीवारी म्हेहूंसकरों छां, आसधरांछां, आस्यांम्हारी पूरउलोम्हां कर जोड़ीनड़ कहांछां थांनह. परगट छॉनइ, चिंताचितरी चूरउलो म्हां म्हे तउधाहरा दास कहावां, छोड़िन जावां, थांहरे चरणेरहिस्यां लोम्हां सेवकने साहिब रउ सरणउ, ओहीज करणउ, उणथीचंछित हिस्यांलो थासुं म्हांर चित्त विलूघउ, लागउसूघउ, चोलतणी परिजाणउलो । थांह मनरी बात न जाणां, किसं वखाणां, पिणिमतचूकउ टांणउलो अवसर आव्यउ जाणन दीजइ, लाहउ लीजइ, अवसर गयउन आवइलो Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जिनहर्ष प्रन्थावली सेवकने साहिब साहिब साधारउ, दुख्य निवारउ, जिम दीपउवड़दावर मोटा ने कहता लाजीजे, पिणिकी कीज, मांग्यां विणिन लहीजेलो । दीजह हिवह जिनहरख सनेही सुख्य निरेही, कासुंघणउ कहीजइलो ॥ पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || लाहर लेज्यों जी ॥ एहनी भावर पूजर जी, दोहीलउ नर भव पामी । श्री संखेश्वर सांमी, भावइ पूजउ जी ॥ भा ॥ भाव भगति सुं सिरनामी, जगजीवन अन्तरजामी ।१ भा । केसर भरीयइ कचोली, सुन्दर सारीखी टोली । भगती भांभर भोली, पाय नेवरीयां रमझोली ॥२ भा ॥ टोडर कुसुम चड़ावउ, भावन बहुपरि भावउ । भा । श्री जिन ना गुण गावड, जिम भव मांहि न आवउ || ३ भा || कृष्णागर अगर सुंगन्धा, उखेवउ छोड़ी सहु धन्धा । भा | पुण्य तणा पड़ड़ चंधा, पामइ अमरापुर सन्धा ॥ ४ भा ॥ साहिब सिव सुखदाता, एसुं रहीयइ जउ राता । भा । पालइ बालक जिम माता, सगली पूरइ सुख साता ॥ ५ भा ॥ सुन्दर सूरति सोहइ, ए सहुना मन मोहड़ | भा ॥ ए सम अवर न कोहह, भव भवना पाप अपोहड़ || ६ भा ॥ साहिब सुगुण सनेही, थायेइ नही निसनेही । भा । वाल्हेसर मुझ प्रभु एही, जिनहरख वारुं मुझ देही ॥ ७ भा ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन . २२६ पार्श्वनाथ स्तवन दाल ॥ ऊभी भावलदे राणी अरज करइ छइ ॥ एहनी वे कर जोड़ी साहिबा अरज करूं छु, अरज सेवकनी मानउ हो।। वामादेना जाया साहिब महिर करीजइ, महिर करीजइ साहिब वंछित दीजइ प्रगट कहु नही छांनइ ॥ १ वा०॥ आण तुमारी साहिब हूँ सिरि धारू, चरण तुम्हारा जुहार हो। आठ करम मुझ वइरी सबला, ते आगलि किम हारुं हो ॥ २ ॥ तुझ सुपसायइ साहिब मुझ कुण गंजइ, तुमसुपसायइ मन रंजइ हो। तुम सुपसायइं कोइ आण न भंजइ, तुम सुपसायइ दुखवंजइ हो॥३ सुरतरूनी साहिब सेवा जउ कीजइ, सेवा मां रहीयइ तउ सुरतरु फल लहीयइ हो। तिम साहिब नी साहिवा सेवा जउ कीजइ, तउ शिवफल पामीजइ हो ॥ ४ ॥ करुणा ना सागर साहिबा गुण वइरागर, तुं तउ पर उपगारी हो। जनम मरण साहिवा हुं दुख पीड़यउ, सरणागत सुविचारी हो । ताहरइ तौ सेवक साहिबा छइ लख कोड़ी, सेवा करइ करजोड़ी हो। पिणि माहरइ नही कोई तुझ जोड़ी हो वा०, से आलस छोड़ी हो। सेवा साची जउ साहिबा ताहरीथास्यइ,तउ मुझ पातक जास्यइ हो। मन जिनहरख साहिब सुं लागउ, भ्रमण सहु हिवइ भागउ हो।७. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जिनहर्ष प्रन्यावली पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || समुद्र विजय कउ नेमकुमरजी, सखी थे तउ नाइ मनावउ नइ । भोरील्यावउ नै, सावलीया ने समझावउ नइ ॥ एहनी सहीयर टोली भांभर भोली, सुचि जल पावन थावउ । गोरी आवउ नइ, साहिबीया नइ, न्हवरावउ नइ,गोरी आवउ नइ। पहिरि पटोली सुन्दर चोली, मुख मुहुँकोसम्बन्धावउ नइ ॥१॥ मृगमद सरस कपूर अरगजउ, चन्दण कॅक घसावउ नइ । भावसु रंगई प्रभु का अंगइ, अंगीया अवल वणावउ नइ ॥२॥ जाइ जूही चंपक अरु केतकि, टोडर आणि चड़ावउ नइ । रतनजड़ित कंचण आभूषण, जिनजी नइ पहिरावत नइ ॥३॥ काने कुंडल दिनकर मंडल, सीस मुगट सोभावउ नइ ।' सोल सिंगार वणाइ सहेली, आगइ नृत्य करावौ नइ ॥४॥ वामानंदण त्रिभुवनवन्दन, भावई भावन भावउ नइ । लहउ जिनहरख हरख सं सिव सुख, हित सुं हेत लगावउ नइ ।। पार्श्वनाथ स्तवन गग | वृन्दावनी मल्हार | श्री पास जिणंद जुहारीयइ, नील कमल दल कोमल काया, देखि हरख वधारीयइ ॥१॥ प्रभु मूरति मन मोहनगारी, रिदयकमल विचि धारीयइ । जनम मरण भव-दुख-सागर मइ, आपणपउ निस्तारीयइ ॥२॥ अलख निरंजन अगम अरूपी, अजर अभेद्य विचारीयइ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २३१ सिद्ध' स्वरूप न रूप लखड़ कोई, सो साहिव संभारीयइ ॥ ३ ॥ सकल समृद्धि रिद्धि कर दाता, ताकउ जस विस्तारीयड़ । तउ छिनक मह ताकी सांनिधि, आवागमण निवारीय || ४ || अलवेसर परमेसर चित थई, दास कबहूं न वीसारीयइ । प्रभु जिनहरख हरख धरि मो परि, वामानंद वधारीयइ ||५|| पार्श्वनाथ स्तवन राग ॥ वसन्त ॥ श्रीपासकुमर खेलइ वसंत, सखीयन टोरी मिलि मिलि हसंत । काइ सखी बजावर मृदंग रंग, कांड़ ताल कंसाल बजावर चंग |१ चोवा चन्दन पाके तेल, नामड़ सिर ऊपरि माचड़ खेल । कनक सिंगी भरि कूंकूं नीर, परभावती छांटड़ पीउ शरीर |२| अपणी राणी सू आणी रीस, तेल सुगन्ध लेई नामइ सीस | लाल गुलाब सूं लेपइ गात, अंसुक फूले केस दिखात || ३ || गंगाजल में प्रभु कर केलि, राणी प्रभावती सखी सुमेलिं । जल क्रीड़ा त्रीड़ा करइ छोरि, भरिवाथ नाथ नांखड़ बहोरि | ४ | रामति करि आए वामानंद, सब कुं उपजाए मन आनंद । केसर मह सब गरकाव होइ, जिनहरख वामा लहइ हरख जोड़ || ५ | पार्श्वनाथ स्तवन 3 ढाल || मोरी दमरी अपूठी त्याज्योजी, मोरी द० एहनी || राग बिहागड़उ ॥ मोरी वीनती एक अवधारउ जी, मो० अन्तरजामी तूं अलवेसर । इतनी बात कहुँ प्रभु तोस, मोकूं भवदुख सायर तारउ जी । मो 1 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ २३२ जिनहर्ष अन्धावली सेवक जाणि सदा सुख दीजह, भवकी पीर हरउ न क्यू साहिव । निज तारक विरुद विचारउ जी ॥ १ मो० ॥ साच कहुं प्रभुजी तुझ आगई, तुं साहिब हुँ सेवक तोरउ । - मोरी अरज हिया मांधारट जी मो० दुख भंजउ दुखीयनकेसाहिव । धारी प्रीति सुरीति विचारी, प्रभु ईति अनीति निवारउ जी २६ नीरागी तूं देव निरंजन, निमोही तू ई बहु मोही। . मोकू नयण सुधारस ठारउ जी, मो० वामा सुत जिनहरख पयंपइ । कीजे सार विचार न कीजइ, आपणउ सेवक जाणि वधारउ जी।३ . ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवनं १७५८ वर्षे ।। पार्श्वनाथ स्तवन ढाल-राग माल (रूडी रे रुडी रे वारणि रामला पदमिनी रे । एहनी) सदा विराजै सांमि संखेसरो रे, परतिख पास जिणंद । त्रिभुवन माहे माहे माहिमा महमहै हो, आससेण वामा नंद ।। रूप अनूप अधिक रलीयांमणो रे, रहिये सनमुख जोइ । मोहन मुरति नइणे निरखता रे तनमन तृपति न होई ॥२॥ राति दिवस हियड़ा मा बसि रहा हो, ज्यों गौरी गलिहार। कदेन साहिब मुझनइ वीसरह हो, बल्लभ प्राण आधार ॥३॥ माहरइ तो तुम सेती प्रीतड़ी हो, अविहड़ वणी रे सुरंग । चोल मजीठ तणी परे हो, जनमन होइ विरंग ॥ ४ ॥.. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन मधुकर जिम लोभाणौ मालती हौ, आवै लैण सुवास । ऊडायो पिण ऊडै नही हो, तिम मुं मन तुझ पास ॥ ५० ॥ अवर सुरासुर दीठा देवले हो, मनमें न माने कोई । पातुर नर अमृत छोड़िनइ हो, न पीये खारो रे तोड़ ||६स० ॥ जरा उतारी जिम तई जादवां हो, राखी सगलां री लाज । तिम जिनहरख निवाजो मुझ भणी हो, राखो चरणे महाराज || ॥ इति श्री पार्श्वनाथ स्तवनं ॥ 4 पार्श्वनाथ स्तवन २३३ 2 राग-खभाइती ढाल || सोहला री* उछरंग सदा आज हुआ आणंदा, मनरा वंछित सहु मिलिया । दुख मेटण जौ भेट्यो दादौ, टेवे जिम पातक टलियां ॥१॥ भागी भीड़ अनेक भवांची, करम तणी थित न रही काय । पातक छोड़ गया सहु परहा, जपतां त्रिचीसम जिनराय ||२| मन बीजो कोइ देव न माने, चितमे कोय न आवै चीत । लोही लाख तणी परि लागी, पुरसादाणी सूं सो प्रीत | ३ | आससेण नंदन अतुलीवल, सगले ही देसे परसिद्ध । भगतवछल जिनहरपं भवोभव, कर जोड़ी सो सरणे की | ४ | ॥ इति स्तवनं पं० दयासिंघ लिखितं ॥ | Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्री जिनहर्ष प्रन्थावली श्री पार्श्व लघु स्तवन " ढाल-थे सौदागर लाल चलण न देस्य वयण अम्हारौ लाल हीयड़ धरीजै, सेवक ऊपरि साहिव महिर करीजै लाल । पास जिणेसर लाल अरज सुणीजै, 1 अरज सुणीजै, अंतर खोलि मिलीजै लाल । पास जिणेसर वाल्हा - अ० तुझ विण कोइ लाल, अवरन घ्यावं, तुझ विण अवरन हीयड़े रहाउ लाल || १ पा०|| परतिख तूं तौ लाल कांमणगारौ, तनमन हेरी लीधुं तं तौ अम्हारो लाल । अन्न न भावै लोल, पाणी न भावै, दीठां पाखै रे वाल्हा नींद न आवै लाल | २ पा०| मैं तो तम साथै लाल प्रीत वणार, प्रीति वणाई तिण में खोटि न काई लाल । राति दिवस लाल तुझ नै चीतारू, सूतां सुपनां में वाल्हा अधिक संभारू लाल | ३ पा०| हूं तौ राखूं छं लाल आस तम्हारी, आस पूरविज्यौ थे छौ पर उपगारी लाल । जे गिरुआ ते तो छेह न दाखें, पोता ना जांणी सहुकोना मन राखे । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २३५ कृपण थई नइ लाल वैसी जौ रहिस्यौ, तो जगि माहे सोभा किणपरि लहिस्यौ लाल ।४ पा०। मनरा रे मोटा लाल थईयइ तो वारू, - सहु माहे जस लहिये करतव्य सारू लाल ५ पा०॥ एहवा निसनेही लाल निपट न होईजइ, . तमनै सहु सेवक सरिखा जाण्या जोईजै लाल । नयण सलणे लाल सनमुख जोवो, . मगज न राखो मनमें सुप्रसन होवो लाल ६ पा० अससेण नृप कुल केरव चन्दा, वामां राणी ना नंदा आपौ आणंदा लाल । तूं जगनायक लाल, तूं जिनचन्दा, . कहै जिनहर्ष तुम्हारा हूँ बन्दा लाल ७ पा० । ॥ इति श्री पार्श्व लघु स्तवन । पार्श्वनाथ स्तवन ढाल ।। मोकली भाभी मोनइ सासरइ || 'साहिबाजी हो सुगुणा सनेही पास जी । म्हारा आतमरा आधार, म्हारा साहिवाजी हो ॥ सुगुणा ॥ साहिवाजी हो भवसायर वीहामण, तारक पार तारि मो०११ चरण कमल रस लोभीयउ, मो मन भमर सुजाण । मो० । राति दिवस लागउ रहइ, किणरी न करइ काण । मो० २। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली देव घणा ही सेवीया, पूगी नही. काइ आस । मो०.। हिवइ तुझ पासइ आवीयउ, सफल करउ अरदास । मो० ३। थे उपगारी सिरजीया, करिवा जग उपगार । मो० । किस विमासी नइ रह्या, वाल्हेसर इणि वार । मो०४। गुण पाम्यां रउ गारवु; कीजइ नही करतार । मो० । गुण तउ तउहीज विस्तरइ, जउ कीजइ उपगार । मो० ५ ॥ जे जस लेवा जागिया, ते न करह नाकार। मो०।, मांग्यां महुँ मइलट करइ, ते कहा दातार । मो० ६॥ मुझ सारीखउ मंगतउ, तुझ सरिख दातार । मो० । कोइ नही छह एहवउ, जोज्यो रिदय विचार । मो० ७॥ मेहां नइ मोटां नरां, सहु को राखइ आस । मो० । आशा जर पूरउ नहीं, तर किम लहइ सावास । मो० ८। सुख घइ सहु सेव्यां थकां, चिन्तामणि पापाण । मो० । साहिब घइ निज साहिबी, तिणिमई किसउ वखाण मो०६॥ वामानन्दन वोनg, : जगजीवन , जगदीस । मो० । सेवक सूं सुनजर करर, घर जिनहरख जगीस । मो० १० ॥ पाश्वनाथ स्तवन ढाल ॥ बाजई बइठी साद कर छु ॥ एहनी . . अंतरजामी साहिब मोरा, करूं निहोरों, वंछित आलउ क्यूंनइ लो। म्हारा बाल्हेसरजी रे लो॥ .. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ' पाश्वनाथ स्तवन २३७ राजि गरीवनीवाज कहावउ, तुम'सुं दावउ, तिणि कहीयइ छइ तूं नइ लो ॥ १ ,म्हां ॥ तूं जाणइ छइ मननीं वातां, नव नव भातां, नाम लई स्युं कहीयइ लो। लज्जा छोड़ी नइ जउ कहीयइ, ., मोज न लहीयइ, तउ थाकी नइ रहीयइ लो॥२ म्हारा॥ मोटा थायइ जे उपगारी, हीयइ विचारी, पोताना करि जाणइ लो। पूरइ पूरी सगली आशा, चित्त विमास्या, सहु परि करुणा आणइ लो ।। ३ म्हां ।। उत्तम देखी नइ राचीजइ, सेवा कीजइ, तउ संपति पामीजइ लो। प्राण ही तेहसुं पहुचीजइ, जउ झगड़ीजइ, तउ ही सोह लहीजइ लो ॥ ४ म्हां ॥ ओछा ते तो प्रीति न पालइ, साम्हउ बालइ, भव-दुख मइ रझलावइ लो। माठा देखी दूरइ टलीयइ, जउ अटकलीयइ, . .. तउ आतम सुख पावइ लो ॥ ५ म्हां ।। दुखीया ना जउ दुख्य न भंजइ, चित्त न रंजइ, तउ ते साहिब केहा लो। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली साहिब नइ सहु कोनी चिन्ता, गुणे अनंता, राखइ रिती न रेहा लो ।। ६ म्हां ।। बारंबार कहता स्वामी, आवइ खामी, __ अमनइ पास जिणंदा लो ।। भूख्यउ मांगइ मांनइ पासइ, मुख्य विकासइ, घउ जिनहरख आणंदा लो ॥ ७ म्हां ।। पार्श्वनाथ स्तवन ढाल ॥ दादर दीपतउ दीवाण ॥ एहनी माहरी करणी सुगति हरणी, कहुं तुझ भगवंत रे। दुख भांजि भव भव ना-दया करि, मुगति रमणी कंति ॥१॥ जिनवर चीनती अवधारि, मुझ नइ भव थकी निस्तारि । जि०। दोहिलउ लाधउ मानुषउ भव, देस आरज पामि रे । .. मइं हारीयउ परमाद नइ वसि, जेम जूअइ दाम ॥ २ जि० ॥ मद मान कादम माहि खुतउ, मोह पडीयउ पास रे। . पररमणि रस वसि थयउ रसीयउ, किसी सुखनीआस ॥३जि० बहुं कपट माया केलची मइ, कीयउ लोभ अनत रे । धमधम्यउ क्रोध तणइ वसइ हूं, किम लहुं भव अंत ॥ ४ जि०॥ अति घणउ आलस अंग आण्यउ, मइ धरमनी वार रे । चली पाप करिखा थयउ उद्यत, भम्यु तिणि संसार ॥५ जि०॥ वहु ग्रंथ पढ़ि पढ़ि क्रिया करि करि, रीझच्या नर जाण रे। पिणि माहिलउ मुझ मन न भीनउ, चकमकी पारखाण ६ जि०॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २३६ निज करम हणिया तप न कीधर, तप कीयउ जस काज रे। परभव तणी कांई गरज न सरी, जिम सरद री गाज ॥७ जि०॥ व्रत लेइ भागा दोष लागा, जीव न रबउ ठाम रे । निज दोष कहता लाज मरीयइ, रहइ तुझ थी.माम ||८ जि०॥ वाद्य किरिया कठिण कीधो, ग्राउ बग जिम मूंन रे । नवि कियउ साचउ चित्त चोखइ, खमि त्रिजगपति खून ॥६ जि०॥ माहरी करणी निपट निखरि, रुलिसि. हूँ संसार रे । पिणि पास जिन मन माहि माहरइ, छइ सवल आधार ॥१०जिला जनम दुरगति मरणना दुख, सह्या मइ किम जाइ रे । जिनहरख राजि निवाजि मुझनइ, मइ ग्रह्मा हिवइ पाय ॥११जि० पाश्वनाथ स्तवन ढाल || वीछीया नी भयभंजण श्रीभगवंतजी, मनथी रहिज्यो मत दूरि हो। निशिदिन संभारु तुझ भणी, जिम चकवी चाहइ सूर रे ।१। ताहरड् सेवक छड् अतिघणा, ताहरी राखइ मन आसरे। . मुजनइ ते मांहि संभारीज्यो, हुँ पिणि छु ताहरउ दास रे ।२। तुझ चरण हूँ आवी राउ, मुझनइ तारउ महाराज रे। . जउ सोम नजरि करि जोइस्यउ, तउ रहिस्यइ तुझ मुझ लाज रे।३। वाल्हा साजन विरचइ नही, अवगुण सेवक ना देखि रे । रवि मेल्हइ नहीं पंगु सारथी, जोवउ राखइ प्रीति विशेष रे ।४। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली उपगारी तूं भारी खमउ, गुण सायर तू गंभीर रे । मुझ आठ करम अरि पीड़वर, छोड़ावर आवउ भीर रे || जउ साहिबनी सुनजरि हुबइ, तउ भांजु जमनी फउज रे । करुणा आणी मुझ ऊपरई, मनमानी दीजड़ मउज रे | ६ | तुझ सरिखउ जउ माहरड़ धणी, न धरूं केहनी परवाह रे । सुहुंणा ही मांहि धरू नही, वीजउ कोई सिरनाह रे । ७ । मुझ नड़ तउ आस्या छह घणी, स्युं कहीयइ लेई नाम रे । तुझ आगलि कहतां लाजीयह, पिणि आपर अविचल ठाम रे | ८ | सफली करिज्यो मुझ वीनती, वाल्हेसर वामानंद रे । श्री पास जिणेसर करि मया, आवउ जिनहरख आणंद रे || पार्श्वनाथ स्तवन || ढाल -ऊचर गढ ग्वालेर कउ रे मनमोहना लाल पास जिणेसर वीनती रे मनमोहना लाल, करु प्रभुजी सिरनामी हो । जगजीवना लाल, दरसण द्यउ दउलति हुवइ रे म० पामूं वंछित काम हो । १ जा परम सनेही माहरइ रे म० तुझ विण अवरन कोइ हो । ज । इणि अणीयाले लोयणे रे म० साहिब साम्हउ जोड़ हो । २ ज । आंखडीयां तरसइ घणं रे म० देखण तुझ दीदार हो । ज । B सेवक करि जाणिस्यउ रे म० तर करिस्यउ उपगार रे । ३ जा उपगारी उपगार न रे म० सिरज्या सिरजणहार हो । ज । पात्र कुपात्र विचारणा रे म० न करइ जे दातार हो । ४ ज । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , २४१ . 11 पार्श्वनाथ स्तवन ताहरउ ध्यान हीयइ धरु रे म० निरमल मोती हार हो । ज । मुझ मन लागी मोहणी रे म० न रहुं दूरि लिगार हो । ५ ज। देस्यउ मउजे मया करी रे म० तर जग रहिस्यइ लाज हो जी नहीं घउ तउही आडट करी रे म० लेइसि हूँ महाराज हो ।६ज। दीठा दुनीया माहि मइ रे म० वीजा देव अनेक हो । ज । __ तुझ सरिखउ कोइ नहीं रे म० जोयउ धरिय विवेक हो । ७ जा अरज सुणि ए माहरी रे म० वामानंद विख्यात हो। जी . कहइ जिनहरख निवाजिज्यो रे म० सउबांते एक बात हो।८ ज। पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || सुबरदे ना गीतनी " सुन्दर रूप अनूप, मूरति सोहइ हो सुगुणा साहिब ताहरी रे। चित माहे रहइ चूप, देखण तुझने हो सुगुणा साहिब माहरी रे॥ मुझ मन चंचल एह, राखु तुझमइ हो सुगुणा साहिब नवि रहइ रे। मुझसुं धरिय सनेह, राखउ चरणे हो सुगुणा साहिव सुख लहइ रे॥ तूं उपगारी एक, त्रिभुवन माहे हो, सुगुणा साहिब मइला रे। आव्यउ धरिय विवेक, हिवइ तुझसरणउ हो सुगुणा साहिब संग्रहउ रे।। सरणागत साधारि, विरुद संभारी हो सुगुणा साहिब आपणउ रे। भवेसायर थी तारि, तुझनइ कहीयइ हो सुगुणा साहिवस्यं घणउ रे॥ साहिवनइ छइ लाज, निज सेवक नी हो सुगुणा साहिब जाणिज्योरे। मेलउ दे महाराज, वचन हीयामई सुगुणा साहिब आणज्यो रे ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली ~~7 लाडकोड मांवीत, जो नवि पूरइ हो सुगुणा साहिब प्रेमसुंरे । तर कुण राखड़ प्रीति, तर कुण पालइ हो सुगुणा साहिब प्रेम सुं रे । पास जिणेसर राजि, पदवी आप हो सुगुणा साहिब ताहरी रे | प्रभु जिनहरख निवाजि, अरज मानेज्यो हो सुगुणा साहिब माहरीरे पार्श्वनाथ लघु स्तवन 4 12 ढाल || ये तउ अलगा रा खड़ीया आज्यो रायजादा सहेली हो । सहेली ल्याइज्यो राजि ॥ एहनी थांन वीनती करांछां राजि, गुणवंता f · लाइल्युं हो बलाइल्युं मानिज्यो राजि । म्हांरा सफल करेज्यो काज | गु । थाहरा चरणकमलनी सेव ! म्हांन देज्यो देवांरा देव ॥१॥ T म्हे तर मेल् सहु जग जोड़ | गु। थां सरिखड अवर न कोई । उपगारी जे नर होइ |गु मोटा जग माहे सोइ ॥ २ गु०॥ 1 १" हरे चरणे रहे लयलीन गु । जिम जीवन सुं मन मीन । ܐ म्हांग मनकेरी पूरउ आस । गु कर जोड़ी करू अरदास |३| मोटा साहिब जें' जाण ।गु । ते तउ राखड़ नही माण | सेवक ते आप समान ग| करि राखड़ देड़ मान ॥४ गुं० ॥ 'थाहरइ सेवक छई लेख कोडि | गु। थांहरी सेवा करइ कर जोड़ि | सेवा सरिखउ उ छ दान । गु । श्री पास म्हांना पिण मानि ५ थोड़ा मइ घणो जाज्यों | गु | म्हार का चित्तम आणेज्यो । बीजउ म्हांनइ क्युं न सुहाव | गु| जिनहरख परमपद पावइ ||६| 44 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन पार्श्वनाथ स्तवन ..., ढाल | महिंदी नी, वामानन्दन वीनं५ रे, घउ, दरसण महाराज । मूरति. मन मोघउ, थांरी . सूरतड़ी सिरदार ।।।। म्हारा आतमरु, ओधार मू० : दरसण दीठां मन ठरइ रे, सीझइ वंछित काज ॥१॥ . मूरति ताहरी मन गमइ रे, मुरति सुं बहु-प्रेम । मू० ।निसिदिन हीयड़ा मां वसइ रे, लोभी नइ धन जेम ॥२ मू०॥ सुगुण सनेही साहिवा रे, तूं तउ मोहणवेलि । सू०.। , जायइ नही वीजा कन्हइ रे, मुझ मन तुझ नइ मेल्हि ॥३मूना मन मइं जाणुं ताहरी रे, भगति करूं कर जोड़ि । मू०।आठ पहुर ऊभउ थकउ रे, आलस अलगउ छोड़ि ॥४-मू० ॥ पिणि कोइक अन्तराय छइ रे, करि न सकुं तुझ सेव । मू० । तुं तउ ही सेवक जाणिनइ रे, देज्यो सुख नितिमेव ॥५ म० दीठां देव गमइ नही रे, भरीया जेह कलंक । मू०। .. -- साहिव तुझ मिलियां पछइ रे, आडउ वलीयउ अंक ॥६ मू०॥ ,धरणिंद नइ पदमावती रे, पास रहइ तुझ पासि । मू० । __ कहइ जिनहरख सहू तजी रे, ताहरी राखं आस ॥७ मू०॥ पार्श्वनाथ स्तवन ढाल कोइलउ परवत धूधलउ रे लो | एहनी परम पुरुष प्रभु पूजीयइ रे लो, भाव धरी भरपूर रे । भविक नर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f IST श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली t 二 २४४ 102 T - केसर चन्दन कुमकुम " रे लो, मैली मांहि कपूर रे भ० प० |१| कुसुममाल कंठ ठवउ रे लो, गावउ गण सुविसाल रे भ० । जनम सफल इम कीजीयड़ रे लो, लहीयड़ सुक्ख रसाल रे भ० |२| चरणकमल थी वेगला रे लो, रहीयड़ नही एकत रे ० नयणां आगलि राखीये रे लो, ए साहिब गणवंत रे ॥ भ०३ || सूता वइठां जागतां रे लो, धरीय हीयड़ड़ ध्यान रे भ० । एहनउ संग न छोड़िया - रे लो, आपइबंछित दान रे भ० ॥ ४ ॥ एहस्यु एक तारी करी रे लो, रही यह एहन पासि रे भ० । मउड़ी बड़गी तउ सही रे लो, आखर पूरइ आस रे भ० ||५|| मोटाइ नवि मूंकीयइ रे लो, मोटा खोटा न होइ रे भ० मुख मीठा झूठा हीयइ रे लो, दूरइ तजीयइ सोइ रे भ० ||६|| साहिब नह ज सेवी रे लो, तर करह आप समान रे भ० । नीच निखरनी चाकरी रै लो, लहीयइ पिणि नही मान रे भ० /७॥ अश्वसेन वामा कुलतिलउ रे लो, परतखि पास जिणंद रे भ० । ए साहिब उ थंकर रेलो, छह जिनहरख आणंद रे भ० ||८|| पार्श्वनाथ - स्तवन' - 1 ! ढाल - ॥ फागनी 5 -37 पास जिणेसर तूं परमेश्वर, त्रिभुवन तारणहार । चउठि इंद्र कर पाय सेवा, सुर नर खिजमतगार ||१|| जिन त्रेवीसम हो अहो मेरे ललना अश्वसेन नृप-कुल- चन्द ॥ ज ॥ जगजीवन J h Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ safirt 7 AR", पार्श्वनाथ स्तवन अही मेरे जिनजी बामादे रानी केरउ नंद | ज० अ० । नील कमल दल कोमल काया, अनुपम सोहई रूप ।। देखत ही तनमन सुख पावर, हीयडलइ हरख 'अनूप ॥२ जा पुरुषादाणी गुणमणि खांणी, 'राणी प्रभावती कंत । निज आतम हित जाणी सेवउ प्राणी, मन निरमल करि एकत | ३| 71 1 चंछित पूरंइ दुकृत 'चरह, कलियुग सुरतरु एह । 1 ܐ ݂ܟ 7 २४५ 79 सेवक नइ सुखदायक नायक, तीन भुवन गुण गेह ॥ ४ ज ।। - पत मोहणगारउ सहुनई प्यारउं, धारउ हीयडा मांहि | तारउ आतम आपणउ हो, वारउ भव भ्रमण अगाहि ॥ ५ जी॥ | ए साहिब नी सेवा कीजइ, लीजइ नरभव लाह । पूजीजइ प्रभु नइ चिंत चोखइ, होइजइ तउ शिवनाह ॥ ६ ॥ पुन्य पसाय पामीया हो, देव तणउ "ए 'देव 7 कहइ जिनहरख न मेल्हीयई 'हो, एहनी चरण नी सेव ॥ ७ पार्श्वनाथ स्तवन 50102 57 ढाल || जाटणी ना गीतनी 7 - मुखड दीठु हो ताहरु पासजी, जाणे पुनिमचन्द नयण चकोर तणी परड़, पामई परम आनन्द ॥ १ मु० 7 मनमोहन महिमांनिलड, सोभागी सिरताज । " प्रभुजी मूरति जोवतां, सीजइ सगला काज ॥ २ मुं० ॥ 'नयण कमल दल सारिखा, अणीयाला अति चंग. | सुरनर देखी मोही रहह, 'जिम पंकज' स्युं भृंग || ३ मु० ॥ Kuta o "F ܐ ܐ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली दीप सिखा जाणे नासिका, दसन मोती नी माल । अधर प्रवाली ओपीया, अरध निसाकर भाल ॥४ मु० ॥ . रूप वण्यउ प्रभुनउ रूअड़उ, ओपम दीधी न जाइ । चउसठि इंद्र सेवा करइ, पूजइ प्रभुजी ना पाय ॥ ५ मु०॥ अश्वसेन नृप कुल दीवलउ, वामाराणी नउ नंद । नील वरण तउ सोहतउ, परतखि सुरतरु कंद ।। ६ मु० ॥ . धरणिन्दै नइ पद्मावती, सेवई चित्त लगाइ। कर जिनहरख जोड़ी करी, हरख धरी गुण गाइ ॥ ७ मु० ॥ पार्श्वनाथ स्तवन .. -ढाल | म्हारइ अागणीयइ-हे श्रावउ सहीया, मउरीयच ॥ एहनी म्हारा साहिबा सुणि मोरी वीनती, जगनायक प्रभु पास जिणंद। दरसण दीजइ मुझने हिवइ, जिम थायइ ए तउ परमाणंद । १ । थाहरा मुखड़ा ऊपरिवारी साहिवा, थाहरउ मुखड जाणे पूनिचंद। आशा करि आन्यउ तुम कन्हइ, उपगारी म्हारी पूरउ आस ॥ सापुरुषा नी ए रीति छड्, नचि {कइ निज दास निरास ।२। उपगार करण पर कारणइं, सापुरुपे. एतउ धयु शरीर। दूहव्या पिणि छेह न दाखवइ, जे गुरुआ गुण जलधि गंभीर ।३। तुमसु रहीयइ छइ वेगला, स्युं करीयइ कोइक अंतराय । आवी न सकून मिली सकुं, एतउ दुखड़उ मइ खम्यउ न जाय ।४। साहिब ने सेवक छइ घणा. सेवा सारइ निति कर जोड़ि। सहु ऊपरि सुनजरि सारिखी, राखइ तूं मन कसमल छोड़िश Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ स्तवन २४७ मनवंछित मूल न आलिस्यउ, करिस्यउ मत कोई उपगार। पिणि आंखडीए अणीयाली ए, मुझ साम्हु जोवउ एक बार ।६। - स्युं कहीयइ तुमनइ वली वली, म्हारा मनना मानीता मीत। जिनहरख सकल सुख पूरवउ, तुम सुंछड् म्हारइ अविहड प्रीति।७। पार्श्वनाथ स्तवन ढाल | कलीयउ कलाले मद पीयइ रे, काई साईना रइ साथि रे ।। एहनीमन उमाह्यउ माहरउ रे कांई, तुमनइ मिलिवा. काज रे।-, सेवक सुं लेखवी रे कांई, मुजरउ घउ. महाराज - रे ॥१॥ वामानंदा आपउ नइ रे परम आणंदा, तमनइ रे अरज करुंछ एह । हुं आतुर अलजउ घणउ रे काई, भेटण तुझ भगवन्त रे ॥ . राति दिवस रातउ रहुं रे कांई, खरी धरी मन खंति रे ॥२॥ पूरव भवनी प्रीतड़ी रे कांई, काइक छइ करतार रे । तउ लोयण लागी रह्या रे काई, देखण तुझ-दीदार रे ॥३॥ माहरइ मन तूं ही वसइ रे कांई, जिम निरधन धन नेह । कोइल आंबइ कलरव करइ रे कांई, मोरां मन जिम मेह रे ॥४॥ सेवक नइ. संभारिज्यो रे कांई, हितसं धरिज्यो हेज । करिज्यो मत तुमनइ कहुँ रे कांई, विडं मामे भाणेज रे ॥२॥ दूहन्यो छेहन दाखवइ रे कॉई, मोटा जे मतिमंत । घासंता गुण धइ घणा रे कांई, मलयागर महकंत रे॥६॥ कोडि गुन्हा कीधा हस्यइ रे काई, मंइ मरख मतिहीण । पिणि जिनहरख म विरचियो रे काई, दाखंछु थइ दीण रे ॥७॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || भाइती रागे '' 2 भगवंत, भजड सगला भ्रम भाजइ, अवरतणी सिर-म धरउ आण । हेक धणी तउ परतखि हुइस्यड़, कोड़ि गमे तर लहिसि कल्याण | ११ नागर करुणासागर निति प्रति भाव सेव करह चित मेलि । सो साहिव तजि पाचं सरीखंड, मिणियां काचम राखउ मेल |२| तवंड नही कोई त्रिभुवन तारक, जनम मरण भंजण जंजीर । सुप्रसन थियउ दीयई सुख सगला, तुरंत पमांड़े भव जल तीर | ३ | वामानंदण करमविहंडण, पाय नमै नर अमर भूपाल । इरी 'कोई न वरावर आवै, बीजा देव बापड़ा वाल ॥ ४ ॥ जगगुरु तुझ भ्रामण जाऊ, अतुलीबल तुं हीज अरिहंतं । भव भव 'मुझ हुज्यो पाय भेटा, कर जोड़े जिनहरख कहंत | ५| 77 श्री जिनहर्ष प्रन्थावली T इ F पार्श्वनाथ लघु स्तवन - दाल ॥ पनिया मारु नी 7 आज सफल दिन माहरेउ, हो साहिना म्हांरा । 'आंखड़ीया निहाल्यां जिनवर पासजी रे हां जी ॥ दरसण दीड साहिबा ताहरउ, हो साहिबा म्हांरा । कुमति महेली हिंवई दूर तजी रे हांजी ॥१॥ आंव्यउ हुं आशा करि- नइ ताहरी, हो साहिबा म्हांरा || आसड़ीयां पूरीजह निज सेवक तणी रे हां जी ॥ t Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वनाथ स्तवन २४६ . सीस तुम्हारी आणा मइधरी, हो० सा० . .. तुंहीज भवो भव माहरइ सिर धणी रे हां जी ॥२॥ __ साचउ हुँ खिजमतगारी रावलउ, हो० सा० । ' चरणा री नइ सेवा दीजइ दास नइ रे ॥ हीयड़उ हेजाल मन ऊताक्लु रे हां जी, हो० सा० । सेवा नइ करेवा मिजपूर वासि नइ रे हां जी ॥३॥ मोह विलूधउ अग्यानी पणइ हो. सा० । मिथ्याती सुर केइ मई सेव्या हुसी रे हां जी ॥ पार न कोई माहरे अवगुणे, हो० सा० । सोम नजर सुं जोवउ मनड़उ हुइ खुसी रे हां जी ॥४॥ ताहरइ तउ सेवक सहु को सारिखा, हो० सा० । अधिका नइ वली ओछा प्रभु नइ को नथी रे हां जी ।। एक नजरि नवि जोवइ पारिखा, हो० सा० । ते जिनहरख जाणीजइ आप सवारथी रे हां जी ॥५॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवनं ढाल || थारी महिमा घणी रे मडोवरा || एहनी 'म्हारउ मनड़उ मोबउ पासजी, थाहरी सुनिजर मूरति देखि हो लोयण सुरतिमइ चुभि रह्या, जिम कंचण कसवट रेख हो । १ । हुँ साहिवरी सेवा करूँ, निसिदिन ऊमाहउ एह हो सेवा दीजइ प्रभु करि मया, हुं तुझ चरणा री रेह हो । २ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली करुणासायर करुणा करउ, चाहंता घउ दीदार हो, पाणीथी स्यूंछ पातलउ, इवड़ा जे करउ विचार हो। ३ माहरा मन थी मेल्हुँ नहीं, अलवेसर ताहरी आस हो, निति नाम जपिसि हूँ ताहरउ, जा पंजर माहे सास हो। ४ वाल्हेसर विरचीजइ नहीं, माहरा अवगुण अवलोइ हो, मोटा पिणि जउ विरचइ कदी, तउ तउ ऊथलवा होइ । ५ । ओछानी प्रीति एरंड ज्यु, फुलतां न लगावइ वार हो, सुगणां री अविहड प्रीतड़ी, आतउ बड़ जेहइ विस्तार हो । ६ वीजउ क्युं ही मागू नहीं, मुझ आवागमण निवारि हो, जिनहरख तणो ए वीनती, वामानंदन अवधारि हो । ७। श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल ।। फागनी ॥ सकल मंगल सुख संपदा हो, घउ मोहि दीनदयाल, तं जग सुरतरु सारिखउ हो, सेवक जन प्रतिपाल । १ । मनमोहन मरति पासजी हो, अहो मेरे जिनजी, अरज सुणउ चितलाय । म० । अहो मेरे प्रभुजी, तुम तइ मेरे दुखजाइ । म० । ऑ०। मुझ मन तुझ चरणे रमइ हो, ज्यों मधुकर अरविंद । पलक रहइ नहीं वेगल हो, निसदिन अधिक आणंद रामक प्रभु मुख राकापति वण्यउ हो, मुझ भये नयन चकोर देखि घटा द्युति देह की हो, नाचत हइ मन मोर । ३ ।म०। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन सुन्दर रूप हामणउ हो, शोभा वरणी न जाइ, सुरगुरु पार लहइ नहीं हो, सहस रसन गुण गाइ । ४ । -नील कमल दल सामलउ हो, अससेन वामानंद हो, भेट भई जिनहरखसुं हो, दूरि गए दुख दंद | ५ | श्री पार्श्वनाथ स्तवन २५१ ढाल || अलवेलानी ॥ 1 सुणि सोभागी साहिब रे लाल, एक करू' अरदास । मोरा जीवनांरे । सेवक जाणी आपणारे लाल, पूरउ मननी आस || मो० १ सु ।। च्यारे गति मांहे भयउ रे लाल, पाम्यां दुख अनंत । मो० । जामण मरण कीया घणा रे लाल, अजी न आव्यउ अंत || मो २ सु ।। छोड़ाव तेहथी हिव रे लाल, भयभंजण भगवत । मो० | सरणइ आयउ ताहरइ रे लाल, भांजउ भवनी भंति ।। मो० ३ सु ।। मुझन पीड़ पापीया रे लाल, आठ करम अरिहंत । मो० । करम तणउ स्यउ आसरउ रे लाल, जउ पखउ करइ बलवंत || मो४सु || बलवंत तुझ सारिखउ रे लाल, कोइ न दीठउ नाह । मो० । चरण सरण मह आदर्या रे लाल, पाप मतंगज गाह || मो ५ सु || जाइ अवर द्वारांतर रे लाल, परिहरि तुझ दरबार । मो० । क्षारोदधि जल ते पीयड़ रे लाल, करि अमृत परिहार || मोसु || सठ हठ मूढ कदाग्रही रे लाल, स्युं जाणइ तुझ मर्म । मो० । सहु परि खाते लेखइ रे लाल, भूल्या मिथ्या भर्म । मो० ७सु ॥ तेहिज तुझन लेखवर रे लाल, जास अलप संसार । मो० । I I Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली 1 बहुल संसारी बापड़ा रे लाल, न लहइ तेह विचार मो ८ सु ॥ तूं चिन्तामणि सारिखो रे लाल, बीजा काच कथीर । मो० । बीजा सुर पथ आकना रे लाल, तुं निरमल गोखीर | मो ६ ॥ तुझ सेवा थी पामीयइ रे लाल, नरसुर शिव सुख सार | मो। बीजा सुरथी पामीयइ रे लाल, नरग निगोद अपार । मो १० सु ।। अश्वसेन नरपति कुल तिलउ रे लाल, वामोदर सर हंस । मो० । प्रभु जिनहरख सदा जयउ रे लाल, तीन भुवन अवतंस || मो० ११सु ।। श्री पार्श्वनाथ स्तवन । ढाल || चमर ढलावइ गजसिंघ रउ छावर महल मा जी || एहनी सुगुण सनेही साहिव सांभलि वीनतीजी, पर उपगारी पास | परतखि हुइन हो परता पूरवउ जी, सफल करउ अरदास || १ || अरज सुणीजइ मन मोहन साहिव माहरीजी, आनंद अधिकउ होइ । सूरति देख हो हरखु हीयड़लइजी, जगगुरु साम्हउं जोइ || २ || धरणी निहाली हो सगली पवन ज्यूं जो, जग सहु मूं क्यउ जोइ । जिणिनह निहाल्यां हो साहिब वीसरड़, तिसउ न मिलीयउ कोइ || ३अ एक पत्रीणी हो प्रीति मतां करउ जी, गरुआ गुणे गंभीर । माहरउ तउ मनड़उ हो न रहइ तुझ बिना जी, जिम मछली विणि नीर ॥ ४ अरज० ॥ मउज कढ़े किणि दीजह मुझ भणीजी, ब्रेवीसम जिनराय । आसड़ी विधा हो इम ही रिप तजउ जी, वातडीयां वउलाय ॥५॥ अहनिसि ताहरउ हो ध्यान हीयइ वसह जी, जिम रेवा गजराज । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २५३ खिणि २ ता हो सुपन सांभरइजी, मुझनइ श्री महाराज || ६अ० ॥ माहरड़ चाल्हेसर प्रीतम तुं धणीजी, तुंहीज प्राण आधार । हरख घणड़ जिनहरख संभारिज्यो जी, मत मूं कउ वीसारि ॥ ७अ० ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || सहीया सुलताण लाडउ ग्रावइलउ एहनी मनरा मानीता साहिब पास जिणंदा, अरज सुणीजड़ त्रिभुवन चंदाही चरण न छोडुं निशिदिन तोरा, पूरि मनोरथ साहिब मोरा हो || १ || तुझ मिलिवा मुझ मन ऊमाहइ, सेवा करेवा चितड़उ चाह हो । प्रीतडी तोसुं लागी सनेही, तर अंतर राखीजइ केही हो || २ || जउ मुझसुं प्रभु प्रेम न धरिस्यउ, अंतरजामी महिर न करिस्यउ हो तर मुझ न कुण वांहे ग्रहिस्य, मुझ अवगुण लीइ कुण वहिस्या हो ॥ ३० ॥ आसंगाइत सेवक होस्यइ, ते निज साहिव नउ दिल जोस्य हो । दिल जोई नई बात कहे स्यइ, तर तेहनो मरज्यादा रहे यह हो । ४म० । साची सेवा प्रभुजी रीझर, हलुअइ हलुअइ कारज सीझइ हो । अति उच्छक ते काम विगाड़इ, fins लोकां माहि दिखाइ हो ||५० || साहिब सुं रहिस्यइ लय लाई, करिस्यइ वीजी बात न काई हो । तर हितसुं तेहनइ बतलाई, देस्यइ वछित मउज सदाई हो || ६ || मोटां आगलि घणुं न कहीयह, करजोड़ी नइ चुप करी रही यह हो । पोतानइ मेलइं दुख कापर, प्रभु जिनहरख परम सुख आपइ हो । ७म० Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२५४ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली श्री पार्श्वनाथ स्तवन ढाल | लाखा फूलाणीनी ॥ परम सनेही पास, बीनती सुणीजइ साहिब माहरी । आव्यउ हुं तुझ पास, निरमल कीरति सांभलि ताहरी ॥१॥ तं सुरतरु साख्यात, वंछित पूरइ भव भव केरड़ा। तुं तउ गृहीर गंभीर, सायर जिम वीजा सुर वेरड़ा ॥२॥ पार न लहीयइ जास, गुण नउ तेहवा नरनी संगति भली । भार समइ भुई जेम, तेहसुं निवहई प्रीतड़ली सोहली ॥३॥ जिम तिम कहतॉ वोल, चिड़तां पिणि वाल्हा चिरचइ नही । आदर देई अमोल, आप कन्हइ राखइं हाथे ग्रही जी ||४|| निगुणा सेवक होइ, छह न दाखइ गरुआ तेहनइ। . वनचर पशु मृग जोइ, चरणे राखी रह्यउ निसिपति जेहनइ ॥५॥ मोटा ते कहवाय, जउ मोटिम मेल्हइ नही आपणी । आवउ नाघउ हाय, पिणि सुनजर राखइ सेवक भणी ॥६॥ जेहनइ महडइ लाज, ते निज मुख नाकारउ नवि कहइ । आवइ सहु नइ काजि, तेहनी संपति जिम नदीयां जल वहइ ॥७॥ आससेण राय मल्हार, वामानंदन जग सोह वधारणउ । नील वरण निकलंक, नाग लंछण महिमा प्रभु नउ घणउ ॥८॥ तुं सहु वाते जाण, तुझ नइ स्युं कहीयइ वयण घj घणा । तूं जिनहरख प्रमाण, पूरि मनोरथ निज सेवक तणा ॥६॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन श्र पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || भटियाणी ना गीतनी || आज सफल अवतार, दरसणीयउ मह दीठउ हो साहिवीया नयणे ताहरउ । अलवेसर अवधारि, भव भव ना महं कीधा हो सा० पातक आप हरउ १ तूं साहिब हूं दास, आपणडड़ ए सगपण हो सा० निश्चल होइज्यो । जीभड़ीए जसवास, ताहरउ नइ हुं गाउं हो सा० सुनजर जोइज्यो ॥२॥ वाल्हेसर तुझ नाम, माहरड़ नइ ए नीमी हो सा० हीयडा मां वस ।। तुझ सुं माहरइ काम, हीयड़उ नड़ हेजालु हो सा० मिलिवा ऊलस । ३ मनमान्यउ तूं मीत, माहरी तुझसुं लागी हो सा० अबिहड़ प्रीतड़ी चरणे लागउ चीत, ताहरान गुण गातां हो सा० मुझ सफली घड़ी ४ दीठां आवइ दाय, मिलियां नइ सहु भागड़ हो सा० मन ना आमला दुख दोहग सहु जाइ, नाम तणइ बलिहारी हो सा० जाउं सामला | ५ | मत मूंकउ वीसारि, किणि इक आव्यइ अवसर हो सा० मुझ संभारिज्यो करिज्यो प्रभु उपगार,एतलउ नइ हूं मागं हो सा० हीयड़इ धारिज्यो६ सीस धरूं तुझ आण, बीजा तउ किणिहीन होसा० पास नमुं नही कहइ जिनहरख सुजाण, माहरइनइचितताहरीहोसा०सेव हुज्यो सही ७ पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || कपूर हुइ अति ऊजलउ रे || एहनी २५५ पाटण पास पंचासरउ, दीठां दउलति थाइ । पातक भव पूरव तणा रे, जपतां दूरि पुलाय रे ॥ १ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली भवियण पंचासरउ परतक्ष, एतउ सेवतां सुरवृक्ष रे । भ० । प्रभुता जेहनी अति घणीरे, सेवइ सुर नर दक्ष रे ।। २ भ० ॥ प्रभु मूरति मन मोहणी रे, मोहणगारउ रूप । जोतां तन मन ऊलस रे, सीतल नयण अनूप रे || ३ भ० ॥ हित वच्छल हीयड़ड़ वसई रे, जिम लोभी धन रासि । वीसांर्यु ं नवि वीसरह रे, निशि दिन मन प्रभु पासिरे ||४ भ० ॥ मुख राकापति सारिखी रे, अनुपम दीपड़ अंग । सोहइ सप्त फणावली रे, लंछण जास भुयंग रे || ५ भ० || प्रभु नयणे दीठां पछी रे, अवर न आवड़ मींट । लाल कीपर जिणि ग्राउ रे, तेहनइ न गमइ छींट रे || ६५ ० || अस्वसेन नृप कुल सेहरउ रे, वामा रानी नंद | कहइ जिनहरख जुहारतां रे, लहीयइ परमाणंद रे || ७ भ० ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तवन राग || काफी प्राण सनेही प्रीतमा, म्हांरी एक अरज अवधारउ । सोम नजर करि साहिवा, भव जल निधि पार उतारउ ॥ १ ॥ - वीनतड़ी थे सुणिज्यो रे चाल्हा पासजी, म्हांरा मन ना वंछित सारउ म्हांरा भवना भ्रमण निवारउ, । वी० । ट हुं तुझ चरण कमल रसईरे, भमर तणी परि लीणउ । माहरी तुम नइ चींत छड़, कांइ दाखुं हुं हुइ दीनउ ॥२ वी० ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन उत्तम कंचन सारिखा रे, कस पहुंच कसीया । सोह वधारह पारकी, कांड़ पर घर पिणि वसीया ॥ ३ वी० ॥ सुन्दर सुरति ताहरी रे, दीठां अधिक सुहावइ । बीजी सुरति जोवतां, म्हांरी आंखडीयां तलि नावइ || ४वी० ॥ जउ तारउ तउ तारिज्यो रे, नही तर सुनजरि जोज्यो । कहइ जिनहरख मया करी, कांइ अमसुं सुप्रसन्न होज्यो || ५ || वी० श्री पार्श्वनाथ स्तवन २५७ ढाल || ईडर आवा प्राविली रे || एहनी मोहन मुरति जोवतां रे, सीतल थायइ नईण | हीयड़उ मिलिया ऊलसह रे, ध्यान धरू दिन रइंण ॥ १ ॥ जिणंदराय पूरउ वंछित आस, मोरी सफल करउ अरदास । तउ भव भव ताहरउ दास, तुझ पास न मेल्हउं पास | आंकणी । कोइ केहनइ मन गम रे, केहनइ कोई सुहाइ | माहर मन तुंही वसई रे, दीठां आवइ दाइ || २ जि० ॥ तुझ सरीखा भारी खमा रे, तुझ सरीखा गुणवंत । ते सेव्या फल नवि दीयइ रे, तर वीजा नउ स्यउ तंत || ३ जि० ॥ सेवा तेहनी कीजियइ रे, जे सेवा पोसाइ । निगुणांनी सेवा कीयां रे, मान माहातम जाइ ॥ ४ जि० ॥ उत्तम आस्या पूरवहरे, मेल्हह नही निरास | जस जिनहरख ग्राहक हुवइ रे, जिम तिम ल्यइ सावास ॥ ५ जि० ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्री जिनहर्प ग्रन्थावली सम्मेतशिखर पार्श्व जिन स्तवन तुहि नमो नमो सम्मेतशिखर गिरि । तुहि नमो नमो अष्टापद गिरि। अष्टापद आदेसर सिद्धा, वासुपुज्य चंपापुरी । नेम गया गिरनार मॉ मुगते, वीर पावन पावापुरी । तु० १ वीसे ट्रेके वीस जिनेसर, सीधा अणसण आदरी । जोति सरूप हुआ जगदीसर, अष्ट करम नों क्षय करी । तु०२ पच्छम दिस सेतुंजे तीरथ, पूरव सम्मेत शिखर गिरी । तु० मोक्षनगर के दोय दरवाजा, भन्यजीव रह्या संचरी । ३ तु० जग व्यापक जिन जय-जय साहब, पाप संताप काटण छुरी तु० मोटो तीरथ मोटी महिमा, गुण गावत है सुरा सुरी । ४ तु० विपम पहाड़ सुझाड़ ही चिहुँ दिस, चोर चरड़ रह्या संचरी । तु० भयकर इंगर भोम डरावत, देखत देही थरहरी । ५ तु० संवत् सतरेस चोमाले, चैत्र सुदी चौथे करी । तु० । कहे जिनहरख सो वीस टूके, भाव सुचइत-वंदन करी । ६ तु० तुही नमो २ सम्मेतशिखर गिरी, इति सम्मेत शिखरजी रो तवन संपूर्णम् फलवी पार्श्वनाथ वृहदस्तवन (छंद) जपि जीहा सरसति सुरराणी, वचन विलास विमल ब्रह्माणी देव सकल श्री पुरसांदाणी, वदां कित्ति दे अविरल वांणी ॥१॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन पास तणां गुण कहतां परगट, गंज न सकै अरियण गज थट घणो घणा थायें नित गहगट, कदही चाव न चूके कुलवट ॥२॥ आससेन नंदण अतुली वल, निलवट जिग-मिग नूर निरंमल अवतरियो कलि सुरतर अविचल, पोस दसम महिमाले परग्घल ॥३॥ गीत गुणे जिनवर गाइजै, परम प्रवीत प्रमोद पाइजे। लय जगनायक सुं लाइज, थिए जस वास सुथिर थाइजे ॥ ४ ॥ जिनवर तणा जिके गुण जपसी, खिण खिण तासु विकट क्रम खपसी। तेज दिवाकर जिम जग तपसी, क्रम क्रम राग दोपबंध कपसी॥५॥ प्रणमंता मन बछित पावै, पूज करंता वंछित पावै प्रभु प्रसाद वंछित फल पावे, प्रसन थीयां महीयल जस गावे ॥६॥ दोहापावै प्रणमन्तां प्रघल, रिद्धि सिद्धि नव निधि राज परमेसर फलवद्धिपुर, लाख वधारण लाज ।। ७ ॥ मोती दाम छंद । वधारण लाज बड़ो वरीयाम, सदा सुप्रसन्न मिलतो साम । वखाणां कीरति देस विदेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥८॥ कलजुग मानव कोड़ाकोडि, जपं जगदीसर वे कर जोड़ि । पेलंतर पाव करै न प्रवेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥ ८ ॥ धरा उर जे नर ध्यान धरन्त, तिकै भवसायर वेग तिरन्त । नवेनिध मिदर तासु निवेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥१०॥ भलौ अससेण तणे कुल भांण, वामा उर कन्दर सींह वखाण । सदा पग आगलि लौटे सेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस।।१।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्री जिनहर्प ग्रन्थावली इला मझि एकल मल्ल अवीह, न भृत न देत न लोपै लीह । निले फण ओपे सात नगेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥१२॥ अहो अठ कर्स जड़ा उपाडि, विधंसे नाखि विभाडि विभाड़ि। दीपंत लयो ते ज्ञान दिणेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१३॥ तरै कृत देवे वा तयोर, कनक्क रजत्त रतन्न किंवार । दुवादश परपद देविहि देवेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१४॥ चतुर्विध संघ तटै थिर थापि, उभै धम भाख्यो आपो आप । खयंकर पातिक नांख्यो खेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥१५॥ विहम हुवै तें कीधा वेद, भला भल तेंहिज जाण्यां भेद । कपाली तूंहिज तूं रिक्षीकेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१६|| जगाड्या लाख चौरासी जीव, समाप्यां त्यां सुख दुःख सदीय । रमे जग मांहि निरंजण रेस, नमो फलवद्धीय नाथ नरेस ॥१७॥ प्रगट किया ते पातिक पुन्न, दुणी में तासु तणा फल दुन्न । कठोर दोभाग सोभाग कहेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१८॥ थंभ्यो असमाण प्रभू विण थंभ, इला आधार न कोई अचंब । सहु नर लोक उपाय सुरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१६॥ उपावे आप खपावे आप, प्रमेसर कोइ न लागै पाप । गुन्हा आतम्म किया न गिणेश, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥१०॥ नमो ठग मूरति नाथ त्रिलेप, लगै नही तुझनै कोइ लेप । आदेश आदेस आदेस आदेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥२१॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन २६१० दसे अवतार लीया तें देव, भवोदधि तारक जाणण भेव । लखां नही तुज्झ मतो लवलेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥१२॥ भणां तुझ केहो दाखवि भेष, अलेख अलेख अलेख अलेख । जतीश्वर ईशर तंही जिनेश, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ।। २३ ॥ दिखालि कठे किण थानिक देव, सदा अम्ह पास करावो सेव । छिप्यो हिव जाण्यो केम छिपेस. नमो फलवड़ीयनाथ नरेस२४ चवां तो आगलि मो मन चाडि,म छाडि मछाडि मछाडि म छाड़िा गुन्हा म चितार किसुं जिनहेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस।२५ कृपावंत तुहिज कृपाल, दिवाकर निर्मल दीनदयाल । विप कुण तुझ लहै विधि वेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥२६॥ लोकायक तुझ न भेद लहंत, कथा निज मुक्खि स कोइ कहन्त। वणो वलि शास्त्रां मध्य व्रणेस, नमो फलवडीयनाथ नरेस ॥२७॥ इला असमाण ऊपावन एक, अनेक अनेक अनेक अनेक आतम अजम्म किया अवसेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस॥१८॥ महा रति-रूप सरूप महंत, रजवट रीत सदाइ रहंत । अहोनिस कोय न चित्त लहेस. नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥२६॥ । जिती भूय सूरज ऊगै ज्योति, उती भूय कीरत तुज्झ उद्योति महीधर मेर प्रमाण मनेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥ ३० ॥ अलख प्रसिद्ध तुम्हीणा वेइ पंख्य, ... ... ... ... ... । निरंजन नायक लायक नेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस।।३१।। सदारस राता पाए संत, रहंत रहंत रहंत रहंत Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्प ग्रंथावली कदे उपजंत न कोइ कलेस, नमो फलबद्धीनाथ नरेस ॥३२।। खिजमति मो करिवा मन खंति, रुड़ा हियई निज नाम रहंत कहेस्यो नाथ कह्यो सु करेस, नमो फलबद्धीनाथ नरेस ॥३२॥ थरकि भमन्त रहयो हिच थाकि, तरै तुझ पाये आयो ताकि तिराविस तौ भव सिंधु तरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस॥३४॥ तुम्हींणो दास वंदो हुँ तुज्झ, मठेल म ठेल मठेल पगांहु मुझ धणी उर पंकज मध्य धरेस, नमो फलबद्धीयनाथ नरेस ॥३५॥ खम्या दुख कोडि अम्हां मैं खोडि, बड़ा हिव साहिब दुख विछोड़ि पुणां तो आगलि कीजे पेस, नमो फलवद्धीयनाथ नरेस ॥३६॥ कलस-नमोनिरंजण नाथ, नमो फलबद्धि नायक नमो नमो निरलेप, देव सुख सपति दायक ॥ नमो कलियुग नूर, नमो आतम अविनासी नील वरण तन नमो, नमो विध जाण दिलासी जगास निवारण नित नमो, नमो सांमि सुप्रसन्न मुदा 'जिनहर्प' नमो श्री पास जिन, महाराज प्रणमु मुदा ॥३७॥ कीरति कहै स कोय, देस परदेस दिवाजे । नवे खंड निज नाम, भूख प्रणमतां भाजै॥ हय गय पायक हसम, महिल मन्दिर मृग नैणी । नीसाणां सिर निहस, देव एहि रिद्ध दैणी । भंडार चार भरिया भला, कुमणा मन न रहै किसी। ___जिनहरख' तुम्ह फलवद्धि विण इण कलियुग महिमा इसी ॥३८॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन २६२ मांण मलण दुख दलण, धरण सुमता धुर धारण । मयण महण बल मथण, विधन धन लता विडारण । सामि सरण रस रमण, नमण ग्रभवास निवारण ।। दोष दमण अघ गमण, करत जस कीरति कारण । दीवाण जांण वंछित दीयण, रयण दीह जपि जपि रसण । 'जिणहरख' भुवण फलवद्धि जिन, तरण तेज दीपंत तण ॥३६॥ सकल ज्योति सुविसाल, भृकुटि धनु लोयण भिंभल । भाण तपै जिम भाल, नाक सिख दीख निरंमल । अदभुत रूप असंभ, पार कोई कहत न पावै । उत्पति लहे न आदि, ध्यान धर सहु को ध्यावे । श्रीसोम सुगुरु सुपसायलै, प्रणमतां प्रभु पय कमल । जिनहर्ष एम जंपै सुजस, श्री फलवद्धि नायक सकल ॥ ४० ॥ श्री पार्श्वनाथ स्तुति श्री फलवद्धीयपाश्व स्तवन ढाल-गौडीचा दरसण दीजे आपणो हूं वारी, महिर करी महाराज रे हूं वारी लाल । श्रीफलवधिपुर पासजी हूं वारी, लाख वधारण लाज रे हूं वारी लाल इतरा दिन लग हूं भम्यौ हूं वारी, न लह्यौ ताहरो भेद रेहूंवारी भेद लघउ हिव ताहरउ हूं वारी, मन मै थयौ उमेदरे हूंवारी। तो विण किण ही और सुं हूँ वारी, न मले माहरौ चीत रे हूँ वारी भमरो परिहर केतकी हूँ वारी, जिणसु वाधे प्रीति रे ।हूँ वारी २ अण दीठा ही मन गमै हुँ, ज्यां सुं प्रीति अपार रे, हुँ। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जिनहर्ष ग्रन्थावली सो को साजन वसै हूँ बारी, तउही हियड़ा मझार रे, हूँ० || ३ || चरण कीजै चाकरी हॅू बारी, मनमै आही हॅूस रे, हॅू० रात दिवस हाजिर रहूँ हूँ वारी, कूड़ कहूँ तो सूंस रे हूँ० ||४|| ताहरा सेवक जो दुखी हॅू वारी, इण वाते तुझ लाज रे, सुनजर साम्हो जोड़ ने हॅू, मी वांछित काज रे ||५|| हू० द० जे मोटा मोटे गुणे हॅ, तेह न दाख छैहरे, हूँ० जिम तिमलीये निरवंš हूँ, ओछा न धरै नेह रे ||६|| हू० द० कहितैं कहितैं राज सं हॅू वारी, केही कीजै कांण रे अम्हे तुम्हीणा ओलगु, भावे जाण म जाण रे || ७| हूँ० द० सूरति मूरति सांगली हॅू बारी, एकलमल्ल अवीह रे हूँ० भाव घणै जिन हरख सुं हुं वारी, भेटुं ते धन दीह रे ॥८ ॥ हूँ० द० इति श्री फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन फलौंधी पार्श्वनाथ स्तवन दाल-वाल्हेसर मुझ वीनती गौडीचा --- एहनी दरसण दीठौ राज रौ सांमलिया, फलवधिपूर जगदीश रे सामलिया पास दरसण दीठौ राज रौ०, कमल कमल जिम हुलस्यों, सामलिया, पूगी आस जगीस रे । आज सफल दिन माहरो, आज सफल अवतार रे, आज कृतारथ हॅू हुआ, भेट्यौ सुख दातार रे ||२|| सा० देव घणाई देवले, दीठा कोडा कोडि रे । सा० पण मुझ मीट न को चढ़ें, साहिब तुम ची जोड़ रे || ३ || मा० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन गुण ताहरा हियडै वस्या, लाग्यो गाने अमोल रे । सा० लै लागी तुझ नाम सं, हिवे मिल अन्तर खोल रे ॥४॥ सा० सिद्ध कि सति नै नम्यां, जे न करै उपगार रे । सा० निगुण निहेजां कीजिये, ऊभा ऊम जुहार रे ॥५॥ सा० प्रारथीया पहिड़ नही, तिण सुं कीजै प्रीत रे । सा० प्राण सनेही ओलख्यौ, सा० तहिज अविहड़ मीत रे ॥६॥सा० कामणगारा पास जी, सा० सूरत अजब दिखाइ रे । सा०. तैं मन मोह्यौ मांहरौ, दीठां अधिक सुहाय रे ॥७॥ सा० देखं त्युं मन ऊलस्यै, प्रीतम प्रांण आधार रे । सा० कहे जिनहरख सदा हुज्यो रे, भव भव तुझ दीदार रे ॥८॥सा० इति पार्श्वनाथ स्तवनं फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन ___ ढाल-सदा सुहागण आज सफल दिन मांहरो रे, भेट्यो जिनवर पास रे लाल रफलवधि नायक गुणनिलौ, पूरै वंछित आस रे ॥१॥ मेरो रंग लागो जिन नाम सुं, ज्यु पट चोल मजीठ रे लाल आं०1 अपराधी तें ऊधस्या, आगे ही नर कोड़ रे लाल एह सुजस सुण आवीयो, भव..........॥२॥ (अपूर्ण) Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवनं दाल || चउपाईनी॥ सकल सुरासुर सेवइ पाय, कर जोड़ी ऊभा सुर राय । गुण गावइ इन्द्राणी जास, पण, श्री संखेसर पास ॥१॥ व्हनइ नामइ नव निधि थाइ, पाप तमोभर दूरई जाइ । महियल मांहि वधइ जसवास, पणमूं श्री संखेश्वर पास ॥२॥ लखमी मंदिर थाइ अखूट, रायराणा कोई न सकइ लूटि । संपति सदन रहइ थिर वास, पणमं श्री संखेश्वर पास ॥३॥ सहु,को जेहनी मानइ आण, तेज प्रताप वधइ जिम भाण । लहियइ वंछित भोग विलास, पणमं श्री संखेश्वर पास ॥४॥ बीछड़ीयां वाल्हेसर मिलइ, वइरी दुसमण दूरइ टलइ । नासइ दुष्ट कुष्ट खस खास, पणमं श्री सखेश्वर पास ॥शा जरा उतारी जादव तणी, वाधी कीरति प्रभु नी घणी। हरि पूयु तिहां संख उलास, पणमुं श्री संखेश्वर पास ॥६॥ घरणिधर नइ पदमावती, जेहनी भगति करइ सासती । दुख चूरइ पूरइ मन आस, पणमुं श्री संखश्वर पास ॥७॥ बेहनी आदि न कोई लहइ, गीतारथ गुरु इणि परि कहई। महिमा ताँ लगी धू कैलास, पणमुं श्री संखेश्वर पास ॥८॥ ग्रह ऊठी नइ ध्यावइ जेह, दुखीया थाइ नही नर तेह । ऊहइ जिनहरख तास जग दास, पणमुं श्री संखेश्वर पास ॥६॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन २६७ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || घडलइ भार मरा छा राजि ॥ एहनी 'अंतरजामि सुणि अलवेसर, महिमा त्रिजग तुम्हारउ । सांभलि आव्यउ हूँ तुम तीरइ, जनम मरण दुख वारउ ॥१॥ सेवक अरज करै छै राजि, मुझनइ शिव सुख आलउ ।आ०। सहु कोना मन वंछित पूरइ, चिंता सहु नी चूरइ ।। एह विरुद छइ राजि तुम्हारर, किम राखट छउ दूरइ ॥२॥से। सेवक नइ विलपिलतां देखी, महिर न मन भां धरिस्थउ । करुणासागर किम कहिवास्यउ, जउ उपगार न करिस्यउ॥३॥ लटपट नउ हिवइ काम नही छइ, परतिख दरसण दोजह । धुंआडइ धीजं नही साहिब, पेट पड्यां धापीजइ ॥४से०॥ श्री संखेश्वर मंडण साहिब, वीनतड़ी अवधारउ । कहइ जिनहरख मया करी मुझनइ, भवसायर थे तारउ ॥॥से०॥ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || झूवखडानी वणारिंसी नगरी भली, कासी देश मझारि । संखेश्वर पासजी। भव्य लोकने तारिवा, लीधउ प्रभु अवतार |सं०१॥ वामा उर सर हॅसलउ, अश्वसेन राय मल्हार । सं० । वंस इख्यागई ऊपना, त्रिभुवन तारणहार ॥ २ सं० ॥ सागर करुणा रस तणउ, तुं उपगारी एक । सं० । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जिनहर्प ग्रन्थावली सो कोस साजन बसै हूँ बारी, तउही हियड़ा मझार रे, हूँ॥३॥ चरण कीजै चाकरी हूँ वारी, मनमै आही हूँस रे, हूँ। रात दिवस हाजिर रहूँ हूँ वारी, कूड कहूँ तो संस रे १० ॥४|| ताहरा सेवक जो दुखी हूँ वारी, इण वाते तुझ लाज रे, सुनजर साम्हो जोइ ने हूँ, मीझै वांछित काज रे ॥शा हू० द. जे मोटा मोटे गुणे हूँ, तेह न दाखं छेहरे, हूँ। जिम तिम लीये निरवंहै हूँ, ओछा न धरै नेह रे ॥६॥ इ० द० कहित कहित राज सं हे वारी, केही कीजै कांण रे अम्हे तुम्हीणा ओलगु, भावे जाण म जाण रे ।।७।। हूं० द. सूरति मूरति सांमलो हूँ वारी, एकलमल्ल अवीह रे हूँ। __ भाव घणे जिन हरख सुं हुं वारी, भेटुं ते धन दीह रे॥८॥ हूं० द० इति श्री फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन फलौंधी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल-वाल्हेसर मुझ वीनती गोडीचा-एहनी दरसण दीठौ राज रौ सांमलिया, फलवधिपूर जगदीश रे सामलिया पास दरसण दीठौ राज रौ०, कमल कमल जिम हुलस्यों, सामलिया, पूगी आस जगीस रे । आज सफल दिन माहरो, आज सफल अवतार रे, आज कृतारथ हूँ हुऔ, भेट्यौ सुख दातार रे ॥२॥ सा० देव घणाई देवले, दीठा कोडा कोडि रे । सा० पिण मुझ मीट न को चहै, साहिब तुम ची जोड़ रे ॥३॥सा० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन २६५ गुण ताहरा हियरे वस्या, लाग्यो गाने अमोल रे । सा०' . लै लागी तुझ नाम सं, हिवे मिल अन्तर खोल रे ॥४॥ सा० सिद्ध कि सति नै नम्यां, जे न करै उपगार रे । सा० 'निगुण निहेजां कीजिये, ऊमा ऊभ जुहार रे ॥५॥ सा० प्रारथीया पहिड़ नही, तिण सं कीजै प्रीत रे । सा० प्राण सनेही ओलख्यौ, सा० तहिज अविहड़ मीत रे ॥६॥सा० कामणगारा पास जी, सा० सूरत अजब दिखाइ रे । सा० तैं मन मोह्यौ मांहरौ, दीठां अधिक सुहाय रे ॥७॥ सा० देखं त्यं मन ऊलस्यै, प्रीतम प्रांण आधार रे । सा० कहे जिनहरख सदा हुज्यो रे, भव भव तुझ दीदार रे ॥८॥सा. इति पार्श्वनाथ स्तवनं फलौधी पार्श्वनाथ स्तवन __ ढाल-सदा सुहागण __ आज सफल दिन मांहरो रे, मेट्यो जिनवर पास रे लाल फलवधि नायक गुणनिलौ, पूरै वंछित आस रे ॥१॥ मेरो रंग लागो जिन नाम सुं, ज्यु पट चोल मजीठ रे लालाआंग ___ अपराधी तें ऊधस्या, आगे ही नर कोड़ रे लाल * एह सुजस सुण आवीयो, भव..........॥२॥ (अपूर्ण) Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जिनहर्प ग्रन्थावली तुझ सरिखउ कोइ नहीं, दीठा देव अनेक ॥ ३ सं० ॥ दुखीयांना दुख तुं गमइ, तुं आपइ नव निद्धि । सं० । साची सेवा जे करइ, ते लहइ अविचल सिद्धि ॥ ४ सं०॥ संकट विकट सहू हरइ, पालइ विखमी पीडि । सं० । जिम साहिब सुप्रसन थइ, भागी यादव नी भीड़ि॥ ५सं० ॥ जरासिंधु मंकी जरा, केशब कटक मझारि । सं० । जरा सिथल यादव थया, चिंता थई मुरारि ।।६ सं० ।। नेमीसर उपदेशथी, हरि अट्ठम तप कीध । सं० । धरिणीपति आणी करी, प्रभुनी मूरति दीध ।। ७ सं० ॥ स्नात्र करी मन रंग सुं, छॉट्या न्हवण नइ नीर । सं० । तुरत-जरा ऊतरि गइ, बल बहु वध्युं शरीर ॥ ८ सुं० ।। हरख धरी हरि हीयड़ला, पूरय संख प्रधान । सं० । नगर अनोपस चासीयउ, संखेसर अभिधान ॥ सं० ॥ जिनहर हरि मंडावोय. थाप्या तिहाँ प्रभु पास। अतिसय ताहरउ दीपतउ, पूरइ सेवक आस ।। १० सं० ॥ मुझ पदवी घउ आपणी, तउ वाधइ प्रभु सोह । सं० । सोभा ल्यउ विणि दोकड़े, स्यउ राखउ छठ मोह ॥११॥ सुनिजरि साम्हु जोइस्यु, तउ इतरह ही लाख । सं० । भूत करइ रइ बाकले, जे दुवेल बल पाख ॥ १२ सं०॥ नील वरण तनु सोहतु, राणी प्रभावती कंत । सं० । नागराय पाए रहइ, पमा सेव करत ॥ १३ सं० ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन श्री संखेश्वर पासजी, सांभली मुझ अरदास | सं० । कहड़ जिनहरख हरख धरी, पूरउ मुझ मन आस ॥ १४० ॥ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन २६६ ढाल || वीर विराजे वाडिया सीता || एहनी सदा विराजै सांम संखेसरै हो, पर तिखि पास जिणद । त्रिभुवन मां महिमा महिम है हो, आससेण वामा नंद || १ || स० रूप अनूप अधिक रलियामणौ हो, रहियै सनमुख जोड़ । मोहन मुरति सूरति जोवतां हो, नयणे त्रिपत न होइ ||२|| स० ॐ रात दिवस हियडा मांहे वसै हो, ज्युं गोरी गल हार । कदे न साहिब मुझ ने वीसरे हो, वल्लभ प्राण आधार ||२|| स० माहरै तो तुम्ह सेती प्रीतड़ी हो, अविहड़ बणी रे सुरंग । चोल मजीठ तणी परे हो, जन मन होइ विरंग ॥ ४ ॥ स० मधुकर जिम लोभाणो मालती हो, आवै लैण सुवास । ऊडायॉ पिण ऊडै नहीं हो, तिम मुझ मन तुझ पास || ५ || स० अवर सुरासुर दीठा देवले हो, मनड़ै न मानै रे कोइ । तिरखातुर नर अमृत छोड़नें रे, न पीयें खारो तोय ॥ ६ ॥ स ० जरा उतारी जिम तैं जादवां हो, राखी सगलां री लाज । तिम जिनहरख निवाजौ मुझ भणी हो, राखो चरण महाराज | ७|स० इति पार्श्वनाथ स्तवन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली श्री कापरहेडा पार्श्वनाथ वृद्ध स्तवन ढाल {} मल्हार रीवाल्हेसर सुणी बीनती हो माहरा श्री महाराज, सेवक सुपर निवाज नै, सारो सगला ही काज हो । जिम वाधै त्रिभुवन लाज हो, भवसायर तूं तो जिहाज हो । तुझ भेद लहयो मैं आज हो, साचौ साहिब सिरताज हो, कापरहेड़ा श्री पास जी ॥१॥ महियल महिमा ताहरी हो, कहितां नावै पार । चाचौ तीरथ चिहुं दिसे, करिचा आवै दीदार हो। हियड़े धर भाव अपार हो, नर नारी कर सिणगार हो । गुण गावै राग मल्हार हो, बलिहारी प्राण आधार हो ॥२॥ साहिब सुरतरु सारिखो हो, अधिकी पूरो आस । चिंता चूरे चित्तनी, बारु लहिये लील विलास हो । अन्तरजामी अरदास हो, करुं हियडै धरिय उल्हास हो । नयणे निरखो निज दास हो, भांजो दुख गरभावास हो ॥३॥ दादौ दुनियां दीपतो हो, समरथ त्रिभुवन साम । एका थापै उथपे, एकां विस्तारे मांम हो । भरपूर भंडारे दाम हो, काढ़े सबला तूं काम हो । सूभर भरीयां धौ धाम हो, सहुको गावे गुण ग्राम हो ॥ ४ ॥ सांम तुम्हारा नाम थी हो, लाभे राज भंडार। . मणि माणिक मोती घणा, रथ पायक बहु विस्तार हो । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कोपरहेडा पार्श्वनाथ स्तवन २ हय गय चाकर सिरदार हो, घर धान तणां अंधार हो । निरुपम गुणवन्ती नार हो, पुत्र जाणे देवकुमार हो ॥५॥का० कुमणा न रहे केहनी हो, पामइ सुख भरपूर। ताहरा सेवक ताहरी, तिण सेवा करै हजूर हो । जागैतिम पूण्य अंकूर हो, टलि जायै पातिक दूर हो । । सूरिज जिम वाधे नूर हो, घरि वाजे मंगल तूर हो ॥६॥का० इहलोक परलोक ना सहु हो, सुख आपे गुण गेह । करम सवल दल निरदलै, जिम चक्री करै अरि छेद हो ।। अजरामर मिंदर जेह हो, सुख पार न कोई अछेह हो । जिहां रूप नहीं नहीं देह हो, थापे सिवनारी नेह हो।।७॥ का० परतो सांम देखालवा हो, पूरेवा गहगाट । इलि अवतरियौ आइनै, घड़ियो नहीं किणही घाट हो । एतो मुगतपुरी नी वाट हो, दुख दालिद गमण उचाट हो। आवै जात्री नौ थाट हो, मांजण निज मन ना काट हो।क० 'भान भंडारी' भाव सं हो, सुभ मुहुरत सुभवार । देवल सुधि मंडावियौ, ए न चलै किण ही वार हो । नारायण सुजस भंडार हो, जिन मन्दिर कीध उदार हो। " ताराचंद सुत तसु सार हो, विस्तरीयौ बड़ विस्तार हो।का० रंगरली परिवार में हो, साम तणे सुपसाय । उत्तम काम किया जिये, तिमहिज वलि करता जाइ हो ।। नामौ नव खंडे थाइ हो, अरियण आइ लागै पाइ हो। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्री जिनह ग्रन्थावली श्री पास सदाई सहाय हो, दोहरम आवै नहीं काय हो ॥ १० ॥ पुर मंडोवर देस में हो, तारण जलधि जिहाज । मैटे जे सुभ भाव सूं, ते पावे सिधपुर राज हो || माहरी तुम्हने छै लाज हो, वाचक शांतिहरख सहाज हो । जिनहरख कहै महाराज हो, साहिब जी सुपर निवाज हो ॥ ११ ॥ इति श्री कापरहेडा वृद्धि स्तवनं सम्पूर्ण पंडित दयासिंघ लिखितं श्री बीकानेर मध्ये पारस साह नावराणी, प्रतापसी तत्पुत्ररत्न पा० सा० सहसमल्ल पठनार्थ || श्री || सम्वत १७३५ कापरहेड़ा पार्श्वनाथ स्तवन मन मोह्यौ माहरौ रे, होय रह्यो लयलीन । सांवलीया साह तुझ विण खिण न रही सकरे लाल, ज्यूं जल पाखे मीन रे ॥ १ ॥ सा० तै० दरसन दीजै आपणो रे, आपणा सेवक जांण रे । सां० । मोटा चिहुं दिस साचव रे लाल, हितबच्छल हित आण रे || सां० २ || सेवक सह कौ सारिखा रे, लेखस्यो सुविशेषरे । शोभा तोहीज पांमस्यो रे लाल, इणमें मीन न मेखरे || ३ || सां० दरसन ना आगू हुवै रे, दरसन तौ दीजै तास रे । सां० पांणीखी सं पातलो रे लाल, उपगारी हेव पास रे ॥ ४ ॥ सां० इण संसार असार में रे, उवरसी उपगार रे । सां० । मोटा थी मोटा हुवै रे लाल, इम आखै संसार रे ॥ ५ ॥ सां० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापरहेडा पार्श्वनाथ स्तवन २७३ अरज करूं सफली हुवै रे, ताहरी वाधै लाज रे । सां। फलै मनोरथ माहरो रे, एक पंथ दोय काज रे ॥ ६॥ सां० हुँ पिण छं इक ताहरो रे, सेवक विश्वाचीस रे । सां। . कापडहेडै पासजी रे लाल, कहे जिनहरख जगीसरे ॥ ७ ॥ सां० इति श्री कापड़हिड़ा पार्श्वनाथ स्तवन कापरहेडा पार्श्वनाथ लघु स्तवन वारी रे रसिया रग लागो ।। ढाल वीदली ।। मोरा लाल अंग सुरंगी अंगीया, । कंकुम' चंदण री खोल । मोरा लाल. आगल नाचे अपरा. गीतां रा रमझोल ॥मोरा लाल०॥१॥ पास जिणंदसं मन लागौ, रंगलागौ चित चोल । मोरालाल आं० मोरा लाल मूरति मोहण वेलड़ी, दीठां आणंद होइ। मोरा लाल। सौ वेला जो निरखीयै, नयणा अत्रिपता तोइ । मोरा लाल ॥२॥ मोरा लाल हियड़ा माहे वसि रह्यौ, मोहनगारौ नाम मोरालाल। सूतां ही सुपनै मिलै, सीझै सगलां काम मोरा लाल॥३॥पा० मोरा लाल देव घणा ही देवले, दीठा ते न सुहाइ। मोरा लाल। __ भमरौ मोह्यौ केतकी, अलविन अरणी आइ ॥ मोरा लाल ॥४पा० मोरा लाल चातक' जलधर नै नमै, अवर न नामे सीस मोरा लाल। १ केसर २ रंग ३ आवै दाय ४ त्रिपत न थाय ५ राज ६ प्रभु। ७.वंछित काज ८ घर-घर देव अछै घणा, ते मुझ नावै दाय । ९ राचं १० चातक मन जलधर वसे, अवर न आवे चीत। - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली कै तौरहै तिसालूऔ, के ज्याचै जगदीस ॥ मोरा लाल |||पा० मोरा लाल वाल्हेसर निज सेवकां, नयण जौ निरखंत ॥ मोरा० ॥ इतरै ही सुख संपजै, तन ताढिक उपजंत ॥ मोरालाल ॥६॥पा० मोरा लाल मोरी आहीज वीनती, दीजै लील" विलास मोरा०॥ कहै जिनहरख सदा नमुं, कापरहेडा पास । मोरा लाल ॥७॥पा इति श्री कापरहेड़ा पाश्वनाथ लघु स्तवनं संवत १७२७ वर्षे श्रावण सुदि ९ दिने प० समाचद लिखितं श्री जैतारण मध्ये। (पत्र ? हमारे संग्रह में)। श्री गोडी पार्श्वनाथ स्तवन पिया सुन्दर मूरत गुण सरी, पिया दीठां अधिक सुहायौ । पिया हियडौ हरख हेज स, पिया भेटण चित ललचायौ ।।१।। म्हाने दरसन दीजे पासजी, पिया श्री गौड़ीपुर रायौ ।म्हाने० पिया थांराजो गुण हियड़ वस्या, पिया मन मेल्हण न जायौ। पिया तें कीधी काई मोहनी, पिया भेटण चित ललचायौ।म्हा।२ पिया तुमसं रहिये वेगला, पिया मुझ पाखै दिन जायौ । पिया तुझ दरसन दीस नहों, पिया ते पोते अंतरायो |म्हा०।३ पिया जाणुं मिलीये जाय ने, पिया देखीजै दीदारौ । पिया चरणे कीजै चाकरी, पिया धरिये हियड़ा मझारो।हा४ पिया ताहरै तो सेवक घणा, पिया सेव करै निस दीसो। पिया म्हारे सोतुंहीज धणी. पिया व्हालौ जी विसवा वीस ॥म्हा।५ ११ सफल करो अरदास । - - - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २७५ पिया मेहांजी मोरो प्रीतडी, पिया प्रीत जिसी जल मीनो । पिया चंद चकोरा नेहलो, पिया तिम मुझसं लयलीनो | म्हा०|६ पिया किम हु आधुं तुम कन्है, पिया नहीं चरणे वेसासो । पिया राजि सखाई जो हुवे, तो पूगे मन आसो || म्हा० /७ पिया घणां दिनां रो अलजयो, पिया मिलवा गौड़ी पासो । पिया दरसण दीजै करि दया, पिया देख सहेजा दासो | म्हा० १८ पिया मुझ आडो अतर घणौ, पिया किम करि मिलियै आयौ । पिया धन बेला जिनहरख सुं, पिया भेटिस थांरा पायो ॥ म्हा | श्री गोडी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल - हु वारी लाल || एहनी श्री गोडीचा पास जी, वाल्हेसर लाल, सुणि सेवक अरदासरे | वाळ अन्तरजामी तूं अछड़ वा०, हुं तुझ दीणउ दास रे || १ वा० श्री ॥ धन मानव जे ताहरउ रे वा०, देखइ निति दीदार हो । वा०| भाव आगलि भावना वा०, सफल करइ अवतार रे । २खा० श्री । इणि घटत खोइ अरइ वा०, तं सुरतरु साख्यात रे |वा० । सेवक ने सुख पूरव वा०, सहु को कहड़ ए बात रे || ३वा० श्री ॥ राजि गरीब नीवाज छउ वा०, निरधारां आधार रे | वा०| दीणा हीणा देखि नइ वा०, तुरंत करइ उपगार रे | ४ वा० | श्री | इह लोकिक सुख नउ किस्युं वा०, आप अविचल राज रे । वा० । अधिकउ अतिसय ताहरउ चा०, परतिख दी सइ आज रे । श्वा० श्री मुझ मन ऊमाहउ घणउ चा०, भेटण ताहरा पाय रे | वा० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ वधा श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली वाट विपम बल नहीं पगे वा०, तिणि हे न सकु आई रे॥६ श्री।। मुझ नइ दरसण दोहिलउ वा०, ताहार श्री जिनराय रेवा०। एतला दिन आव्यउ नही वा०, तर कोइक अन्तराय रे॥वा०७ श्री। तुमनइ स्यं कहीयइ घणउ वा०, तुमे छड जाण प्रवीण रे ।वा। यात्र सफल मुझ मानिज्यो वा०, इहाथी चरणं लीण वा०८ श्री। हुँ सेवक छु ताहरउ वा०, जाणेज्यो निरधार रेवा। देज्यो निज पद चाकरी वा०, कहइ जिनहरख विचार रेवाश्री। श्री गउडी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || पहिलउ वधावउ म्हारइ सुसरा रइ हाइप्यो । एहनी ते दिन गिणिस्य हुतउ लेखइ सुलेखइ, जिणि दिन हो जिण दिन देखिसि सूरति ताहरी जी। जोइ रहिस्त्यु हुतउ सनमुख प्रभुनइ । थास्यइ हो थास्यइ आसड़ली सफली माहरी जी ॥१॥ भाव धरीनइ प्रभुजी ना गुण गास्युं । पावन हो पावन करिस्यं माहरी जीभड़ी जी ॥ चैत्यवंदन करि तवन कहीनइ । भावइ हो, भावइ जुहारीसि धन धन ते घड़ी जी ॥२॥ हीयड़इ राखिसि हित सुं नाम तुम्हारउ । नवसर हो नवसर हार तणी परई जी ।। चोल सुरंगी जिम मीजी भेदाणी। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन ते रंग हो ते रंग भवे न उतरइ जी ॥३॥ आणसनेही हो आगलि हीयड़उ खोली नइ । कहिस्यु हो कहिस्', सुख दुख केरी वातड़ी जी ॥ वे कर जोडी हुतउ आगलि ऊभउ । रहिस्यु हो रहिस्यु लय लाई वासर रातड़ी जी ॥४॥ . धन धन जे प्रभु नइ रहइ पासइ । धन धन हो धन धन जे ओलग करइ जी ॥ भव भव ना ते तउ पाप पखालइ । वंछित हो वंछित ते कमला वरइ जी ॥५॥ गुण रतनाकर ठाकुर गड़ड़ी विराजइ।। गाजइ हो गाजइ महिमा दह दिशि जी । वंछित पूरइ साहिब संकट चूरइ । दरसण हो दरसण देखी हीयड़उ ऊलसइ जी ॥६॥ शिव सुख आपउ मुझ नइ पास जिणेसर । बीजउ हो बीजउ क्यं मांगु नही जी ॥ इम जिनहरख कहइ मन रंगइ। 'कीजइ हो कीजइ कबउ इतरउ सही जी ॥७॥ . श्री गउड़ी पार्श्वनाथ स्तवनं ___ दाल || पास जिणद जुहारीयइ ॥ एहनी गुणनिधि गउड़ी पास जी, मनमोहन महिमा निवासो रे । सुर नर नारी सुरेसरु, गावइं भावइंजस वासो रे ॥१॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जिनहर्ष ग्रंथावली । परतखि परता पूरवइ, सेवक जन नइ साधारइ रे। सुरतरु सुरमणि सारिखउ, इणि विषमइ पंचम आरइ रे ॥२॥ वाट विषम विषमी धरा, रिण विषम घणउ अवगाही रे। जात्र करण जगदीसनी, आवइ संघ हीयड़इ ऊमाही रे ॥३॥ प्रभु जात्रा भूला पड़इ, जे विपमी वाट विचालइ रे । नीलड़इ अस्व चड़ी करी, सेवक नइ बाट दिखालइ रे ॥४गु।। अष्ट महाभय उपसमइ, प्रभु नामइ पाप पुलायइ रे । जपतां नाम जिणंदनौ, जिनहरख सदा सुख थायइ रे ॥श्गु॥ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन || ढाल-आसकरण अमोपाल हारे आसकरण अमीपाल ___ शत्रु जइ जात्रा करइ रे, करइ रे ॥ एहनो ॥ श्री गउड़ीचा पास हारे, श्री गउड़ीचा अरज सुणि माहरी रे।अरजा कीरति त्रिभुवन मांहि हारे की०, अमूलिक ताहरी रे ताहरी रे॥ दुनियां मइ दीवाण हारे दु०, तुम्हीणउ दोपतउ रेतु०दीपतउ रे तु० जालिम अरियण दूठ हारे जा०, जोरावर जीपतउ रे जो०२॥ १॥ आवइ ताहरी जात्र हारे आ०, धणा संघ ऊमहीरे ऊमहीरे । केसर चंदन पूज हारे के०, रचावइ गहगही रे र० गहगही रे ॥ नृत्य करइ मन रंग हारे नृ०, सुरंगी गोरीयारे सु । वारु वेस वणाइ हां रे वा०, गुणा री ओरीयां रे । २॥२॥ वाजइ ढोल निसाण हारे वा०, दमामा दुड़वड़ीरे द० २। मादल ना धौंकार हारे मा०, नफेरी चड़वडी रे न० ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन २७६ गाव मधुर साद हांरे गा०, राग नइ रागिणी रे रा० २ । मानइ जनम प्रमाण हांरे मा०, भगति करि प्रभु तणी रे भ० | २|| चरणे इंद निरंद हांरे च०, सहू आवी नमह रे स० । ध्यान धरइ मन मांहि हांरे ध्या०, तिके भव नवि भ्रमइरे भ० ॥ सेवक आप समान हांरे से०, करइ संसय नही रे क० । पारस संगति लोह हांरे पा०, कनक थायह सहीरे क०२ ॥ ४ ॥ मुझ नइ प्रभु साधारि हांरे मु०, कि जाणी आपणउ रे कि० ।. असुभ करम अरिहंत हांरे अ०, दया करी कापणउरे द० ।। अश्वसेन वामा नंद हांरे अ०, मुगति तुमथी लहुरे मु० । - कहइ जिनहरख निवाज हारे क०, राजि नइ स्यूं कहुरे ॥ ५ ॥ वाडीपुर मंडण पार्श्वनाथ जिन स्तवनं ढाल || फिर मिर वरसे, मेह हा राजा, परनाले पाणी झरे, म्हारालाल ए देशी ॥ साधण कहे कर जोड़ी हो व्हाला, दुष्कृत दूर निवारवा| म्हारालाल । बाड़ीपुर वर पास हो व्हाला, जइये आज जुहारिवा ॥ म्हा० | १ पूगे मन नी आस, हा व्हाला, परमानद पद पामिये । म्हारालाल । दुख दोहग जाई नासी हो व्हाला, कर्म कठिन अरि दामिये || म्हा|२ सरणागत प्रतिपाल हो व्हाला, वामानंदन वालहो | म्हारा लाल | दादो दीनदयाल हो व्हाला, चरणकमल एहनाग्रहो | म्हारा०|३ भेटीजै भगवन्त हो व्हाला, दरशन देखीजै सदा | म्हारा लाल | भांजै मननी भ्रांति हो व्हाला, आवै नहीं कोई आपदा || म्हा०४ ॥ नित प्रति धरिये आण हो व्हाला, जो सिर उपर एहनो । म्हारालाल Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जिनहर्प ग्रन्थावली तो जग मगे जस भाणु हो व्हाला, ज्योति जगामग तेहनी ।म्हा लाल ढाल | (२) नागा किसुनपुरी, तुम बिन मढिया उजर परी । एहवो पास जिनेसर देव, मन शुद्ध कीजै एहनी सेव । मीठी अमृत जिसी, प्रभुजी छवि मोरे मनडे वसी । अवर गमे नहीं मुझने किसी, मीठी अमृत जिसी । नील कमल दल कोमल काय, विषहर लंछन सेवे पाय ॥६॥मी०॥ अणियाला देखी नैण सुरंग, हारि गया वन मांहि कुरंग ।मी०१ जिम जिम देखं प्रभुजी न रूप, तिमतिम हिबडे हर्ष अनूप । मी०१७ प्रभुजी ने चरणे लागी रहै, ते तो मोज सही सुं लहै ।। मी० ॥ मोटा मूके नहींय निरास, दास तणी पूरे मन आस |८ मी० ॥ सेवा कीजै गुणवंत तणी, सो मनवंछित दये ते भणी । मी०। सव सगला में वाधै लाज, सोम नजरि कर सारे काज ॥मी०॥ साहिबजी जो सुनिजर होय, अन्तर दुख व्याप नहीं कोय मी. सामो जोवे थई खुशियाल, तौ खिण मांहि करे निहाल॥१०मी० ढाल ।। (३) केसरिया मारु म्हाने सालू लाज्यो जी सागानेर नो जी चीणपुरानी चीर जी। केसरीया-एहनी । चरणे चित लागी रह्यो जी, जिम मधुकर अरविन्द । -केसरिया साहित्र म्हाने मौज देजो जी। पलक रहे नहीं वेगलौजी, मोद्यो गुण मकरन्द जी के० ॥११॥ रात दिवस हियडे बसोजी, जिम लोभी धन रासि जी के०। परतिख- काईक मोहनी जी, दीसे छै तुझ पास जी के०१२॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ स्तवन २८१ सेव्या देव घणो घणा जी, पिण न सर्यो को काज जी ।के। चरण सरण हिवै ताहरै जी, मैं कीधा महाराज जी के०॥१३ मन ना तन ना दुख गया जी, प्रभु मुझ साम्हो जोइ जी के० भव भावठ भंजन भणीजी, तुझ विण अवर न कोइ जी ॥ के०१४ तुझ सेवा थी पामिये जी, सुख सम्पति धन राश जी। परम शिव सुख पामिये जी, एक पंथ दोई काज जी के०१५. || ढाल ४ माखीना गीतनी ॥ म्हारां साहिब राहुँ चरण न मेल्डं, मैं पाम्या हिव नीठ जी । भव मांहि भमता बहु दुख खमतां, चिरकाले प्रभु दीठ जीवन जी।१६ "श्रीवाड़ीपुर पास सुहावो, पास सुहावतो पूजन आवो केसर चदनमेलि कस्तुरी घनसार कुसुम सं, भाव सुरंगौ भेलि, जोवन जी०।श्री०१७ व्हाला नौ दर्शन देखतां, जे सुख हिये होई जीवन जी। ते जाणे मुझ आतमां, अवर न जाणे कोई जीवन जी ॥श्री०१८ मुझ मन साहिबजी सं लोनो, चोल मजीठौ रंग जीवन जी। उतारयो उतरे नहीं, किमहिं अंगो अंग जीवन जी ॥श्री०१६॥ ढाल ५ ॥ हरणों जव चरे ललना ।। एहनी ॥ एतला दिवस भूलो भम्यो ललना, लला हो तुझ विन श्री जिनराय। वाड़ी पास जी ललना। ..निगुण साहिव सेव्या घणा ललना, लला हो आस न पूगी कांय॥२० दूर टली हिव मूढ़ता ललना, लला हो दूर टल्यो मिथ्यात । ज्ञान दीपक पूगो हिये ललना, लला हो जाणीभांति न भांति ॥२१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली सुगुण साहेब मैं ओलख्यो ललना, लल्लाहो भयभंजन भगवंत । सरसं मेरू पटंतरो ललना, लल्लाहो आप कनै अरिहंत वा०२२ काज नहीं राज रिद्धि सं ललना, लल्लाहो रमणी भोग विलास ॥ निज पद केरी चाकरी ललना. लल्लाहो देज्यो करूं अरदास २३ कर जोड़ी करूं वीनती ललना, लल्लाहो लेखवीजो मुझ दास । नव निधि पामी एतले ललना, लल्लाहो सफल हुसे मुझ आस] २४ कलस-इम पास जिनवर सकल सुखकर, श्री वाडीपुर मंडणो । मैं शाह-पाडे थुण्यौ भावे, दुरित दुःख विहंडणो ॥ अश्वसेन नंदन मात वामा, उदर हंस विराज ए । जिनहर्ष पास जिणंद जगगुरू, भव-समुद्र जिहाज ए ॥ २५ ॥ ॥ इति ॥ श्री वाडी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || वीछीया नी। मन मोहन मूरति जोवतां, मुझ नयणे त्रिपति न थाइ रे । जाणं आठ पहुर ऊभउ थकउ, कर जोड़ी सेवं पाय रे ॥१॥ वाल्हउ लागइ वाड़ी पासजी, पाटण मां सोहइ अजीत रे।। हीयड़उ हीसइ मिलिवा भणी, काइ पइलांतर नी प्रीति रे.।। 'निसि दिन माहरा मन मां वसइ, वाल्हेसर ताहरउ नाम ।' एहीज मुझनइ आधार छइ, जपतउ रहुं आठे जामरे ॥ ३ वा ॥ भवसायर मां भमतां थका, मई तउ पाम्यां दुक्ख अपार रे । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वाडी पार्श्वनाथ स्तवन २८३ आव्युं सरणइ हूँ ताहरइ, मुझ नह हिवह दुत्तर तारि रे ||४ वा || उपगारी जे भारी खमा, गरुआ जे गुणे गंभीर रे । ते साथ करीय प्रीतड़ी, दुख भांजे आवड़ भीर रे ।। ५ वा० ॥ ताहरी समवड़ी जे कीजीयड़, तेहवर तर कोई न दीठ रे । तिणि कारणि तूं मुझ वालहु, रंग लागउ चोल मजीठ रे ||६|| पोतानी कीरति राखिवा, वली राखेवा निज लाज रे । 'जिनहरख' मया करी मुझ भणी, आपउ शिवपुर नउ राज रे ||७|| श्री वाडी पार्श्वनाथ स्तवनं ढाल || श्राजनइ वधावर हे सहीयर माहरइ || एहनी आजनइ मई भेट्या हो बाड़ीपासजी, शिवरमणी सिणगार । सुंदर सोहइ हो मूरति प्रभु तणी, दीठां हरख अपार ॥ १ ॥ सदा सुरंगा हो मुलकड़ीया हसइ, विकसित बदन खुस्याल । वेपरवाही हो साहिब सेवतां, खिणि मां करइ निहाल ॥ २० ॥ हरि करि निरखं हो मूरति लोयणे, रोम रोम उलसंत । प्रीति पुराणी हो आज प्रगट थइ, जाणं छं एकत || ३ आ० ॥ कहीयड़ड़ ऊमाहउ हो मिलिवा अति घणउ, चरणे लागउ चीत । मुखड़उ देखेवा हे आखां अलजई, आ काइ नवली रीति ||४|| देव घणा ही हो दीठा देवले, मुद्रा जेहनी रूद्र । ए जिनवर नी हो मुद्रा जिन कन्हइ, सीतल सरल अक्षुद्र || ५ || एकण दीठा हो तन मन ऊलसह, एक दीठा न सुहाइ । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली लहणा दइंणा हो कारण जाणीयइ, नयणे तुरत लखाइ ॥६॥ माहरइ तउ तुम सुं हो इणि भव पर भवई, थाज्यो निवड़ सनेह । प्रभु जिनहरख सदा संभारिज्यो, रिखे दिखाड़उ छह ।। ७आ० । श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तवनं ढाल || विणजारा नी । मन मोह्य रे श्री चिंतामणि पास, जुगतइ जई जुहारीयइ ।मामा करीयइ निज अरदास, प्रभु आगलि दिल ठारीयइ ॥म १ मा। मोहन मूरति एह, रिदय कमल विचि राखीयइ । म । म । धरियइ निवड़ सनेह, भावइ प्रभु गुण भाखीयइ ।म २ मा ए त्रिभुवन नउ देव, एहथी कोई न आगलउ । म । म । सारउ एहनी सेव, मुगति रमणि नइ जइ मिलर || म ३ म॥ लहीयइ समकित माल, साहिब ना सुपसाय थी । म । म । भव भव करइ निहाल, नासइ सहु दुख एह थी । म ४ म॥ एहनउ जोतां रूप, मन विकमइ तन ऊलसइ । म । म । न पड़इ दरगति कूप, जेहनइ मन प्रभुजी वसइ ।। म ५ म।। नयण कमल दल जास, वदन चंद निरमल कला । म । म । देखी लील विलास, गाईजइ गुण निरमला । म ६ म ।। अश्वसेन कुल अवतंस, वामानंदन चंदीयइ । म । म । करइ जिनहरख प्रसंस, करम कठोर निकंदीयइ ॥ म ७ म ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ श्री विजय चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन श्री विजय चिंतामणि, पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || रसीयानी॥ विजय चिंतामणि पास जुहारीयइ, प्रह ऊगमतइ रे सूरि। गुण रसीया मधुर सुरइं प्रभुना गुण गाईयइ, भाव हीयइ धरी रे पूर ।।गु०१॥ वंछित पूरण सुरतरु सारिखउ, रतन चिंतामणि रे एह ।ग०। कामगवी सुर-कुंभ ऊपम धरइ, धरिये तेहसं रे नेह ।।ग०२।। नयण चकोर तणी परि ऊलसइ, देखि प्रभु मुख चंद । गु० । एक पलक पिणि न रहइ वेगला, मोह तणइ पड्या रे फंद ।।ग०३ ।। ए प्रभु नइ छइ दास घj घणा, सेवइ अहनिसि रे पाय |गु०॥ सेवक नइ तउ साहिब एक छइ, अवर न आवडू रे दाय ।।ग०४॥ पाच तजी कुण काच भणी ग्रहइ, गज तजि खर ल्यइ रे कुंण । कंचण तजी कुंण पीतल संग्रहइ, घन तजि कुंण ल्यइ रे लण ॥शा अवर सुरासुर नी सेवा करइ, कुण तजि त्रिभुवन र नाथ ग० ए साहिब जउ तूसइ तर सही, आपइ अविचल रे आथि ॥६॥ ___ एक चित जउ एह सुं राची रहइ, राखइ आपण रे पासि ।गन । पिणि साचइ मन न हुवइ चाकरी, तउ किम पूगइ रे आस ॥७॥ सेवक काचउ पिणि साचउ धणी, किम ऊवेखइ रे तेह ।गु०॥ सिशिधर जोइ सिसिलउ राखी राउ, सुगुण दाखइ रे छेह ।।८॥ बामा कूखि सरोवर हंसलट, आससेण कुल अवतंस । गु० । चाचरीयइ प्रभु अचल विराजीया, करइ जिनहरख प्रसंस ॥६॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनह ग्रन्थावली श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || महाविदेह खेत्र सुहामणउ || एहनी श्री कलिकुंड जुहारीयर, हीयड़ड़ धरिय उलास लाल रे । जेहन दरसण पामीय, अविचल लील विलास लाल रे ॥ १ श्री ॥ प्रभु दीक्षा लेइ करी, अप्रतिबंध विहार लाल रे । कादंबरी अटवी विचई, कलिगिरि अति विस्तार लाल रे ||२|| कुंड सरोवर सोहतउ, तिहां आवी काउसग कीध लाल रे । हाथी महीधर आवीयउ, जल पीवा सुप्रसीध लाल रे || ३ श्री || प्रभुन देखी पामीयउ, जातीसमरण ज्ञान लाल रे । सरवर जल न्हाई करी, धरतउ निरमल ध्यान लाल रे ॥४ श्री ॥ अनुपम कमल लेई करी, प्रभुजी पासइ आइ लाल रे । देह तीन प्रदक्षणा, प्रभु पग पूजी जाड़ लाल रे || ५ श्री || सुर आवी पूजा करइ, नाटक करइ अपार लाल रे । करकडू चंपा धणी, वांदण आवड तिवार लाल रे || ६ श्री ॥ विचर्या जिनवर तिहां थकी, जिनप्रतिमा सुर कीथ लाल रे । नव कर ऊभी काउसगड़, नृप पूजी फल लीध लाल रे ॥७श्री || राय कराव्यउ देहरउ, प्रतिमां थापी मांही लाल रे । वंछित पूरड़ लोक ना, पातक दूरइ जांहि लाल रे ॥ ८श्री || कलिकुंड तीरथ ते थयड, पहुवी मांहि प्रसिद्धि लाल रे । कलिकुंड पास पसाउलह, लहीयड़ रिद्धि समृद्धि लाल रे || श्री || तेह करी तिहां मरी करी, थयउ तीरथ रखवाल लाल रे । २८६ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना श्री अमाहरा पार्श्वनाथ स्तवन परता पूरइ सेवकां, प्रभु सेवक प्रतिपाल लाल रे। ॥१०श्री। दरसन थी दउलति हुवइ, नांमइ नासइ पाप लाल रे । भयभंजण प्रभु भेटतां, मिटि जायइ भवताप लाल रे ॥११श्री।। ध्यान हृदये राखीयइ, लहीयइ नवे निघांन लाल रे । कहइ जिनहरप जुहारतां, दीपइ अधिकइ वान लाल रे ॥१२श्री।। श्री अमाहरा पाश्वनाथ स्तवन ढाला || दीव ना गरवा नी ॥ पो दसमी दिन जाया जगगुरु जोइ जो। अश्वसेन नंदन सुरतरु सारखउ रे जो ॥ जेहनी आदि न जाणइ कलियुग कोई जो। जुनी मूरति एहीज परतखि पारिखउ रे जो ॥१॥ तूं साहिब नई हुंछु ताहरउ दास जो। प्रीतड़ी पालेज्यो वाल्हा पासजीरे जो ॥ मइ राखी छइ ताहरी मन मई आस जो। आसड़ली पूरवता कांइ नथी अजी रे जो ॥२॥ ऊमाहउ मिलिवा नउ एहवं थाइ जो । जाणु नइ हूं दरसण देखं ताहरउ रे जो ॥ मुझ मन मधुकर, मोह यउ पंकज पाय जो। आज दिवस धन भेट्यउ पास अझाहरउ रे जो ॥३॥ तु माहरा मन नउ मानीतउ मीत जो। आतम नउ आधार सनेही तुं अछइ रे जो ॥ " । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली माहरी छइ साहिबजी तुमनइ चीत जो । तुझ पाखड वाल्हेसर माहरइ को न छड् रे जो ॥४॥ सई कीधा छइ भव भव कम कठोर जो। किम कहिवायइ ते तउ कहतां लाजीयइ रे जो ॥ हुं अपराधी पग पग ताहरउ चोर जो। महिर करीनइ माहरा भवदुख भाजोयइ रे जो ॥५॥ पोताना सेवकनी प्रभु नइ लाज जो। सेवक नइ तउ लाज जनमका ए वात नी रे जो । नयण सलूणे जोज्यो सनमुख राजि जो। हुँ बलिहारी स्याम मनोहर तात नी रे जो ॥६॥ ते आगलि कहीयइ जे थाइ अयाण जो। जाण भणी स्यं कहीयइ जे जाणइ सहू रे जो ।। भव भव थाज्यो ताहरी आण प्रमाण जो। सिवपुर ना सुख जिम जिनहरख लहुं बहु रे जो ॥७॥ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन परम तीरथ पंचासरउ, जिहां सोहइ पास जिणंद हो। कर जाड़ी सेवा करइ, पदमावती नइ धरणिंद हो ॥ १ प० ॥ प्रभु मूरति देखि करी, मोरउ मन पामइ उल्लास हो। जिम केकी धन देखि नइ, मन हरपित थायइ तास हो ।। २१० ॥ मृरति नयणे जोवतां, चित चंचल थायइ लीन हो। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन २८६ ॥६५॥ सोभा सायर मई सदा, एतउ झीलि रह्यउ मन मीन हो || ३ || प्रभु मुख चंद निहालतां, नाचड़ मुझ नयण चकोर हो । पलक न अलगा रहि सकड़, लागी लागी प्रीति सजोर हो ॥ ४५ ॥ मुझ साहिवजी करि मया, राखीजड़ आप हजुर हो । निज सेवक जाणी करी, माहरा मन वंछित पूरि हो ॥ ५५ ॥ ताहरउ सेवक अवर नी, जउ सेवा करिस्य राजि हो । 'मन आसा अणपूजतां, ते जोज्यो केहनइ लाज हो संवत आठ वोड़ोतरह, चावड़ वणराज नरिंद हो । पाटण मांहे थापीया, श्रीश्रीशीलंग सूरिंद हो ॥ ७ प ॥ कमठ तणउ हठ चूरीयङ, पावक थी काढयूँ फणिंद हो । श्री नवकार सुणावीयउ, दरसणथी थयउ धरणिंद हो ॥ ८ प ॥ राति दिवस सेवा करह, आतम उपगारी जाणि हो । साप भणि सुरपति कीयउ, करुणा-निधि करुणा आणी हो ॥ ६५ ॥ रिदय - कमल विचि मांहरह, प्रभु भमर करइ झंकार हो । मुझ मानससर मह - रमड, तुं हंस तणइ आकार हो ॥१०॥ तुझ तीरथ छड़ जागतउ, तुझ तीरथ सवल प्रताप हो । तुझ वीरथ महिमा घणउ, सेटइ भव पाप संताप हो ॥ ११५ ॥ पुण्य प्रवल पोत हुबइ, ते भेटइ तीरथ एह हो । दुख भागइ सहु तेहना, पामइ सुख संपति तेह हो ॥ १२५ ॥ | पास जिणसर जग जयउ, वामा अससेन मल्हार हो । प्रभु ना चरण जुहारतां, जिनहरख सदा सुखकार हो ॥ १३५ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्री जिनहर्प ग्रन्थावली श्री चारूप पार्श्वनाथ स्तवन ढाला || चादा करिलाइ चाद्रणउ || एहनी श्री चारूपईपासजी, मनमोहन साहिब दीठउ रे। मन विकस्यउ तन उलस्यउ, पूरव भव पातक नीठउ रे ॥१श्री।। जनम सफल थयउ माहरउ, आज पुण्य दशा मुझ जागी रे। आज सुकृत फल पामीयउ, जउ भेट्यउ सरवसु त्यागी रे।।२श्री।। लोयण मुझ लागी रह्या, प्रभु मूरति देखि सुरंगी रे । जाणुं विछड़ीयइ नही, मूरति लागइ चित चंगी रे ॥३श्री।। ए साहिबनी चाकरी, कर जोड़ी निसिदिन कीजइ रे। भाव भागति इक चित थइ, मन बछित तउ पामीजइ रे॥४श्री।। मोटानी सेवा कीयां, निष्फल किम ही नवि जायइ रे। सोम नजर राखइ सदा, फल प्रापति सारू थायइ रे ॥श्री।। साहिब नइ देखी करी, हितस्युं मुझ हीयड़उ हीसइ रे। परतखि छइ काइ मोहणी, पासइ रहीयइ निसि दीसइ रे॥६श्री।। धरणींद ने पदमावती, कर जोड़ी सेवा सारइ रे । सेवक नइ सानिधि करइ, जिनहरख सकल दुख वारइ रे ॥७श्री।।। श्री भटेवा पार्श्वनाथ स्तवन ढाल | विंटली नी ॥ मृरति प्रभुनी सोहइ, सुर नर मुनिजन मनमोहइ हो। पास भटेवउजी. तेजह दिनकर दीपइ, रागादिक वयरी जीपइ हो ॥१पा।। पास भटेवउ सेवउ, कृष्णागर धूप उखेवउ हो । पा० । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___श्री कसारी मंडन पार्श्वनाथ स्तवन २६१ केसर सखर घसावउ, मृगमद घनसार मिलावउ हो ।पा। परघल पूज रचावउ, आगलि भली भावन भावउ हो ॥२पा।। सुरतरु सुरमणि सरिखउ, हरि करि निज नयणे निरखउ । पा । मुख दीठां दुख जायइ, भव भव ना पाप पुलायइ हो ॥३पा।। दउलति दायक दीठउ, मुझ नयणे लागइ मीठउ हो । पा। सफल थयउ ऊमाहउ, लीधउ नरभव नउ लाहउ हो ॥४पा।। बहु दिवसे मुझ मिलीयउ, दुख दोहग दूरइटलीयउ हो ।पा। जिम जिम वदन निहालं, तिमतिम समकित उजुआलु हो।पा।। हीयड़इ हेज न मायइ, दूरइखिण इक न रहायइ हो । पा। प्रीति पूरव भव केरी, लागी तुझसं अधिकेरी हो ॥६पा।। आज मनोरथ फलीयां, आज थयां माहरइ रंग रलीयां हो ।पा। जात्र चड़ी सुप्रमाणइ, जिनहरख भलइ इणि टाणइ हो ॥७पा।। श्री कंसारी मंडन पार्श्वनाथ स्तवन ढाल ॥ नींदड़ली वइरणि हुइ रहो | एहनी कंसारी पास अरज सुणउ, कर जोड़ी हो कहुँ प्राण अधार का तुझ मूरति मुझ हीयडइ वसी, सुकुलीणी हो मन जिम भरतार॥१को मनवंछित आशा पूरवइ, दरसण थी हो दुख जायइ दूरि का साचइ मन साहिब सेवतां, सुख संपति हो थायइ तुरत हरि ।।२।। वाल्हेसर मुजनइ वालहउ, लागइ लागइ हो जिम चकवी भाण की जाणुं अहिनिसि अनमिख लोयणे, देखें दरसन हो उलसइ मुझ प्राणा३ पाणीवल न रहुं वेगलउ, तुझ सेती हो हुं तउ निसि दीस । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली पिणि पोतड़ मुझ पातक घृणा, किम थायड़ हो सेवा जगदीस । ४कं । निसनेही सुं लागउ नेहलउ, झूरि मरीयह हो इमही एकंग की दीपक मन नह जाणड़ नही, पड़ि पड़ि नड़ हो मांहि मरड़ पतंग | ५कं । साहिब सेवकनी चाकरी, नवि जाणड़ हो मन मांहि । कं । बगसीस किसी परि तर करइ, किम थायड़ हो सफली मन चाहि । ६क पिणि थाय जे भारी खमा, सहुकोनी हो पूरवइ सन आस | कं अधिका ओछा नवि लेखवह, तुझ सारिखा हो उपगारी पास ॥ ७कं ।। अपराधी हुँ प्रभु ताहरउ, मुझ मांहे हो छइ अवगुण कोडि | कं अवगुण जोई अवहीलतां, मोटा नड़ हो छह मोटी खोडि ॥ ८कं ॥ तुमनइ स्युं कहीयइ वलि वलि, सहु बाते हो तुम्हें जाण प्रवीण की जिनहरख मनोरथ पूरवउ, तुम चरणे हो मनड़उ लयलीण ॥६कं ॥ श्री नारंगपुर पार्श्वनाथ स्तवन राग - वेलाउल श्री नारंगपुर वर पाशजी, म्हारी चीनतड़ी अवधारि । भव दुख भांजउ माहरा, तूं तउ पर दुख भंजणहार हो || १ श्री || हां जी मूरति मां काई मोहणीजी, नयण अधिक सुहाइ । साहिब तुझ दीठां पछ, कोइ वीजउ नावइ दाइ हो ||२ श्री || हां जी पोताना जाणी करी जी, निशि दिन राखड़ पासि । सकल मनोरथ पूरवर, तेहना थई रहीये दासरे हो || ३ श्री || हां जी जे दुख भांज आपणाजी, तेहने कहीये दुक्ख । निसनेही निरमोहीयां, तेस्युं ओलइ कहउ सुक्ख हो || श्री || Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४२ श्री नारंगपुर पार्श्वनाथ स्तवन हां जी उत्तम नी सेवा कीयांजी, उत्तम गुण धइ तेह । पारस संगति लोहडौ. थायड कंचण गण गेह हो ॥५श्री। हां जी तुझ चरणे ई आवीयउ जी, निजे गुण द्यउ भगवंत । माहरो आहीज वीनती, वार वार करूं गुणवंत हो ॥६श्री।। हां जी परउपगारी तूं सहीजी, वामा सुत विख्यात । आशा पूरउ माहरी, जिनहरख कहइ ए बात हो । ७श्री ।। श्री नारंगपुर पार्श्वनाथ स्तवन ढाल || एसा मेरा दिल लागा रे जिन्हा रे म्हारा लाल लोभीडा सुजाण एसा मेरा दिल लागा ।। एहनी मूरति तेरी मोहनगारी, देख्यां होत उलास । चित चरण मोही रह्यउ रे, पलकन छोडूं तोरउ पास ॥१॥ तोसुं मेरा दिल लागा राजिंद म्हारे मोरा लाल नारंगपुर प्रभु पास। तो० मे० । हुँ सेवक तुं साहिब मेरा, तूं मेरा सुलताण । अंतरजामी आतमारे, तुं मेरा दिल दा दीवाण ॥रतो॥ हित सुं हीयड़ा वीचि रहाउं, प्रभु गुण मुगतामाल । प्रभु कोरती गाउं सदा रे, पामुसुख सुविसाल ॥३तो०॥ किसहीकी न धरूं तमा, किसही न नामुं सीस । आस तुम्हारी हूं धरूं रे, करि अविचल बगसीस ॥४तो०॥ तिणिकी सेवा कीजीयइ, जिण कइ मन मइसाच । झूठे सु क्यां राचीयइ रे, परिहरियइ ज्यू काच ॥श्तो०॥ . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रंथावली उत्तम सेती प्रीतड़ी, कीजइ तउ सुख होइ।। जनमंतर पहिडइ नही रे, अपयश न कहइ कोइ ॥६तो०॥ साहिब सुनजर थइ लहुं, भवसायर कउं पार । कहइ जिनहरख निवाजीयइ रे, कीजइ प्रभु उपगार ॥७तो०॥ श्री पाली मंडन नवलखा श्री पाश्वनाथ स्तवनं दाल !! तु तउ म्हारा साहिबा रे गुजराति रा || एहनी साहिवा वेकर जोड़ी वीनव, साहिबा वीनतड़ी अवधारि कि । तुं तर म्हारा साहिबा रे श्रीपासजी, साहिबा सेवक सुपरि निवाजीया, साहिवा, आपणउ विरुद संभारि कि ॥ १॥ साहिवा सूरति ताहरी निहालतां. साहिव नयण ठरह मुझ दोइ किन्तु मुझहीयडोहरखइ हेजसं सा। तुझ मुख सनमुख जोइ किरतु सा।। राति दिवस हाजिर रहुं सा। चरणे रहुं लपटाइ कि ॥सा । तु॥ आठ पहुर ऊभउ थकउ ।सा। सेव करूं चितलाई कि ॥३तुसा।। माहरी तुझसुं प्रीतड़ी सा। अबिहड़ वणी बहुं भांति कि ।तुसा। तेतर कदी न ऊतरह सा। जउ युग जाइ अनंत कि ॥४तुं सा ।। माहरा वंछित पूरवर सा। जिम पामउ साबासि कि । तुं सा। पालीमंडण नवलखा ।सा। जिनहरख सफल अरदास कि ।। ५ तुं नींचाज-श्री पार्श्वनाथ स्तवन राग | सारग मल्हार ।। नयर नीवाज दीपतउ रे, परतखि पास जिणंद । सूरति मूरति मोहणी लाल, दीठां होइ आणंद ॥ १ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठोत्तर सौ पार्श्वनाथ स्तवन २६५ साहिब पासजी हो वाल्हा पासजी हो, दरसण नीकउ राजि ।आं० तूं तारक त्रिभुवन तणउ रे, तं त्रिभुवन दीवाण । सुरनर राय राणा सहुँ लाल, सीस धरइ तुझ आण ॥ २ सा ।। तूं माहरइ जीवन जड़ीरे, तूं मुझ प्राण आधार । तुझ नइ चाहु अहनिसइ लाल, जिम कोयल सहकार ॥३सा ।। जे दिन जायइ माहरा रे, तुझ पाखइ जिनराज । ते सघला अकीयारथा लाल, जेम सरद री गाज ॥४सा।। वीसाय नवि वीसरइ रे, निसिदिन आवइ चीत । जलधर चातकनी परइ लाल, लागी माहरी प्रीति ॥५सा।। तुझ चरणे मन माहरु रे, लागउ रहइ दिन राति । फाटइ पिणी फीटइ नहीं लाल, पड़ी पटउलइ भाति ॥६सा॥. अस्वसेन कुल सेहरउ रे, वामा उर सिणगार । कहइ जिनहरख निवाजीज्यो लाल, करिज्यो माहरी सार ॥७सा। अठोत्तर सौ पार्श्वनाथ स्तवनं ढाल-गीता छद री श्रीखंभाइत पास नमु सदा, श्रीचिंतामणि राधणपुर मुदा । बड़ली पाटण मारग पुर पहू, ईडर कंसारीपुर सुख बहू । सुख बहू वीवीपुर संखेसर, आसाउल पंचासरै अहमदावादे विमलगिर, देवके पाटण मातरै, गिरनार वेलाउल हसोरे, दीव वीजापुर वरे । बड़नगर पाल्हणपुर धंधूकै, धवलकै तारापुरै ॥१॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जिनहर्ष ग्रन्थावली देवगिरै जनगढ़ बंदियै, उजेणी अंतरीख आणदीय झंझूवाडे श्री भोहड़ ए, अहिछत्ता मथुरा कलकुड ए। कलकुंड मोजावद जवनपुर आगरै राजग्रही । दहथली रावण कुक्कड़ेसर, जगत सहु आवे वही ।। पालीयताण भीनमाले, पारकर गोड़ी धणी। रतलाम नागद्रह अमीझर, छवट्टण महिमा घणी ॥२॥ ढाल-वीवाहला री श्रीपुर गोयल सुलखणपुर नवखंड कुंतीपुर जांणीय ए पुंजपुर राणपुर कुंभलमेर, मांडवगढ जास वखाणियै ए उदयपुर, सिवपुरी, अलवरगड, फलवद्धि सोवनगिरै गाईये ए नागपुर, जोधपुर, जेसलमेर, मरोठ, नाडूल सुख पाईयै ए ॥३॥ मेलगपुरवर अगम अजाहरो, चित्रकोटे वलि सादड़ी ए समेल, मगसी किरहोर, वाड़ीपुरे बीझपुर, बंदिये अणघड़ी ए नवयनगर, चोरबाड, भडकौल, प्रभु मंगल मंगलौर करु ए विगत,वाडोदरे,जुगत जीराउले, चतुर चारुपे तिम जिणवरूए॥४॥ ढाल-फाग री सेरीसे तिमरी नमु ए वरकांण महेवे घंघाणी जोजावरे ए सुरतर वर सेवे। ओसोपे पाली जयौ ए वीलाई सामि तिल धारै हथणाउरे ए से सिर नामी ॥ ५ ॥ इन्द्रवाड़े आबू जयो ए, मुरवाड़ जिणेसर । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ दशभव गर्भित स्तवन साचौरे संमेतसिखर, पोसी वंदेसर, सोझत नै भीमालियो ए चवलेर चवीजै । कापरहेडे, मेड़ते ए दिनप्रति प्रणमीज || ६ || कलस हम अठ्ठोत्तर से गांम, नयर पुर ठाम । थुणिया त्रिकरण सुध, पास जिणेसर नाम ॥ गणिवर श्रीसोम सुखाकर पूरो आस । जिनहरख करे कर जोड़ि ए अरदास ॥ ॥ इति अट्टोत्तर सौ स्थान नाम गर्भित पार्श्वनाथ स्तवन सम्पूर्ण ॥ - २६७ श्री पार्श्वनाथ दशभव गर्भित स्तवन ढाल || लवेलानी ॥ पोतनपुर रलीयामणु रे लाल, सुरपुर नुं अवतार | सुविचारी रे अरविंद राजा गुण निलउ रे लाल, राज्य करइ गुणधार ॥ सु० १पो॥ निज परजा पालइ सुखई रे लाल, सहुं कोनी करे सार । सु । मरुभूति तिहां ब्राह्मण बसे रे लाल, राजा नउ अधिकार ।। सु२पो।। कपट रहित धरमातमा रे लाल, जेहना सरल परणाम | सु० । उपगारी सह लोक नइ रे लाल, सहु विद्या गुण धाम || सु३पो|| ' सुख भोगवह गृहवास ना रे लाल, निज नारी संयोग | सु० । आउख पूरण करी रे लाल, ते पहुतउ परलोग || सु४पो ॥ बीजइ भव हस्ती थयउ रे लाल, वारू लक्षणवंत || Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली ___ रूप अति रलीयामणु रे लाल, वन माहे विलसंत ॥ सु०५ पो।। अरविंद नृप संध्या समइ रे लाल, देखी अभ्र स्वरूप । सु० । वैराग्यइ दीक्षा ग्रही रे लाल, पंच महाव्रत रूप ।।सुपो।। समेतशिखर यात्रा भणी रे लाल, चल्या अरविंद साध सु। सर तीरई काउसग कयु रे लाल, धरतउ चित्त समाधि ।।सुपो।। ढाल २ ॥ कता मोनइ डूगरीयउ देखालि रे ॥ एहनी मरूभूति नउ जीव हाथीयउ, पीवा आव्यं सर नीर रे । संघ निहाली घj कोपीयउ, नाठा सहु धयें नही धीर रे ॥८म।। राजरिपि अरविंद मुनिवरु, अवधिज्ञानी अणगार रे। हस्ती प्रत प्रतिवोलीयउ, देइ उपदेश विचार रे॥६म।। गज भणी ततखिण ऊपनउ, जातीसमरण सुभ ज्ञान रे । श्रावक व्रत मुनिवर कन्हइ, आदर्या देई बहुमान रे ॥१०म।। साधु अरविंद ना पाय नमी, गज गयउ आपणी ठाम रे । तिर्यच पणे व्रत पालीया, रिदय धरतं मुनि नाम रे ॥११म।। काल कीधउ तिणि गजपति, सहस्रारइ ऊपनु देव रे। तृतीय भव एह जाणउ सही, सुर सुख भोगवइ हेव रे ॥१२म।। गज तणउ जीव तिहां श्री चची, खेचर किरणवेग नाम रे। पुत्र थयउ रे राजा तणड, रूप अभिनव जाणे काम रे॥१३म।। - ढाल ३ || कंता तंबाखू परिहरउ । एहनी मंदिर लावण्य गुण तणउ, नारि परिणी सुखकार । मोरा लाल राज्य पाम्युं निज वाप न, भोगवइ विषय अपार ॥मो१४मी। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ दशभव गर्भित स्तवन रह गुरु नी देसणा सांभली, पाम्यउ संवेग सार । मो । राज्य तजी दीक्षा भजी, अप्रतिबंध विहार || मो०१४मं ॥ तप जप संयम खप करइ, ल्यड़ सूझतु आहार । मो० । आउ पूरण अणसण करी, चउथउ भव अवधारि ॥ मो१६ || मरुभूति नउ जीव ऊपनउ, बारमे अच्युत नाम । मो । । देवलोके थयउ देवता, चढतड़ पुन्य प्रमाण || मो१७मं ॥ बावीस सागर आउखड, सुख भोगवड अपार । मो । एतउ भव थयउ पांचमउ, सांभलिज्यो नर नारि || मो१८ || तिहां थी तेह चवी करी, पश्चिम महाविदेह । मो० । वज्रनाभ राजा थयउ, रूप यौवन गुण गेह || मो१६मं ।। राज्य तजी व्रत आदर्यउ, पाले निरतीचार | मो | दुक्कर बहुतर तप करह, पालह सुध आचार || मो २० मं ॥ अरस निरस आहार सूं, काया कीथी खीण । मो । अंतर संलेहण करी, छठउ भव सुप्रवीण | मो २१ मं ॥ ढाल ४ ॥ रसीयानी ॥ साधु समाधि मरीनइ ऊपनउ, मध्य ग्रैवकड़ रे देव रे । भविका 'सातमउ भव जाणउ मरुभूति नउ, तिहां थी चवीयउ रे टेव रे ||२२|| खेत्र विदेहई आवी अवतर्य, चक्री सुवर्णवाहु नाम रे । भ । पट् खंड राज्य लीला सुख भोगवी, दीक्षा लीधी रे तामरे । भ२३सा छठ अठम आदिक बहु तप करह, सेवड़ थानक रे वीस रे | भा विचरे गाम नगर पुरवर वनई, परीसह सहइ रे बावीस ||भा२४सं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००, श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली कालइ मुनिवर कालधरम कर्यउ, अष्टम भव थयउ रे एह रे ।भा दसम देवलोकई जइ ऊपनउ, प्राणत नामइतेह रे ॥भ२५सा।। नामइ भव सरना सुख भोगवी, तिहां थी चवीयउ ते तेह रे।भा दसमे भव थया पास जिणेसरु, पुण्य प्रवल फल रे एह रे।।भ२६सा।। ढाल ५ || गिरि थी नदिया ऊतरइ रे लो | एहनी वाणारिसी नगरी भली रे लो, अश्वसेन नाम नरिंदरे । रंगीला वामादे तसु रागिनी रे लो, सीलवती गुण बंद रे ॥२२७वा॥ तसु कूखई प्रभु ऊपना रे लो, चैत्र बहुल चउथि दीस रे । चउद सुपन दीठारागिनीरे लो, निसि भर परम जगीस रेरिं२८व गरभ दिवस पूरा थया रे लो, जनम्या पासकुमार रे । २० । पोस असित दशमी निसा रे लो, छपन कुमारी सार रेरि२६वा।। जनमोच्छव करिने गइ रे लो, आन्या चउसठि इन्द्र रे । २० । स्नात्र कयं मेरु ऊपरइ रे, पाम्यं अधिक आणंद रे ॥२३०वा।। राजा पुत्रोच्छ। करी रे लो, नाम दीयं प्रभु पास रे । २० । नील कमल काया भली रे लो, अहिलंछण पग जास रे॥२३१वा।। रूपइ प्रभु रलीयामणा रे लो, दीठां उलसइ कायरे । २० । सउ वेला जउ देखीयइ रेलो, तउही त्रिपति न थाय रे।।२३२वा मुख छवि राका चंदलउ रे लो, नयण कमल अनुहार रे । २० । चंपकली जेही नासिका रे लो, अधर प्रवाली सार रे॥२३३वा।। - दंत मोती हीरा जड़या रे लो, नख सिख संदर घाट रे ।२०। नव कर काया जेहनी रे लो, दीठां हुइ गहगाट रे ॥२३४वा।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ दशभव गर्मित स्तवन ३०१ . ढाल ६ ॥ विंदलीनी ॥ अपछर प्रभु नइ रमावइ,मठ इश्वर हालरउ गावइ रे।कीका मन मोघउ मनमाह्य मोहणगारा, तुझ दरसण लागइ प्यारा रे ॥३५की।। नयणे तुझ सूरति दीठी, साकर थी लागइ मीठी रे । की। तुं जीवन प्राण अम्हारइ, तुझ नाम तणइ बलिहारइ रे ॥३६की।। __ आवउ वामादे ना लाल, अमने तुम्हे लागउ वाल्हा रे । की। तुमने देखी हित जागइ, दीठां भूखडली भागइ रे ॥३७की।। तोरी सूरति अधिक सुहावे, वीजउ कोई दाय न आवइ रे।की। • एक देवी कड़ीए चड़ावइ, एक नाटक प्रभुनइ दिखावइ रे॥३८की।। __ कर जोड़ी प्रभु ने आगइ, एक अपछर पाए लागइ रे । की। माय नी कूखड़ली ठारी, कीरति त्रिभुवन विस्तारी रे ॥३६की। अम स्वामी तुम नइ सेवइ, तुम आगलि अगर ऊखेवइ रे ।की। तुं तर राजा त्रिभुवन केरउ, नमतां न हुवइ भव फेरउ रे १४०वी॥ प्रभुजी ने लेई इन्द्राणी आपड, ल्यउ वामा राणी आपइ रे ।की। ए वाई कुमर तुमारउ, वसी कीधउ चित्त हमारउ रे ॥४१की।। * मूक्यउ खिणि एक न जायइ, एहनउ अलजी न समायइ रे ।की। अपछर पहुती निज ठामइ, हिवइ पासकुमर वृधि पामइ रे॥४२की।। ढाल ७ ॥ रे जाया तुझ विणि घडी रे छ मास ॥ एहनी __ अनुक्रमि योक्न पामीयं जी, परिणी राजकुमारि । विपय तणा सुख भोगवी जी, कीधउ तसु परिहार ॥ ४३ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली जगतगुरु सांभलि मुझ अरदास । तू त्रिभुवन नुं राजीयउ जी, पूरउ माहरी आस ।जा . पोस बहुल इग्यारसे जी, लीघउ संयमभार । करम खपाची घातिया जी, उज्जल ध्यान संभारि ४४] चउथी अंधारी चैत्रनी जी, पाम्यं केवलज्ञान । समवसरण देवे रच्यं जी, बारह परपद मान ॥ ४५ ज ।। संघ चतुचिंध थापीयउ जी, सह नइ कार उपगार। समेतशिखर अणसण कीयु जी, साधु तणे परिवार ॥ ४६ज ॥ श्रावण सुदि आठिम दिनइ जी, प्रभु पहुता शिवपास । सेवक जाणी राखीवर जी, अमनइ पिणि निज पासि ॥४७जा आससेन नृप कुल तिलउ जी, वामा राणी जात । धरणीपति पदमावती जी, सेव करड् दिन राति ॥ ४८ ज ।। भव भव माहरइ तू धणी जी, ताहरउ मुझ आधार । तुझ विणि केहनइ नवि नमुं जी, मैं कीधी इक तार ॥४६॥ हुँ भमीयउ भवमां घणं जी, तुझ विणि जगदानंद । चरण-सरण हिवइ ताहरा जी, घउ जिनहरख आणंद ॥५०जा। श्री पार्श्वनाथ दोधक छत्रीशी पास चरण चितलाइ, गुण गाइसि गौरव करे । पवित्र करिसि सुपसाय, आतम अससेण रावउत ॥ १ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ दोधक छत्रीशी साहिब करिस्ये सार, निखरी वारि निवारिस्य । अगणित अससेण रावउत ॥ २ ॥ वामा सुत सुणि वीनती । सिव सुख देस्ये सार, करां निहोरउ नाथ, अविचल मोन आथि, आपउ अससेण रावउत ॥ ३ ॥ वपु ताहरउ विशेष, वणीयउ सुत वामा तणा । ओपम किति अलेस, आखां अससेण रावउत ॥ ४ ॥ मानव नयण मिथ्यात, घण अंधार घूमियां । तुं रवि त्रिभुवन तात, उदयउ अससेण रावउत || ५ || भांजउ, भवरी भीति, सेवक ने राखउ सरण | अरज करां इणि रीति, अहनिसि अससेण रावउत || ६ || जिन पामीयउ जिहाज, वहतां भवसागर विच । हिवड़ मेल्हुं नहीं महाराज, अलगउ अससेण रावउत ||७|| दोपी मोटा दोह, मदन अनइ ममता मिले | मो संतापड़ सोह, अटकर अससेण रावउत ॥ ८ ॥ धावे जम री धाड़ि, मो केड़ह मछराहती । | पाकड़ि पाड़ि पछाड़ि, आती अससेण रावउत ॥ ६ ॥ तपीयउ पावक ताप, श्रीनवकार सुणावीयउ । सुरपति कीधउ साप, ऐ ओ अससेण रावउत ॥ १० ॥ पांणी मांहि पखांण, तह तार्या त्रिभुवन धणी । तिको दीठउ राणों राण, अचरज अससेण राचउत ॥ ११ ॥ रुघपति राखी रेख, लंकागढ़ लिवरावीयउ | ३०३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जिनहर्प ग्रन्थावली बाध्यु महण विशेष, ऐ ओ अससेण रावउत ॥ १२ ॥ जरासेन जर जाल, मेल्हि जादव मुरछित किया । तइ दीधउ ततकाल, ऊजम अससेण रावउत ॥ १३ ॥ तुंहीज जाणइ तूझ, नर वीजउ जाणे नही । गुपत तुम्हीणउ गूझ, कुण आखइ अससेण रावउत ॥१४॥ करवा परि करतार, लाधी लीला लाड़ीलइ । पामी आथि अपार, अगणित अससेण रावउत ॥ १५ ॥ सुख पाम्यां रउ सार, सुख जउ दीजइ सेवकां । ऊगरिस्यइ आचार, इलि पुड़ अससेण रावउत ॥ १६ ॥ सुर सुरपति सुख सार, महिर करे आपे मुगति । दुनियां में दातार, तुं अधिकउ अससेण रावउत ॥ १७॥ कमठासुर करि कोप, वारद जदि वरसावीयउ । अंजणगिरि री ओप, तुं ओप्यउ अससेण रावउत ॥१८॥ वरसान्यउ जदि वारि, कमठ असुर कोपई करे। तास हुई तरवारि, अंगइ अससेण रावउत ॥ १६ ॥ कांपइ थरहर काय, दुख सांभलि दुरगति तणा! मो सरणइ महाराय, राखउ अससेण रावउत ॥ २० ॥ । जगनायक जगदीस, जगतारण तं जनमीयउ । त्यारइ पूगी जगत जगीस, अधिकी अससेण रावउत ॥२१॥ कासुं करिस्ये काल, जालिम जम करिस्ये किसं । राजन मो रखवाल, आछइ अससेण रावउत ॥२२॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ दोधक छत्रीशी ३०५ जकड्यु मोनइ जोइ, वे बंधण मइ वाप जी। सटकइ कापर सोइ, आखां अससेण रावउत ॥२३॥ पारस तणे प्रसंग, कंचण होइ कुधातु पिणि । नीच न ह्वइ क्युं नग, उत्तम अससेण रावउत ॥२४॥ जनम मरण दुख जोर, पीडयं भव भव पापीए । . नीगमि कसै निहोर. आरति अससेण रावउत ॥२५॥ जिणि जिणवर री जाइ, काने ही न सुणी कथा । तिके वहिरा हुबइ बलाइ, अंगई अससेण रावउत ॥२६॥ जे जिण मन्दिर जाइ, प्रभु पाए नमीया नहीं। तिके पर नर सेवइ पाय, ऊभा अससेण रावउत ॥२७॥ प्रभु पूजेवा पाय, नर तीरथ न गया जिके । तिके पर आगलइ पुलाय, अचरज अससेण रावउत ॥२८॥ सामल वरण सरीर, घेघवी जाणे घटा । मो मन मोर सधीर, उलसे अससेण रावउत ॥२६॥ मन कीधर महाराज, पिणि मन पसरे माहरउ । राखउ चरणे राज, आपण अससेण रावउत ॥३०॥ श्रुतवल नहीं सरवंग, कही तिसी न हुवइ क्रिया । पहुंचे केम अपंग, ऊँचउ अससेण रावउत ॥३१।। सुख मंइ परम सनेह, जउ कीजइ जगदीस सूं । नर वीजां सं नेह, ऊखर अससेण रावउत ॥३२॥ छिटकि न दाखइ छेह, जग मई तुझ सरिखा जिके | Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘३०८ . श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली अगनि सरीखो आकरो सखी, वाली सब वनराय रे। पोयण टाढें कमलाइ रे, दगला' दोटी सुं भाय रे। पावक नो ताप सोहाय रे, निशदिन तनु शीत न जाय इ० फागुण फगफगिओ हवे सखी, आयो फाग' वसंत । नारी गीत सोहामणां सखी, गात्र मन उलसंत रे। खेले नर नारि अनंत रे, चूआ चंदण महकत रे। विचे लाल गुलाल उडंत रे, भला चंग मृदंग वाजंत रे ।८। इ० चैत्र सुहायो आवीओ सखी, वाया ऊना वाय । सीतल सीय पाछां पड्या सखी, सूर किरण अकलाय रे। सीतल छायाई सहु जाय रे, चोबारा गोख सुहाय रे। दिन ताप रयण सीत थाय रे, कुंपल मेल्ह्या वनराय रे ।।। इ० तड़कौ लागे आकरौ सखी, आयौ मास वैशाख । नान्ही कैरी आंव नी' सखी, लूंब रही केइ लाख रे। मोहरी बन दाङम द्राख रे, ताढा जल पाणी दाखि रे । झीणी इक तारा राख रे, वीजा दीधा सहु नांखि रे ।१०।इ० जेठे जेठा दीहड़ा सखी, जोर तपै जग भांण । राति स्वप्न सिरखी थई सखी, भुंइ थइ अगनि समान रे। पाणी विना छूटै प्राण रे, खलकै लू तावड़ि खांणि रे । राणी नां कांकण परांण" रे, ते ढीला थाए निरवांण रे।११।३० डगला म्होटी सोहाय रे २ मास ३ आविली ४ माखि ५ पाण . Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथजी की घग्घर नीसाणी ३०६. आसाढो भरि ऊनयो' सखी, वादल छायो सूर ।। पुहवी तन टाढो थयौ सखी, आतप नाठो दूरि रे। गड़ हड़ोआ मेघ गडुड़ रे, भीनी धरती भरपूर रे । नीला धरती अंकुर रे, वसुधा प्रगटाणो नूर रे ।१२। इ० वारहमास मांहि सांभरे सखी, अह निशि पास जिणंद । अश्वसेन कुल सेहरे सखी, वामा राणी नो नंद रे। सेवे जस पास फर्णिद रे, खिजमति करे चोसठ इंद रे। परतिख तू सुरतरु कंद रे, आले जिनहर्ष आणंद रे ॥१३॥इ० ॥ इति ॥ श्री पार्श्वनाथजी की घग्घर नीसाणी सुखसंपतिदायक सुर नर नायक, परतिख पासजिनंदा है। जाकी छवि कांति अनोपम ओपित, दीपत जाण दिणंदा है। मुख ज्योति झिगामिग झिग मिगमिग, पूरण पूनम चन्दा है। सब रूप सरूप बखाणहि भूपत, तूं ही त्रिभुवन नंदा है ॥१॥ करुणासागर लोक सवे मिल, जाका जस्स थुणंदा है। तेरी खिजमत्ति करे इकचित्त सं, तो सेवक धरणिंदा है। तें जलता आग निकाल्या नाग, किया बड़भाग सुरिंदा है। तो चरणां आय रखा लपटाय, कला अति केलि करंदा है॥२॥ इक दिन्न महारन्न वन पंचागनि, तापस ताप तपंदा है। १ उनम्यो २ ताढौ ३ घरहरिया ४ गरूर ५ तिलौ ६ सदा। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्री लिनहर्ष ग्रन्थावली निति निति वधतउ नेह, राखइ अससेण रावउत ॥३३॥ नयणां रउ ही नेह, सापुरुषां रउ सुख दीये । राखड़ नहीं मन रेह, उत्तम अससेण रावरत ॥३४॥ प्रीति से प्रीति प्रमाण, मिटे नहीं मोटां तणी। पड़ी राय पाखाण, अविचल अससेण रावउत ||३|| जंपे इम 'जसराज' वास वसावर आपणइ । मांगू छू महाराज, इतरउ अससेण रावउत ॥३६।। पार्श्वनाथ बारहमाल राग--मल्हार श्रावण पावस ऊलस्यो सखी, झिरमिर बरसे मेह रे। चमके वीज दसो दस सखी, दाझे विरही देह रे । साले नित निविड़ सनेह रे, सांभरीआ वाहाला तेह रे । अलगा परदेशी जेह रे, ते पणि आव्या निज गेह रे ॥१॥ इणि रिति मुझ पासजी सांभरे टेर।। भाद्रवो भरि' गाजीओ सखी, मांडी घटा घनघोर । वापीहड़ो पीउ पीउ करे सखी, मधुरा बोले मोर रे। दादुर निशि पाड़े सोर रे, खलक्या जल पावस जोर रे । गड़गड़े नदीआ चिहुं ओर रे, झड़ि लागो भागो रोर रे ।२।३० १ भल Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ श्री पार्श्वनाथ बारहमास आसो वरसे सरवड़े सखी, स्वाति नक्षत्र मझार रे। मोती सायर नीपजे सखी, मांधा मूल अपार रे । सखी चंद-किरण सुखकार रे, जनि' विरह जगावणहार रे । पोयण सर मांहिं हजार रे, फली निरमल जल सार रे ॥३॥इ० काती (ओ) छाती शीतली सखी, सुभक्ष अने सुगाल रे। परव दीवाली आवीउं सखी, घरि घरि दीपक माल रे । परघल पकवान रसाल* रे, हिलि-मलि खेले वर वाल रे । सोहग सुंदरि सुकमाल-रे, सहु माणे सुख रसाल रे ।४। इ० वासर लघुताइ पामीओ सखी, मागसर चमक्यो सीत । सुंदर पाणी सोयलां मखी, पावक साथइ प्रीत रे । आवे दक्षण आदीत रे, ताढिक व्यापी बहु रीत रे । मन काहल छोड़ी भीत रे, मलीया निज चोखे चित्तरे ।५। इ० पोस सरोस थयो घणो सखी, सीत पड़े ठंठार । पालो वाले पापीओ सखी, जाणे अङ्ग अङ्गार रे । न खमाये इक लगार रे, (नर) मंदिर निवात मझार रे । मिलि मिलि पोढे नर नारि र, इम सफल करे जमवार रे ।६।इ० माह महीनो आवीओ सखी, वाया ठाढा वाय । १ जिन २ बिहुँ मानै ३ सौ थइ ४ काउल छूटी नीत रे ५ नर मंदिर . वाय मझार रे * नेवज भरिया वहु थाल रे x शीतल Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 ३ । । - ३१० श्री जिनहर्प ग्रंथावली फल फूल आहारी दुद्धाधारी, अल्प आहार लियंदा है। सब भेद सन्यासी रहे उदासी, अविनासी ध्यावंदा है। दिसी च्यारां दीठी वलै अंगीठी, सूरज ताप तपंदा है ॥३॥ महिमा बद्धवारी सब नर नारी, जाक आय नमंदा है। ऐसी सण वत्तां धरिय उकत्तां, पुत्तां पास जिनंदा है। वामादे अक्खे कुणतो पक्खै, मेरा ईस पूरंदा है। तिहां चालो पुत्तां जिहां अवधत्तां, जोगारंभ जगदा है|४|| जननी मन आसा पूरण पासा, ऐरापति समंदा है। गल घुग्घरमाला जाण हेमाला, दंताला ओपंदा है । वर वीर घंटाला मद मतवाला, झोलाले झलकंदा है। पंचरंगी पक्खर सझी सक्खर, ढालां सुं ढलकंदा है ॥ ५ ॥ धतकारे धत्ता मत्ता अंकुस, मावत शीस दियंदाहै। __गंगा तट आये खड़े रहाए, प्रभु ज्ञानी अक्खंदा है। रे रे अभिमानी तप अज्ञानो, पावक जीव जलंदा है। तिहां फाड़ दुफाड दिखाले लकड़, वेड' फणधर नागंदा है ॥६॥ नवकार सुणाया सुर पद पाया, तापस जस घटदा है। तिण किया नियाणा तप खजाणा, कोडी सट्टे वेचिंदा है। हुय के क्रोधातुर आतुर सो, कमठासुर धर उपजंदा है । अश्वसेन सुतन महाराज विषयदुख, जाणत आप तजंदा है ॥७॥ पंचमुट्ठि लोच किया आलोच, मनसू सोच अफंदा है। १ नागण अर नागिंदाहै, २ निश्चल ध्यान धरंदा है। . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ घग्घर निसाणी प्रभु अप्रतिबंध विहार कियो तव, रन बनवास वसंदा है ।। उपशम अणगारे काउसग्ग मझारे, कमठासुर दाव लहंदा है। बड़ा असुराणा वली हेराणा, पिछाणति लोक धुखंदा है ॥८॥ करिआ' तस क्रोध विचार विरोध, महा अभिमान धरंदा है। चाउल मतवाली नीली काली, वायु महा वाजिंदा है। रवि किरणां कोट रही रजओट, दिवाकर तेज छिपंदा है। करि घोर घटा विकटा उमटी, अरू बीजू गाजंदा है ॥ ६ ॥ गरडाटा वाटां सुणिया घाटां, ऐरापति लाजंदा है। हुआ अकाला धुर वरसाला, वीजलियां खिवंदा है । मोटी धारा सुं आरांवासू, यों अंबु वरसंदा है। चल्ले जल खाला नदियां नालां, हेमाला हालंदा है ॥१०॥ दरियाव उलट्टां केतो फुट्टा, पाणी नहि मानंदा है। दिगपाल दहल्लां धरिय उत्थल्लां, खोणीपति खिसंदा है। वडा पाहाडां झंगी झाडां, सझांडां ढाहंदा है। समुदां हंदी रेल' वहंदी, जाणक जग रेलंदा है ॥ ११ ॥ बहु वासर बूट्टा जाण कि रूठा, जूठा मन असुरिंदा है । तेवीशम राया वन में पाया, काउसग कहा करंदा है। उवसग्गा हंदी कौल करंदी, पाछा नहिं मुडंदा है । घरि सन में ध्याना क्रोध न माना, निश्चल ध्यान धरॅदा है।॥१२॥ प्रभु नासां तांई नदी आई, तोहि नहीं खोभदां है। २ भरि, २ ऊंचासु, ३ वेल चलंदी। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्री जिनहर्य ग्रन्थावली देवाचल जेसा धीरपएसा, पावस पीड़ सहंदा है। तिण अवसर वरदां धरणीधरदां, आसण वेग चलंदा है। तिण अवधि प्रयुंजी दीठे प्रभुजी, तन मन अति उलसंदा है ।।१३।। तिहां पदमावता देवी आदि सकत्ती, हिल' मिल वेग वहंदा है। हुय के हेराना बैठ विमाना, पावां आय लगंदा है। फण नागहजारां कर विसतारां, छत्तर ज्यं छादा है। ले आपण खंधे प्रेम निबंधे, पूरव प्रीत सुखंदा है ॥१४॥ इन्द्राणी नारी सब सिणगारी, जोबन अंग झिलंदा है। राकापति वयणी मिरगानयणी, संदर रूप सोहंदा है। अणियाला कजल झलके विजल, खूब वणाव वणंदा है। नक वेसर नत्थां लाल सुकत्था, विच मोती झलकंदा है ॥१॥ ओढण पाटवर झीणी अंबर, आभूपण झलकंदा है। उर कञ्चु कसियां तन उल्लसियां, कामघटा चहरंदा है। पहिरण तन खूवां हरियां लूवां', सोलेही सोहंदा है। कटि मेखल कडियां सोने जड़ियां, विच हीरा झलकंदा है ॥१६॥ . घमके घुग्घरीयां पाए धरियाँ, पग नेर रणकंदा है। लेझांझर ताला ताल कंसाला, पखावज वाजंदा है। कुहकै करनालां वीच रसालां, जंगी ढोल धुरंदा है । वाजे सरणाई सखरी घाई, नगारा रोडंदा है ॥ १७ ॥ पउमा वैसट्टा आण उलट्टां, नाटिक मिल नाचंदा है। वैस विमान २ मोहंदा ३ दूबा । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री पार्श्वनाथ घग्घर निशाणी ३१३ तत्ता थेई थइ तत्ता भापंता डंडारसभेद रमंदा है ॥ . दिन-त्रिक वितीता तोही न वीता पावस जल पसरंदा है। धरणीपति जाण्या ज्ञान पिछाण्या कमठासुर कोपंदा है ॥१८॥ 'नागंदा पत्ती आंख्यां रत्ती कित्ती रीस भरंदा है। रे मूढा धिटा चित्त विणहा क्यु नाहीं समझंदा है ॥ साहिब बलवंता जोर अनंता तूं तो नहिं जाणंदा है । ए खिमा सागर* गुणके आगर तीनुं लोक नमंदा है ।१६॥ असमांन खमाए रीस भराए एह काइ वरजंदा है। कित्ती बहु गल्लां पड़े दहल्लां धड़हड़दे धूजंदा है ।। धरणेन्द्र डरायो तव ते आयो पावां वेग लगंदा है । कर जोड़ खमाया सीस नमाया जगनायक जिणचंदा है ।२०॥ तूं खाहिव सच्चा तो गुण रचा, मेरा दिल खुलंदा है। ते रीस न धरियां क्षिणही विरियां, तूं ही अचल गिरंदा है। कमठासुर कित्ती बहु विनत्ती, निज अपराध खमंदा है । सुरपति सिधाये निज घर आये, प्रभु के गुण समरंदा है ॥२१॥ सुध संजम पाले दोष निहाले, तब केवल उपजंदा है। सम्मेतशिखर पर चढ़के ऊपर, सिद्धपुरी पोहचंदा है। तेरी कीरत्ती जग ऊपती, पार न को पावंदा है। तूं सच्चारक्खे भेदपरक्खे, गुमानी मोडंदा है ॥ २२ ॥ तूं अंतरजामी तूं बहुनामी, सुरनर सेव करंदा है। तूं दिवाणा तूं' खूमाणा, तूं मोजी मकरंदा है। देवागिरि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्री जिनह प्रन्थावली तूं तू अल्ला पीर फकीर मुसाफिर, तूं जोगी तूं जिंदा है। काजीमुल्लां मरद अटल्ला, तू ही शेप फरीदा है ||२३|| उपाया धंदे लाया माया में मुलकंदा है । तबूढ़ा वाला मद मतवाला, तूं पक्का वाजंदा है। तूं कच्चा कवला सव सबला, सच्चा मझरहंदा है । बाबा गोसांई भेद न पाई, भीड़ पढ्यां आवंदा है || २४ ॥ नारायण जोगपरायण, माधव तू ही मुकंदा है । कवलाधारी तूं अवतारी, तूं देवादेवंदा है । तं एकाथप्पे एकउथप्पे, अति निज सुध थापंदा है । तो देवलमझां लोक तिसंझां, सीरणिया वाटंदा है ॥ २५ ॥ गुणगीत पयासे कीरत भासे, झीर्ण स्वर गावंदा है। कालागुरू अगरसुं मलयागर, धूपेड़ा धुखंदा है । कुंकुंम कस्तुरी केसरपूरी, चंदन सुं चरचंदा है । मरूआ मचकुंदा फूला हंदा, टोडर कंठ ठवंदा है ॥ २६ ॥ चंपागुलावां भरीय छावां, परमल तिहां वादा है | कसबोई चंगी रचीये अंगी, फूलां बीच फावंदा है । आभूषण धरियां तन ऊपरियां, कुंडल कान झिगंदा है। सूरत सोहंदी मूरत हंदी, दीठां नेण ठरंदा है ॥। २७ ॥ तेरी बलि जाउं मोजां पाउ, विनती तं हि सुणंदा है। क्या कत्थू गल्लां हुकम अदल्लां, समकित मन उलसंदा है। सिद्धांदावासा तिहारहासा, तुझ सेवक विलसंदा है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३ श्री महावीर जिनस्तवन ३१५ घग्घर निसांणी पास वखाणी, गुण जिनहर्ष कहंदा है ॥२८॥ इति श्री पार्श्वजिन घग्घर निसाणी सम्पूर्णा। श्री महावीर जिन स्तवनम् देसीतमाखू विनजारे की । त्रिभुवन रामा चौवीसम जिनचंद, म्हाने दिनमणिसरखा रे। साहित्र म्हारां सुख धणी रे, म्हारां राज ॥ त्रि० ॥ १॥ ध्यायक के तुम ध्येय, ज्ञान नयन सुं देख्या रे। साहिब मारा सुखकरू रे, म्हारां राज ॥ त्रि० ॥ २ ॥ दीठां आवे दाय, भव सागर तिरिया रे । साहिब मांरा सुखकरू रे, म्हारां राज ॥ त्रि० ॥३॥ समतानंत अनंत, संशय गुण सं टलिया रे । साहिब मांरा अघहरू रे, म्हारां राज ।। त्रि० ॥ ४ ॥ अभिनव ज्ञायक रूप, ज्ञान दिवाकर शोभे रे । साहिब मारा शम धणी रे, म्हारां राज ॥ त्रि० ॥ ५॥ लोकालोक विशाल, प्रसर निरन्तर राजे रे । साहिब मारा लंछन हरि रे, म्हारां राज || त्रि० ॥६॥ । सरागी सविकार देव सकल ने पेख्या रे। साहिब मारा रूप सुं रे, म्हारां राज ॥ त्रि० ॥७॥ ते नवि आवे दाय, जन्म पवित्र करि लेख्या रे। साहिव मारां जिन भूप सं रे म्हारां राज ॥ त्रि० ॥ ८॥ सेवा नो फल भाव, शुद्ध कर मुगति लेवे रे। साहिब मारा (जिन) हरख सदा रे म्हारां राज॥त्रि०॥६॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली श्री महावीर जिन स्तवन ढाल || कृपानाथ मुझ वीनती अवधारि || एहनी सुणि जिनवर चउवीसमा जी, सेवक नी अरदास । तुझ आगलि बालक परड़ रे, हुं तर करूं वेखास रे ||१|| जिनजी अपराधी नह रे तारि, ३१६ तर करुणा रसभर्यु जी, तुंउ सहनड़ हितकार रे || जि० ॥ हुँ अवगुण नउ ओरड़उ जी, गुण तउ नही लव लेस । परगुण देखी नवि सकुंजी, किम संसार तरेसि रे ।। २ मु० ॥ जीव तणा वध म कयीं जी, बोल्या मिरखावाद | कपट करी परधन हीं जी, सेव्या विषय सवाद रे || ३सु०जि० ॥ हुं लंपट हुं लालची जी, करम कियां केई कोड़ि । तीन सुवन मई को नही जी, जे आवइ मुझ जोड़ि रे || मु०४ जि० ॥ छिद्र पराया अंह निसइ जी, जोतउ रहुॅ जगनाथ | कुगति तणी- करणी करी जी, जोड्यउ तेहसं साथरे ।।। मु०५ जि०० कुमति कुटिल कदाग्रही जी, वांकी गति मति मुझ । बांकी करणी माहरी जी, सी संभलाउ तुझ रे || मु० ६ जि० ॥ पुन्य विना मुझ प्राणीयउ जी, जाणइ मेल आथि | ऊंचा तहअर मउरीया जी, तांह पसारइ हाथ रे ॥ मु०७जि० ॥ विणि खाथां विणि भोगव्यां जी, फोकट करम बधाय । आरति ध्यान टलड़ नही जी, कीजड़ कवण उपाय रे मु०८जि० ॥ काजल थी पिणि सामला जी, माहरा मन परिणाम । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर स्तवन ३१७ सुहणाही मई ताहरउ जी, संभारु नही नाम रे ।। १०६ जि० ॥ मुगध लोक ठगवा भणी जो, करूं अनेक प्रपंच । 'कूड़ कपट बहु केलवी जी, पाप तणउ करूंसंच रे ।।मु०१० जि०॥ मन चंचल वसि नवि रहइ जी, राचइ रमणी रूप । काम विटंबण सी कहुँ जी, पडिसं दुरगति कूपरे मु०११जि०॥ किसा कई गुण माहरा जी, किसा कहु अपवाद । जिम जिम संभारु हीयईजी, तिम वाधइ विषवाद रे।।मु०१२जि।। गुरुआ ते सवि लेखवइ जी, निगुण साहिव नी छोति । नीच तणइ पिणि मंदिरइरे, चंद न टालइ जोति रे।।मु०१३जि०॥ निगुणउ पिणि ताहरउ जी, नाम धराउंदास । कृपा करी मुझ ऊपरइजी, पूरउ मन नी आस रे।।मु०१४जि०॥ पापी जाणी मुझभणी जी, मत मुंकउ रे निरास । विप हलाहल आदयों जी, ईश्वर न तजइ तासरे।।मु०१५जि० ॥ उत्तम गुणकारी हुवइ जी, स्वास्थ बिना रे सुजाण । करसण सींचइ मर भरइ जी, मेह न मांगइ दाण रे।।मु०१६जि०॥ तुं उपगारी गुण निलउ जी, तु सेवक प्रतिपाल । तुं समरथ सुख पूरिवा जी, करि माहारी संभालि रे।मु०१७जि०॥ तुझनइ स्युं कहियइ घणुं जी, तूं सहु वाते जाण । मुझनइ थाज्यो साहिबाजी, भव भव ताहरीआण रे।।मु०१८जि०॥ सिद्धारथ नृप कुल तिलउ जी, त्रिसला राणी नंद । कहइ जिनहरख निवाजिज्यो जी, देज्यो परमानंद रे।मु०१६जि। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्री तिनहर्ष ग्रन्थावली श्री चतुर्विशति जिन स्तवनं दान | तीरथ ते नमुरे ॥ पहनी रिखम अजित अभिवंदीयह, चिर नंदीयह रे। संभव सुख दातार, जिन चउवीसे नमुं रे ॥१॥ अभिनंदन जिन पूजीयइ, नवि धूजीयह रे । सुमति पदमप्रभु पाइ | जि ॥ २ ॥ श्रीसुपास चंदप्रभ सदा, प्रणमुं मुदा रे। नवम सुविधि जिणंद ॥ ३ जि ।। सीतल सीतल लोचन, भव मोचन रे ।। श्रेयंस श्री वासुपूजि ॥ ४ जि ।। विमल अनंत सुख दीजीयह, जस लीजिये रे।। सेवक राजि निवाजि ॥ ५ जि ॥ धर्म शांति जिन सोलमउ, कंथ नित नमउ रे। अर अरिहंत महंत ॥ जि ६ ॥ मल्लि मुनिसुव्रत वीसमउ, एकवीसमउ रे । नमि नमि त्रिकरण सुद्धि | जि ७ ॥ श्री नेमिश्वर पासजी, दुरमती तजी रे। वीर नमु चित लाइ ॥ जि ८ ॥ चउवीसे जिन गाईयइ, सुख पाईयइ रे । रिद्धि सिद्धि नव निद्धि ॥ जि ६ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चतुर्विंशति जिन बोधक नमस्कार ३१६ चउवीसे सिवगामीया, मइ पामीया रे। , तारण तरण तरंड ॥ जि १० ॥ प्रात समय संभारीयइ, दुख वारीयइ रे।। कहइ जिनहरख जिणंद ।। जि ११ । । । चतुर्विशति जिन बोधक नमस्कारः श्री नाभेय नमुं सदा, सिवरमणी भरतार । प्रणमंतां पातक टलइ, नाम थकी निस्तार ॥१॥ अजित अजित कंदर्प जित, कंचण वरण शरीर । जितशत्रु विजया कुलतिलउ, गुण सायर गंभीर ॥२॥ मुगति महल पाम्यउ सहल, वंछित फल दातार । ध्यान धरी निति ध्याईये, संभव जिन सुखकार ॥३॥ अभिनंदन चंदन सरस, सीतल जास वचन्न। . सांभलतां सुख ऊपजे, टाटक व्यापइ तन्न ॥४॥ सुमति सुमति दायक सदा, टाले कुमति कलेस । दुख्यहरण कंचणवरण, कीरति देस विदेस ॥ ५ ॥ पाप गमण विद्रुम वरण, भवजल निधि बोहित्थ । पद्मप्रभ पद प्रणमतां, थाये भव सुकयस्थ ॥ ६ ॥ तारउ सेवक करि कृपा, सत्तम सामि सुपास । भव भावठि भाजउ हिवइ, आपउ सिवपुर वास ॥ ७ ॥ जेहबउ आसू पूनिमइ, सिसिहर निर्मल हाइ। . . . . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री जिनहर्ष प्रधावली चंद्रप्रभ तउ तेहवउ, दोप न दीसइ कोइ ॥ ८॥ विधि सं वंदु सुविधिजिन, दीपइ कंचण काय । पिता सुग्रीव नरेसरु, रामा माय- कहाय ।। ६ ।। थायइ हीयडउ देखतां, सीतल सीतलनाथ । तपति मिटइ भव भव तणी, मुगतिपुरी नर साथ ॥१०॥ उपगारी इग्यारमउ, सुखकर श्री श्रयंस । कनक वरण तारण तरण, मुगति सरोवर हंस ॥ ११ ॥ वासुपूज्य वसुपूनि सुत, जणिणि जया सुनंद । चरणकमल सेवा थकी, लहीये परमाणंद ॥ १२ ॥ विमल विमल मति ध्याइयइ, पातक दूरि पुलाइ । जिम आदीत उदय थया, रयणि तिमिर मिट जाइ ॥१३॥ निज तन मन निर्मल करी, नमीये स्वामि अनंत । मन वंछित फल पामीये, लहीये सुख्य अनंत ॥ १४ ॥ धर्म धुरंधर धर्म जिन, भानु नरिंद मल्हार । चित चरणे जउ राखीयो, तउ तरीये संसार ।। १५ ।। शांतिकरण श्रीशांति जिन, विश्वसेन अचिरानंद । कंचण काया सोलमउ, तोडइ भवना फंद ॥ १६ ॥ कुंथु जिणेसर जगतपति, जगनायक जिनचंद । . जगतारण जग उद्धरण, जगगुरु जगदानंद ॥१७॥ श्री अरिहंत अढारमउ, अरिगंजण अरनाथ । चरण कमल रज सिर धरी, थइये परम सनाथ ॥ १८ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवीस जिन स्तवन मल्लि जिणेसर मुझ मिल्यउ, रहिसु हिवड़ पगसाहि । साहिवनी सेवाथकी, भमुं नही भव मांहि ॥ १६ ॥ मुनिसुव्रत जिन वीसमउ, वीसामा नी ठाम । करइ प्रसंस ॥ २२ ॥ सुख (ल) हीयड़ दहीयड़ करम, करीयड़ जउ गुम ग्राम ॥ २० ॥ परम प्रमोदे पूजीयो, नमि जिनवर चित लाय | सकल पदारथ पामीये, भव भवना दुख जाय ॥ २१ ॥ श्री नेमिसर निति नमुं यादव कुल अवतंस | धन-धन नीरागी पुरुष, जग सहु अश्वसेन वामा सु तन, नील वरण जित मार | सुरपति कीथउ नागनs, संभलावी नवकार ॥ २३ ॥ चरम जिणेसर चरण जुग, नमीये धरी उलास । कीरति कमला पामीये, अविचल लील विलास ॥ २४ ॥ भाव भगति सुं वंदिये, चवीसे जिन चंद | लहtes हेलड़ मुगति पद कहे जिनहरष मुणिंद ।। २५ ।। चउवीस जिन स्तवनं ढाल || वीर जिणेसर नी ॥ प्रथम जिणेसर रिखभनाथ गणधर चउरासी । सहस चउरासी साधु नमुं छेदह जम बीजउ अजित जिणंद चंद गणधर मुनिवर गुण निधि प्रभु तणा ए लाख है पासी ॥ पंचाणु । वखाणुं ॥ १ ॥ ' ३२१ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३२२ श्री जिनहर्प ग्रन्थावली जीजउ संभव गणधरु ए एकसउ बीडोत्तर । लाख दोइ मुनि पाय नमुं सम दम संयमधर ।। सउ सोलोतर गणधरा ए अभिनंदन केरा। तीन लाख रिपिवर नमुं ए टालइ भव फेरा ॥ २ ॥ सुमति जिणेसर पांचमउ ए एकसउ गणधार । तीन लाख बलि ऊपरई ए मुनि वीस हजार ।। पदमप्रमना गणधरा ए एक सउ नइ सात। । त्रिण लाखनइ त्रीस सहस मुनिवर विख्यात ॥३॥ स्वामि सुपास नमुं सदा ए पंचाणुं गणधार । त्रिम लाख अति रूअडा ए गुणवंता मुनिवर ।। चंद्रप्रभ जिन आठमउ ए व्याणं गणनायक । लाख अढाई गाई ए प्रभुना मुनि लायक ॥४॥ सुविधिनाथ नवमउ न ए गणधर अध्यासी। संयम धारी' दोइ लाख सुर शिवपुरवासी ॥ दसमउ शीतल सुखकर ए गणधर एक्यासी। लाख एक सुविवेक सहारिपिवर सुविलासी ॥ ५ ॥ इग्यारम श्रयांस तणा गणधर वायत्तरि । लाख चउरासी साधु नमुं मन वच क्रम सुध करि । वासुपूज्य वसुपूज्य तणउ छासठि गणधारी । सहस बहुत्तरि प्रभु निग्रंथ प्राणी उपगारी ॥६॥ विमल जिणसर तेरमउ ए गणधर सत्तावन । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चठवीस जिन स्तवन ३२३ अडसवि सहस यती नमुंए करि थिरनिज तनमन ॥ नाथ अनंत नमंत सहु गणधर पंचास । छासठि सहस महाव्रती ए पूरवइ मन आस ॥ ७॥ धरम जिणेसर पनरमउए इतालिस गणधर । चउसठि सहस यतीवरा ए समता गुण सागर ॥ शांति शांतिकर सोलमउ ए गणपति छत्रीस । प्रणमं छासठि सहस साधु मनधरीय जगीस ॥ ८॥ कुंथु जिणेसर स्वामि तणा गणधर पणतीस । साठि सहस मुनिवर नम ए चरणे निसि दीस ॥ अटारम अरनाथ तणा तेत्रीस गणाधिप । सहस पंचास महाव्रती ए प्रणमइ सुर नर नृप ॥६॥ गणधर अठावीस कह्या मल्लिनाथ तणा सहु । सहस चालीस साध जास महीयल महिमा बहु ॥ मुनिसुव्रत जिन वीसमउ ए गणधर अट्ठार । त्रीस सहस मुनि गाईयइ ए शिव सुख दातार ॥ १० ॥ एकवीसम नमिनाथ साथ सत्तर गणधार । वीर सहस संयम धरा ए पट काय आधार ॥ इग्यारह गणनाथ कह्या नेमीसर केरा। सहस अठारह साध नमुं निति ऊठि सवेरा ॥ ११ ॥ त्रेवीसम प्रभु पासनाह गणधर दस कहीया । सोलह सहस मुनि सांभलिए मनमईगह गहीया।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जिनहर्ष ग्रन्थावली चरम नाह महावीर तणा नव* सुभ गणधार । संयमधर सिर सेहरा ए मुनी चउदहजार ॥ १२ ॥ आवशक दाखव्या ए जिन मुनि गणधार । प्रह ऊठि निति गाईयइ ए करी भगति अपार ॥ लहीयइ सुर नर मुगति तणा अनुपम सुखसार । कहइ जिनहरख सदा हुवइ ए धरि धरि जय जय कार ॥ १३ ॥ चउबीस जिन बीस विहरमान च्यारि सास्वत जिन नाम स्तवनं ___ ढाल || चउपईनी॥ रिखभनाथ सीमंधर स्वामि, पाप पणासइ जेहनइ नामि । अजितनाथ युगमंधर देव, सुरपति नरपति सारइ सेव ॥ १ ॥ जीजउ संभव बाहु जिनंद, प्रणम्यां लहीयइ परमाणंद । श्री सुबाहु अभिणंदन नमुं, भव भव केरा फेरा गमुं ॥ २ ॥ पंचम जिनवर सुमति सुजात, हीयडामांहि वसइ दिन राति । छठउ पदमप्रभु जिनराय, श्री स्वयंप्रभ प्रणमुं पाय ॥ ३ ॥ श्रीसुपास पूरइ मन आश, रिखमानन तारइ निज दास । चंद्रप्रभ जिनवर आठमउ, अनंतवीर्य भवीयण निति नमउ ॥४॥ सूरप्रभ श्रीसुविधि जिणेस, जपतां भागइ सयल कलेश । दसमउ सीतलनाथ विशाल, चरण न मुंक हुँ चिरकाल ॥ ५ ॥ इग्यारम वज्रधर श्रेयंस, जग सगलउ जसु करइ प्रसंस। चंद्रानन बारम वासुपूजि, चउसठि इंद्र करइ निति पूज ॥६॥ ग्यारह - - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चवीस जिन वीस विहरमान च्यारि सास्वत ३२५ । रमउ ||८|| सेन | | चंद्रबाहु श्री विमल जिनंद, सेवंता प्रभु सुरतरु कंद । स्वामि भुजंगम नाथ अनंत, तूठा आपड़ सुक्ख अनंत ॥ ७ ॥ धर्मनाथ ईश्वर जगदीस, भाव भगति सुं नामुं सीस । सोलम शांति नेमि प्रभु नमउ,, हेलई मुगति रमणि सुं कुंथुनाथ नमीयइ वीरसेन, सकल कर्मनी हणीय महाभद्र अर अढारमउ, नमउ जिम भव नवि भमउ || ६ || देवयशा नमीयइ मल्लिनाथ, मुगतिपुरीनउ एहीज साथ । अजितविर्य मुनिसुव्रत पामि, हीयड़ह धरिस्यं त्रिभुवन स्वामि १० रिभानन जिनवर नमिनाथ, एहीज माहरइ अविचल आथि || नेमि बावीसम श्रीवर्द्धमान, सेवक नइ आपड़ निज थान ॥ ११॥ चंद्रानन वीसम पास, आराध्यां पूरइ मन आस -1 वारिपेण वंदु महावीर, धीरम मेरु जलधि गभीर ॥ १२ ॥ ए चउवीस वीस जिनराय, च्यारि मिल्यां अठतालीस थाय ।' ध्याव जे मन धरिय उलास, कहड़ जिनहरख सफल भव तास १३ ॥ चौवीस जिन स्तवन ढाल || चउपनी ॥ पहिलउ प्रणमुं आदि जिणंद, वीजउ अजितनाथ जिणचंद | त्रीजउ जिनवर संभवनाथ, अभिनंदन चउथउ नाथ ॥ १ ॥ सुमतिनाथ प्रणमुं पाँचमउ, पदमप्रभ छठउ निति नमउ | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्री जिनहर्ष ग्रंथावली श्री सुपास जिनवर सातमउ, चंद्रप्रभ नमीयइ आठमउ ।।२।। सुविधिनाथ नवमउ जिनराय, दसमुउ शीतलनाथ कहाय । श्री श्रेयांस जिन इग्यारमउ, श्री श्री वासुपूजि बारमउ ॥३॥ विमलनाथ नमीयइ तेरमउ, अनंतनाथ कहीयह चउदमउ । धर्मनाथ पूजु पनरमउ, शांतिनाथ समरूं सोलमउ ॥ ४॥ कुंथुनाथ कहियइ सतरमु, श्री अर जिनवर अढ़ारमउ । मल्लि जिणेसर उगणीसमउ, मुनिसुव्रत महीयइ चीसमउ ॥५॥ श्रीनमि नमियइ इकवीसमउ, श्री नेमीसर बावीसमउ । पार्श्वनाथ कहि त्रेविसमउ, महावीर वलि चउवीसमउ ॥६॥ ए चउबीसे जिनवर नाम, ग्रह ऊठी निति कर प्रणाम । हेलइ जायइ भवना पाप, सहु जिनहरख टलइ संताप ॥ ७ ॥ श्री चउवीस जिन स्तवनं ढाल || जटणीना गीतनी ॥ चउवासे जिनवरना पायनम, पाम भवसायर नउ पार । मोटांनइ नामइ वंछित मिलइ, लहीयइ मुगति तणासुख सार॥१॥ नयरी अयोद्धा रिखम जिणेसरु, नाभिपिता मरुदेवा माय । लंछण वृपभ सुरूप सुहामणउ, अहनिसि सेवे प्रभुना पाय ॥२०॥ अजित अयोद्धा नयरी नउ धणी, जितशत्रु विजया राणी नंद । ___ गज लंछण कंचण तनु दीपतउ, नयणे दीठां परमाणंद॥३च।। त्रीजउ श्री संभवजिन गाईयइ, सावत्थी नयरी अवतार। सेनाराणी मायलंछण तुरी, बंश जितारि तणउ शृंगार ॥४च०॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ चौवीस जिन स्तवन श्री अभिनंदन चंदन सरिखड, नगरी विनीता संवर तात । माय सिधारथा उअरई ऊपना, वानर लंछण जगविख्यात ॥श्च०॥ सुमति सुमतिदायक जिन पॉचमउ, नयरी विनीताकेरउ राय। मेघपिता मायडी जसु मांगला, लंछण कोंच रह्यउ प्रभुपाय॥६च०। माय सुसीमा धरनृपकुलतिलउ, पदमप्रभ कोशंबी जात । कमल विमल लंछण रलियामण, हीयडइधरीयइ प्रभुदिनराति ७च। स्वामि सुपास जिणेसर सातमउ, पृथिवीनंदन तात प्रतिष्ठ । स्वतिक लंछण कंचण देहडी, नगरी वणारिसीराय विशिष्ठ ।८च। चन्द्रपुरी चंद्रप्रभ आठमउ, महसेन लखणा नउ अंगजात । लंछण चंद्रकला संपूरीयउ, चरण कमल पूजीजइ प्रात ।।६च०॥ रामाय सुग्रीव सुतनु नमु, नवमउ सुविधि जिणेसर देव । काकंदी नयरी प्रभु जनमीया, लंछणमगर करइ पाय सेव ।।१०च।। दसमउ सीतलनाथ नमुंसदा, दृढ़रथ नंदा उयरइ हंस । जनम नगर भद्दलपुर जाणिये, श्रीवच्छ लंछण कुलअवतंस ॥११॥ विष्णु पिता विष्णुश्री मायडी, इग्यारमउ जिन श्रीश्रेयांस । सीहपुरी नयरी रलीयामणी, पडगी लंछण करइ प्रसंस ॥१२च।। श्री वसुपूज्य पिता वासुपूज्यनउ, जणणी जया कहीजइजास। चंपानयरी नउ प्रभु राजीयउ, लंछण महिप मनोहर तास ॥१३च॥ चिमल जिणेसर नमइ तेरमउ, कृतवर्म श्यामाराणी माय । लंछण जास वराह विराजतु, कांपिलपुर केरु राय ॥१४॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री freei Fatवली दाल कपूर हुन प्रतिनी अनंतनाथ जिन चउदमारे, सिंहस्थ सुयशा माय । पुरी विनीता नउ वणी रे, सीचाणउ प्रभु पाय रे || १५ || भविका सेवर जिन चवीस | ३२८ चवीसे शिवगामीया रे । जगनायक जगदीगरे । भ० न भानु महीपति सुत्रता रे, जणणी धर्म जिणंद | रत्नपुरीनउ राजीयउ रे, वज्र लंडण गुण बंदरे ॥ १६० ॥ अचिरा राणी जनमीयउ रे, विश्वसेन गय मल्हार । हथिणाउर संतीमरुरे, मृग लंटण सुखकार रे ॥ १७ ॥ श्री राणी क्रूर रायनउ रे, सतरम् श्री कुंथुनाथ । गजपुर प्रभुता भोगवह रे, लछण बाग सनाथ रे || १८ || देवीसुदर्शन कुलतिलउ रे, अर जिन प्रण पाच । नगर नागपुर जनमीयउ रे, नंद्यावर्त्त कहाय नंद्यावर्त्त कहाय रे ॥ १६५ ॥ मिथिला मल्लि जिणेसरु रे, कुम प्रभावती पुत्र 1 लंछण कलश सुहामणउ रे, त्रिभुवन राख सूत्र रे ॥ २० ॥ श्री मुनिसुव्रत वीसमउ रे, पद्मावती सुमित्र । राजगृहनउ राजची रे, लंडण कूर्म पवित्र रे ॥ २१ ॥ श्री नमि मिथिला राजीयड रे, वा विजय सुतन्न | चिह्न नीलोत्पल जेहन रे, लगी रहाउ सुझमन्न रे ॥ २२४ ॥ समुद्रविजय शिवा मायडी रे, सोरीपुर उत्पन्न | लंछण संख विराजीवउ रे, नेमीसर धन धन्न रे ॥ २३५ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ चौवीस जिन स्तवन जनम पुरी वाणारिसी रे, अश्वसेन वामा जात । लंछण नाग सेवा करइ रे, पास जिणंद विख्यात रे ॥२४भ।। क्षत्रीकुंडइ जनमीया रे, चउवीसमा महावीर । सिद्धारथ त्रिशला तणउ रे, लंछण सीह सधीर रे ॥२५भ।। सुविधि चंद्रप्रभु ऊजला रे, पद्म वासुपूज्य रक्त । कृष्ण नेमि मुनि नीलडा रे, मल्लि पास सुरभक्त रे ॥२६॥ सोलस कंचण सारिखा रे, ए चउवीस जिणंद । पूर्जतां पातक टलइ रे, सेव्या सुरतरु कंद रे ॥ २७ ॥ सिद्धिपुरी ना राजीया रे, मोहन महिमावंत । · सेवा देख्यो तुम तणी रे, इम जिनहरख कहंत रे ॥ २८ ॥ चौवीस जिन स्तुति राग-ललित जप रे तुं चौवीसे जिनराया। रिसभ अजित संभव अभिनंदन, सुमत पदमप्रभु पाया ॥ १ ॥ श्री सुपास चंदप्रभु सामो, सुविध शीतल सुखदाया। श्रेयांस वासुपूज जिननायक, विमल कनक दल काया ॥२॥ (स्वाम) अनंत धर्म सांत कुन्थ कहि, अरि मल्लिनाथ कहाया। मुनसुव्रत नमि नेम पार्थ प्रभु, श्री महावीर सुहाया ॥३॥ सुरनर मुणि जन रहत अहोनिस, चरण कमल लपटाया। भाव भगत जिनहरख हरख सू, चोवीसे जिन गाया ॥४॥ इति चौवीस जिन स्तुति Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली श्री चौवीस जिन स्तवन ढाल - गौड़ी पहिलो आदि जिगंद, सुरिंद नमें जसु पाय । नाभि पिता मरुदेवी, मात विख्यात कहाय । अजित अजित जिणराज, विराजत मुगुण सुजाण । जितसत्रु विजया देवी, सुसेवित राणो रांण ॥ १ ॥ संभवनाथ सनाथ, सुरासुर सारे सेव । राइ जितारि सुसेनां, जननी जासु कहेव । अभिनन्दन ससि चंदन, सीतल निरमल काय । संवर तात कहात, सिधारथ राणी माय ॥ २ ॥ सुमति सुमति दातार, जगत आधार अजीत | मेघ महीधर दीपति, मंगला मात चढ़ीत | पद्मप्रभु छडो जन, तारक वारक दुक्ख । घर धरणीथव सधव, सुसीमां सतीयां मुख्य ॥ ३ ॥ सत्तम श्रीय सुपास, तात प्रतिष्ठित सारी । चन्दप्रभु महसेण, लखमणा जस सुखकारी ॥ ४ ॥ सुविध जिनंद सुग्रीव, रामा मात चखाणी । सीतल दृढरथ तात, नंदा सीयल सयाणी ॥ ५ ॥ श्रेयांस विसन नरिन्द, माता विष्णु कहीरी । वासपूज्य वसपूज्य, जननी जया सहीरी ॥ ६ ॥ ३३० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चौवीस जिन स्तवन दाल झवखारी विमल विमल मति गाइये, कृतवर्म स्यामामात । जिणेसर वंदीये अनंत अनंत महिमा धरूं, सिंहसेन सुजसा विख्यात ॥७॥ धरमनाथ जिन पनरमो, भानु सुवरता जाणि । शांतिनाथ जिन सोलमो, विश्वसेन अचिरा वखाणि ॥८॥ कुंथुनाथ जिन सतरमो, सूर पिता श्री माय । अठारम अरि गाइय, देवी सुदर्शन लाय ॥६॥ ___ ढाल चूनड़ी री मल्लीनाथ उगणीसमो, नृप कुंभ प्रभावती दाख रे। मुनिसुव्रत सांमी सेवीय, श्री सुमित्र सुपदमा भाख रे ॥१०॥ जिन चौबीसै भवियण नमो, निज मन-वच-क्रम थिर राख रे । नमि इकवीसमो निरखीयो, राय विजय वप्रा नितमेव रे । बावीसमो नेम जादवधणी, श्रीसमुद्रविजय शिवादेवि रे ॥११॥ पुरसादाणी पासजी, अश्वसेण वामा सुवदीत रे । महावीर सिद्धारथ कुलतिलौ, त्रिसला जग उत्तम रीत रे॥१२॥ कलस इय सकल जिनवर सुजस सुखकर, नमत सुर नर मुनिवरौ, दुख हरण तिहुअण सयण रंजण, आस पूरण सुरतरो । श्रीसोम गणिवर सीस आखे, सुजस विसवा वीसए जिनहरख भव जल तरण तारण, तरी जिन चोवीस ए।१३।। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्री जिनहर्प ग्रन्थावली श्री सीमंधर जिन स्तवन श्रीसीमंधर साहिबा, वीनतड़ी अवधार लाल रे। परम पुरुष परमेसरू, आतम परम आधार लाल रे ।। श्री १ ॥ केवलग्यान दिवाकरू, भांगे सादि अनंत लाल रे। भासक लोकालोक को, ग्यायक गेय अनंत लाल रे ॥श्री २ ॥ इन्द्र चन्द्र चक्कीसरु, सुर नर रहे कर जोड़ लाल रे । पद पंकज सेवे सदा, अणटुंते इक कोड़ लाल रे ।। श्री ३ ॥ चरण कमल पिंजर बसे, मुझ मन हंस नितमेव लाल रे। चरण सरण मोहि आसरो, भव भव देवाविदेव लाल रे।श्रीष्ठा अधम उधारण छो तुसे, दूर हरो भव दुःख लाल रे। कहे जिनहरप मया करी, देख्यो अविचल सुक्ख लाल रे|श्रीशा अथ सीमंधर जिन स्तवन पूर्व विदेह पुखलावती, जयो जगपती रे । श्री सीमंधरस्वामी, प्रहसम नित नमुं रे ॥१॥ जगत्रय भाव प्रकाशता, भवि प्रतिबोधता रे । उपगारी अरिहंत, प्रहसम नित नम रे ॥ २ ॥ धन्य नयरो धन्य ते नरा, धन्य ते धरा रे।। विचरै जिहां जिनराज, प्रहसम नित नम रे ॥ ३ ॥ धन्य दिवस धन्य ते घड़ी, देखK आंखड़ी रे। भक्त बच्छल भगवंत, प्रहसम नित नमुं रे ॥ ४ ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीमधर जिन स्तवन महर निजर अवधारजो, पतित उधारजो रे । जिनहरख घणें सस्नेह, ग्रहसम नित नमुं रे || ५ || श्री सीमंधर जिन स्तवन ३३३ चादलिया की 1 चान्दलिया सन्देसो जिनवर ने कहे रे, इतरो काम करे अविसार रे । वारे परखदा जिनवर ओलगेरे, श्री सीमन्धर जग आधार रे |१| सोनवर्ण शरीर सोहामणोरे, मोहन मूर्ति महिमावन्त रे । जग में सुजस घणो सहुको जपैरे, भेटिस ते दिन धन्य भगवन्त रे ||२|| साहिब दुःख अनन्ता में मारे, हूं भमियो गमियो छु भवआल रे । शरणे राखेजे निज सेवकारे, तो विन कोइ न दीनदयाल रे || ३ || इतरा दिवस लग भूले थकेरे, सेव्या तो होसी सुर के एक रे । ते अपराध खमीजो माहरो रे, मोटा तो बगसे खन अनेक रे || ४ || हिवे इकतारी कीधी एहवी रे, तो विण अवरां नमवा संसरे । सुरतरू फल छोडी ने तूसने रे, खावानी केम आवे हूंस रे || ५ || हियड़ तो नेह घणो हेजालवो रे, जावे आवे करिया प्रीत रे । सम विषमी पण न गणें वाटड़ी रे, नवल सनेही नवली रीत रे ||६|| मनड़ो चंचल मुझ तनु आलसी रे, कर्म कठिन सवली अन्तराय रे । पाप कीया केई भव पाछला रे, मन मेलं किम मेलो थाय रे ||७|| चालेसर सांभले मुझ विनती रे, म्हारे तुं तुहिज साजन सैणरे । हियड़ा भीतर तं वासो वसै रे, ध्यान धरू समरू दिन रैण रे ||८|| कोई कहने मन मां वसे रे, कोई केहने जीवन प्राण रे । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प ग्रन्थावली म्हारे तो वो विन को नहीं रे, जिनजी भावे जाण म जाण ।।६।। नयण निरखिस मूरति ताहरी रे, ते दिन सफल गणीस महाराज रे। सैंमुख कर प्रभु मुख बातड़ी रे, छोडी पर निज मनची लाज रे।१० देव न दीधी मुझ ने पांखड़ी रे, उडी मिल जिणजी तुझ आयरे। मन रा मनोरथ मन मां रह्या रे, किण आगल कहुं चितलाय रे ॥११॥ तारे तो मुझ पाखे ही सरे, पण म्हारेतो तुझ विन नहीं सरंत रे । जलधर सारे मोरा बाहिरा रे, मेह विना किम मोर रहत रे ॥१२॥ चॉदो गगन सरोवर पाहुणो रे, दूर थकी पिण करे विकाश रे। जे जिहां के मन में वसैरे, तेह सदाई तेने पास रे ।।१३।। दूर थकी जाणेजो वन्दना रे, म्हारी प्रह उगमते सूर रे। महिर करी ने सेवक उपर रे, मुझ ने राखो राज हजर रे ॥१४॥ केइक प्रपंच' हो साहिब सं करे रे, करतां न आवे मन में काण रे। श्रीसीमन्धर तुम जानो सही रे, श्रीसोमगणि जिनहर्प सुजाण रे। १५ श्री सीमंधर स्वामि स्तवन ढाल | माखीनी ॥ श्री सीमंधर सांभलउ, सेवकनी अरदास । जिणंद जी महिर धरी मुझ ऊपरई, राखउ आपणइ पास । जि० १ श्री०॥ तुम संगति थी पामीयइ, उत्तम गुण जिनराय ।जि०। चंदन संगति तरु रहइ, ते पिणि चंदण थाय | जि० २ श्री ॥ १ पड़वन Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिमंधर स्वामि स्तवन उपगारी भारी खमा, तेहनै सहुनी इ लाज । जि० । विरुयां ही विरचइ नही, जेम कनक वृखराजि ॥ जि०३श्री॥ निगुणउ साहिब जेहनउ, तास न पूगइ आस । जि० । तुझ सरिखा जेहनइ धणी, ते किम फिरइ निरास । जि०४श्री॥ तुं साहिब सिर माहरइ, पाप मतंगज गाह । जि० । हिवे सुपनइ ही नवि धरूं, हुँ केहनी परवाह ॥ जि० ५ श्री ॥ कुंथु जिणंद अर आंतरह, जनम्या जगदाधार । जि० । मुनिसुव्रत नमि आंतरइ, लीधउ संयम भार ॥ जि०६श्री ॥ उदय देव पेढाल नइ, अंतर शिवपुर वास । जि०। पूरव लाख चउरासी नउ, आउखउ सुविलास । जि०७श्री ॥ सत्यकी माता जनमीयउ, श्रेयांसराय मल्हार । जि० । कंचण काया झिगमिगइ, परण्या रुकमणि नारि ॥जि०८श्री॥ आडा गर वन घणा, विच नदियां भर पूर । जि० । दरीयउ पिणि भरीयं जलई, आउं केम हिजूर । जि०६श्री ॥ पूरि मनोरथ माहरा, जग नायक जिनराज । जि० । स्युं जायइ छइ तुम तणउ, देतां शिवपुर राज । जि०१०श्री। विरुद गरीब नीवाज नउ, तुं जिनहरख विचारि जि० अवर न मागुं हुं किसें, आवागमण निवारि ॥ जि०११श्री ॥ श्री सीमंधर स्वामि स्तवन ढाल | वीर वखाणी राणी चेलणा जी॥ एहनी सामि सीमंधर मोरइ मन वस्यउ जी, सुंदर सुगुण सुजाण । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ श्री जिनहर्ष ग्रन्यावली अंतरजामी अंतर नहह जी, त्रिभुवन भासतर भाण ॥१सा|| कनक सतेज कमवट कस्यड जी, नेहबउ वरण शरीर । लावतां पाप भव भव तणा जी. जाइ जिम थल थी नीर ।।२सा! धन्य ने नयण चकांग्डाजी, पेखीयह प्रभु मुख चंद। जनम मफल निज की यह नी, रोपीयह पुण्यतन कंद ॥सा|| स्वामि गुण वागुरा विम्तरी जी, भविक मन मृग पड़इ पास जनम मग्ण तुणा पास थी जी, नीमरइ ताहरा दास ॥४सा।। समवमग्ण मध्य वहमिनह जी, मालपकौसक राग । दसणा मधुर सुर उपदिसइ जी, जे मुणइ तेहनउ भाग ॥५सा।। दुःख सहुँ च्यारि गति मां भम जी, सेवत काज अकाज । जाइज्यो रिदय विचारी नइ जी, ते प्रभु केहनइ लाज ||सा।। माहिब लाभ न कीयउ तदा जी, सह भणी आपतां दान | नाथ अनाथ तुमचह नथी जी, घउ मुझ निर्मल ज्ञान {१७सा।। कारिमा मुख तणइ कारणइ जी, राचि रह्या मन मृढ । ताहरी भगति नवि आदरइ जी, पड़या अग्यान नी रूढ ।।८साा पांचमह काल इणि भरतमा जी, नवि मिलइ केवली कोइ । म्वामी तुम्हें पिणि वेगला जी, किम मन धीरज होइ ॥६सा।। " मन तणी बात किणिनह कहुं जी, तेहवउ को नही जाण । जिणि तिणि आगलि दाखतांजी, लोक हासी घरि हाणि ॥१०॥ भव भव मांहि भमंता थकां जी, कीधला करम कठोर । दाखवं स्या तुम्ह आगलइ जी, पग पग ताहरउ चोर ॥११सा॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीमंधर स्तवन ३३७ , निरगुण तउ पिणि ताहरउ जी, मेल्हिज्यो मतां वीसारि । अवर आधार मुझ को नथी जी, ताहरउ एक आधार ॥१२सा॥ स्वामि थोडइ घणउ मानिज्यो जी, चरण कमल तणी सेव । कहइ जिनहरख मुझ आपिज्यो जी, वीनती करूं नितिमेव ॥१३॥ श्री सीमंधर स्तवन ढाल || ऊलालानी ॥ आज मनोरथ फलिया, सुपनइ साहब मिलिया। भाग्य सयोगह ए दीठा, भव भवना दुख नीठा ॥१॥ पाप गया सहू दूरइ, जिम कसमल नही पूरइ। पुन्य दशा हिवइ जागी, प्रभुजी सुं लय लागी ॥२॥ नीरंजन निरमोही, निर्मल तुझ काया सोही। कचण वरण शरीर, सायर जेम गभीर ॥३॥ मेरुतणी परि धीर, करम विदारण वीर । समता रस नउ तुं दरीयउ, अनंत गुणे करी भरीयउ ॥४॥ प्रभुजी नी सूरति सोहइ, सुर नर ना मन मोहइ । अपछरा प्रभुजीइ आगइ, नाटक करइ मन रागइ ॥१॥ त्रिगढा माही विराजह, कनक सिंघासण छाजइ । सुरपति चामर ढालइ, मोह मिथ्या मति टालइ ॥६॥ बारह परषदा आवइ, निज निज ठाम सुहावड् । चउमुख धर्म प्रकाशइ, सह को नइ प्रतिभासइ ॥७॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली कुमती ना मद गंजइ, कुमति कदाग्रह भंजइ । धरमी ना मन ठारइ, संसय दृरि निवारइ ॥८॥ नयणे जेह निहालइ, ते निज पातक गालइ । धन धन ते नर नारी, जे भेटइ गुण धारी ॥६॥ नामइ नव निधि लहीयइ, दरसण देखी गह गहीयइ । जनम सफल निज कीजइ, मुगति तणा फल लीजइ ॥१०॥ इम प्रभुना गुण गाया, सुपना मां सुख पाया। दरसण घउ प्रभु मुझनइ, परतखि कहुँ छु ई तुझनइ ॥११॥ सीमंधर जिनराया, प्रणमं प्रहसम पाया। मुझ नइ सेवक थापर, प्रभुजी निज पद आपउ ॥१२॥ श्रेयांसराय सल्हार, सत्यकी उअर अवतार । लंछण वृपम सुहावइ, गुण जिनहरख सुं गावइ ॥१३॥ इ वीस विहरमाण नाम स्तवन सीमंधर पहिलउ जिनराय, जुगमंधर वीजउ कहवाय । जीजउ चंदू बाहु जिणद, चउथउ स्वामि सुबाहु दिणंद ॥१॥ पंचम जिनवर नमुं सुजात, स्वयंप्रभ छठउ त्रिजग विख्यात । रिखमानन नमीयइ सातमउ, अनंतवीर्य अरिहंत आठमउ॥२॥ सूरप्रभ नवम सिरदार, श्री विसाल दशमउ गुणधार। वज्रधर प्रणमुं इग्यारमउ, चतुर चंद्रानन जिन वारमउ ॥३॥ चंद्रबाहु नमिसुं तेरमउ, श्री भुजंग जपिसुं चउदमउ । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ श्री वीस विहरमाण जिनस्तवन श्री ईश्वर पनरमउ पवित्र, सोलमउ नेमिप्रभ सुचरित्र ॥४॥ सतरम वीरसेन वंदीयइ, अढारम महाभद्र सुख दीयइ । देवजसा जिन उगणीसमउ, अजितवीर्य बंदू वीसमउ ॥५॥ विचरइ विहरमाण ए वीस, महाविदेह माहे जगदीस । भव भव चरण सरण तेह तणा, ल्यु जिनहरख संदा भामणा॥६॥ श्री वीस विहरमाण जिन स्तवनं ढाल || श्री नवकार जपउ मन रगइ || एहनी विहरमाण प्रणमु मन रंगइ, महाविदेह मझारि री माई । जंगम तीरथ धर्म कहता, समवसरण सुखकार री माई ॥१वि।। सीमंधर पहिलउ परमेसर, जगनायक जगदीस री माई। युगमंधर जगमई जयवंता, भेटुंते धन दीस री माई ॥२वि।। त्रीजउ बाहु जिणंद जुहारूं, पूगइ मननी आस री माई। भावइ स्वामि सुवाहु नमुनिति, महीयल महिमा जासरीमाई॥३॥ प्रात सुजात नमु जिन पंचम, पंचम गति दातार री माई । श्री स्वयंप्रभ समता सागर, जगगुरू जगदाधार री माई ॥४॥ रिखमानन आनन निरखंतां, भागइ कोडि कलेस री माई। 'अनंतवीर्य अरिहंत अतुल बल, कदि नयणे निरखेसि रीमाई ॥२॥ नवमउ श्रीमरप्रभ स्वामी, अतिसयवंत उदार री माई । श्रीविसाल सुविसाल त्रिजग जस,प्रणमइ सुरनर नारिरी माई॥६॥ इग्यारमउ वज्रधर महिमाधर, सेवइ इंद नरिंद री माई। चंद्रानन वारम चंद्रानन, परतखि सुरतरु कंद री माई ॥७वि।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जिनहर्ष ग्रन्थावली चंद्रबाहु चरणे चितलाऊं, पाउं शिव सुख जेस री माई। स्वामि भुजंगम जंगम तीरथ, धरीयइ तेह सुप्रेम री माई||CIE ईश्वर जगदीश्वर अपरंपर, अविचल तेज प्रताप री माई । सोलसमउ नेमप्रभ समरु, नासइ पाप सताप री माई ॥६॥ वीरसेन वंदु (दुख छंडे) आणंदु, मंडं शिवपुर वास री माई। महाभद्र अढारम जिनवर, आपइ लील विलास री माई ॥१०वि।। देवयसा सुदसा देखतां, जायइ भवना दुक्ख री माई, अजितवीय जित कर्म प्रबल दल, नित निरखीजइ सुख्य रीमाई।११ विहरमाण वीसे सुखदाई, विचरता विख्यात री माई। भविक लोक नइ धरम पमाडइ, कंचण वरण सुगात रीमाई ॥१२॥ लाख चउरासी पूरव आउ, धतुप पंचसय देह री माई । कर जोडी वंदु त्रिकरणसु,धरि जिनहरख सनेह री माई ॥१३वि। जिन स्तवन भजि भजि रे मन तं दीनदयाल, पतित उधारण जन प्रतिपाल भि समरण करतां टूटइ पाप, सकल मिटइ भव भ्रमण संताप ॥१भा। तारणतरण हरण दुख कोड़ि, सुर नर नाग नमइ कर जोड़ि भी तुरत ऊतारइ करम कलंक, जामण मरण न होइ आतंक ॥रभ॥अपराधी ऊधरीया केइ, मुगति महल मां धरीया लेइ ।भा पाउ ग्रहइ रहइ जे प्रभु ओट, जमची अंग न लागइ चोट ॥३भ।। आरति भंजण आपो आप, धणी सदाई करइ धणीयाप भ! कहइ जिनहरख करण वगसीस, जगनायक जय जय जगदीस ।४भ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधी भाषामय गीत सिन्धी भाषामय गीत ढाल - धणा ढोला तूं मैडा पीउ साजनां वे, तूं मैंडा सिरताज साजन मैंडा । हू तैडी वर नारियां वे, अस्सां हिलिमिलि आज ॥ सा० १ ॥ मोही मोही रे सुजाण हुं तो मोही, तेरी सूरत पै बलि जाऊं । सा० आं। चित्त असाडा लालची वे, लालचिदे बसि जाइ | सा० । लालच तैडा जीउंदा वे, पेम अमीरस पाइ ॥ सा० २ मो० ॥ हु मैंडे हीयड़ वसै वे, ज्युं गोरी दे हार । सा० । अस्सां नालि सुं अखियां वे, चितदा चोरणहार || सा० मो० || तोस्युं पीउ परदेसीयां वे, राख्यां दिल विच प्रीत । सा० । गल्लां बहु कित्तियां वे, झुठी दिल दा मीत ॥ सा० ४मो० ॥ प्रीति तुम्हांसुं रक्खीयै वे, जे रत्ता दिल मांहि । सां० 1 आखंदा जिनहरख सुं बे, औरां सुं मिलणा नांहि || सा०५मो० ॥ ३४१ 3 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह (१) विमलाचल ऋषभदेव राग-वन्यासिरी लागइ लागइ हो विमलाचलनीकउ लागइ । जहां श्रीरिषभजिणंद विराजइ, मेट्यां भव दुख भाजइ हो।१ वि० साधु अनंत अन्त करि भव कं, सीधे सुणियत आगइ । नइंनन देखतहीं सब जनकड, हियरइ समकित जागड हो ॥ २वि० शिव सुख साधक हइ आराधक, निति निति नमीयइ रागइ । कर जोरी जिनहरख प्रभुपई, बोधि वीज फल मागइ हो ॥३वि० (२) विमलाचल यात्रा उत्सुकता राग-रामगिरी सखी री विमलाचल जांणु जईयइ । प्रथम नाथ जगनाथ की भावई, विधि सुं पूज रचईयइ । १स० मन, वच, काय पवित्र निज करिकइ, निति प्रति प्रभु कुं नईयइ । जाके दरसण पातक न रहे, वंछित फल पईयइ ॥ २ स० यु तीरथ समरथ तारण कुं, देखि खुसी मन हुईयइ । कहइ जिनहरख भेटि गिरिवर कुं, नरभव लाहउ लईयइ ॥ ३स० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पद संग्रह (३) नेमि राजुल राग-सोरठ नेमि काहे के दुख दीनउ हो। छोरि चले मोहि अहि कंचुरी ज्यं, कुण अवगुण मंड कीनउ हो॥१ने० तुमसु नेह पुरातन मेरउ, चरण मन लहइ लीनउ हो। हूं कंचण की मुंदरि तापरि, तुं तर अजब नगीनउ हो ॥ २ने० विरह संतावत निसि दिन मोकं, अंतर ताप पसीनउ हो। राजुल कहइ जिनहरख पियाके, गुणसुं दिल रहइ भीनउ हो ॥३ने० (४) नेमि राजुल राग-देवगधार पियाजी आइ मिलउ इक वेर । चरण-कमल की खिजमति करिहुं, होइ रहुंगी जेर ।। १पि० आइ छुरावर अपणी प्यारी, मदन लई हइ घेरि । आण तुम्हारी सिरपरि धरिहुं, ज्यं भालाकउ मेर ॥ २पि० मो वपरि कुं काहे मारण, झाली हइ समसेर । कहइ राजुल जिनहरख विरहिणी, चिहुं दिसी रही मग हेर ॥३पि० (५) नेमि राजुल राग-सोरठ पावस विरहिणी न सुहाइ । देखि विकटा घटा घन की, अंगमइ अकुलाइ ॥ १ पा० नीर धारा तीर लागइ, पीर तन न खमाइ।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली गाज की आवाज सुणिकेइ, चित्त मांझि डराइ ।। २ पा० सबद चातकी जहर सुणिकै, जीउ निकस्यउ जाइ। नेमि विणि जिनहरख राजुल ज्यामिनो मुरझाइ ॥ ३ पा० (६) राजुल विरह राग-देवगंधार सखी री चंदन दुरि निवारि । मेरइ अंग आगि सउ लागत, खत उपरि मानु खार ॥१स०॥ कुसुम माल व्याल सी लागत, फीके सब सिणगार । चंद चंद्रिका मो न सुहावइ, जरि हइ अंग अपार ॥२स०। सेज निहेजी हुं दुःख पाऊं, सीतल पवन न डारि। पिय विण सुख जिनहरख सबइं दुख, कहिहइ राजुल नारि ॥३स०। (७) राजुल विरह राग-वेलाउल मो पइ कठिन वियोग की, सही जात न पीर । सखी री कोइ उपाय हइ, धरीये मन धीर ॥१मोपे।। भूख पिपासा सब गई, भयउ सिथल शरीर । विरह घाउ हियरउ फटइ, जइसई जूनउ चीर ॥रमो०॥ हूँ विरहिणि परवसि भई, जरी पेम जंजीर । राजुल जिनहरखइं मिले, भयउ सुख सुं सोर ॥३मो०॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ पद संग्रह (८) विरह राग - मल्हार घटा घहराइ । सखी री घोर प्रीतम विणि हु भई इकेली, नइणां नीर भराइ || १ स ० ॥ देखि संयोगिणि पिउ संग खेलत, सोल सिंगार बनाइ । मन की बात रही मनही मई, मनही मई अकुलाइ ॥ २स०|| धन वैयारी प्यारी प्रिउ की, रहत चरण लपटाइ | मोसी दुखणी अउर जगत में, कहत जिनहरख न काइ ॥ ३० ॥ (६) विरह राग - मोरठ जउ पाउं । अब मई नाथ कबड् पाइ धाड़ कइ जाइ लगुं तउ, उर परि हित सुं रहाउं ॥ १० ॥ चार बार मुख करूं विलोकन, छोरि कहां नहीं जाउं । " झालि रहुं प्रीतम के अंचरा, प्रीति सुरंग बनाउं ॥ २अ० || हुइ आधीन दीन सुं बोलुं, खिजमतिगार कहाउं । तम मन योवन सरवस दइहुं, जउ जिनहरख लहाउं ॥ २० ॥ (१०) विरह, प्रीति निषेध राग वेलाउल काहु सुं प्रीति न कीजड़, पल पल तन मन छीजइ । प्रतिकियां जीउ परवसि हुइहई, झुरि झुरि वृथा मरीजइ ॥ १ का० ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली नइंना नींद न भूख पियासा, देखण कुं तरसीजह । विकल होत इत उत भटकत हे, सुख दे के दुख लीजड् ॥रका०॥ स्त्यांम होत कंचण सी काया, निति आधीन रहीजइ । कहइ जिनहरख जाणि दुख कारण, सुगुरु वचन रस पीजइ ॥३का०॥ (११) महावीर गौतम राग केदार हो वीर, काहे छह दिखायउ । हुँ तुझ सेवक परम भगत हूं, अविहड़ नेह लगायउ हो ॥१ची०॥ तइं जाणउ पासव पकरेगो, वासक ज्यो परचायउ। एक पखीकरी प्रीत परमगुरु, मैं यूँ ही दुख पायउ हो॥२वी०॥ निसनेही सूं नेह न कीजइ, उपसम मनमई आयउ । गौतम केवलज्ञान लघउ तर, गुण जिनहरखइं गायउ हो॥श्वी०॥ __(१२) जिन दर्शन राग-रामगिरी सखी री आज सफल जमवारउ । प्रभु निरखे अज्ञान मिट्यु तम, भयउ अंतर उजुआरउ ॥१०॥ सुंदर मूरति सूरति अनुपम, देखि कुमति मति छारउ । समकित अपणु निर्मल करि कइ, शिव सुख सुचित धारउ ॥रस।। समता सागर गुणकउ आगर, लागत हे मोहि प्यारउ। हुँ जिनहरख हिया में राखु, साहिब मोहनगारउ ॥३साः Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह ३४७ (१३) जिन पूजा राग-वेलाउल जिनवर पूजउ मेरी माई, सकल मंगल सुखदाई ।जिन केसर चंदन अरगजइ, विधि सुं अंगीया वणाई ॥१जि०॥ कुसुममाल प्रभु के उर ठावउ, चितमइ धरि चतुराई । भाव भगति सुं जिनगुण गावर, नावे कुमणा काई ॥२दि०॥ सतर-भेद पूजा जिनवर की, गणधर देव बताई। द्रव्यत भावत के गुण लहीकइ, करि जिनहरख सदाई ॥३जि०॥ __ (१४) प्रभु भक्ति राग-वेलाउल प्रभु पद-पंकज पायके, मन भमर लुभाणउ । सुंदर गुण मकरंद के, रसमड लपटाणउ ॥१०॥ राति दिवस मातउ रहइ, तिस भूख न लागइ । चरण-कमल की वासना, मोहउ अनुरागइ ॥२०॥ सुमनस अउर की सुरभता, फीकी करि जाणइ । रहइ जिनहरख उलासमइ, अविचल सुखमाणइ ॥३०॥ (१५) प्रभु भक्ति राग-धन्यासिरी __ भविक मन कमल विबोध दिणंदा। नृत्यति नईण चकोर चतुर द्वइ, निरख निरख मुखचंदा ॥१०॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्री जिनहर्ष ग्रन्धावली मोह मिथ्यात मतंगज दारुण, वारण मस्त मयंदा । अकलित कोल सवल वलधारी, उच्छेदन भव कंदा रभ०॥ देखि मनोहर मूरति प्रभु की, हरखित इंद नरिंदा। देहु चरण की सेव दया करि, लहइ जिनहरख अणंदा ॥३०॥ (१६) प्रभु शरण राग-ललित आणपिया के चरण सरण गहि, काहे कं अउर के चरण गहइ हइ । अउर के चरण गहई थई अलप मुख, प्रभुके चरण गाई मुगति लहइ हा ॥१मा०॥ विरचित अउर वेर नहीं लावत.गुण अउगुण छिन मांहि कहहहह। प्रभजी कवहन छह दिखावत.धरणी ज्यं सब भार सहइ हडरग्रा०॥ समरथ साहिब छोड़िके सूरख, रांकन की डिग कवन रहइ हइ । कहै जिनहरख हरख सुखदायक, जनम-जनम के पाप दहइ हइ॥३ग्रा।। (१७)प्रभु वीनति राग-भैरव जिनवर अब मोहि तारउ, दीन दुखी हुँदास तुम्हारउ । दीनदयाल दया करी मोसुं, इतनी अरज करूं प्रभु तोसं ॥१जि०।तारक जउ जग मांहि कहावउ, तउ मोही अपणइ पासि रहावउ ।जि० अपनी पदवी दीनी न जाई, तउ प्रभु की कैसी प्रभुताई ॥रजि० इहलोकिक सुख मेरे न चहिये, अविचल सुखदे अविचल रहिये ।जि. क्या साहिब मन मांहि विचारउ, प्रभु जिनहरख अरज अवधारउ॥३ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह (१८) जिन वीनति राग-रामगिरी ३४६ जिणंदराय हमकुं तारउ-तारउ । करुणासागर करुणा करिकर, भवजल पार उतारउ || १जि० ॥ दीनदयाल कृपाल कृपाकर, कूरम नइन निहारउ | भगतवछल भगतन कुं ऊपर, करत न काहे विचारउ || २जि० ॥ इतनी अरज करूं हूँ प्रभु सुं, पदकज थहं मत टारउ । कहड़ जिनहरख जगत के स्वांमी, आवागमण निवारण || ३ जि० ॥ (१६) जिन वीनति राग - रामगिरी · कृपानिधि अब मुझ महिर करीजइ । दीन दुखी प्रभु सेवक तोरउ, अपणुं करि जाणीजइ ॥ १०॥ भवसायर में बहु दुख पायउ, करुणा करि तारीजड़ । तुम्ह विण कुंण लहइ पर वेदन, उपगारी सलहीजइ ॥२कृ०॥ नईण सलूण सनमुख जोवउ, ज्युं जिनहरख पतीजइ । प्रभु सेवा फल इतनउ मार्ग, बोधि बीज मोहि दीजइ ||३०|| (२०) जिन वीनति राग - रामगिरी जगत प्रभु जगतन कउ उपगारी | अपणे दास धरे बड़कुंठ में, भव की पीर निवारी ॥ १० ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्री जिनह ग्रन्थावली अइसउ अउर न कोई दाता, सवही कूं हितकारी ताके चरण सरण कर रहीयह, न भजड़ दुरगतिनारि ॥ ज०॥ परम सनेही परदुख भंजन, रंजन मन सुविचारी । मीत सोऊ जिनहरख करीज, शिव सुख कउ उपगारी ||३०|| (२१) प्रभु वीनति राग- श्राशावरी अवतउ अपणइ वास वसाउ, कहा प्रभु बहुत कहावउ | अ० चउरासी लख मांहि वस्युं है, बसि बसि छोरे वासा । ऊंचे नीचे महल वणाए, देखे बहुत तमासा ||१०|| दुसमण सो तउ मीत किए मई, मीत शत्रु करि जाणं । तउ सुख कसई होड़ गुसाँई, आपा पर न पिछाणे ॥ २० ॥ चोर चुगल धन लूट लीयर सब, किणि सुं करूं पुकारा । ' बोस कुवास छुराड़ कहत हुँ, इतना करि उपगारा || ३अ ० || दुख पायउ आयु तुम्ह सरणड़, ज्युं जाणउ त्युं कीजो | कहइ जिनहरख निरंजन साहिब, मो मागुं सो दोजो ||४०|| (२२) जिनेन्द्र प्रीति प्रेरणा राग-रामगिरी मन रे प्रीति जिणंद स कीजइ । अउर सुं प्रोति कीयहं दुख पईयह, ताथइ दूरि रहीजइ ॥ १० ॥ करम भरम सब दूरि विडारह, जनम मरण दुख छीजइ । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद संग्रह ३५१ जिणि की प्रीति परमपद लहीयइ, ताहि चरण रस पीजे ॥२०॥ छेह, न दाखइ अंतरज्यामी, साचु सइंण कहीजे । यउ जिनहरख जगत कूतारण, अउर देखि मन खीजइ ॥३०॥ (२३) निरंजन खोज ___ राग आशावरी खोजइ कहा निरंजन वोरे, तेरे ही घट में तुं जो रे ।खो० बाहिरी खोज्या कबहुँन लहीयइ, अंतर खोज्यां तुरत ही पईयइ १ खोजत-खोजत सव जग मूआ, तउही उणका काम न हुआ ।खो० ज्यं परतखि घृत में दधिवासा, पावक काठ पाषाण निवासा ॥रखो 'ढढत-ढूंढ़त जगमग मावइ, तुही उण के हाथ न आवइ । खो० तोकउ भेद होइ सु पावइ, भेद विना कछ गम न लहावे ॥३खो०॥ ज्ञानी सी जिनहरख पिछाणइ, आपही आप निरंजन जाण ॥४॥ (२४) प्रबोध राग भैरव - ऊठि कहा सोइ रघउ, नइंन भरी नींद रे, काल आइ ऊभर द्वार, तोरण ज्यं वींद रेऊ। __ मोह को गहल मांझि, सोयउ बहुकाल रे, 'कछु बूझ्यु नहीं तुं तउ, होइ रह्यउ बाल रे ।।१।। बहुत खजीनउ खोयउ, अलप कइ हेतरे, अजूं कछु गयउ नही, चेतन चेत रे, ऊ०। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्री जिनहर्ष ग्रन्थावली तरइपुर माझि वसइ, दूठ च्यारूं चोर रे, राति धंस तेरउ धन, लूटइ ठोर ठोर रे ॥२ऊ०॥ काचउ कोट जोर जम-दल लीनउ घेर रे, काहे बल फोरइ नहीं, गति समसेर रे ऊ० साहस सधीर धरि, प्रभुता न खोइ रे, कहइ जिनहरख ज्यु, जइत वार होइ रे ॥३ऊ०॥ (२५) प्रबोध राग-कल्याण जोवन ज्युं नदी नीर जात हइ अयाण रे । काहे फूलि रह्यउ यउ तउ अथिर तुं जाणिरे ।जो०॥ जोवन मइ रातउ मदमातउ फिर जोर रे । काम कउ मरोयें कछु देखड़ नहीं ओर रे ॥१जो०॥ कामिनी सुं चाहइ भोग सकल संयोग रे। अलप जीवन सुख वहुत वियोग रे जो रूप देखि जाणइ मोसो न को तीन भुंवन रे।। अइसउ अभिमानी तेरी गत हुइगी कण रे ॥रजो० अंजुरी कउ नोर रहइ, कहउ केती वेर रे । तइसउ धन जोवन न, कोई ता मई फेर रे।जो० भजि भगवंत जोवन कउ लइ लाह रे, जउ जिनहरख मुगतिकीचाहरे ॥३जो०॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार मंगल गीत "प्रथम मंगल गीत ॥ ढाल ।। प्रथम मंगल मन ध्याईये, अरिगंजण अरिहंतो रे। विषय कपाय निवारीया, भयभंजण भगवंतो रे ॥१०॥ केवलज्ञान दिवाकरू, संसय तिमर गमावह रे।। वारह परपद माहे वइसिनइ, अमृत वाणि सुणावइ रे ॥२०॥ कनक सिंघासण वइसणइ, छत्र त्रय सिर सोहे रे । चामर वीजइ सुर ऊजला, भामंडल मन मोहे रे ॥३०॥ वाणी योजन गामिनी, सुणतां दुख नवि व्यापइ रे। भूख त्रिपा भय उपसमइ, अविचल सिवपद आपे रे॥४०॥ प्रभु चरणे सुर नर सदा, सेवइ कोडानकोडी रे । पहिलउ मंगल जिनहरप सं, नमीये वे कर जोड़ी रे॥५०॥ इति श्री प्रथम मंगलंगीतं ॥ द्वितीय मंगल गीत ॥ ढाल-माखीना गीतनी ॥ वीजउ मंगल मनि धरउ, सिद्धिपुरीना सिद्ध । भविक नर । आठ करम अरि क्षय करी, पामी अणंत समृद्धि ॥ १ भ० वी ।। काया माया जेहने नही, नही कोई रूप सरूप । भ० । वेद नही वेदन नही, नही चाकर नहीं भूप ।। २ भ०बी। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. लिनहर्प अन्धावली मुगतिशिला उपरि रह्या, लोक नणइ अग्र भाग । भ० । अक्षय सुख आनंद नई, कोई न पामइ थागरम०।। गंध फरस जेह मई नही, नही कोई करम नउ लेप । म । गुण इकत्रीसे साभता, क्षय मंमार अछेप ।। ४भनी ।। सुक्ख अनंता भोगवे, सिद्ध भगवंत निरीह । भ । जिणि दिन सिद्ध निहालिमुं, ते जिनहरप सुदीह ॥५भ०वी इति द्वितीय मंगल गीतं ॥२॥ तृतीय मंगल गीत । ___ ढाल-परि श्रावउ जी यावउ मउरीयउ ॥ हनी ॥ हिवे ब्रीजउ मंगल गाईये, माल्हंता मुनिवर हो। समता दरीया भरिया गुण, तप { कीधी क्रिस देहो ॥१हि॥ पांचे समिते समिता सदा, पांच व्रतना ज प्रतिपालो। पांचे इन्द्री निज वसि कीया, पट काय तणा रखवालो॥२हि०॥ त्रीजी पोरिसी करे गोचरी, ल्यइ अरस निरस आहारो।। सइतालिस दूपण टालिनइ, भोजन करे जे अणगारो ॥३हि०॥ धन्ना अणगार तणी परई, दुकर तप करे अपारो। . वावीस परिसह ज सहे, गुण ज्ञान तणा भंडारो॥४हि०॥ आपण परि परने लेखबइ, देखालइ शिवपुर वाटो। सुध साधु एहवा पाय प्रणमीये, जिनहरख सदा गहगाटो॥हि०॥ इति तृतीय मंगल गीतं ॥३॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ मंगल गीत ... . चतुर्थ मंगल गीतं ढाल-विमलाचल सिर तिलउ एहनी ॥ चउथउ मंगल निति नमुं, जिनवर भापित, धर्म । विनय दया जिन आगन्या, जेहथी त्रूटइ कर्म ॥१०॥ कलपवृक्ष चिंतामणि, कामधेनु कामकुंभ । पुन्य योगई ए पांमीये, पिणि जिनधरम दुलंभ ॥२च०॥ जेहथी सुरनर संपदा, लहीये सुख भरपूर । सी अधिकाई एहनी, थायइ मुगति हजूर ॥३०॥ जीव तर्या तरिस्ये वली, अतीत अनागत काल । वर्तमान कालई तिरइ, धर्म थकी तत्काल ॥४च०॥ त्रिकरण सुध आराधिस्ये, फलिस्यइ वंछित तास ।' चउडुं मंगल चिरजयउ, कहइ जिनहरख उलास ॥५च०॥ इति चतुर्थ मंगल गीतं ॥४॥ . ऋषि बत्तीसी - अष्टापद श्री आदि जिणंद, चंपा . वासपूज जिनचंद । . वाचा मुगति गया महावीर, अरिहनेमि गिरनार सधीर ॥१॥ बीस तिथंकर धरीय उमेद, जनम मरण भव बंधण छेद । श्री समेतसिखर सिध थया, बीस जिणेसर मुगतें गया ॥२॥ जंवूदी जिन चौवीस, धाइसंडै . अडसठि ईस।। अरध पुष्कर अडसठि कहेस, सत्तरिसय जिन भाव नमेस ॥३॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जिनहर्ष ग्रंथावली सीमंधर जुगमंधर सांम, वाहु सुबाहु नमुं सिर नाम । श्री सुजात स्वयंप्रभु देव, रिषभानन प्रणमुं नित मेव ||४|| अनंतवीरज सरिप्रभ जाण, श्री विशाल वज्रधर वखाण । चंद्रानन चंद्रबाहु भुजंग, ईसर श्रीनेमिप्रभु रंग ॥५॥ वीरसेन महाभद्र जिणंद, देवजसाऽजितवीर्य दिणंद । वीसे विहरमांन जिनराय, प्रह उठी नित प्रणमुं पाय ॥६॥ रिषभानन जिनवर वधमांन, चंद्राणण वारसेण प्रधान । ए च्यारे प्रतिमा सासती, नंदीसर दीपै छती ॥७॥ जंघा 'विजाचारण साध, भाचे प्रणमै धरीय समाध । विद्याधर नागिन्द सुरिंद. वंदै च्यारे ई जिण चंद ॥८॥ चौबीसे जिणवर परिवार, साध साधवी ने गणधार । सावय सावीय सहूए मिली, प्रह उठी प्रणमं मनरली ॥६॥ इन्द्रभूति पहिलो गणधार. अगनिभूति वायुभूति विचार। व्यक्त सुधरमा मंडित सामि, मोरीपुत्र अकंपित नामि ॥१०॥ अचलभ्राता नवम प्रकाश, मेतारिज प्रणमिसुप्रभास । वीर तणां गणधर इग्यार, कर जोड़ी प्रणमुं- सय वार ॥११॥ चंदं प्रसन्नचंद रिपिराय, दसणभद्द -प्रणमं चित लाय । ' - साध सुदरमण पूरणभद्र, भद्रबाहु नमिये थूलिभद्र ॥१२॥ अज्ज महागिरि अन्ज सुहत्थि, भद्रगुप्त प्रणमुं सिर सत्थि । आरिजरखित नै मेघकुमार, सालिभद्र धन्नो अणगार ॥१३॥ समण सिरोमणि श्री कयवन्न, काकंदी धन्नो धन धन्न । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि बत्तीसी अभयकुमार नमुं नंदिपेण, अयमत्तो रिपिवर पुन्यसेण ॥१४॥ करकंडु नमि निगई साध, दुमुह दयानिधि गुणे अगाध । ' च्यारे प्रत्येकवुद्ध कहाय, ग्रह ऊठी प्रणमीजे पाय ॥१५॥ जंम्बू कूरगड अणगार, कुम्मापुत्तः सुगुण भंडार । अरहन्नक' रिपि व्रत प्रतिपाल,गयसुकुमाल अवंतिसुकमाल॥१६॥ नमुं इलाचीपुत्र पवित्र, खिमावंत चिलातीपुत्र । बाहुवल भरहेस मुर्णिद, सनतकुमार नमूं आणंद ॥१७॥ रिषि ढंढणकुमार पवित्र, मुनिवर वंदु.अज सुनखित्त'। श्री सर्वानुभूय सुजगीस, पनर तिडोतर गोयम सीस ॥१८॥ पुंडरीक गणहर गुणवंत, दिढपहार नमियै दवदंत । संब पजुन्न अने बलदेव, सागरचंद मुणिंद नमैव ॥१६॥ मेतारिज श्री कालिकसरि, तेतलीपुत्र नमुं गुण भूरि । पांचे पांडव अनयाउत्त, धरमरुइ रिख तोसलिपुत्त ॥२०॥ मुनिवर सत्तम कत्ति मुणिंद, पंच कोड़ि सुंदविड़ नरिंद । विद्याधर नमि विनम मुणीस, खंदक सूरि पंचसय सीस!॥२॥ किपिल महारिषि संजम धीर, हरिकेसीवल पवित्र शरीर। . चित्त मुनीसर नृप इखुकार, भृगुबंभण जसु दुण्णि कुमार ॥२२॥ कमलावई जसा बांभणी, ए छह प्रण, महिमा घणी । संजती मिरगापुत्र महंतः साध अनाथी रिषि गुणवंत ॥२३॥ १-अरणक २ पवित्त ३ सत्तमुकल ४ वसु । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ जिनहर्ष ग्रंथावली ! 1 a समुहपाल रहनेम सुसाह, केसी गोयम गुणे अगाह | विजयघोष जयघोष वखाणि, मुनिवर सहु वढुं सुविहाण ||२४|| ब्राह्मी चंदनबाला सती, द्रुपद' सुता वलि राजेमती । कौसल्या नैं मिरगावती, सुलसा सीता पदमावती ॥ २५ ॥ सिवा सुभद्रा कुंती नमूं दवदंती नामै दुख गमूं । सीलवती पुप्फचूला एह, इत्यादिक नमियै गुणगेह ||२६|| अढीदीप मांहे मुनिवरा, हुआ हुसी अछड़ गणधरा । पंच महाव्रत ना प्रतिपाल, संयमधारी नमुं त्रिकाल ||२७|| आणंद गाहाब कामदेव, चुलणीपिया नमुं सुरादेव । चुल सतक न कंडकौलीयो, सद्दालपुत्र कुंभार खोलीयौ ||२८|| महासतक नमि नदणीपिया दसम : लित्त की पिया थिया । एका अवतारी ए दसे, प्रणमीज हियडै उल्लसै ॥ २६ ॥ वीजाई मुणिवर छे वणा, तेह तणां लीजै भामणां । धरमी श्रावक नैं श्राविका, ते पिण प्रणमीजै भाविका ॥ ३० ॥ रिपि बत्तीसी जे नर गुण, भणै भावसुं श्रवणे सुणै । रिद्धि वृद्धि पायें गुणगेह, अजर अमर पद लाभ तेह ||३१|| उत्तम नमतां लहियें पार, गुण ग्रहतां थायै निसतार । 'जाये दूरि करमनी कोडि, कहै जिनहरख नमूं कर जोड़ि ||३२|| ॥ इति श्री रिषि बत्तीसी स्वाध्याय || २ 10:1 १ द्रौपदी सती २ लुतकी सुखिया थया । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जिन छप्पय', गौतम, पंचपरमेष्टी २४ जिन छप्पय सुखकरण दुखहरण, सुजस धारण उद्धारण । साचवयण मुख रयण, सयण दुञ्जण साधारण।। अमृत रसण उच्चरण, भरण भंडार भलप्पण। तेज तरणि तिन धरण, आप थप्पण उथप्पण ॥ च्यारे वरण वंदे चरण, श्री जिन सासन जयकरण । जिणहरख सरण टाले मरण, गौतम त्रिभुवन आभरण ॥१॥ जपतां गौतम जाप, पाप संताप प्रणासे । जपतां गौतम जाप, चले लखमी घर वासे ।। जपतां गौतम जाप, जुडइ कामिणि कुलवंती। जपतां गौतम जाप, अवल कीरत्ति अनंती ॥ गौतम जाप जपता जुडइ, सुखदायक सुत उज्जला । । जिनहरख जप गौतम जिके, तास वधइ जग में कला ॥२॥ अष्टापद आपरी, लवधि चढ़ीया लीलागर ।. वंदे जिन चउवीस, देव प्रतिबोधि दया कर ॥ तापस पनरस त्रिण, पात्र एकण परमाणे । पहुचाडे 'पारणउ, दीयउ वलि केवल दाने ।' अठवीस लबधि अंगइ वसई, वडउ शिष्य श्रीवीर रउ। जिनहरख जास. महिमा जगत्र, सो गौतम तुम जप करउ ॥३॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जिनहर्ष प्रथावली आदि नमो अरिहंत, सिद्ध वीजइ पद साचा । आचारज आचार, पंच चाले सुध वाचा ।। उत्तम श्री उवझाय, वार जे अंग वखाणइ । अढी दीप अणगार जिके, निज किरीया जाणइ ।। परमेष्टि पंच जपतां प्रलइ-जाइ पाप जूआ जूअइ । जिनहरख पत्र परिवार जस, सुख संपति मंगल हुअइ ॥४॥ इणि नवकार प्रभाव हुअउ, धरणिंद सहु जाणे । सिवकुमार सौचन्न पुरुष, पाम्यउ तिणि टोणइ ॥ सती श्रीमती साप मिटे, हुई पुष्पमाला । संबल कंवल सांड वसे, विम्माण विसाला ॥ भीलडी भील नृप सुख लहे, देव हुआ सहु दुख गयउ । जिनहरख पार न लहुं सुजस, श्रीनवकार चिरंजयउ ॥शा आदि रिषभ अरिहंत, अजित संभव अभिनंदन । सुमति पदम सुप्पास, चंद्रप्रभ कुमति निकंदन ॥ सुविधि सीतल श्रेयंस, वले वासुपूज वखाणुं । विमल अनंत धर्मनाथ, सांति जिन सोलम जाणुं ॥ श्रीकुंथुनाथ अर मल्लि जिन, मुनिसुव्रत नमि नेमि भणि ॥ श्रीपार्श्वनाथ जिनहरख जपि, महावीर सुर मुगट मणि ॥६॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीस स्थानक स्तवन 'वीश स्थानक स्तवनं + श्री वीर जिणेसर, भाषड़ तप अधिकार । वीसस्थानक सरिखो, तप नहीं कोई संसार ॥ ए तप श्री तूटै, निविड करम ततकाल | ए तप थी लहीये, राज रिद्धि सुविसाल ॥ १ ॥ एथी जायै सहू, आधि व्याधि दुख रोग | एथी सुख लहिये, वंछित भोग संयोग | ए तपनो महिमा, कहतां नावे पार | जे करड़ अखंडित, धन तेहनो अवतार ॥ २ ॥ पहिलइ नमो अरिहंताणं करि जाप । चीजह नमो सिद्धाणं, जपतां जायड़ पाप || त्रीजड़ थानक नमो, पवयण मन उलास | नमो आयरियाणं, चउथड़ पद सुविलास || ३ || चली पंचम थानक, गणीयइ नमो थेराणं । ही डड़ धारउ, छठ पद उवझायाणं ॥ J ★ सातमह 'नमो लोए सव्व साहूणं' वखाणं । नमो नाणस्स आठमह, थानक गणि सुविहाणुं ॥ ४ ॥ नवमइ चितलाई नमो दंसणस्स गणीजइ । दसमेइ नमो विषय संप्पन्नाणं प्रणमीजइ ॥ इग्यारम ठामई, नमो चारित जपीजइ । 1 ३६१ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जिनहर्ष ग्रंथावली बारम बंभयारीणं, हीयडइ धारीजेइ ॥ ५ ॥ नमो किरियाणं, तेरस थानक सुखदाई । नमो तवसीणं, पद चवदमइ जपि चितलाइ ।। पनरम ठामइ गोयमस्स, नमो निति ध्यावउ । जपि नमो जिणाणं, सोलम पद सुख पावउ ॥ ६ ॥ सत्तरमइ थानक, गणीयइ नमो चारित्त । नाणस्स नमो, अठारम गण पवित्त ।। उगणीसम नमो सुयस्स, गुणउ हित आणी। वीसम गमैइ नमो, पवयण परम कल्याणी ।। ७ ।। पहिलइ पद चउवीस, वीचे पनर लोगस्स । सात त्रीजइ चउथे, छत्रीस गणउ अवस्स ॥ पांचमे दस छठइ, वार सात सत्तावीस । आठमइ पांच लोगस्स, सतसठि नवम जगीस ॥ ८ ॥ दसमइ दश इग्यारम, पट हीयडइ धारि । बारमेइ नव तेरमेइ, पचवीम चवदमइ बार ॥ पनरम ठामे सत्तर, सोलमे दस जाप । इग्यारस तेरमेइ, लोगस्स भजि तजि पाप ॥६॥ अठारमइ पांच वली, उगणीसमइ एक । वीसमेइ वीस लोगस्स, गुणीयइ धरी विवेक ॥ एतला लोगस्स मुं, करीयइ काउसग्ग। दुख जनम मरण ना, सहु जाये उसग्ग ॥ १० ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन एकादशी स्तवन ए वीसे थानके, गणीयइ करि उपवास | आंबिल एकासण, यथा सगति मति खास । तिथंकर पदवी, ए तप थी पामीजइ । दोड़ दोड़ सहस गुणणड़, जिनहरख गणीजइ ॥ ११ ॥ । · मौन एकादशी स्तवन ढाल || वीर जिरोमर नी ॥ एदेशी सयल जिणेसर पाय नमी, समरी सुयदेवी । मून इग्यारसि तवन भणुं, गुरु चरण नमेवी || मगसिर सुदि एकादशी, ए कल्याणक धारी । तीन पंचास थया कहुं ए, सुणीज्यो नरनारी ॥ १ ॥ नगर नागपुर दीपतउ ए, तिहां राय सुदरसण ।. देवी राणी गुणवती ए, सहु नः प्रिय दरसण || चउदे सुहिणे जनमीया ए, अमर नाम कहाय । रूप अनोपम सोहतर ए, जाणे कंचण काय || २ || चउसठि इंद्र मिली करी ए, सहुअइ सुर आव्या । मेरु महीधर ऊपरs ए प्रभु नइ न्हवराव्या || करीय महोच्छव माय तणs, पासइ तेह मल्ह्या । ? इंद्र गया निज थानकड़ ए, दुरगति दुख ठेल्या ॥ ३ ॥ r राज्य तणा सुख भोगवी ए, व्रत अवसर जाणी । ३६३ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प ग्रथावली लोकांतक सुर आवीया ए, प्रभु नइ कहइ वाणी ।। समता रस संपूरीयउ ए, मन निश्चल कीघउ । मगसिर सुदि इग्यारसई ए, जगगुरु व्रत लीधउ॥ ४ ॥ धीरम मेरु तणी परई ए, सायर गंभीर । कर्म तणी सेना भणी ए, हणिवा महावीर ।। कर्म च्यारि जे घातीया ए, ते स्वामि खपान्या । केवलज्ञान लघउ प्रभु ए, सुर नर तिहां आव्या ॥ ५ ॥ समवसरण रचना करीए, जिन बइठा सोहइ । धरम तणी देसण दीयइ ए, सुणता मन मोहइ ॥ संघ चतुर्विध थापीयउ ए, गुणमणि भंडार । आऊखं पूरण करी ए, पुहुता मुगति मझार ॥ ६ ॥ ॥ ढाल २ अढीया नी ॥ एकवीसमुं जिनचंद, कल्याणक भणुंए, बीजउ संथुर्पु ए ॥७॥ मिथिला नगरी राय, विजय नरेस कहवाय । वप्रा रागिणी ए, मोटा भागिनी ए॥ ८ ॥ चउदह सुपन लहाय, हीयडइ हरख न माय । जिनवर जनमीया ए, सुर उच्छव कीया ए॥६॥ जोवन पहुता जाम, प्रभुजी परण्या ताम । राज्य पदवी लही ए, सुख भोगवइ सही ए॥ १० ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन एकादशी स्तवन ३६५ अनुक्रमि लीधउ जोग, छंडी सुख- संभोग । . . परीसह सहु सहइ ए, करम निवड दहइ ए ॥ ११ ॥ मगसिर मास उलास, सुदि इग्यारसि तास । प्रभु केवल वर्यउ ए, त्रिगढउ सुर कर्यु ए ॥ १२ ॥ तीन छत्र सुर सीस, चामर ढोलइ ईस । प्रभु देसण दीयइ ए, जाणुं निरखीयइ ए ॥ १३ ॥ श्रावक श्राविका जाणि, श्रमणी श्रमण वखाणि । गणधर थापिया ए, दुख सहु कापिया ए॥ १४ ॥ समितसिखर चढि नाह, संलेहण गज गाह । सिवपद पामीयउ ए, मइ सिर नामियउ ए॥ १५ ॥ ढाल ३ ॥ इणि अवसर दसउर पुरइ ॥एह नी कल्याणक तीन, मिथिला नगरी सुर पुरी । रहइ लोक अदीन, रिद्धि समृद्धि सूं भरी ॥ भरी सुभर कुंभ नरपति, राज्य लीला जोगवइ । परभावती राणी संघातई, विषय ना भुख भोगवइ ।। निसि समइ सूती सुखइराणी, चउद सुपना ते लहइ । । - बहु हरख पामी सीस नामी, राय नई आवी कहइ ।। १६.।। __ सुपन पाठक तेडावीया, कुंभराय प्रभाती। पुत्र हुस्यइ तुम घरि सही, तीन लोक विख्याती ॥ वात विचारी नइ कही एहवी, सांभलि सहु मन मां हरखिया। स्त्री वेद लेई गरभ आव्या, करम माया ना कीया । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष प्रथावली जिन थया नारी एह अचरज, कपट दूरइ परिहरउ । जिनराज नी जोइ अवस्था. धर्म चोखइ चित करउ ॥ १७ ॥ दस मसवाडा माय नइ, रह्या गरभ जिणंद । मगसिर सुदि इग्यारसइं, जनम्या जिनचंद ॥ सुर सुरपति मन ऊलसइ आव्या, देव देवी आवीया। सुरगिरई लेइ स्वामि उच्छव, करइ भगतइ भावीया। बहु भाव भत्तई एक चित्त, गीत नृत्य सुहाईया। दीर्घायु इम आसीस देई, माय पासई ठावीया ॥१८॥ राय करी उच्छव धणउ, दीधउ मल्लि नाम । रूप कला गुण आगलउ, त्रिभुवन नउ सामि ।। मक्य जाइ न वेगलउ, प्रभु मोह देखी उपजह । पट द्वार मोहनघर कराव्यउ, पूतली माहे सजइ । निज पूर्व भव ना मित्र पट नृप, परणिवा सहु आवीया। प्रभु कहइ काया असुचि पुदगल, देखि स्युं ऊमाहिया ॥१६॥ प्रतिबोधी निज मित्रनइ, देइ वरसी दान । मगसिर सुदि इग्यारसइ, धारी निर्मल ध्यान । संयम लीधउ मन रसइ, नारी नर वे सय सं, मल्लि जिन व्रत आदर्य । निति समिति समिता, गुपति गुपता, पाप मारग परिहर्यउ । सुभ' ध्यान पूरी, कर्म चूरी, मागसिर एकादसी। सित लाउ केवलन्यान निर्मल, रिद्धि पामी एरिसी ॥२०॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन एकादशी स्तवन ३६७. ढाल ४ ॥ गीता छदनी ॥ आव्या सुरपति सुर नर मन रली, वारह परखद प्रभु आगलि मिलि। समवसरण मां बइठा सोहइ ए, सुर नर नारी ना मनमोहइ ए॥. मोहए मन रूप देखी, मधुर सुर देसण दीयइ । . संदेह मन नो हरइ दूरइ, होयडलइ आणंदीयइ । उपसमइ वयर विरोध सहुना, त्रिजगपति अतिसय करी । मिथ्यामती ना मान गालइ, मोह सेना थरहरी ॥ २१ ।। अतिसय वर चउनीस जिणंद ना, करइ सुरासुर प्रभुनइ वंदना । त्रिण छत्र सिर धारइ देवता, चामर विजइ उज्ज्वल सोहता ॥ सोहता मरकत चरण जिनवर, मल्लि जिन महिमानिलउ । उगुणिसमउ जिनराय जगगरु, कुंभ नरपति कुलतिलउ ।। फहरइ त्रिभुवन सुजस जेहनउ, आगन्या सहु सिर धरइ । बूझवइ प्रभु भन्य प्राणी, भवसमुद्र तारइ तरइ ॥ २२ ॥ आगलि वइसइ नारी परखदा, केडइ वइसइ पुरुष तणी सदा । संघ चतुर्विध प्रभुजो थापियउ, अनुक्रमि आऊखं पूरण कीयउ । कीयउ पूरउ समित-गिरवर, मुगति नयरी पहुतला। जिहां नही जामण मरण काया, सुक्ख पाम्या अति भला। पंच कल्याणक थया इम, ऊजली, एकादशी। . मास मगसिर तणी भवीयण, मौन रहीयइ ऊलसी ॥ २३ ॥ पाँच भरत पॉच ऐरव्रत जाणीयइ, दस पंचा पंचास वखाणीया। अतीत अनागत नइ वर्तमानए, सहु मिल्या दउडसय हुइ ज्ञान ए॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प प्रथावली ज्ञान सं जउ ए कल्याणक, दउढसउ आराधीयइ । विधई करीयइ तउ सही सं, मुगति ना मुख साधीयइ ।। एवडी मगसिर सुदि इग्यारसि, ए समी बीजी नहीं। जिनहरख मौनइग्यारिसी तप, जिन काउ मोटउ सही ॥२४॥ - . गौतम स्वामी पच्चीसी धण पुर गुम्बर गांम, विप्र तिहां निवस गौतम । चवदह विद्या चतुर, अम्हां सम कोय न उत्तम ।। अङ्ग बड़ो अहंकार, अवर कोइ बीजो आछे । पंडित जांण प्रवीण पोहवि सगला मो पाछे ।। सहुगया हारि वादी सकज, सिद्धाइ जाणे सरख । जिनहरख सुजस सो त्रय जगत गोतम गरजे करि गरव ॥१॥ मेलि घणा ब्राहमण, इधक ओझाडधकाइ। हवै त्रिवाड़ी व्यास, ज्ञान विण हुआ घणाई ।। वेद भणे वेदिया, सहस भुज जाग सझाई । स्वाहा मंत्र सबद्द, ज्वालनल होम जगाई। करन्यास करै आहूति कर, दीयण बल देवां दिसे । जिनहरख धन्य गिणतो जणम, इन्द्रभूति इम उल्हसें ॥२॥ इण अवसर उपगार, करण आया करुणा कर। । गोठे केवलज्ञान, हलै साथै सुर हाजर ॥ .. .. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी पञ्चीसी ३६४ वजे देव वाजिक,अंग आदीत उजास । कर देव जयकार, पहर आठे रहै पासै। " नित आय पाय सुरपति नमै, दिलचा पालंतो दरद । 'जिनहरख रीति इण आवियौ महावीर मोटो मरद ॥३॥ समवसरण सुर रच, पुहवि योजन प्रमाणे । । मणि कंचण रूप मय, वडा मुनिराज वखाणे । कोसीसा कांगरा, जांणि रवि माल झलकै । जोया दुख सहु जाय, वीज ज्यं कांति विलकै । सुर असुर नाग नर ओलगे, गयण नीसाणे गाजीयो । तिहि बीचि सिंहासण प्रभु तठे, वीर जिणंद विराजियो ॥४॥ आवै मिली अनन्त, सहु सुरलोक थकी सुर । प्रभु पय भेटण प्रेम, एक हुँती इक आतुर। गयदल मिलै गैणांग, हयां हेखारव हुवीयां । एरापति चढि इंद्र, धोम सिहरा ज्यं धुवियो। नीसाण नगारे नीहसते, धज बंधी नेजे धजे । जिनहरख वीर जिन वांदिवा, समवसरण आवै सजे ॥॥ गहगहीयो गोतम, देव आवंता देखे । समवसरण संचरे, अधम ज्युं गेह उवेखे । चित्त ताम चींतवै, भरम मानव तो भूलै । पिण सुर किण साझिया, देखि ज्यांरो मन डूले। __ आइखै कोइ इन्द्रजालियो, आयो एथ आडम्बरी . Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०. 4 लिनहर्प प्रन्थावली जिनहरख देव जावै जटे, वातां सगले विस्तरी ॥६॥ इन्द्रभूति ऊठीयो, सींह ज्युं पूछां पटके । ... .... ......" वरस्यालु वाहला, जेम इधको ऊफणियो। लोयण कर वे लाल, हेक हाथल मुंय हणियो। वादीयां रां भंजण विड़द, जोयो मिल जठे तठे। जिनहरख गिण गिण गालीया, ओ करडू रहीयो कठे ॥७॥ ___ मैं जीत सेलवी, वडा कवि ओवट वहता । गोड तणा गंजीया, लाख वगसीसां लहता। ग्यालेरा ग्रह मेल्हि, पेस ले पाये पडीया। गुण्डवाणा गालीया, नेस गुजराती नमीया । सझीया सयल सोरठरा. माण मेवाडांचो मले। जिनहरख अगंजी गंजीया, वादी कोय उठ्यो चले ॥८॥ हाथीलो हीसल्ल, ताम गोतम गरज । घणा छात्र धूमरे, सबल आडम्बर सज्ज । केसरि देख कुरंग, तुरत जेही विधि वास । ऊगमीय आदीत, पुहवि अन्धकार पणासै । तजी प्राण माणंतू पुत्रां ससी, अंग पराक्रम त्यां अछ। जिनहरख वहस्सै बोलीयौ, नयणे मो दीठो न छै॥६॥ वमधमीयो करि क्रोध, भुवी कुण करै सरभर । हुच करतो हालीयो, प्राण काढुं कर पाधर । संख राव पंखवाव, लहे दर तिके भुयंगम । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी पचीसी ३७१ मो सिरखे मदमस्त, कवण आसै मांडे क्रम । छिपि जाय रिखे इन्द्रजालीयो, अथवान्हासे जाणओ। जिनहरख तास जीपं नहीं, तो माता अप्रमाण मो ॥१०॥ हुओ चित्त हेरान, देखि दीदार दहल्ले। . . मुरकोटां मांडणी, "भुरज कोसीसां भल्ले । बैठी परवद वार, आए सुर राव ओलग्गे । दीयै धरम उपदेस, भवांचा 'दालिद्द भग्गै । सखरी सुमिठ वाणो सुरस, गरजे जोजन गामिनी। जिनहरख रूप जगदीस रो, किना दीपे माणक दिनमणि ॥११॥ "ब्रह्मा किना. विरंच, वेद करता कि विसंभर । विसन रूप” वाचीजै, धरम धोरि कि धुरंधर । उदयो कोय अदित, गहल अन्धार गमाडण । निसिरावगुणो सीतल निपट, सायर जिम गहरो सही। जिनहरख कोइ अवतार जपि, नर पाधर दीसै नहीं ॥१२॥ ऊमो रहयो अवोल, वीर ले नाम बोलायो। . आव आव दुजराव, वाणि मीठी वतलायो । कहि मो जाणे केम, नाम तो कदे न सुणीयो। दीठो नहीं पिण कदे, भगति सों आदर भणीयो। नर कोण जिको मुझ नोलखे, जाणीतल हुँ त्रय जगत । __ जिनहरख सुजस गावै सको, पावन हुं हुईज पवित्र ॥१३॥ जाणे छै मो जोर, तेण बीहतो तरज्जे । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जिन ग्रन्थावली. काय वलि करसी वाद, देखि दिल भीतर दज्झे । पिण मेल्हु नहीं परति, हिवै वादी हारविसुं । मो आगे कुण मात्र, गहमातो गारव सुं । अरिहंत सन्मुख ईख नैं, बलि करि जाय न बोलणो । जिनहरख अजे बल अटकलु, जगपति रो जांणपणो ||१४|| आछे एक संदेह, मूलगो मो मन माहै । दीठा तीन दकार, वेद समरति अवगाहे । न पडे तास निरत्त, अरथ रहीयो मो आगे । जाणुं तोहिज जाण, भरम जो मन से भागे । कहि अरथ निसंकित मुझ करें, गुरु करि तो मानं गिं । जिनहर्ष विन्हे कर जोडिने, भगति करें कीरति भणुं ॥ १५ ॥ अन्तरजामी आप कथन विण पूछयां कहियो । तो हॅती रहियो । ओहीज छौ इणरो । छोड़ वे हिचेरो । वेद दकार विचार, रहस दान दया दम देह, अरथ ए तीने आदरो, हठ अन्धार मिट्यो अभिमान चो, माण मोडि मद छोड़िने । जिनहरख चरण जगदीस रा, नमीयो वेकर जोडिनै ॥१६॥ - नमो नमो जग नाथ, नमो निरलेप निरंजण | नमो नमो निकलंक, नमो भावठि भय भंजण | नमो ज्ञान गुण गेह, नमो कुमति जड़ कापण । नमो अनड़ उत्थपण, नमो थिर मारग थापण । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ गौतम स्वामी पच्चीसी सुख करण नमो असरण सरण; अपराधी नर उधरण। : जिणहरख नमो गोतम जपै, तारि तारि तारण तरण ॥१७॥ । प्रभु पय कमल वंदाड़ि, साध चो वेष समप्पे। . . __ आतम व्रत उच्चरे, धरम धोरी थिर थप्पे । कर थापे सिर कमल, तीन पद श्रवणे तवीया । वीर सधीर, बजीर, ठोड गणधर ची ठवीया । पूर्व करे चवदह प्रगट, मोटो साध अगाध मति । जिनहरख सदा मंगलकरण, गोतम गणधर अगम गति ॥१८॥ भणां लवधि भंडार, सदा सुविनीत सनेही । . सकल जाण शासत्र, कहा मुख ओपम केही । गिणां. प्रथम गणधार, कार नह लोपे कोई । आप कन्हे अणहंत, अवर केवल अधिकाई । करजोड़ी एम गोतम कहे, हेल हुसी वैकुंठ विना । जिनहरख प्रकासो वीर जिन, केवल उपजसी कि ना ? ॥१६॥ वदै ताम. महावीर, नेह साकल नांगलीयो । ___ मो उपर तो मोह, तेण केवल नह कलीयो। * भमिस्!' हुँ भव मझि, वीर सहीनाण बतावै । असटापद आरुहै, परम पद निहचे पाये। सुप्रमाण वचन करि संचरे, चढीयो असटापद चतुर । दुय आठ च्यारि जिनहरख दस, धीर हुई नमीया ज धुर ॥२०॥ ऊतरीयो ऊमहे, खांति सुं प्रभुः दिस खड़ीया । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जिनहर्ष प्रन्थावली पनरहसै त्रय पेखि, पाय सह तापस प्रतिबोधे पारणो, जुगतिं परमांन्न परवरीयो परिवार, प्रेम सुं लागे पाये । कर धरूं सोई केवली, किम नहीं मो केवल सिरी । जिनहरख छैह आपण जड़, विन्हे हुस्यां वरावरी ॥ २१ ॥ जगगुरु वीर जिणंद, मरण जाण्यो मन मांहे । सिद्धाये । चींतवीयो । गौतम मेल्ही गांम, सिद्धपुर आप समाचार सांभले, चित्त मांहे कैरो ही नहीं कोय, लाह विण युं हीलवीयो । मन माहि जांणीयो मांगसी, केवल हठ करि मो कन्है । जिनहरख कारिमो नेह करि, वीर समायो छेह चलि ||२२|| भलो कियो भगवंत, विटकग्यो केड़ छोड़ायो । 11 लारै मो लागमी, राडि करसि के रड़सी । बालक जिम बोलसी, काइ पालव पाकड़सी । वालीयो जीव गोतम वलि, वारू ज्ञान विमासियो । जिनहरख ज्योति जग चक्ख जिम, केवलज्ञान प्रकासीयो ||२३|| - केवल महिमा कीध, अमर सगला मिलि आया । आखै तहि उपदेश, अधिक प्रतिवोध उपाया । वसिया वरस पंचास, भोग गृहवास भोगवीया । वरस त्रीस बखांण, जुगति संयम जोगवीया । ..... ...... ...... t पड़ीया । । जिमावे | । ... Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वाध्याय बलि वरस बार केवल वसे, जिनहरख कहै गोतम जयो, अंगूठे अमृत वसै, मुख करे भाव त्यां करें, निमिष मां केवल जाणी । वरस आऊ सहु वाणवै । मोख तणा सुख माणवै ॥ २४ ॥ मीठी वाणी । L ३७५ निवसै जेरै नाम, कामधेन कलपतर । , चिंतामणि चित चाहि, आस पूरण अपरंपर । श्रीसोम वाणारिस सुख करण, सीस जपै जिनहरख जस । गणधार सार गोतम रा, कवित्त पच्चीस किया सरस ||२५|| इति श्री गोतम पच्चीसी सम्पूर्ण } नामे नव निध होय, कोइ गंजे नही केवा । पिसुण लगै लुलि पाय, नूर वाधे नित मेवा । साहण वाहण साज, राज रिधि अधिकी आपै । लोक लाज मरजाद, थोक सरला थिर थापै ग्रह ऊठी नाम लीघां पछी, लाभ लोभ लखमी मिलै । जिनहरख सदा गोतम जपो, विरुवा दुख जायै विलै ॥१॥ } गौतम स्वाध्यायः ढाल || विलस रिद्धि समृद्धि मिली || हनी मन वंछित कमला आइ मिलइ, दुख दोहग चिंता दूरि टलड् । दुसमण लागु नवि कोइ कलह, गौतम नामइ सहु आसफलइ ॥ १ ॥ दिन प्रति उछरंग सुरंग घृणा, निर्घोष पडइ वाजित्र तणा । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रंथावली काई न हुवइ घरमाहे कुमणा, प्रहउठी श्री गौतम नमणा ॥२॥ अनमी नर पाए आइ नमइ, असई कीरति जगमांहि रमइ । सहु कोनइ जेहनउ सुजस गमइ, गौतम समरइ जे प्रात समइ ॥३॥ हयगय पयदल आगलि चालइ, बलवंता अरीयण दल पालइ । काई पीड़ा अंगे नवि सालइ, श्री गौतम सुख संपति आलइ ॥४॥ श्री वीर तणे वचने उचर्या, व्रत पंच घणइ उच्छाह धर्या । चउदे पूरव खिणमाहि कर्या, अठावीस लवधि भंडार भर्या ॥५॥ चढ़ीया अप्टापद गिरि उपरइ, चउवीस जुहार्या जिण सुपरइ । प्रतियोध्या तापस सय पनरइ, कर फरसइ केवलन्यान वरइ ।।६।। वसुभूति पिता पुहवी माया, इंद्रभूति नाम प्रणमुं पाया। गौतम-गौतम गोत्रइं पाया, कंचण चरणी दीपइ काया ॥७॥ पहिलउ चेलड श्री वीर तणउ, पहिलउ गणधर पिणि एह गिणड । गुरु ऊपरि जेहनउ प्रेम घणउ, श्री गौतम नउ कीजउइ सरणउ ॥८॥ सुविनीति भली रीतइ विचरइ, सहु प्राणी नइ उपगार करे। श्री वीर वचन निज रिदय धरइ, संसार जलधि दुख लहर तिरइ ॥६ सुरपति नरपति सेवा सारे, जसु महिमा भूमंडल सारइ । प्रभु जाण जपइ जे दिल सारे, मन वंछित तास तुरत सारइ ॥१०॥ घर घरिणी मन हरिणी लहीये, सुत दरसण देखी गह गहीयइ । श्री गौतमना जउ पग महीयइ, दिन-रात सदा सुखमां रहीये ॥११ मन गमता भोजन नित मेवा, घृत घोल तंवोल मिलइ मेवा । सुखमाहि झिलइ जिमगज रेवा, गौतमनी जउकीजह सेवा ॥१२॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ श्री सुधर्म स्वाध्याय पहिरण वागा ओढण खासा, सिरि पाग जरी सोहइ खासा। घर मंदिर सज्या सुविलासा, तकीया सुकुमाल बिलु पासा ॥१३॥ गौ कामधेनु वंछित पूरइ, तरु कल्पवृक्ष चिंता चूरइ । मणि रयण गमइ दालिद दूरइ, गौतम नामे अधिकइ नूरइ ॥१४॥ गौतम-गौतम जे प्रातः जपइ, तेहना पातक क्षणमाहि कपड़ । घन करम भरम श्रम विगर खपइ, जिनहरख दिवाकर जिनप्रतपइ १५ श्री सुधम स्वाध्याय ढाल || श्री नवकार जपत मन रगइ || एहनी वीर तणउ गणधर पटधारी, नमीयइ सोहम सामिरी माई। 'महिमा सागर गुण वयरागर, लहीये नव निधि नामिरी माई ॥१वी।। गाम कोल्लाक तणउ जे वासी, धम्मिल विप्र सुजाण री माई । ‘स्मृति शास्त्र विद्यानउ पाठक, जाणइ वेद पुराण री माई ॥२वी।। तसु घरि नारि भदिला नामइ, तास उअर अवतार री माई । 'चउदे विद्या चतुर विचक्षण, चालइ कुल आचाररी माई ।।वी।। वरस पंचास तणे पंर्यतइं, वीर पासि तिणि वार री माई। आदर मुनि मारग आदरीयउ, पाम्यउ पद गणधाररी माई।।४वी।। त्रीस बरस प्रभु सेवासारी, छद्मस्थ पणे गुण खाणि री माई । चीस वर्ष वर केवल-पाल्यं, सत वर्षायु प्रमाण री माई ॥५॥ आठ वरस प्रभु सिव गत केडइ, पाल्युं केवल सार री माई । भव्य तणा संसय अपहरतउ, चरण करण भंडार री माई ॥६वी।। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ जिनहर्प ग्रंथावली पडत राजगृह नयरइ सिव पहुंता, पाम्या सुख अपार री माई। कहे जिनहरख नमुं चितलाइ, श्री सोहम गणधार री माई।वी।। श्री इग्यारे गणधर स्वाध्याय ढाल ॥ प्रभु नरक पडतउ राखीयइ || एहनी __ गणधर इग्यारे गाइये, श्री वीर तणा मुख्य सीस रे । जहने नामइ सहु सुख लहीये, पूजे सयल जगीस रे ॥१ग।। श्री इंद्रभूति पहिलउ भलउ, गौतम गोत्र पवित्र रे । वीजउ अग्निभूति प्रणमीजे, जीव सहूना मित्र रे॥रगा। वायुभूति जीजउ गणधारी, त्रिणे भाई एह रे। . चउथउ व्यक्त चतुर्गति छेदे, धरिये तेहसुं नेहरे ॥३गा। श्री सुधर्म पंचम गति दायक, चीर तणउ पटधार रे। मंडित छठे गणधर कहीये, पाम्यउ भवनर पार रे॥४गा। सातमउ मोरीपुत्र कहीजे, श्रुतज्ञानी सिरदार रे । वीर सीप आठमउ अकंपित, करुणा रस भंडार रे ॥गा। नवमुं अचलभ्राता स्वामो, त्राता जीव निकाय रे। . मेतारज ; दसमउ गण नायक, सुर नर प्रणमे पाय रे॥६ग।। श्री प्रभास इग्यारमउ प्रणमं, गणधारी गुणवंत रे । वीर तणा इग्यारे गणधर, प्रहसम जेह जपंत रे ॥७गा. तेह तणइ घर आंगण निवसे, कामधेनु सुरवृक्ष रे। आपे सुख जिनहरख मुगतिना, ध्यावे जे परतक्ष रे॥८गा। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ह इग्यारह गणधर पद इग्यारह गणधर पद गरुआ गणधार । अनुपम इग्यार ॥ १ ॥ प्रात० ॥ कहाय । प्रातसमै उठी प्रणमियै, गरुआ वीर जिणसर थापीया, इंद्रभूति' श्री अगनिभूति वायभूति व्यक्त" सुधर्मा" स्वामिसुं, रहीये लयलाय ||२|| || प्रा० मंडित मोरीपुत्रए अकम्पित' उल्हास | अचलभ्राता' आखियै, मेतार्य प्रभास" ॥३॥ प्राο ए गणधर श्री वीरना, सुखकर सुविसाल । थाहज्यो माहरी वंदणा, जिनहरख त्रिकाल ||४|| प्रा० इति इग्यारह गणधर पदं १० पं० सभाचंद लिखितं मुं० श्री किसनदासजी पठनार्थं ॥ श्रुतकेवली पद : राग - भैरव २ श्रुत केवली नमुं ग्रह समै, नाम लियंतां पातिक गमै ॥ श्रु० ॥ प्रभव सिजभव सुख दातार, यशोभद्र उत्तम आचार ॥श्रु०॥ श्री संभूतविजै सुविचार, भद्रबाहु पटकाय आधार || श्रु० || स्थलिभद्र ब्रह्मचार विख्यात, पट ( ६ ) श्रुत केवली एह कहात ॥ श्रु० मन सुध जपतां भव दुख जात, कहै जिनहरख पवित्र हुवैगात ॥ श्र० ॥ इति श्री श्रुत केवली पदम् Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनह प्रथावली श्री थूलिभद्रमुनि स्वाध्याय ढाल || जाटणीनी ॥ पिउडा आवउ हो मंदिर आपणे, ऊभी जोऊं थांहरी वाट । तुझ विणि सूना हो मालीया, तुझ विणि मनमां ऊचाट || १ प || विणि अवगुण कांड परिहरी, वालंभ चतुर सुजाण । हुतर थांहरा पगरी मोजड़ी, माहरा जीवन प्राण || २पि || तुझ विणि निसि दिन दोहिला, जायइ वरस समान । नयणे आवे नहीं नींदडी, न रुचे दीठा जल धान ||३पि || नेह लगाई ने तुं गयउ, तेह दह मुझ गात । झूरि झूरि पंजर हुॅ थई, तुझ विणि दुखणी दिन राति ||४पि ॥ हवा निसनेही कां थया, कां थया कठिण कठोर । ३८० एतला दिन सुख भोगव्या, तुही न भीनी कोर ॥ ५पि || प्रीतम प्रीति न तोडीये, लागी जेह अमूल । सुगुणा केरी हो प्रीतडी, जाणि सुगंधा फूल ॥ ६पि ॥ दरसण दीजे हो करि मया, ल्यउ जोवन तन लाह । ए अवसर छे दोहिलउ, नागर सागर गुण तणा, कोस्या हरिखी मनमां प्रतिवोधी कोस्या कामिनी, करि चाल्या चउमासि । धन धन धूलिभद्र मुनिवरु, गुण जिनहरख प्रकासि ॥६पि ॥ हुं नारी तुं नाह || ७पि || थूलिभद्र आव्या चउमासि ।' घणुं, सफल थई मुझ आस || ८ || 2 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूलिभद्र यारमासा गीत ३८१ ३८१ श्री थलिभद्र बारमासा गीतं दाल || माखोनी ॥ श्रावण आयउ वालहा, 'वरसे धार अखंड । साहिबीया इणि रिति सहु को घरि रहह, घरिणी सं हित मंडि ॥१सा।। कोश्या नारी इम कहइ, सांभलि थलिभद्र नाह ।सा। विणि अवगुण परिहरि गया, कां देई गया दाह ।सारको। भादरवु गाजे भयु, गयण न मावे बीज ।सा। ऊवट जल नदीयां बहह, निरखि निरखि मन खीज ॥सारको।। आसू आस्या पूरवउ, आ तन मेलउ घउ मुझ ।सा। कठिण वियोग न सहि सके, अरज करू छं तुझ माटको।। काती कंत घर आवीयउ, घरि घरि दीवा ओलि सा|| परख दीवाली तुझ बिना, मुझ केहउ रंग रोल साको।। मगसिर मासइं चमकीयं, टाढउ गाढर सीत सा|| पूरव प्रीति संभारी नइ, आइ मिलर मोरा मीत सापको॥ पोसइ काया सोसवी, सीत न सहणउ जाइ ।सा। नयण नावे नींदडी, जागत रयणि विहाइ साको माहई कोमल सेजडी, सूईयइ मिलि मिलि कंत । करीये मननी बातडी, पूरवीयइ मुझ खंति ॥साटको।। फागुण होली कीजीये, रमीये फाग उलास (सा। अबीर गुलाल उडावीये, कीजे विविध विलास साको चेत्रई नव पल्लव थई, सगली ही वणराइ ।सा। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जिनहर्प प्रथावली पिणि काया नवि पालवी, निति सूकंती जाइ ।।सा१०की। कोइल करड् टहकड़ा, आत्यउ मास वैसाख ।स। मउर्या तरुअर आंबला, मउरी वन-वन द्राख ॥सा१२को।। जेठ तपइ अति आकरउ, दाझइ मोरी देह ।सा। मांखण जिम तन परघलइ, टाढउ करि धरि नेह ॥सा१२को।। आसाइ प्रिउ आवीया, आव्यं पावस देखि ।सा। मन नी माझ सफली थई, पाय लागी सुविसेस ॥सा१३को।। भले पधार्या नाहलीया, पूरेवा मुझ आस ।सा। संभारी दिवसे घण, राखउ हिवे प्रिय पास ॥सा१४को।। चित्रसाली मुनिवर रह्या, कोसि करइ हावभाव ।सा। पिणि लागा नही मुनि भणी, काम वचन ना घाव ॥सा१५को।। कोस्या वेस्या मंदिरे, करि थूलिभद्र चउमास ।सा। प्रतिबोधि सुर सुख लह्या, गुण जिनहरख प्रकाश सा१६को।। श्री थूलभद्र वारहमास ढाल ॥ पाख्यान नी ।। प्रथम प्रणमुं मात सरसत, चरण पंकज दोय रे । प्रह ऊठि सेवं भाव आणी, बुद्धि निर्मल होइ रे ॥ जे ज्ञानि हीणा देह खीणा, रहइ दीणा जेह रे। . सुपसाय माय तणइ नीरोगी, थाय पंडित तेह रे ।। वाणी विसाला अति रसाला, मात द्यउ सरसत्ति रे। हुं गाइसुं रिपि बारमासउ, थुलिभद्र मुनिपत्ति रे॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री थूलभद्र बारहमास ३८३ जिणि कोसि नइ प्रतिवोध देइ, शील समकित दीधरे । धन धन्न ते गणवंत मनिवर. नाम अविचल कीध-रे-॥ असी च्यारि.८४) मिली चउवीसी, नाम रहिस्ये जास रे । जस नाम निरमल थाय रसना, हीये होइ उलास रे ॥ १ ॥ मास मगसिर सीत चमक्यं, प्रीति तोडी नाह रे । तुम्हे जाइ सहीयां कंत ल्यावउ, गयउ देई दाह रे ॥ जिणि पाछिली निज प्रीति छडी, लीय संयम भार रे। कोस्यात नोरी विरह माती. लोयणे जलधार रे॥ मुझ प्राण न रहइ प्राणपति विणि, प्राण जास्ये ऊडिरे । तुमने कहुँ छु वात साची, जाणिज्यो मत कूड रे ।। मुझ मांहि अवगुण किसउ दोठउ, नाह दीधउ छेहरे । मुझ प्राण परि राखतउ प्रिउ, किहाँ गयं ते नेह रे ।। कंत कीधउ कठिण हीयड, मुझ जाणी पीडि रे। जउ जाणती हु एह जास्ये, राखती उर भीडी रे ॥२॥ इणि पोस मासे रोस कीधउ, दोष दोषइ कत रे। तुम्हे सखी पूछउ कंतनइ जई, किसी तमने चिंत रे ॥ हुँचमकि ऊ एकली निसि, निरखि जोउ नाथ रे । तउ नाथ देखू नहीं पासे, भुंइ पड्या वे हाथ रे ॥ मइ कदी तुझ नइ पूठि नापी, मुझ देई गयउ पूठि रे। दुख ताप विरह लगाइ तउ, चलियउ तुं ऊठि रे॥ । मुझ एकली नइ सीत व्यापे, काम कापइ अंग रे । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जिनहर्ष ग्रंथावली तुझ विनती हूं करूं प्रीतम, राखि रूडउ रंग रे || मुझ देह कोमल कमल दल सम, कठिन वाले हीम रे । मुझ प्राण थास्ये पाहुणा प्रिउ, क्रूड कहु तउ नीम रे । इणि टाढ महं किम गाढ़ कीजे, रंग रमीये सेज रे । हेज रे ॥ ३ ॥ हरख मिलीये थूलभद्र कोशा कहे नारी, माह मासें कां नासे, राखि पासे नारि रे । करि कठिन हीयड़ गयउ पीयडर, करू कासि पुकार रे ।। इणि कारिमी करि प्रीति प्रीतम, लोयउ मुझ चित चोर रे । पिणि हनउचित किमि न भीनउ, जाणि पाहण कोर रे || हु जाणती ए कंत मोरङ, एहनीं हूं नारि रे । पिणि इणि धूतारे मुझ धृती, मै न जाणी सार रे ॥ प्रथम पहिली जाणती जउ, प्रीति थी दुख हो रे । तउ नगर पडहउ फेरती, मत प्रीति करिज्यो कोइ रे || मन ऊपरिलो प्रीति कीधी, माहि कठिण कठोर रे । दीसत सुंदर वदन हसतउ, जिसन पाकुं बोर रे ॥ ४ ॥ मा फागुण फरह सखी, नारी नर उछाह रे । हु फाग किणि सुं रमुं सहीयां, अजी नायउ नाह रे ॥ संयोगिणी मिलि कंत साथइ, रमइ लाल गुलाल रे । राता गाल रे || चंपेल तेल फूलेल मेली, करड़ भला चंग मृदंग वाजे, गीत करड़ क्रीडा तजी व्रीडा, जल तणी सुविसाल रे || राग धमाल रे । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री थूलभद्र बारहमास ३८५ इणि परइं होली रमइ टोली, पहिर चोली सोहती। निज कंत दोली फिरह भोली, मानिनी मन मोहती ॥ मुझ प्राणनाथ : मनाई ल्यावउ, खेलीये मन रंग रे।। निज नाथः साथि विलास कीज, रागरंग सुरंग रे ॥५॥ चतुर चैत्र सुहामणउ, आयउ राज वसंत . रे। तरु पान पाकापडी थाका, नवा पल्लव ढुंत रे।। दव तणा दाधा ‘जह तरुवर, तांह माथइ फूल रे । हुनाह विरह वियोग दाधी, देखि माहरउ सूल रे॥ बहु मूल भूषण अंग ‘दूषण, पहिरीया न सुहाय रे। पटकूल चरणा चीर वरणा, फरस कंटक थाय रे ।' कुण नाह विणि सिणगार देखइ, रीझबुं हुं कासि रे। किणि साथ मन नी वात करीये, नही प्रीतम पासि ।। कोई कहइ प्रीतम आवइ तउ, दीउ नवसर हार रे।। वली कनक जीभ घड़ाइ आपं, वली लाख दीनार रे ॥६॥ सहु सुणउ महीयां कहइ कोस्या, आवीयउ वैसाख रे । वनखंड फलीया सयल तरुअर, फली दाडिम द्राक्षरे। ' सहकार 'बइठी कोकिला, वोलत. मधुरइ सादरे। पापिणी पिउ पिउ संभारइ, बधइ मन विसवाद रे।। मुझ अंग योवन बाग फुल्यउ, माण गर वर कंत रे । ते गयउ रस न लेणहारउ, सवल मनमें चिंत रे ॥ मन चिंत केहने कहुं सहीयां, दीह जिमतिम जाइ रे। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૯ जिनहर्ष ग्रंथावली, पिणि पापिणी ए राति दूभर मुझ छमासी थाइ रे ॥ सेज सूता सुपन माहे, मिलइ प्रीतम आह रे । उघाड़ि नयण निहालि देख, नाह नासी जाइ रे ||७|| जेठ जेठा थया वासर, तपे आतप जोर रे । रवि किरण लागड़ जाणि पावक, करूं ओवि निहोर रे ॥ लू कठिण वाय क्षीण थायड़, देह आकुल व्याकुली 1 ढीला तराणी हुवइ कांकण, हाथ थी जाइ नीकली ॥ इणि रित कंता कांडं मुक्या, गउख मंदिर मालीयां । दधिना करव कपूर वासित, नारी श्रीसह बालीयां ॥ एकवार आवी मिलउ प्रीतम, ताप तन नउ ओल्हवउ । करि अङ्ग सीतल संग करिन, प्रेम रस पाई वउ ॥ तुझ विना सुल समान आभ्रण, अंग लागइ सर सरा । बावना चंदण अगनि सरिसा, मुज्झ लागइ आकरा ||८|| आषाढ़ आयउ गाढ करिन, सूर वादल छाईयउ 1 बरसात रिति आई सहेली, नाह अजी नावियउ || निज महल महिला सांभर्या, परदेशीया नह पिणि सखी । इणि कठिन नाह वीसारिमूंकी, प्रीति कीधी एक पखी ॥ मानसरोवर भणी चाल्या, हंसला पिणि हरसीया । पंखीए पणि नीड़ घाल्या, नरे घर फेरी कीया ॥ नरनारी मिलीया विरह टलीया, सहु थई संयोगिणी । निर्दोष छोडी प्रीति तोडि, कंत कीध वियोगिणी ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री थूलभद्र वारहमास ३८५ थूलभद्र गुरुनी आगन्या लेई, आवीया कोस्या परे । चउमासि करिवा निरखि हरखी, सफल दिन थयउ आजरे ॥६॥ मास श्रावण चित्रसाली, मुनि रह्या चउमासि रे। सुचि नीर भंजन कंत रंजन, चीर पहिर्या सासि रे ।। निलवट्ट तिलक वनाइ केसर, नेत्र काजल अंजीया । रवि तेज मंडल कान कुंडल, कनक सीका मंजीया ।। क्रनक नथ मोती मुकर जोती, पानवीडा चावती। कोटइंत पहिर्या हार सुंदर, कनकमाला फावती ।। झूमणउ पारा हार तूसी, चाक भ्रमर सीसफूल रे। फमतउ सोहइ सीस वेणी, घूमतउ बहु मूल रे ॥ . कर चूड़ि खलकइ कनक फेरी, कांकणे कर सोहतउ । बहिरखा वींटी गूजरी, अंगूठडी मन (मन) मोहतउ । चरणेत जेहड वीछीया, अण वट्ट पहिरि पटउलडी। अतलस्स चरणउ पंच पयनी, कांचली उरसुं जडी ॥ सिणगार सोलह सज्या सुंदरी, मदन माती मानिनी । थूलभद्र आगलि आचि बइठी, चतुर चित चंद्राननी ॥१०॥ ' भावे गाज आवाज करि ने, आवीयउ जलधार रे। घन घटा घोर अन्धार चिहुँदिसि, वहइ नीर आधार रे ।। चमकंत चपला डरूं अवला, कंत मेलउ आपि रे। मुझ प्राण जाता राखि कंता, विरहिणी दुख कापि रे॥ बापीयडा पीउ पीउ करे पीउ, सांभरे मुझ राति रे । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जिनहर्प प्रथावली हीयड त सालइ साल नी परि, कहु केही बात रे ।। इणि रितई पावस जीव नहीं बसि, मिलर बांह पसारि रे। मुझ साथि भोग वियोग टाली, भोगवट भरतार रे । एचडउ हठ न कीजे स्वामि, प्रीति पूरवि पालि रे । मुझ पंच वाण प्रहार लागै, गखि राखि दयाल रे॥११॥ एहनउ हीयडउ वन सरीखउ, मिलइ न अन्तर खोलि रे । चांद्रणी रयणी दुख दइणी, कामिणी विणि कंत रे।' बहु काम व्यापे हीयउ कापड़, कापि दुख गुणवंत रे ।। बहु गया वासर रह्या थोड़ा, निटर हिवे हठ छोड़ि रे । ए गयं जावन आविस्य नहीं, कहु ,वकर जाड़ि र॥ सिसि किरण लागइ वाण सरिखा, वाण मइं न खमाइ रे। राखइत प्रीतम राखि तं मुझ, प्राण नीसरी जाइ रे । नवरंग सेज विलास कीज, टालि विरह वियोग रे। तुं कंत हुँ गुणवंत नारी, मिल्यो ए संयोग रे ।।१२।। कातीत कंता आवीयउ, बहि गयउ हिवे चउमासि रे। मुझ वयण चित न भेदीयउ, भागउ त मन वेसास रे।। दीवा करे घरि-घरि दीवाली, करे परम उच्छाह रे। । मुझ नाह माण न मेल्हियउ, तन दीयउ होली दाह रे।। - निज सखी मेली तानः भेली, करे निरुपम नृत्य रे। कंसाल ताल मृदंग धप मप, रीझवे प्रिय चित्त रे ।। . थे। शेइ , उचरई मुखि, . झिझिकि झझं झझरा । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूलभद्र चउमासा ३८६ " गिधु धौंकि दोंदों तिल वाजड़, झिमिकि रमिझिम घुग्घरा ॥ देशी दिखावे राग गावे, कठिण चित पिणि परधलइ । थूलभद्र चित भेद्यउ नही किम, मेरुगिरि चाल्यु चलइ ||१३|| थूलभद्र कहे कोश्या सुणउ, चिपय विषफल सारिखा । थकी लहीये नरक ना दुख, तेहनउ कोइ न सखा || प्रतिबोध देई सील समकित ऊचराव्यउ तास रे । कोश्या कहे धन धन्न थुलभद्र, मुझ दीयउ सुख वास रे ।। एहवा सज्जन थोडला, जे करे धर्म प्रकाश रे । मुनिराय निर्मल सील पाली, आविया गुरु पासिरे || गुरु कहे आदर मान देई, दुक्कर दुकर कार रे । मसि कोटडीमां वस्त्र निर्मल, रहे नहीं निरधार रे || इम शील पालइ धन्य ते नर, तास नमीये पाय रे । जिनहरख बारहमास भणतो, रिद्धि नव निधि थाय रे || १४ || श्री थूलभद्र चार महीना लिखितान्येतत्पत्राणि जिनहर्पेण । थूलभद्र चउमासा || ढाल चद्रायणानी || श्रावण आयउ साहिबा रे, झिरमिर वरसह मेहो । झव झव झवकड़ वीजली रे, दाझइ मोरी देहो || दाइ मोरी देह रे बाहा, हीयडड़ लागड़ तीखा भाला । 1 प्रिउ चीतारड़ चातक काला, मो विरहिणि ना कउंण हवाला ॥ १ जी ॥ पीयाजी रे तुमे कांड थयां निसनेह, सांभलि वातडी रे । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० जिनहर्ष ग्रन्थावली एतउ मातउ पावस मास, दुभर रातडी रे ।आं०1 ऊमटि आव्यउ वालहा रे, भादरवे जलधारो ॥ । नयणे जलधर ऊल्हर्यउरे, जाग्यउ विरह अपारो। जाग्यउ विरह अपार पियारा, तुझ पाखइ किम रहुं निरधारा ॥ तं प्रीतम मुझ प्राण आधारा, विरह वुझाइ करउ उपगारारजी।। आसू मो मन आसडी रे, सूईयइ एकणि सेजो। करीयइ मननी चातडी रे, हीयडइ आणी हेजो । हीयडइ आणी हेज निजा, ढोहइ कांई चिण्या ए चेजा। हेजइं मिलिकइ तउ मुझ लेजा, प्रीति करे कांइ रेजा रेजा ॥३जी।। काती छाती मई वहइ रे, कबउ न मानइ कता । ए वाल्हउ नीटुर थयउ रे, कांइ न पूरी खंतो ।। । कांई न पूरी खंति हीयानी, आरति सवलि नेह कीयानी। ईणइन लही पीडि तीयानी, आस किसी हिवइ मुझ जीयानी॥४जी।। च्यारे मास उलास सुं रे, श्री थलिभद्र जयकारो। काशा नारी वृझवी रे, पाय प्रणम वारंवारा ॥ पाय प्रणम बार-बार सदाइ, मोटा साधु तणी अधिकाइ। नारी संगति सील रहाई, लही जगत जिनहरख भलाई ॥जी॥ स्थूलिभद्र गीत भलै ऊगउ दिवस प्रमाण, पियाजी ! आज रौ सौभागी। मैं तो दरसण दोठौ वाट, जोवंता राज रौ ।। सो० ॥ भरि भरि थाल वधावी, हो गज मोतीयां, सो० Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'थूलभद्र चउमासा ३६१ म्हारी आँखंडिया उमाहो, · निसंदिन जोतीयां ॥१॥ सो० ऊभी वेकर जोड़ कोस्या प्रिय आगलै, सो० मुझ सफली कर अरदास, मनोरथ ज्यं फलै। सो० थे तो महिला आयो आज, कठिण चित क्यं थया । म्हारी पूरो बंछित आस, करौ मुझ सुं: मया ॥२॥ सो० थूलभद्र कहै सुणि कोस्या बात सुहामणी, दे चौमास रहेवा थानिक मुझ भणी, सो० .:. ... ... ... ... ... ... .. ए चित्रसाली गोख सुरंगी जालियां ॥३॥ सो० मुझ सं साढा तीन रहे कर... वेगली, . लेई वोल अमोल रह्यां तिहां मन रली, पटरस भोजन सरस सदाई तिहाँ करे. जोवन रूप अनूप विन्हेई इण परे ॥४॥ आयौ पावस मासक 'अम्बर गाजियौ, ऊमट आयौ इंदक मेहा राजियौ, . काली कांठल मांहि क झबूकै वीजली, " वाहे वेहुँ पसारि मिलं पूजै रली ॥१॥ थारां भीभलीयां नैणा रा जाउं वारणे, : - मैं तो कीधा सहु सिणगार, तम्हीण कारणै । __ तुं तो आधों ही हठ छोड़, हठीला नाहला ॥६॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जिनह प्रन्थावली थैतो कांड तजौ निरदोस, सलूणी कामिनी, आ तो अपछर रे, अनुहार चलें गज गामिनी । सधीरा हुई रहया, सरीआजी रा थे वीर, मैं तो इण भव तोरा नाह, चरण सरणं ग्रथा ||७|| तूं तो सुण कोस्या संसार, असार असासतो, श्री जिनवर भाषित, धरम अछै इक सासतो । सहु भोग संयोग, किंपाक सरीखा ए अछे, समझि - समझि गुणवंत, कहिसि न कहो पर्छ ||८|| दे उपदेस विसेस, धरम सुं रीझवी, धन धन धूलिभद्र जेणि, कोस्या सील तणो व्रत जेणि, धरयो थह लुलि - लुलि लागी चरणे, पुण्य पुण्य करि नै चौमास उल्हास, गुरां पासै गया, दुक्कर दुक्कर कार, कही ऊभा थया । पंच महाव्रत निरमल चित्ते पालीया, देव थया देवलोक तथा सुख भालिया ॥१०॥ एहवा जे मुनिवर गावे, जे गुण जीभड़ी, जनम सफल दिन सफल, सफल थाये घड़ी । चउरासी चौवीसी, नाम न जावसी, कहै जिनहरख सुजांण, वणा सुख पावसी ॥११॥ प्रतिवझवी । श्राविका, प्रभाविका ॥६॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादाजी गीत __३६३ दादाजी जैतारण धुंभ गीतम् मनडौ उमाबउ दादा माहरउ, हो दादा जाणुं हो हुँ तो भेटुं थारां पाइ, थां परि वारी हो साहिब जी। अलजौ तउ दादा थारौ अति घणौ, हो दादा, दरसण हो देखं हियडै हरख न माइ ॥१ थां परि०॥ केसर चंदण दादा अगरजउ हो दादा, मांहे हो कस्तूरी मेल कपूर । पगला हो पुजु दादा प्रेम सुं हो दादा, संकट हो सगला जायइ दूर २ आरति चिंता दादा अपहरउ हो दादा, वंछित हो वारू मनड़ा केरा पूर । सेवक सुखीया दादा कीजीयइ हो दादा, आराध्या आवौ आवौ वेग हजूर ।। ३ ।। एकण जीभइ दादा ताहरउ हो दादा, किणपरि हो गाउं गाउं जस सोभाग। मोटा तो विरचइ दादा नहीं कदे हो दादा, सेवक हो उपरि राखौ राखौ राग ॥४॥ तो सुं तो दादा म्हारो मन मिल्यौ हो दादा, वीजउ हो कोइ नावइ नावइ दाइ । __ भमर विलूधौ दादा केतकी हो दादा, ____ कहौ नइ किम अरणी फूले जाइ ॥५॥ सीस नवाऊं दादा तुझ भणी हो दादा, गाउं हो तुझ आगे Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जिनहर्प ग्रन्थावली सुनजर जोवौ दादा सामुहो हो दादा, मुझ सं हो पूरी पालौ पालौ प्रीत ॥६॥ परचौ तौ दादा ताहरो अति घणौ हो दादा, खरतर संघ केरी पूरउ पूरउ आस । कहइ जिनहरख उमेद सुं हो दादा, धुंभ वण्यो थाहरौ जैतारण मई खास ॥७॥ इति श्री दादाजी गीतं संवत् १७३५ वर्षे ॥ श्री . दादा जिनकुशलसूरि गीत ... -" डाल—सोहला री सदगुरु सुणि अरदास हो, सेवक हो दादाजी । सेवक कर जोड़े कहै हो। पूरौ वंछित आस हो। महियल हो. दा. म. म. जिण भलपण लहै हो ॥११॥ इण कलकाल मझार हो, तो सम हो दा. तो तो. अवर वीजो नही हो दीठां देव हजार हो, मन हो. दा. म. म. तूं मांन्यौ सही हो ।। सीस धरूं तुझ आंण हो, वीजा हो दा. बी. बी. सहु अवहील नै हो। तूंसाचौ दीवांण हो. आपोहो., दा. आ.आ. संपति लीलनै हो।३। भावठि भाजै नाम हो. दरसण हो, दा. द. द. नवनिधिपांमीयै हो। पूज्यां टलै चिरांम हो. सदगुरु हो., दा. स. स. तिण सिरनामियैहो।४ जील्हागर जसुतात हो, दाखांहो. दा. दा.दा. दुनियां दीपती हो। जैतसिरी प्रभुमात हो.तिहुअण हो, दा. ति. जस ताहरौ हो ॥५॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेसजी रो छंद ३६५ कूरम नयण निहार हो. बंछित हो, दा. चंछित. व. सीझै माहरा हो। तूं सेवक प्रतिपाल हो. प्र. दा.प्र. पूजे जग पग ताहरा हो ॥६॥ जिणचंदसूरि पटधार हो, खरतर हो. दा.ख. गछ सांनिधि करै हो। अड़बड़ियां आधार हो साचौ हो, दा. सा. सा. खोटे अरै हो । अवर सुरासुर देव हो. करतां हो, दा. क. क. मुझ मन ऊभग्यौ हो। हिव मैं लाधौ देव हो. तिण तुझ हो. दा. ति.ति. चरणे हूँ लग्यौ होट श्री जिनकुशल सूरीसहो. हाजरिहो.दा.हा.हा. हुइ देखें किसं हो। साहिब तुझ सुजगीस हो, गावे हो, दा. गा. गा. गुण जिनहरख मुंहोई ॥ इति श्री जिनकुशलसूरि गीतं ॥ .. सवत् १७३५ वर्षे जेष्ट वदि १० दिने । पं० सभाचंद लि० श्री गणेशजी रो छंद संपति पूरै सेवकां, अंग चसै आसत्ति, माण मोडि कर जोड़ि कर, गाइजे गणपत्ति ॥१॥ सूंडालो आखाँ सकल, सह वातां समरत्थ, अनमि नमावण अकल गति, अगणित जाण अरस्थ ॥२॥ ॥ गाथा ॥ गवरी पूत गणेशं, ही सोहंत किन्ह अहि सेस । चंदद्ध भाल चढियं, पढीयं गुण सायरं वंदे ॥३॥ वंदे सुर नर त्रय वखत, थानिक थानिक थट्ट । गावै जस मिलि मिल गुणी, गीत गुणे गहगट्ट ॥४॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जिनहर्प ग्रंथावली ॥ छंद त्रोटक ।। गहगट्ट सदा नर गीत गुणे, थिर थानिक थानिक जस्स थुणे महिमा नव खंड अखंड महं, गह पूरत मत्त मसत्त गहं ।।शा झिग मिग निरमल नूर झिगै, आदीत दुवादस तेज अगें। वपु रूप दण्यो कहि केम कहाँ, लख लोक तुमीण पास लहां ॥६॥ 'गज सीस अधीस गजे गहटा, पूरंत पटा झरता पहटा, घणघोर सजोर असाढ़ घटा, लहकंत इसा सिरसाम लटा ॥७॥ 'भणि भाल अरद्ध ससी भलके, कृपनंग भुयंग गले किलके । दीरग्ध अरग्घ इको दशनं, रस वाणि सुखांणि वदे रसनं ॥८॥ सुंडाल सचाल जडाल जडा, धमचाल सवाल उथेल धड़ा। मछराल वहाल अचाल मतं, बुधियाल छंछाल रसाल वत।६।। 'पेटाल कुंदाल भखै प्रधलं, सुकमाल वडाल नमै सकलं । किरणाल कृपाल तपै कमलं, उरमाल फूलाल वसै अमलं ॥१०॥ चढि मृपक वाहण पंथ चले, त्रयलोक अधार अपाण तले। 'फरसी ग्रह सत्रव फंफरीयं, करि प्राण केवाण वसं करीयं ॥११॥ अनमी अरिनांमण जाय अडे, प्रभु कोप करै सिर रीठ पडै ।महिपति सुरासुर आन मनै, कुमुखै जिण ऊपर कीध कनै ॥१२॥ श्रीयपति तणी जदि जान सझे, गड़त मदोमत गोड गजे। इय पाखरीया हणणंत हठी, करि आरम्भ पारन कोइ कठी॥१३॥ स्थ पायक लायक रूकहथा, तकि तीख अणी मिल तान तथा । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ गणेशजी रो छंद गड. नीसांण सबद्ध गिरे घमसाण मच्यो उछरंग घरे ॥१४॥ चतुरांग सुरां दलि संचलिया, हिव साथ विनायक जी हलीया ।। मिल माहोमाही मतो मतीयो, लछि लाभ पिता मति साथ लीयो ॥१॥ घट ओघट घाट सहल घणं, गणपति रहो मकरो गमणं । सहू मेल्हि चल्या हरि जान सुरं, हेरम्बतरै हठ कोप करं ॥१६॥ करि रीस करामति फोरवीयां, कोइ जांण न पावे एम कीया फिरीणा निसि पाछो साथ फिरै, कर जोड़ी मनाय अरज करै॥१७॥ महाराज थया अम्ह मूढ मनं, पिण धोरी तू हिज धन्न धनं करुणा हिव दीनदयाल करौ, हठीयाल मनां सुं रीस हरो॥१८॥ लखि वार पगे नमि साथ लियो, कुमखे गणपत्ति अचंभ कियो । कहि केहा तुज्झ वखाण करां, सुर राय मानवी सीख सुरां ॥१६॥ महारुद्र तणौ सुत मोट मनं, धणीयाप धणी कर देह धनं । आतम थकी उपाय उमा, सरजीत करै थाप्यो सुरमां ॥२०॥ धरणी सिधि बुधि सुं प्रेम धणे, वर वींद थयो ज्यं इंद्र वणै । करि जोडि विन्हे नित सेव करै, उदियो बलवंत मुखां उचरै॥२१॥ लछि लाभ सऊजम वेइ सुतं, जसु नाम कह्यां लछि लाभ युतं । कहतां तो नाथ विधन्न कट, घट पाप खिणंतर मांहि घटे॥२२॥ __ सुर कोटि तेतीस नमति सदा, कोइ आंण न लोपे तुज्झ कदा । देवां चो आगेवाण दिपै, छल छिद्र सकोइ दूरि छिपै ॥२३॥ दुख भूतः दईत खईस डरं न लगै कोइ, रोग निरोग नरं । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जिन ग्रंथावली धरान जिके मन मांहि धरै, भण्डार तिहां धन धान भरे ||२४|| गुण नीर कमण्डल हाथ ग्रहै, वीजै कर अंकुश सत्रवहै । जपमाली झाले जाप जपै, कर हेकण मोदिक भूख कपै ॥२५॥ सेवकां सामि प्रसन्न सदा, कुमणा मन काय रहै न कदा | केन्यां चो अंत तुरंत करें, पर दीपां आण समंद पर ||२६|| वाल्हेसर सेण मिलावे वेग, उचाट मिटे मिट जाय उदेग । पछाडै सत्र करै पैमाल, नमै पग तेह सदाई निहाल ||२७|| चीवाह विषै तो थाप तठे, कहताज उपद्रव कोड़ कटै लख लाभ विनायक नाम लीयां कीरति दिसो दिस जाप कियां |२८ कलस - जाप कियां जस वास वास पूरण इधकारी । नाम लीयां नवे निध अधिक साहिव उपगारी ॥ पूरै वांछित प्रेम मने मही रावल राजा । गुण गायां गणपति तुरत तूसै दिन ताजा || सुवनीत नारि सकजा सुतन, महीयल मन चिंतत मिलै | जिनहर्ष विनायक जस जपै तो जपियां दोहग टलै ॥२६॥ इति श्री गणेशजी रो छंद सम्पूर्ण देवी जी री स्तुति दोहा पारंभ करी परमेसरी, केहर चढी सकोप । असुंर तणा दल आयनै, अडीया सन्मुख ओप ॥१॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवीनी री स्तुति ३६६ रगत नेण -रात मुखी, रातंबर रो साल सहस भुजे हथीयार ; सझि विड रूपण वैताल ॥२॥ असुर जिकै असलामरा, मिलीया- वेढक मल्ल देवीन... देतों दलै, । हूकल.-, लागी हल्ल ॥३॥ __ - छंद,-पाढगति हल्ल हल्ल लागी, हूक टोले ऊडै लोह टूक सागिड़दा गिडदा वाजैसोक वेरियां, विचाल। सणणवहंत .सर सरिमा फिरै समर गडड वाजंत गोला- नाग्डिण्डिदा नाल ॥४॥ गाग्डि डिदा गाजै गन ढालां सोहे नेज धजा. हेवरां नरां हैंखार पामिजे न पार सीहणी पलाणी-सीह वेरियां तणो न बीह हाग्डि ग्डिदा हथियार हीवती हजार ॥शा दागिड गिडदा दीयै दोट चाग्डि ग्डिदा चोट चोट ईसरी रहे न ओट- झंझे झाझे झूल खांडा तणी खोटि खड़ धाग्डि डिग्डिदा पाड़े धडा चटका भरती -वाल -- त्रीवीया त्रिसूल ॥६॥ ना ग्डिदा घुरै नीसाण जंग मातो जम राण जाग्डि ग्डिदा ढाल जांगी सिंधुडे सबद्द धुंआ माण विधिकट नारद नाचै निकट ताग्डि ग्डिदा तता थेइ वाचतो विहद्द ॥७॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जिनहर्ष ग्रंथावली फाग्टिदा भरंति फाल केवीयांह हलाल काल, खलकै रूहिर खाल गोडीया गयंद । ' दोषीया निजर दीठ रोस माथै पाडै रीठ, छाग्डिदा उतारे छाक माल्हती मयंद ॥८॥ खाग्डिग्डिदा थाट थाट झाडिग्डिदा दीये झाट विहंती आराण बीच वाढंती विहंड। महादेव मछराल माग्डिग्डिदा रुंडमाल । सोहे हीय. सिणगार पाडीया प्रचंड ॥३॥ देत दलां लागी लीक भगवती निरभीक, त्राहि त्राहि तुंही तुंही राखि राखि राखि। . महामाई महामाई पांण छोड़ कर आया पाय, पाग्डिग्डिदा पालिपालि भाग्डिन्डिदा भाखि ॥१०॥ कलश नागिड गिडदा भाखि असुर ज्युं तूल उडायें । निह स पडै नीसाण छोह अरियणां छुडाये जागिड गिड़दा जैत सुजस दह दिसे सवाइ राग्डि गिड़दा रूप मेर समवड़ महामाइ , खेरीयो खाग सत्रां सिरे हार मनावी हकले जिनहरख नमो बलि योगिणी वखतांवर आखाँ बले ॥११ .. इति श्री देवीजी री स्तुति Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ वर्षा वर्णनादि कवित्त . वर्षा वर्णनादि कवित्त । । प्रथम तपइ परभात, रगत चरणो रातम्बर पीड झरइ परसेद, अधिक मिस वरणो अम्बर उदक कुंभ उकलइ, निपट चिड़िय रज नाहइ वृषि चढ़इ विपधार, सगति मुख इंडा साहइ तुरत रिलवइ तिमरी चपल, घणु जीव हाकइ घणा जिनहरप चपल चात्रिग चवई, ए आरख वरसा तणा ॥१॥ मेह का कारण मोर लवइ फुनि मोर की वेदन मेह न जाणइ । दीपक देखि पतंग जरइ आंगि सो बहू दुख चित्त भइ नांणइ । मीन मरई जल कंइज विछोहत मोह धरइ तनु प्रेम पिछाणइ । पीर दुखी की सुखी कहॉ जाणत, सयण सुणइ 'जसराज' बखाणइ २ . सिंह के कौन सगा काहेकं मित्त ज्यं प्रीति न पालत प्रोति की रीति समूल न जाणइ । नेह करइ करि छेह दिखावत, सयण कुसयण उभय न पिछाणइ रोस करइ ज्युं विचार सनेह, सनेह पुरातन चीत न आणइ । सिंह कइ कवण सगा असगा, सवही सरखा 'जसराज' वखाणइ ॥३॥ . शृंगारोपरि सवैयाःगोरउ सउ गात रसीली सी बात, सुहात मदन की छाक छकी है। रूप की आगर प्रेम सुधाकर, रामति नागर लोकन की है। नाहर लंक मयंद निसंक, चलइ गति कंकण छग्यल तकी है। धुंघट की ओट में चोट करडु, 'जसराज' सनमुख आय धकी है ॥४॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जिनहर्प ग्रन्थावली जाके आछे तीछे नयण, आछे ही रसीले वयण चातुरी ही आछी जाकी, आछउ गोरउ गात है। । आछी ही चलत चाल,, आछे ही कपोल गाल; . आछे ही अधर लाल, आछी आछी बात है। .. आछो ही दखिण चीर, आछी कंचुक वोचि हीर; आछी ही पहिर सारी, आछी ही कहातु है। - आछी ही पायल वाजइ, आछी घुघराली छाजह, , 'जसराज गोरी भोरी, आछी आछी जातु है ॥शा दुर्जन उपरि पुनः सवैया:नयन के देखो नाहिं, कानन कुं सुनी नाहि. . ऐसी बनाय कहै, सुणी हुँ खीजिये। जाकै मेली मति गति, अति है कठोर चित्तः क्रोधन को गेह तासु, कवल न पतीजिए। जाका मन में है खोट, हरदे है कपोट का खोट; . ऐसी ही बनाय कहै, देख्यां पतीजिए। १ . सुनो मेरे यार, -'जिनहरप', कहै विचार; ऐमो दुर्जन ताको, कारो मुंह कीजिये ॥१॥जात छुटे भय प्राण अमानत, ऐसो हलाहल भी विप पीजे । केसरी सीह अवीह उमंग सुं, जाइ सनमुख साह भी लीजे। जाके बदन वसै विष झाल, भुजंगम झालिके चुम्बन लीजें। सजनी सीख सुनो 'जसराज' के संग कुमाणस को नहु कीजे र Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीयाली, पनरह तिथरा संवैया ४०३ सगा-सज्जनोपरि कवित्त :सरवर जल.तरु छांहड़ी, सगौ जु भंजै भीड़ । सजण सोई सराहीये, जाणे सुख दुख पीड़। जाणे सुख दुख पीड़, नहीं सो सजण केहौ। सो सरवर किणि काम, नीर ग्रीपम दै छहो ।। तरवर झड़ि मुड़ि जाउ, पंथि छाया नहु रंजै। सोई सयण अकयस्थ,भीड़ जौ किमही न भंजै॥.. दिल कूड़ सयण सरवर निजल, तरु छाया विण परिहरौ जसराज भीड़ि भजै नहीं, सगौ तिको किण कामरौ ॥१॥ - पनरह तिथ रा सवैया आज चले मनमोहन कंत, विदेश हठी मोहि छोरि इकेली कह्यो समझाय चल्यो परवा मत, मूकेगी स्याम विना तनु वेली तोइ न मांन्यो कथन्न सयन्न, वयन्न उथापि चल्यो री सहेली कहै जसराज रटै निसवासर, प्रेम परब्ब सनेह गहेली ॥१॥ दूज के घोर महोछब कीजत, दोनि 'निसापति सांझ 'समै घनघोर निसाण धुरै, पुर मंगल हींदु तुरक पच्छिमनमै परदेस संदेस न पाउं जसा, खिनय देखि चिसा दृग नयननमै मत मोहि बिसारि तजो विण दूषण चित्त तुम्हारै समीपि रमै॥२॥ १ देखि २. पिय देखि दिसा ग पान गर्म Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ , जिनहर्ष ग्रन्थावली केइ सझे सिणगार अपार अणाइ दरपण वेस बनाई काजल नैण अनोपम सारत भाल तिलक की सोभ सवाई केइ सहेली के साथ विनोद स्यं गावत गीत रु नाचत काई माहि जसा विनु प्रीतम श्रावण मास की तीज अक्यारथ आई॥शा चोथी वितीत भई मोहि' प्रीतम कागद ही नित भेज न दीनौ मोहि संतावत मैण अहोनिसि वात' जगावत काम उगीनौ नैण झरे जल पावस काल ज्यं घाउ कलेजे करै, जिउ लीनौ चोथि करूँ जसराज महाव्रत जौ घरि आवै तौ नाह नगीनौ ॥४॥ जा दिन तै अलि प्रांण धनी मुहि छोरि इकेलि विदेस सिधायो ता दिन तै न तंवोल भख्या न सरीर विषै घसि चंदन लायो रामति खेल विनोद तजे सब नारिन भूषण वेस बनायौ कौन जसा उपचार करूं अब पांचिम आई पै कंत न आयौ ॥॥ वीर वटाऊ संदेस कहुं तोही प्रीतम सु फुनि लेत सिधावौ लालच छाय रह्यो परदेस तहां जाइ कागद ले दिखलावौ मो मुख ते मुख तेरे संदेस जसा जाइ प्रीतम कुं समझायौ छहि को दीह अनीठ भयौ अब आय मिलौं अब क्यं ललचावो ॥६॥ जा दिन नाथ पधारयो गृहंगण वांटत हूं पुर मांहि वधाई प्रेम वियोग मिट्यौ तन अंतर प्रीतम सं मिल केलि मचाई १. तो हि २. तिणि ३. बान लगावत ४. कियौ ५. आवत ६ पाइ पार । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरह तिथि रा सवैया ४०५ सातिम सेजि इकेली मैं सूती सुपन्न रयन्न के आय जगाइ जोगत ही जसराज निरास अचेत भई मांगें वासिग खाई॥७॥ आठिम आज भई जसराज विराजत प्रीतम प्रेमे 'अधाई हास विलास करै निसवासर सोल शृंगार वणावै लुगाई मोह न मानत चित्त कछू हिरदा विचि धूम अगन्नि धूखाई नाह कठिन्न भयौ नहि आवत कौण सुं कूक पुकारूं रीमाई ॥८॥ मैं तैरे कारण मंदिर वार खरी नित की पिय काग उडाऊं नौम वसंत सखि मिलि खेलत हुं न धणी विण खेलण जाऊं एकर सु घरं आवो जसा तुम एकांत वेठ कर में कहिलाउ । नैणनि जौ जसराज पर पिय दे हित सीख भले समझा । आज वड़ो दिन है दसराहो रूघप्पति जैत दसु दिन पाई सीत वियोग मिट्यौ दसमी दिन रावण कुं हरि लीक लगाई बड़े बड़े राज महोछव गोठि करै सवही" जसराज सवाई हूं किण सुंगुण गोठि करू अलि नाह विदेस भयौ दुखदाई॥१०॥ दिन आयौ इग्यारसि को हरि पौढत वासिग सेज पताल महैं . व्रत लोक करै सुख संपति कारण वैण गुणी जसराज कहै परदेसन ते घर कू उमहै दिन रैन वटाऊ सुपंथ वहै १. जाण्यो मैं नाथ पधारे २. कामणि ३ भूरत ही हग जोति घटी पल लोहू घट्यो सुख चैन न पाऊं ४ नैन तजौ ५. दसमी। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ -जिनहर्ष मन्थावली निसनेही न आवत तोही सखि मरिहुँ मेरी' दुख्य वलाइ सहै।।११ वारसि वांमण बुझ्यौ सहेली री मोहि कहो कव प्रीतम आवं ज्योतिष राउ बड़े जसराज सुतौ पिय साच अगम्म वताव करक लगन्न भयौ वर सुंदर राम करै तौ सही सुख पावै च्यार दिवस्स में नाह मिले विरहानल की झल आइ वुझावै.॥१२॥ आज सखी खटमास बरावर तेरिस वासर नीठ गमायो सनंमुख राति अन्वझ भई दृग देखत ही जिय मै डर आयौ नखत्र गिणंत निशां निठ बौरी निसाकर आतम ताप लगायौ जसा पतियां लिख दीनी मनेही कुंताको कदै मुहिकागद नायो।१३. उजुवारी चोदस देवीको वासुर देवल संत मिले हरसै सझि ताल कंसाल पखाउज ले नटई मिलि नाचारंभ तिस धनसार अपार सुकेसर चंदन पूजन कुं नर नारी इसै" जसराज भवानी कुं ध्यावत नागर मो.मनमै मेरो स्याम वस॥१४॥ पूनिम दीध वधाई सखी री तेरे धरि प्रीतम तोही. पधार्यो. खुसी भई उठि सनमुख जाइ वदन्न विलोकित दुक्ख विसार्यो मिलि के 'दोउं कामिनि कंत हसंत सरीर तिया अपनौ सिनगायो फली उर की सब आस विलास भले जसराज सनेह वधास्यो।१५ इति श्री पनरह तिथरा सवैया संपूर्णम् । पठिान्तर-१. तेरी २. आगम साच ३. कह्यो चिर ४. आनसंताप ५ कसै ६ देउलसंत ७. घसै ८. तन मैं। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागों के गाने का समय ४०७ राग करण समय कवित्त सवैया रसिक हीडोल राग ताकी पिया' देवसिरी, भूपाल वसत. धुर' पहर वणाइ जू। मालवकौसक । जाम जैतसिरी । मालमिरी धन्यासिरी द्वितीय ऊगत सूर गाइ जू । दीपक मारुणी तोडी गूजरी कामोद' फुनि, वैरारी त्रितीयः जाम. सुगुण सुणाइ ज । दिवस के अंत जसराज श्रीयरोग" काफी, सामेरी गौरी सुजांन चातुरी जनाइ जू ॥१॥ मालवीः पूरवी गौरौ कल्यान करन दौरौ, विहागरौ माधवी : प्रथम जाम निसि के। अधरत कानरौ केदारौं प्यारौ लाग' मोहि, सहव समझि नट-नारायण , रसिके । सोरठ मल्हार सार' रामगिरि आ तदुपरि पंचम अलापं मुख हसिके । भैरवः ललित गति जसराज वेलाउल, कीजिये विभास दिन ऊगत उलसिके ।।२।। इति रागकरण समय सूचनिका कवितद्वयम् ( सवैया ) १ प्रिया देवगिरी २ भूपाली ३. कमोद ४ वैराड़ी ५ श्रीराग ६ कीजियै विभास वेलाउल, जसराज उगहि उलसि के। . . . Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जिनहर्प ग्रंथावली प्रेम पत्री रा दूहा स्वस्ति श्री प्रभु प्रणमीय, सुखकर सिरजणहार । जपतां दुख नासै जसा, वारै विखमी बार ॥१॥ दुखीयां दुख भंजणं दई, अइयो आदि पुरुक्ख । जल थल महियल जपि जसा, सयणां मेलण सुक्ख ॥२॥ जसा कुशल जणाविज्यो; आपणड़ा मो आज । हीयडो सुणि हरपित हुवै, जिम चकोर दुरराज ॥ ३ ॥ हीयडो लीधो हेरिने, मन हेजालू मुज्झ । चेत जसा नहीं चित्त में, तरसै मिलवा तुज्झ ॥४॥ सयण तणा संदेसडा, आतम ना आधार। हीयडो' राख हटकिन, अहनिस : हरप अपार ॥५॥ हीयडो राखु हटकि ने, मन पिंजरै न माय । मिलूं जसा मन मेलूआं, जाणुं भेटु जाय ॥६॥ घट सयणां विण परघल, थिर न पड़े पग ठाह। नैणे नावै नींदडी, उर ऊमटीयो दाह ॥७॥ चाहतां चित्त चोरणां, हीय वस ज्यं हार। जोतां ते सज्जन जसा, कदि - मिलसी करतार ॥८॥ सजन आवि सुहामणा, रस मांणण जसराज । वतडीयां केइ वीनवां, उर ऊपन्नी आज ॥६॥ १. सांभलतां श्रवणे जसा Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम पत्री रा दूहों ४०४ मन मेलू न मिले जसा, बलि करि घालू बाथ । नीकलि जासी जीवडो, सही नीसासां साथ ॥१०॥ - पंजर मांहि पलेवणों, सयण गयो सिलगाय । बुझे न जा बुझाइयो, जोरै बधतो जाय ॥११॥ विरहै आतम' वीटीयो, मो मारेसी आज । साईना' संयणां भणी, जाइ 'कहे जसराज ॥१२॥ जो नडा हूंता जसां, सज्जन तां ससनेह । वीछडता वीसॉरीया, झटकि दिखायो छेह ॥१३॥ पसरे मनडो पवन ज्यं, सयणां मिलवा काज । पिण तन न मिले तरसतां, जीव क्यं जसराज ॥१४॥ जे सजन मिलता जसा, दिन में सौ सौ वार। . __ संदेसे सांसो पड्यौं, विच वन पड्या अपार ॥१५॥ मुझ हीयडो हेजालूओ, भाखर गिणे न भींत । मेलं सं मिलना जैसा, आचे जाइ अंचींति ॥१६॥ सयण संदेसा मोकलै, झिलता मी झेल । वैगा जो मिलीया नहीं, हुसी जसा कोई हेल ॥१७॥ हेल इंसी तो होण दे, पिण पछतावो एह । आवटसी युही हीयो, मैन' री मन में देह ॥१८॥ सजन सुंहणे राति रे, मो मिलीया मन हेज। जागि निहालूं ज्यं जसा, संनी दीसे सेज ॥१६॥ १. औतन २. संदेसोसैणां । ३ जसा । - Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जिनहर्ष ग्रंथावली सेजडीयां विण सजनां, अधिक अलूणी- आज। . आंखडीयां जल ऊवकै, जोवं ज्यं जसराज ॥२०॥ मन मेलू सुहणे मिले, ज्युं जागुं त्युं जाइ । । जीव जु तड़फड़ता जसा, इण विधि रयण विहाइ ॥२१॥ मनडो आयो माहरो, मुझ तीरे तजि लाज ।। सारी लेज्यो सज्जनां, जोइ - नई जसराज ॥२२॥ पहिली कीधी प्रीतडी, किण हिक सुख रै काज । । सुख सुहणे ही नां हूओ, जुड़ीयो दुख जसराज ।।२३।।.. सयणां सांई दे मिलं, बांहा. विन्हे पसार । ... आंखडीयां सं आरती, जीभां जसा जुहार ॥२४॥ · कोई बटाऊ कहि गयो, आसी सज्जन आज। , विरह गयो मन विकसीयो, जीव खुसी जसराज ॥२॥ मेलू माणस जो मिलै, जोवाडै जसराज । नैण मटक्के निरखतां कोडि सुधारें' काज ॥२६॥ . काम करू मनडो किहाँ, केथही भर्म क रक। प्रीतडीयां परवसि जसा, झुरै नैण निसंक ॥२७॥., हूं विल भरियै हीये, जयें नाम जसराज । . महिर करो मुझ ऊपर, आवि सनेही आज ॥२८॥ साजनीया सालै जसा, जेम - सरीरां' भाल । रोइ रोय दिन रातडी, लोयण कीधा लाल ॥२६॥ १ समारइ २. भडंजर। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम पत्री रा दूहा ४१६ वासर ज्युं त्यं चौलिये, लोकां हंदी लाज। वलि आई निस वैरिणी, जोसी क्यु जसराज ॥३०॥ जसा कहुँ जगदीसनें, कानूं कीधो काम । . . वाल्हा समय विछोहीया, हिव जीवणो हराम ॥३१॥ मो मन मेलू हल्लीयो, ऊभी मेल्ही आज । " हाथ घसै फाटै हीयो, जोर न को जसराज ॥३२॥ वीर वटाऊ वीन, करि लाखीणो काज । संदेसो सयणां' कहै, जाई नई जसराज ॥३३॥ हेतू सं हूओ जसा, संदेसे व्यवहार । तन मेलो होसी तदा, जदि करिसी करतार ॥३४॥ जिण दिन बीछड़ीया जसा, मो मांनीता मीत । तिणदिन हूंती तन्न ने, चेडो लागो चीत ॥३५॥ मनड़ो तड़फ माहरो, देखण तुम दीदार । के मेलो मनमेलआं, के. तुझ हाथै मारि ॥३६॥ जिण वेला साजन जसा, मुझ मिलसी भरि वत्थ । वातड़ियां करिस्यां विन्हे, साय घड़ी सुक्यत्थ ।।३७० सयण तणा संदेसड़ा, वाल्हां हंदी वात। . सांभलतां श्रवणे जसा, रोमांचित हुइ गात ॥३८॥ सो साजन मिलसी कदे, जिणसं साची प्रीत । - सूतां ही सुपने जसी, खिण खिण आवै चीत ॥३६॥ __ वाल्हा वीछड़िया थेया, विरही जिके विहाल । . Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जिनहर्प ग्रंथावली जोड़े सयण तिया जसा, नमिया करै निहाल ॥४०॥ कुशल क्षेम कल्याण इह, पदकज तुज प्रसाद । सुक्ख जसा संदेशड़े, निसुणि जेम मृगनाद ।।४।। विरह थियां वाल्हां तणौ, कारिस लागी काई। मेलू विण मिलियां जसा, जम्मारो क्युं जाई ॥४२॥ सजन मिलि निज सेवकां, दिल दीदार दिखाई। तन मन तो ऊपर जसा, सदकै करूं सदाई ॥४३ सयणा मेलो साइंयां, दियै न चिरह म देह । जो विरही राखै जसा, मो पहिली मारेह ॥४४॥ प्रीत म करि मन माहरा, करै तो काचौ काइ। काचा मिणिया कोच रा, जसराज भांजे जाई ॥४॥ सोरठाधन पारेवां प्रीति, प्यारी विण न रहै पलक । ए मानवियां रीति, एखी जसा न एहडी ॥४६॥ एक पखीणि अंग, प्रीति कियां पछताइजे। दीपक देखि पतंग, जस बलि राख हुवै जसा ॥४७॥ साजनियां संसार, जो कीजै तौ जोयनै । नेह निवाहणहार, जसा न चिरचे जीवतां ॥४८॥ दीह दुहेलौ जाइ, निस नीसासै नीगमं । दखियां देखी दाय, आवै तो आवै जसा ॥४६॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३. प्रेम पत्री स दूहा केही कीजै दुःख, केही आरति आणिय । सिरज्यां पाखै सुख, जिम तिमही न मिले जसा ॥५०॥ काइ कर अणराय, काइ मन पछतावौ करें। रहणहार थिर थाइ, जाणहार जायै जसा ॥५१॥ सुगुणै सैण कियोह, निगुणै मन मिलियौ नहीं। नरभव नीगमियौह, जसा सुपन ज्यूं रात रौ ॥५२॥ सूतां सुपनै आई, मन मेलू नितको मिले । जागं तां उठ जाइ, जतन कियां न रहै जसा ॥५॥ अगलूणा नहिं आज, आज अनेरी भांति रा । ज्यं जाउ जसराज, त्यं वेदल मन माहरी ॥५४॥ करी मन धीर करार, विलवे कांइ विरही थयौ । संयण न लही सार, जावण दे परहा जसा ॥५॥ सयणे न लही सार, तो पण मनड़ौ माहरौ । आतम तणा आधार, जीवीजै दीठां जसा ॥५६॥ अम्हे न करिस्यां कोइ, साजनियां सहु को करौ । फिर दुणौ दुःख होई, वेदन वीडियो पछै ॥५॥ । सयण तणां संदेश, जो कोइ केथे ही कहै । अंतर मिटै अंदेश, तो तन ताढक वापरै ॥५॥ प्रेम विहूणी प्रीति, जोइ मन न ठरै जसा । रस विण पानां रीति, रंग न आवे राचणौ ॥५६॥ . मेलू विण मिलीयाह, मनडौ क्युं मानै नहीं। . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जिनहर्प' ग्रंथावली गहिला ज्युं गलियाह, फिरै फिकर थीयौ जसा ॥६॥ रत्तड़ियां बहि जाय, सुणतां सजन वत्तड़ी। जसा सु नावे दाइ, कत्थ अनेरी चित्त में ॥६१।। जिण सं लागौ मन्न, तिण विन खिण न रहै जसा। ताढक च्यापै तन्न, सजन दर्शन देखतां ॥२॥ कामण सयणां कीध, घट न चलै धमटेरियौ।। बाण तणी परि बींध, जोइ जसा मन माहरौ ॥६३॥ करि जसराज जतन्न, सयण मला सा संग्रहै । तो दाझेसी तन्न, मूरख मिलीयां माढुवां ॥४॥ जिणरी जोडं वाट, ते सज्जन दीसे नही। तितड़ा मांहि उचाट, सु जनम क्यं जासीजसा ॥६॥ मै कीधौ तूं मीत, जोइ लाखां मे जिसौ । पलट क्युं हिब मीत, पलट्यां शोभ न पाइयै ॥६६॥ एकरस्यौं मिलि आइ, साजन' भीडै सांइयां । थिर मो मनड़ौ थाइ, जाइ जसा दुःख जूजुआ ॥६॥ खातां न गर्म खाण, पाणी न गमै पीवता । सयणां विन समसाण, जग सगलौ दीसै जसा ॥६८॥ भुज करि वे भेलाह, मिलस्युं जदि मन मेलुआं। वाल्ही साइ वेलाह, जनम सफल गिणसुं जसा ॥६६॥ नयणे मिलसै नैण, उर सुं उर मेलिस जसा । १ कालाहोठ थयाह मुख निसासा नांखता। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम पत्री रा दूहा * सुख पामेस्यै सैण, आयां लेस्युं वारणा ॥ ७० ॥ प्राण सटें ही प्रीत, जुड़ती जो दीस जसा | आदरि रूड़ी रीत, मति छोड़ मतवंतं तूं ॥ ७१ ॥ कहिसी कोड़ि वचन्न, अति आसंगा ऊपरे । सहु खमिसी साजन्न, वाल्हा कदे न विरंचसी ॥७२॥ लाखीणौ सुणि' लेख, वले न रीझे वाचतां । सो साजन सुविवेस, जाणै पसु ढांढौ जसा ॥७३॥ तन हुंती तजि धेख, मो कहियौ हित मानिजो । लिखजो सज्जन लेख, जुग लगि प्रीत हुमी जसा ||७४ || नेहालू नजरांह, जोइ कामण परहत्थ जसा । निरही पारेवाह, तारा हूं तूटे पड़े ॥७५॥ देखि सुरंगी डाल, जांणुं जाइविलगूं जसा । आस करूं हूं आलि, करम विना मिलवौ कठड् ||७६ || चिति मिलवा री चाह, रात दिवस अलजौ रह | आऊं भुइ अवगाहि, जाणु सयण कन्हई जसा ॥७७॥ तूं बीछड़ियौ त्यार मन वीछड़ियौ माहरौ । लोग जायेह लार, जतन कियां न रहह जसा || ७८|| मोल पाणी लाज, साजन चीछड़ियां समी । जाई ल्याउं जसराज, कोई जो केथी कहइ ॥ ७६ ॥ चाइस उडी क्लाइ ल्युं, चाड अम्हीणी आज | सयण सकाजा आवता, जौ देखइ जसराज ॥८०॥ T t 1 + ४१५ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रन्थावली वाइस वाल्हा सेलणौ, अम्मा बोले आज । साजणिया मिलसी सही, जाणू छु जसराज ॥८॥ सज्जन तो कारण सदा, कोड़ि उड़ा काग । करि शीतल काया जसा, आइ बुझाइ डाग ।।८२॥ तन धन जोवन ताकतां, नीठ जुड्या जसराज। माण काई न माण रा, आई महल्ले आज ||८३॥ . सोरठासाजन गया सम्बाहि, ज्यां सं प्रीति, ती जसा । मकरि मकरि मन मांहि, अवरां मुं हिन आमनौ ।।८४॥ साजनियां संसार, मिलेतो कीजइ मन समा । दिन में दस-दस वार, जोतां नित नवला जसा ।।८|| सज्जनियां सहु को करौ, एको न करूं अहे जसा । हेकर मौ सुख होई, वेदन बीछड़ियां पछै ।।८६।। विरहणी विरह निवारि, आवै ने अण चीतरो । हियड़ें हैज धरेह, मोके तूं मिलज जसा ॥८७॥ . मन मिलियौ सयणांह, तन मिलियौ नहीं तरसतां । निरखि-निरखि नयणांह, जलणि हुवै विवणी जसा ।।८८॥ निगुणां सेती नेह, थिरन रहै कीयां थकां। . छीलर सर ज्युं छेह, जल जातौ दीस जसा ॥८६|| १. पर । २ हिव । ३ साजनियां सहकोई, करो अम्हे नकरां जसा । ४ लागौ। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम पत्री रा दूहां ४१७ निगुणां हंदो नेह, ऊगत दिन छाया जिसी। सुगुणा तणौ सनेह, जसा ढलती छाहड़ी ॥६॥ जसा सुसजनियाह, मन गमता मिलिया नहीं। , काला होठ थयाह, नीसासा मुख नाखता ॥६१॥ : जो जावइ तउ जोइ, हरणाखी हित वांटि नइ। नयण गमाया रोड. जीव जसा छै जावता ॥१२॥ कीधी प्रीत कुठार, माजन लीधौ माहिलौ। गेरै काइ गमार, जल ऑख्या हुती जसा |६३॥ मन मेलू मन मेल, इबडौ हठ काइ आदरेड् । भरि दिल सं दिल भेल, निठुर जसा हुइजे नहीं ॥१४॥ जो देवौ जगदीस, मो पांखड़ियां करि मया । विधि सुं विसवा बीस, उडी मिलत आवै जसा ॥६॥ . मिलियौ प्रेम म मेलि, वलती मिलसी नहीं चले। झगड़ी ही करि झेलि, जोइ आडौ आसी जसा ॥६६॥ जो जोड़े तो जोड़ि, आतम , जोड़ी आपणी । जीव जासी तन छोड़ि, जोयां न मिलसी जसा ॥६॥ 'प्रीत सुं प्रीत प्रमाण, मिलीया मन राखइ नहीं। .. ऊलटि अंग अमाण, जड़ छाता ने मिटइ जसा ॥६८॥ कदे न राखइ : काण, मनसा मेलू सुं कहइ । ..." आढवीयौ अवसाण, सुघड़ो सैणनिको जसा ॥६६॥ सुखिया सहु संसार, नीका नरहु भव नीगमइ । .. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जिनहर्ष ग्रंथावली सिरज्या सिरजणहार, जग माहै दुःख हो जसा ॥१०॥ माजनिया सावास, वेठो वीसारे मना । विरुइ वात विमास, उचा बोली आदरी ।।१०।। नानक मेह, जतन करतां ही जसा । .."लियो ऊअर छासि, ऊतरि जाये आफणे ॥१०२।। प्रीति करह पतिसाह, पतिसाहां री। विरला पावे वाह, कायर की जाणे जसा ॥१०॥ ओछो अधिको होइ, जपीवो अणगमतो जसा । साजण समजो मोहि, मन मंड रीस न आणज्यो॥१०॥ प्रेम सहित लिखि पत्र, समाचार संदेसड़ा। मोकल देज्यो मित्त, [हेतू] माणस सं जसा ।।१०शा तन ती तजि.धेख, मो कहियो हित मानियो।। लिखजो साजन लेख, जुगति थी जि हुसी जसा ॥१०६॥ . ॥ इति श्री प्रेम-पत्रिका दूहा संपूर्ण ॥ फुटकर दोहे चित चितै कांई बात, करणीगर काई करै। अघटित अवली धात, नर कोई न लखे जसा ॥१॥ सुगण न कीधा फूटरा, निरगुण रूप अथाग। जगदीसर जसराज है, दांतां पाड़न भाग ॥२॥ साजन मिलियां सुख हुवै, चैन हुवै चित माय । हिवड़े हरख हुवै जसा, दिन सुकियारथ · जाय ॥३॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुटकर दोहे . दस दुवार को पींजरो, तामै पंछी पौन । रहण अचूँबो है जसा, जाण अचूंचो कौण ॥४॥ पहिली प्रीति लगावतां, पटू (छ ?) न कीधो वोय । अब वीछड़ो ना सजनां, न्याई छ ( झ १) गड़े होइ ||५|| सजन तब लग वेगला, जब लग नयणे न दिट्ठ | वीछडियां यह अंतरो, पंजर मांहै पड़ठ ॥ ६ ॥ एक ही दीपक के कीई, सगरे नवे निधि होय । तू नमे नह कहां छीपै, जहां हग दीपक होइ ॥ ७ ॥ जो हम ऐसे जाणते, प्रीति वीचि सही ढंढेरो फेरते, प्रीत करो मत वीछडता ही साजना, न उर पेपरी सी वहि गई, उभल के रहे सजन युं मत जाणीओ, वीछरयां प्रीति घटाइ | व्यापारी के व्याज जु, दिन दिन वधती जाइ ॥१०॥ प्रहेलिका पट जास दुख होड़ | कोई ॥८॥ लगा तीर । सरीर ॥ ६ ॥ नर एको निकलंक वदन 1 रसण इग्यारह रूप जगत में वड़ हथ दोड़ हाथ पग दोइ वले ताइ लोचन 2 पुंछ एक वलि पुठ ईला 1 चखाणां । जाणां ॥ बारह 1 जस वास अपारह ॥ t F 1 4 ४१६ * इनके अर्थ :- १ सुपार्श्व । २ ध्वना । ३ गुड़ी । ४ चौपड़ । ५ लेखण । ६ मेह । ७ मकोड़ी, ८ खटमल । ६ कीड़ीनगरौ । 1 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जिनहर्प ग्रन्थावली आरखां नाम तिहुँ अखरे कला तास जाणे न को। .. जिनहरप पुरप कुण जालमी तुरत नाम कहिज्यो तिको ॥१॥ उड़े मग आकास धरणि पग कदे न धार। । पीवे अह निसि पवन नाज नवि कदे आहारै' । सुकलीणी संदरी वप्प सिणगार विराजै । . . . . जीव विहणी जोइ जिलै' नेहागलि जाजै ॥ काठ सुं प्रीति अधिकी करै पंख चरण करयल पखे । जसराज तास साबासि जपि अरथ जिको इणरो लखै ॥२॥ एक नारि असमान दिट्ट विण पंख चढ़ती । - - चावा सोंग चियार मिलै ताह अंग मुडंती ।। पाछलि पूछ पतंग गीत : गुणवंती गावै। . नाज भखै निरलुख नीरं दीट्ठौ न सुहावै ।। करमज्झ जीव झाले अमर छोड़ दीयै तौ जाय मर । जसराज कहै नारी किसी कहो अरथ सुजाण नर ॥३॥ वसै नगर विधि वडी ..दिस च्यारे दरवाजा। सोले पायक सूर रहै तिण में त्रिण राजा।। .. गिणि छिनें मिलि गाम च्यार पायक चौवीसां ।' : राय हुकम रिण खेत मरै माहो मैं रीसा ॥ . आणीजै घरे. ऊपाडि नै, ऊठि चलै वलिउ इसो । जिनहर्ष अचंभो. जोइज्यो कवण नगर कारण किसो ॥४॥ १ निहारइ २ झिलै ३ मामै ४ चरण नहीं मुख कर पखै ५ कवित्त। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ फुटकर दोहे 1 वनिता इक धन वसै सरल पत्रली सचाली | तीन चरण तसु नाम नगर पैसती निहाली || चतुर नरां कर चढी चपल चालै चंचाली पांणी पी परिहरे पाव पिण न चलै पाली || कानसं आय वातां करें निनग चीर पहिरे नहीं । जिनहर्ष कवित इणपरि जपै सुगुण अर्थ कहिज्यो सही ॥५॥ उतपति तो आकास वसै उरध दिसि वासो । निरमल गंगा नीर तासु मुख कृष्ण तमासो || कामणि संग करूर, सदा निति र समुरो | असैन पॉणी अन्न पुहवि जस ग्राहक पुरो | अरि काल रूप भंज इला विहाग जेम तातो वहै । जिनहर्ष लहै सावासि सो जिको अरथ साचौ कहै || ६ || सीह लंक नहीं संक चीर बकौ वेढालौ । फिरै जोर बल फौरं दुतौ रंढालौ ॥ गैवर सीस गिरीस वीस वीसवा चंचालौ । फिरै डाड मुँह फाड जाड करडी तनु कालौ || धरणी घणी नांखे धडछि पट चरणे मरणे खिसे । जिनहर्ष सुभट कुण जालमी उलखिज्यो आरख इसे ||७|| नान्हडीयो नर एक चोर मैं निरख्यौ नयणे । t कासूं वयणे ॥ घक नै धकली कहाँ गुण नवखंड मोटो नाम जासु सह कोई जाणै । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जिनहर्ष ग्रन्थावली छाँने सं छतरै टले नहीं आये टाणै ॥ रसलुध फिर वल रातिरै धर धापट झाौ धडै । जिनहरष सार लहिमी तिके पांनौ जिहां सेती पडै ॥८॥ नाम जासु नवखंड नगर इक दिट्ठो नयणे। अडालीड असमान बड़ा कहि सके न वयणे । । पुरवासी पायक वहसि मुहि कदे न वोले । हाथ नही हथियार सुर सच्चा सम तोले ।। नर अछै तोइ को न लखै नारि नारि सहुको कहै । जिनहरष कहै साबास सो जिको अरथ साचौ लहै ॥६॥ वरसात रा दूहा मनडौ आज उमाहियौ, देखि घटा धन घोर । सयणा साइ दे मिलू, अलजो जसा सजोर ॥१॥ मनड़ौ न रहै मांहरो, उमटि आयौ मेह । सांई साजन मेलिहौ, जसा वधंते नेह ॥२॥ आयौ पावस आजरौ, नयण झबक बीज । विरही मन माह जसा, खिण खिण आवै खीज ॥३॥ पावस रितु पापी पड़े, नदी खलकै नीर। . विरह संतावै मो जसा, वलि सज्जन वेपीर ॥४॥ घटा बांधि वरसै जसा; छांट लगे खग भाई। इण रितु सजन बाहिरी, क्यू करि रयण विहाइ ॥५॥ काली काजल सारखी, घटा मंडाणी आज | Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बरसात रा दूहा ४२३ आजूणी निशि एकलां, जासी क्युं जसराज ॥६॥ पावस रुति झड़ मंडियौ, चातक मोर उल्लास। . . वीजलियां झवकै जसा, विरही अधिक उदास ॥७॥ झड़रूपी पावस झरै, विरह लगावै वाण ।' ऊंडो गाजि गद्दकियौ, जसा लिया मुझ प्राण ॥८॥ भरि पावस सयणा पसे, ऊल्हरियौ जसराज । जाणुं छु ले जाइसि, काढि कलेजौ आज ॥६॥ - ऊंडौ गाज्यौ धुर खिव्यौ सहीज वरसणहार । जाय मिलीजै सजना, लांबी वाँहि पसार ॥१०॥ जिण दीहै पावस झरे, नदी खलक्कै नीर।' तिण दीहै कीजै जसा, सजनियां सू सीर ।।११।। चिहुं दिशि जलहर ऊनम्यौ, चमकी वीजलियांह। इण रुति सयण मिलै जसा, तो पूगै मन रलियांह ॥१२॥ वीजलियां झवकै जसा, काली कांठल . मांहि । आवि सनेही साहिवा. योवन रा दिन जांहि ॥१३॥ वीजलियां झारोलियां, चमकि डरागै मोहि । आवि घरे सजन जसा, हं बलिहारी तोहि ॥१४॥ बीजलियां बहुली खिवै, डावा डूंगर मज्झ । गला उतारे कंचूऔ, नयणे लोपी लज ॥१५॥ आज अवेलौ उनम्यौ, मयडी ऊपरि मेह। । जाउं तो भीजै कंचूआ, रहूं तो तूटे नेह ॥१६॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जिनहर्ष ग्रंथावली बीजुलियां खलभल्लियां, आभै आभै कोड़ि | f कढ़े मिलेस सजना, कंचू की कस छोड़ि ॥१७॥ - बीजलियां गली बादला, सिहरॉ माथै छात | कदे मिलेसुं सज्जना, करी उघाड़ौ गात ॥ १८ ॥ बीजलियां चमके घणी, आभइ आभइ पूरि । कदे मिलूंगी सज्जना, करि के पहिरण दूर || १६ | बीजलियां खलभल्लियां, ढाबा थी ढलियांह | काठी भीड़े चलो, घण दीहे मिलियांह ||२०|| फुटकर कवित्त पंचम प्रवीण वार, सुणो मेरी सीख सार, तेरमो नखत्त भैया नौमी रासि दीजिये । ईहण आये तें द्वारि, मातन कौं तात छारि, तातनकौं तात किए, सुजस लहीजिये || तीसरी संक्रान्ति तू तौ, दसमीही रासि पासि, कुगति को धर मॅनू, चौथी रासि कीजिये । पर त्रिया धिया रासि, सातमी निहारि यार, जिनहर्ष पंचमी रासि, ऊपमा लहीजिये ॥१॥ सतयुग के साथ गये --- रयणि खाणि नहीं काय, नहीं वावन्ना चन्दन | नारि नहां पद्मिणी, नहीं आंकुरित कुंदन ॥ पाणीपंथा अश्व नहीं, सीस गयवर नहीं मोती । ' 1 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुटकर कवित्त ... कौस्तुभ मणि नहीं काय, जिका बहु मोलख होती॥ चलवंत लख जोधा नहीं नहीं दानदाता जकां । । जिनहर्ष थोक एतां गयां, सतयुग तो जातां थकां ॥ . सुन्दरी स्त्री सुन्दर वेस लवेस अनोपम सोवन वान धनी सुघराई । चौसठि नारि कला गुन जानत हंसनितं वनि चालि हराई।। छैल छबीली सुहागिण नारि सू कोकिलकंठ सू सोभ सवाई। . कहै जसराज इसी त्रिय होत मनो निज हाथ चिरंचि उपाई॥ . राधाकृष्ण उमटी घनघोर घटा मन की तन की किहुँ पीर कहूं ॥ मोहि श्याम विना अकरात तना विजुरी चमकै अव कसे सहे। ऐसी पावस को निस जीवनही बसि कैसी सहेली इकेली रहूँ। जसराज राधा व्रजराज की जोरि, ज्यं जोरि करूँ अब जोरि लहूँ। तेरैहि' पाय पलं मोय छोड़ दै कान रे पाणि कुंजांण दे मोहि अवै । मेरी सासू विलोकत है' समझो मेरी हासि करेंगी नणंद सबै ॥ , तेरे ही मन भायो सोई मन मेरे ही आतुर कामन होत कबै । जसराज तेरो हूं तेरे ही आधिन • हूँ आई मिलूगी कहौगैतवै॥ यौवन जोवन में राग रंग, अंग चंग जोवन में रूपरेखा मेख सुविचारिहै। १ तुहि २ हासिवूझनहीं ३. अरी मो मनि भायो सतायो है मोरै रि ४ कहै भईया तेरी अधानसुं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जिनहर्प ग्रंथावली खेलवो खिलाइयो, शरीर स धुलाइबो, कमाइगो भि जोवन में। जोबन में देस परदेस फिरै सारिसेवी संग यारिहै । कहै जसराज जोवन में ध्रमध्यान ज्ञान मान जोवन की वातघात न्यारीहै ॥१॥ रागिनी स्त्री लोयण भरि निरखंत, काम मुख कथा वखाणे । आंगुलीयां मोडंत, कहै मन रीस (न) आणे । आलस भांजै अंगि, कठिन कच उदर दिखावै । सखी कंठ करि पासि, घालि निज हस हसाचे । सुकमाल बाल भीड हीय, वाइक मिट्ठ वखांणीय । जिनहरष कहै त्री रागिनी, इण आचरणे जाणीयै ॥१॥ उरसीउ उरसीउ आणि हे सखी, सूकड़ि घसीइ जेणि । विरह दाधी प्रेम कौ, अगनि वुझा जेणि ॥१॥ मैं जाण्यौ तुं जाण छै, पणि तुं बड़ी अजाण । मैं उरसीयौ मंगीऊ, 6 आण्यौ पापाण ॥२॥ मानिनी वर्णन महल्ला मालियां, जोति मै जालीयां । सुचित्र सुंहालीयां, ओपमा आलीयां । ढोलीयां ढालीयां, - सेझ सुहालीयां । । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानिनी वर्णन ४२७ लूब लूवालीयां, भूपजै भालीयां । दीप दीवालींयां, इम ऊजालीयां । वींदणी वालीयां, लंक लंकालीयां । सा सुकमालीयां,. एण अंखालीयां । नाक नथालीयां, विद्ध री वालीयां । चीर चोसालीयां, फूटरी फालीयां । हेम हेमालीयां, झिगइ झमालीयां । कॅठले कालीयां, वीज वीबालीयां । यं उपमा आलीया, नारि निहालीया। छोक जोवन छोगालीया, संघलदीप संभालीयां । जसराज आठ दुआलीया, माहि महल्ला मालीया-१ मालीयां माल्हती, हंस गै हालती । देह · दीपावती, छैल बीड़ीछती। चालती चावती, गुंजती गावती । अग ऊलसती, कंचूउ कसती । हेत सं हसती, लोयणां लसती । दुझलीं डसती, सोह साची सती । मनड़ा मोहती, काम ज्यं कामती । जोर जागवती, रत्ति रूपवती । जोवनी जुबती, ओज आप मती। । • खोण ज्यं खमती, रंग मै रमती । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८८ जिनहर्ष ग्रन्थावली आइ आक्रमतो, झांझरी पाइ झमंकती। चंदावदनी चालती, जसराज महल में आवती, मिलचा प्रीतम माल्ही-२ माल्हती माणणी, आइ भी अणी। पेखि प्री पाहुणी, बेस बणावणी । रुअड़ी राखणी, घट सोभा वणी । बड़ी बोलावणी, बीद मं वींदणी। सेज सोहामणी, बांह कंठ वणी। जांणि वेली · जणी, , आयड़े आहणी। हाथीय हाथणी, घर चे घूखणी । झेलजे झूवणी, रोष मे रंजणी। भीड़ीया सजणी, आहि आक्रदणी। हाइ पाए हणी, लथ वां लुणी । भोगवे भामिणी, -:- बच : बावणी । मेल्हां हो मोमणी, पेख मरंती-पद्रमणी । ओहि ओहि हूँ ओगणी जसराज जेण जपीया धणी, तिके मांण, इण विध माणणी-३ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंद बहुत्तरी सवे नयर सिरि सेहरी, पुर पाडली प्रसिद्ध । - . गढ मह मंदिर सपत भुंइ, सुभर भरी समृद्ध ।।१।। सूरवीर आरणा अटल, अरियण कंद निकंद । राजत है राजा' तहां, नंदराइ आनन्द ॥२॥ तासु प्रधान प्रधान गुण, वीरोचन वरीयाम । एक दिवस राजा चल्यौ, ख्याल करण आराम ॥३॥ कटक सुभेट परिवार सुं, चढ्यौ राइ सरपाल । वस्त्र देखि तहां सूकते, ऊभी रह्यौ छंछाल ॥४॥ इक सारी तिहि वीच परी, भमर करत गंजार । नृप चिंते या पहिरि है, साइ पद्मणि नारि ।।५।। सास सुवास सुवास तनु, दामणि ज्यं झवकंत । कंचण काया झिगमिगे, ऐसी पद्मणी हुँत ॥६॥ रजक तेरि नप-पूछि है, किसके चीर सुचीर । - महाराइ प्रधान तुम, वीरोचन त्रिय चीर ॥७॥ सुनत बात चित्त 'पट लगी, नृप तव भयो अधीर । पाछौ फिर आयौ सुघरि, पिणि मन में दिलगीर ॥८॥ ए पद्मिणि नारि विण, इहु जीवित अप्रमाणवारजेचन त्रिय 'भोगवू, जनम गिणं सुप्रमाण ।।६।' नृप बोलाई "प्रधान तब, कहत वात- सुविचार । " Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ th ४३० जिनहर्ष ग्रंथावली तुम्ह परदेश सिधाइ के, ल्याव अजब तुपार ॥१०॥ करि सलांम तहां तैं चाल्यौ, करि निज त्रिवसुं सीख | राजा बहुत खुसी भयौ, त्रिषत पीयें ज्युं ईख ||११|| - नृप आयौ गृह निसि समौं, पोरि जरी तिहिं बार । देखि कहत प्रतिहार पैं, ऊठि उघारि किमार ॥१२॥ पोलिया बाइक - या तो पोरिन ऊघरे, मो पें कहो न कोय । नृप तब आपण कांन के, दीने कुंडल - दोय ॥१३॥ गृह भीतर आयौ जब, तब बतलायौ कीर । नंदराइ पुर मैं धणी, तूं न पिछाणत वीर ॥१४||--- सुआबाइक - कीर पाउ प्रणमैं तवें, भलें पधारे राज । आज महल निज पूत के, आए हो किहि काज ॥ १५ ॥ राजा वाचक- पद्मणितियसुं चित लग्यौ, तिणि आयौ सुकराज । चूक परी तुम्हको सवल, नहीं तुम्हारौ काज ||१६|| राजा बाइक - काहे पर निंद्या करे, बांधी बात न घेरे । तुझें पराई क्या परी, तू अप्पणी निवेर ॥१७॥ यूं कहि नृप आघो चल्यौ, तब बोल्यौ मंजार । कौर कहत रक्षक विषै, सुणि उठी है धारि ॥१८॥ मंत्री त्रिय संचल लह्यौ, तजि लंज्या करि लाजं । अलगी जाइ ऊभी रही, मांहि पधारे राज ॥१६॥ पदमणि वाइक - करि प्रणांम ऐसें कहै, घर नाहीं तुम पूत " -- क्युं आवहो बापजी, तब लाज्यौ रजपूत ॥२०॥ 1 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नद वहुत्तरी ४३१ ऊठि चल्यो तिहां थी तुरत, पहिरि पानही तास। वीसारी निज यांनही, आयौ पौरि उदास ॥२१॥ राजा वाइक-प्रतोहार मैं नृप कहै, करणाभ्रण दे वीर । काम हमारो नां भयौ, भयो न जोवन सीर ॥२१॥ पोलिया वाइक-भाचे पाणी धौकरौ, भा रहौ तृपाल । पांणी मैले धण दीया, ऊरण भए गुवाल ॥२३॥ आयौ कंडल हारि के, तिण अवसर तिणवार । पदमणि सूती निसि समैं, आयौ तासु भरतार ॥२४॥ भूप पानही देखिकै, मंत्री चमक्यौ चित्त । दीसत वात विराम की, आयौ गेह नृपति ॥२५॥ चंचल भमरी पीग ज्यु, चंचल कुंजर कन्न । चंचल सलिता वेग ज्यं, चंचल अस्त्री मन्न ॥२६॥ 'गुपति राखि नृप पानही, सेज्या आइ वइट। जागी आलस मौरि के, नयणा प्रीतम दिह ॥२७॥ चरणां लागि ऊठि कै, पदमणि वधतै प्रेम | हरख बहुतसुं हिल मिले, पूछि कुसलात खेम ॥२८॥ वीरोचन उह पानही, सात सावट वीटि । भेट्यौ नृप ले भेटणी, भई परस्पर मीटि ॥२६॥ भूप लजाणौँ देखि के, तव अधो मुख कीध । मंत्रि कहत हस्ती त्रिपत, पाणी पीध न पीध ॥३०॥ राजा वाइक-तिरखातुर हस्ती गयौ देख्यो सरवर सीध । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जिनहर्प ग्रंथावली युंही आयौ देखिकै, पिण पाणी नहुं पीध ॥३१॥ मंत्री मन भाग्यौ भरम, खुसी भयो नाराउ । अरधराज दीनो त, कीनो बहुत पसाउ ॥३२॥ माली वाइक-इक दिन नृप बैठौ तखत, आइ कहै वनपोल । वाग विधूस रावलौ, सूअर एक बड़ाल ॥३३॥ सुणत भूप असवार हुइ, सुं मंत्री परवार । रहे वाग सहु वीटि के, करत हुस्यार हुस्यार॥३४॥ घुरक करत ही नीसस्यौ, मंत्री नृपति विचाल । तिण पूढ़ दीने तुरी, पवनवेग असराल ॥३॥ सूअर नासि गयौ कहां, भयौ त्रिसातुर राइ । वैठौ वड़ तल आई के, नृपति कहति जल पाई ॥३६।। सुंदर सुघरी वावरी, निकट तहाँ जल लेन । वीरोचन आयौ त्रिषत, जल भृत सीतल नैन ॥३७॥ गलि पाणी छागल भरी, लिखी प्रसस्त विलोक । वांचै दसकत मंत्रची, दीठौ एक सलोक ॥३८॥ अरधराज सेवक सधर, मर्म जांणि ' अरु जोइ। . 'पहिली ओह न मारिये, तो फिरि मारै सो॥३६॥ 'अक्षर कर्दम लीपि के, आयौ जिहां राजान । भूप कहै जलपान करि, करि आऊ असनान ॥४०॥ ‘लोयै हिलोला हंस ' ज्यं, नूतन गारि निहारि । मुख पाणी सुं मंजीया, वांचै नप अविकार ॥४१॥ . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'नंद बहुत्तरी ४३३ मंत्री मुझ भय मंजिया, नृप आयौ तिणि ठाम । छागल जल भरि ल्याइ हूँ, राजि करौ विश्राम ॥४२॥ अक्षर देखे - जाइ, के, वात भई विपरीत । राइ अबै मुझ मारिसी, मंत्री भयौ भयभीत ॥४॥ आयौ नृप सूतो निरखि, करग झाल करवाल । नंद नपति मंत्री ' हण्यो, पूर्यो सरवर पाल ॥४४॥ माली देखत ही डर्यो, चढ्यो वृख परि नासि । साखा कंपी रुख की, मंत्री चित्त चिमासि ॥४शा नर अथवा वानर किणिहि, साख हलाई जास। होणहार तउ होइसी, साखा भेद विणास ॥४६॥ माली तौ किहि दिसि गयौ, आयौ मत्री गेह । प्रजा लोक मिलि पूछिहै, राइ कहाँ कहै तेह ॥४७॥ मंत्रीवाइक-कहा कहूं मंत्री कहै, भूप हण्यौ वाराह । पाछै सुत नही राइ के, पाट बैसारे ताहि ॥४८॥ नगर लोक मिलिक दीयो, वीरौचन कं पाट । इक राणी के गर्भ है, सो मन मांहि उचाट ॥४६॥ सुत जायौ पूरण दिवस, अरिमरदन 'तसु नाम । चंदकला वाधे कला, रूप अधिक अभिराम ॥५०॥ वार वरस बोले कुमर, तब ले थाप्यौं पाट । - मात कहौ मुझ तातकू, मरण भयौ किण घाट ॥५१॥ माता वाइक-मात सुणी जैसी कही, तौही न मानै चित्त । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रंथावली खबर करण संधी अये, पुर में फिर नृपत्ति ॥५॥ - एक दिवस माली घरहि, छांनी रह्यौ छंछाल । सुणो करत सिंह चारता, मालणि मालागार ॥५३॥ मालणी वाइक-बार बरस तुम कहाँ रहे, कहां गये थे कंत । अहो त्रीति तुम कारिसी, हसि हसि यं पूछंत ॥५४|| कबहूं मोहि चितारिते, कहत मालिणी भाख । तुं सुझ कबहु न विसरती, ज्यं वीरोचन साख ॥५॥ बात कही मालणि कहै, अजहू है निसि नारि । सठ तिय हठ गहि कै रही, बात कहहि तिणिवार ॥५६॥ अरिमरदन संवही सुण्यो, सुणी श्रवण सब बात । करि सहिनाण गयौ महल, चर भेज सुप्रभात ।।५७|| घ्यादा वाइक-रे हो मालि तेरि है, तो कुं श्री महाराज । चालै क्युं न उतावरी, डीलन का नहीं काज १५८॥ चैण सुणत वेदल भयौ, गयौं जिहां नरराइ । माली कै कर जॉरि के, जाई लग्यो प्रभुपाई ॥५६॥ राजा बाइक-सुणि आरामिक नप कहै, आज अस्थी राति । ___अपणो प्यारी सुं कहौ, क्या करते थे बात ॥६०॥ माली बाइकारामि साचौ कहै, कैसी कहीय वात । नंदराई कुं मारि कै, वीरोचन को घात ॥६॥ ' 'चाकर भेजे आपण, सूधी बातः सिखाइ । . . वीरोचन परधान कुं, ल्यावौ जाइ वुलाइ ॥६२ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंद बहुत्तरी ४३५ द्वार रोकि चाकर रहै, चालि चालि मंत्रीस । तुझ कुं राई वुलाइ है, तुरत लखी मन रीस ॥६३॥ प्रभु कं मिलण चल्यो ज., कुसुकन भए अपार । फिरि पाछो गृह आइक, कीनौ मरण विचार ॥६४॥ मंत्री वाइक-च्यारौं पुत्र बुलाइ के, छ है मंत्री सीख । मो मारौ तौ रज रहे, नहीं तर मांगो भीख ॥६॥ तुम्हकू कहिकै जाइ हुं, राई तणे दरबार । कुनजर देख्यो राइ की, तौ हणीयौ खगधार ॥६६॥ चौथै सुत. वीरौ गह्यो, गयौ दरवार कुलीन । फिरि बैठौ नप देखि के, घाउ तर्फे उण कीन ॥६॥ फिटि फिटि मूरख क्या किया, कीनो बहुत अकाज । राजि हरामी तात सं, नहीं हमारे काज ॥६८॥ खुसी भयौ नप सुणतही, बहुत वधारूं तुझ । सांमिधरम्मी तुं खरो, साचौ सेवक मुज्झ ॥६६॥ ताहि दीयो परधान पद, बाजी रही सुठाह । अरिमरदन मान्यौ बहुत, प्राक्रम अंग अथाह ॥७०॥ पुन्य पसाय- सुख लह्यौ, सीधा वंछित काज । कीनी नंद बहुत्तरी, संपूरण जसराज ॥७॥ सत्तरै से चवदोतरै, . काती मास उदार । की जसराज बहत्तरी, वील्हावास मझार ॥७२॥ ... इति श्री नंद बहुत्तरी दूहाबंध वारता समापता । [पत्र २ अभय जैन ग्रन्थालय ] Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चौबोली कथा लिख्यते ॥ कवित्त॥ सभा पूरि विक्रम्म, राइ बैठो सुविसेसी । तिण अवसर आयीयउ, एक मागध परदेसी । ऊभो दे आयीस, राइ पूछइ किहां जासौ ? अठा लगै आत्रीयौ, कोइ तें सुण्यौ तमासौ ? कर जोड़ि एम जंपइ चयण, हुकम रावलौ जो लहुं । जिनहर्प सुणण जोगी कथा, कोतिग वाली हूं कई-१ श्री चल्लमपुर सबल, तासु पति श्रीपति सौहै । कुमरी जोवनवंत, रूप रति सुर नर मोहइ । चवि चौबोली नाम, तेण हठ एम संवाह्यां। वोलावेसी वहसि, वार मो च्यार उमाह्यौ । जिनहर्प पुरुष परणिसि तिको, ताँ लगि नर निरख नहीं। बहु भूप आइ बंदी हुआ, वोल न बोलै मैं कही -२ पर दुख मंजण भूप, साथि वेताल करेनइ ।। हर्ष धरिनइ हालीयौ, गयौ तिण पुरसो लेने। अरहट कु भरी आंण, चहै विण बलदां पेखे । ' मालण परि ऊतरे, सांझि जदि थई विसेषे । नृप तांम गयो कुमरी महल, मुख बोल नहीं मूल था । जिनहर्ष कहै सुणि आगीया, निसि बोलै ज्यु कहि कथा-३ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवोली कथा कवित्त ४३७ ॥हा॥ मोनइ काइ नावै कथा, कहै वैताल नरेस । - राजि कहौ रूड़ी परइ, हूं हंकारौ देस-४ अथ प्रथम पहुर झारौ बोलायौ ॥ दहा ।। माइ-बाप, मांमै मिलै, भाई चौथौ भालि । जण च्यारे दी जूजई, कन्या एक निहालि-५ । कवित्त ।। वोंद च्यारि बोंदणी एक, च्यारे चहि आया। दोष वधंतो देखि, वप्प पावक जलाया । एक वल्यौ तिण साथि, एक तीरथ पयांणइ । एक चल्यउ ले फूल, एक फिर भिख्या आणइ । इम ठोड़ि-ठोड़ि व्यारे हुआ, चल्यौ आइ गंगा तिको । इक नगर मांहि गृह देखिनइ, भोजन काजि बैठो तिकौ-६ कामणि करइ रसोइ, वाल तदि आड़ो मंडइ । चुल्हा मइ चांपीयउ, हाथ पग सीस विहंडे । रीस करे ऊठीयौ, तांम तिण अमृत आणे । विंद छांटीयउ बाल, हूऔ जीवत अहिनांणे । तिण पास ग्रहे वलीयउ तिको, मारग मइ मिलीयउ वीयउ । रस छांटि । संजोड़े कन्यका, ऊठी आलस न कीयउ-७ नारि नीहाली नरे, राड़ि मांहो मई मंडी। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जिनहर्प ग्रन्थावली धुंकल सवलौ धूखे, जाइ क्रिण बतइ न छंडी। कहि झार कुण धणी ? राय विक्रम , पयासे । साथि बल्यौ तेहनी, - तांम चौबोली भासह । काइ रे मूड कूड़ी चवइ, तेतो भाई सारिखो। जिनहर्ष पिंड भरीयौ जिय, नारि तासु ए पारिखो-८ अथ बीजे पहुर सिंघासण बोलायौ ॥हा॥ जोवां परदेसइ जई, करम तणो अधिकार । चार मित्र मिलि चालिया, वारू करे विचार-६ ॥ कचित्त ॥ . च्यारे मिल चालीया, देस सुत्तार दरजी।। त्रीजौ कहि सोनार, वित्र सहु जाण सुकजी । चासौ वसीया वेड़ि, वांधि पहुरा च्यारेइं । धुर बैठो सूत्रधार, कठ इक चंदन लेई । निज राछ काढिनइ पूतली, कीधी कन्या जेहवइ। -: पूरइ पहुर सूतौ तिको, जाग्यौ सूजी जेहर-१० देखि पूतली नगन, चीर सीवी पहिरायौ। । ओ सूतौ अधि रात; अनइ सोनार जगायौ। : घड़ि ग्रहणा घाट, अंग सिणगार · वणायौ । - पहराइत पौडीयौ, - विप्र तिन; ठाइ पठायौ । - सरजीत कीध पंचालिका, माहो मै झगड़ौ करइ ।। . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबोली कथा कवित्त विक्रमादीत राजा कहै, कवन पीढ़ नारी वर-११ । कहई सिंहामण सांमि, वात- एहवी सुहावै । कह न सकं बीहतो, नारि बोभणनइ आवइ । चौवोली कुंयरी रीस करि इण परि "जपे। गहिला कांइ गिवार, वयण असमझ पयंपै । सूत्रधार ईस सूई सहज, चांभण पिता सु जाणोयइ । जिनहरष नारि सोनार री, बीजी कथा वखाणीयइ-१२ . ॥ दोहा ॥ · अथ तीजै पहुँर दीयौ वोलायौ लाट देस भोगवती, नगरी भल नर नारि । देवी रौ तिहां देहरौ, महिमा' नगर मझार-१३ ॥ कवित्त ॥ चरचे नृप चामंड, भगति,सं होमि भली परि । वर दीधौ तिण वार, मात दें पुत्र मया करि । देवी वर दीकरौ, हुयो "महिमा जग मोहइ । तिणपुर धोबी एक, तासु घरि कन्या सोहै । अनगाम तिणे धोवी तिका, दीधी विरहाकुल थयौ । जागतौ पीठजग जाणिजे, देवी प्रासादई गयौ–१४ मात चढाइस सीस, 'रजक जौ कन्या "देसी । अरेज करें आवीयौ, 'सबल सुरवर सुविसेसी। परणाई तिण सुता, रजवा-सुत पूंगी रैलीयां । AL . HI TA . Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जिनहर्ष प्रथावली १ चल्यौ लेइ कलत्र, मित्र ज्यं विकसइ कलीयां । तिण ठोड़ि आय रथ थंभीयौ, भुवन जाइ सिर कापीयउ । तिहां गयौ मरण देखे तुरत, मित्र तासु तिमहिज कीयौ-१५ अजी न आया केस, तिका कामणि तिहां पहुती। पेखि मरण एहवौ, मरै देवी मां कहती। तौ ए करि सरजीत, सीस धड़ मेल्हि निचंता। तिण मेल्हा जूजूया, हुआ जीवता विता। कहि दीप नारि ते केहनी, धड़ वनिता राजन लहइ । जिनहरष रीस करि सीसरी, कामणि चौवोली कहै-१६ अथ चउथइ पहुर हार बोलायौ । ॥ दुहा ॥ आयो दक्षण देश थी, उलगाणौ वर वीर । वर्द्ध मानपुर वर प्रसिद्ध, वीरसेन नृप धीर-१७ कवित्त . . वर्द्धमानपुर वड़ौ, नाम वीरसेण नरेसर । दक्षण थी आवीयौ, एक रजपूत वीरवर । राइ कहइ किन काम, सेव कजि साहिव आयौ । . . रोजगारा की, लेसि, सहस दीनार - दिवायौ । असवार किता सुत नारि हुं, रावति पुरपति राखीयउ। . निसि नारि काइ रोती सुणी, भूप जागि इम भाखीयौ-१८ कोइ जागै पाहरू, तरइ वर -वीर हूंकारइ । . . Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबोली कथा कवित्त ४४१ कुण रोवइ करि खबरि, ऊठि चाल्यो नप लारइ । कोइ रो, त कवण भूप कुलदेवी भाखई। दिन त्रीजइ नप मीच, कष्ट किम टलइ सु दाखै । निज हाथ मारि सुत घाव सं, बल मोनुं जो को दीयइ । नरराइ रहै तउ जीवतो, वीर जाइ निज सुत लीये-१६ आई साथे अवल पूति, करि घाउ चढ़ायौ। माइ मूई उरि फटि, वीर निज सीस बढ़ायौ । राइ करइ अपघात ताम देवी करि- झालइ । तो ए करि सरजीत, हुआ जीवति उठि चालै। ___ सतवंत हार कुण ओलगू, ताती होइ भाखे तथा । जिनहर्षे सत्त राजा अधिक, चौबोली च्यारे कथा-२० च्यार बार, बोलाय, चार फेरां सं परणी । वरत्यां मंगलच्यार, च्यार . वेदों गति करणी । . च्यारे दिसि जस हूयौ, च्यार जुग तांइ. नामो। च्यार दरसण गुण चवइ, पुहवि सुख सपति पामौ । नवनिधि सिद्धि आठे अचल, विक्रमराइ धावियौ । जिनहर्ष नगारे निहसते, उज्जेणीपुर आवीयौ-२१ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ जिनहर्म ग्रंथावली कलियुग आख्यान ढाल चपनी जुग काउ । * 1 सतजुग मा बलराजा थयउ, रामचन्द्र त्रेता द्वापर मांहि करण दातार, पांडव पांच थया जोधार - १ धरमपुत्र युधिष्ठिर राय, बीजउ भीम भ्रात कहवाय । अर्जुन त्रीजउ बाणावली, चउथउ सहदेव नकुलउ बली । —–२ ए पांचे हथिणापुर राज, करइ धरम करम ना काज । न्याई नीतिशास्त्र ना जांण, जेहनी मह को मानइ ऑण । - ३ एक दिन धर्मपुत्र महाराज, रयवाड़ी रमिवानड़ काज । अलगउ एक वन माहै गयउ, ख्याल निहाली अचरिज थयउ ४ नीची थईन धावड् गाय, निज वछीन दीठी राय । जोवउ रे अचरिज ए किसउ, राजा मनमां चिंत इसउ । - ५ आगलि राय कीधी मींट, तीन सरोवर त्रेण दीठ | तीने सरवर जल कल्लोल, भरीया करता छाको छोल ।–६ प्रथम सरोवर थी ऊपड़ड़, जलधारा त्रीजा मा पड़ड़ | विचिला मांहे न पड़ड़ टीप, ए अचरिज दीठउ अवनीप ।-७ राजा मन विस्मय पांमीयउ, हीयड़ड़ धरि आगलि चालीयउ । पांणी भीनी बेलू साहि, रज्ज वणइ भाजड़ खिण मांहि । - देखी कौतुक चाल्यउ राय, आगलि जातां अचरिज थाय । टंत पांणी आवाह, खांची लयड़ जल कूप अवाह । —६ 1 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग आख्यान ४३३. आगलि चाल्यउ नृप निरभीक, एक चंपक दीठउ सश्रीक । पासइ एक समी नउ वृक्ष, वन माहे दीठउ नृप दक्ष ।-१०. समी वृक्षनइ - पूजइ सहुं, चोवा चंदन लेपइ चहुं। आगलि नाटक करइ अनेक, रायइ दीठउ एह विवेक ।-११ पुष्फपत्र फर मरीया घणां, छत्राकारइ सोहामणा । तेहनी कोइ न पूजा करइ, राजा देखी अचरिज धरइ ।-१२ वालाग्रइ वॉधी वकिला, आकासइ लंबित रही सिला। राजा अचरिज नउ ख्यालीयउ, देखोनइ आगलि चालीयउ-१३ __ तरुअर वधियउ फलनइ काज, फल दुखदाई दीठा राज । __ आगलि दीठउ लोह कड़ाह, सुंदर अनी पाक नउ ठाह ।-१४ ते माहे रंधायइ मंस, देखीनइ थायडु मन भ्रस । आगलि नृप जायइ ज भला, सरप गुरुड़ दीठा तेतलई -१५ पूज अपूजा नयण. निहालि, आगलि चाल्यउ वली भूपाल । गज जूता खर जूता रथई, कलह सनेह निहालई पथई ।-१६ आगलि चाल्यउ जायइ राय, देखीनइ मन विस्मय थाय। सिंहासण वइठउ वायंस, सेवइ तेहनइ उत्तम हंस ।- १.७ एहवा अचरिज दीठी-भूप, मनमइ चिंतइ किसउ सरूप । घरि आव्यउ पिणि मनमा चिंत, जईनइ पूछं, श्रीभगवंत ।-१८. नारायण “नई लागी - पाय, , वेकर जोड़ी. पूछइ राय। मइ दीठा छइ अचरिज एह, टालउ त्रीकम मुझ संदेह !-१६ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रंथावली 'ढाल-आख्यातनी श्री कृष्ण भाखड़ धर्मसुत सुणि, प्रथम एह विचार रे । सत्वहीण थास्यइ नारि नर, कलिजुगइ तुं अवधारि रे। मात पिता दुख भूख पीड्या, नहीं कोई आधार रे। धनवंत नइ निज सुता देई, तास द्रव्य आहार रे।--२० जिम गाय धावइ वाछड़ीनइ, बात उलटी इस हुस्यइ । . धन दीकरी नउ भक्ष करिस्यइ, लोक नीति न चालिस्यइ । 'तई सरोवर तीन दीठा, तास सुणि विरतंत रे। प्रथमनउ जल ऊछलीनइ, अंत माहि पडत रे ।-२१ जे राउ छइ विचइ सरवर, बूंद न पड़इ एक रे। कलिजुगइ थास्यइ लोक एहवा, नहीं लाज विवेक रे। . जे सगा अनइ निजीक चाल्हा, आविस्यइ नहीं काम रे। ते सोथि करिस्यइ वैर बांधा, निकटवासी धाम रे ।-२२ ज साथि सगपण नहीं किमही, वसइ अलगा जेह रे।। बहु प्रीति करिस्यइ ते संघातइ, मान लहिस्यइ तेह रे। ' दोरड़उ वेलू तणौ भागी, जतन करतां जाइ रे। -कलिकाल भाव तणा फल, श्रीपतिकहइ सुणि राय रे ।-२३ कृष्णादिका वहु क्लेश संयुत, लोक धन ऊपाविस्यइ । ते अगनि चोर जलादि कारण, राजा डंड पंजाविस्यइ। बहु जतन करिनइ राखिसइ धन, तउ ही पिण रहिसइ नहीं। 'वन अलप आय उपाय बहु, व्यय, आवाह फल सांभलि सही २४ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुग आख्यान ४४५, कृष्य वाणिज्य क्लेस कलिनई, द्रव्य मेलविसइ बहु । । कर सीस धरिसइ दड- करिसइ, राय संग्रहिसइ सहु। . -समी चंपक फल कहउ - प्रभु. राय पूछइ पग ग्रही । गुणवंत उत्तम महासज्जन, तेह पूजासइ नहीं।-२५ जे अधम पापी सुमति कापी, नील खल दुष्टातमा । तेह तणी पूजा लोक करिस्यइ, मानिस्यइ परमातमा । सिला दीठी वाल बांधी, पाप कलिजुग सिल सही । तिहां अलप धर्म वालाग्र प्रायई, लोक निस्तरिस्यइ लही।-२६ वृद्धि तरु फल अरथ सांभलि, कहइ चतुर्भुज नृप तणी । पिता वृक्ष समान परतिख, पुत्र फल सरिखउ गिणी । बहु अरथ अरथइ वापनइ सुत, हणइ दुख आपइ घणउ । उद्वेग उपजावइ निरंतर, फल थयउ असुहामणउ |--२७ लोक कड़ाह मइ मांस पाचइ, तेहनउ कारण किसुं । स्वज्ञातिनउ परिहार करिसइ, प्रीत करिसइ नीच सं। पर वर्ग नइ निज सीस देसइ, नीच खल सुं प्रीतड़ी। गुरुड़ न लहइ रिती पूजा, सर्प पूजा एवड़ी।--२८. सर्प सरिखउ धर्म निर्दय, तेहनइ सहु मानिसइ । धर्म उत्तम गुरुड सरिखड, तेहनइ अपमानिस्यइ । नर-जेह उत्तम गुणे सत्तम, कलह माहो मां करई । रथ धुरा मर्यादा न धारइ, मांण गइवर जिम धरह-२६. नींच कुल ना परसरीखा, प्रीति माहो मां घणी । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रंथावली निज नीति मर्यादा न मेल्हइ, मिष्ट वाणि सुहामणी । काग दीठउ हस सेवित, फल कहउ हरि तेहना। काग सरिखा हुसइ राजा, नीच कुल नी उपना |-३० हंस सरिखा सुद्ध निरमल, तास करिसइ चाकरी । ते थकी रहिसइ बीहता जन, सीह थी जिम, वाकरी । एहवा दृष्टांत राजा, पूछिया कलिजुग तणा। श्रीकृष्ण भाख्या हीयई राख्या, लोक नीच हुस्यह घणा |-३१ बहु धर्म हाणि अधर्म महिमा, नीति मारग किसइ । पूज्य पूजा नहीं थायइ, अपूज्या पूजाइसइ । धनहीण खीन दलिद्र पीड्या, लोक दुखीया थाइसइ । धरम करिसइ जन सदंभी, नारि पिण नीलज हुसइ ।-३२ लोक माहे तर्कन हुस्यइ, नवि कदाग्रह मुंकिस्यइ । जलधार अलप हुसइ महीतल, राज विग्रह अति घणा । व्यवहार माहे खोट पडिस्यइ, लोक कपटी मन तणा।--३३ पांच पांडव इस सांभलि, हीया माहे थरहऱ्या । कलि मांहि न रहइ लाज केहवी, धर्म मारग संचस्या । जिनहर्प कलि विरतंत एहवं, कृष्ण नप आगलि कह्यउ । जे धर्म करिसइ तेह तरिसइ, तिणइ परमारथ लाउ ।-३४ इति कलियुग आख्यान समाप्ता [पत्र २ दानसागर भंडार, बीकानेर प्रति नं०५४।१६२६ ] Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय संग्रह रहनेमि राजिमती गीत ___ ढाल कलाल की-री' ' नेमभणी चाली बंदिवा हो लाल, मारग वठौ मेह-राजीमती । भीनी साड़ी कंचओ हो लाल, भीनी सगली देह राजीमती ॥१॥ तै मारौ मनड़ौ मोहियौ हो लाल, मोहियो श्री रहनेम राजी०॥२।। देखि एकांति सुहामणी हे लाल, आइ गुफा मझार राजी।। - चीर सुकाया. आपणां हो लाल, दीठी रहनेम तिवार राजी०२॥ रूप निरखो रलियामणौ हो लाल, चको चित मुनिराय ॥राजी।। वचन कह सुणी साधवी होलाल, मत मन व्याकुल थायोराजी०॥ हूँ रहनेम रहे इहां हो लाल, तू आइ मोरे भाग ।। राजी०॥ भोग तणां सुख भोगवां हो लाल, छोड़ि परौ वैरागाराजी०॥४॥ लाजी मनमें साधवी हो लाल, पहिया साड़ी चीर ॥राजी।। बोली साहस, आंणीनै हो लाल, सुणि नेमजीरा वीर ॥राजी।। रहनेभजी त जादव सिर सैहरौ हो लाल, समुद्रविजैरा नंद।।रहनेम।। वचन विचारी बोलिये हो लाल, जिम थाये आणंद रह० ॥६॥ विषय विकार न सेवियै हो लाल, किम कीजै व्रत भंग ॥रह०॥ रहनेमजी ! इन वातै छै मेहणौ हो लाल, आवैकुलनैगाल रहा। संजम संचित लायनै हो लाल, सुद्ध महाव्रत पाल रह०७॥ आदरिऊ भजियै नहीं हो लाल, ले मंकीजे केम ॥ रह० ॥ , वम्यो आहार न जीमिय हो लाल, राजल जंपे एम ॥ रह० ८॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जिनहर्ष ग्रंथावली धरम मारग थिर थापीयौ हो लाल, आंकुस जिम संडाल रह० थाज्यो माहरी वंदणा हो लाल, कहे जिनहरख त्रिकाल रिह०६॥ ढंढणकुमार समाय ढाल || १ करकडूने करूं वंदणा हुँ वारी ।। २ वाल्हेसर मुझ वोनति गोडीचा एहनी ढंढण रिपिने वंदणा हुँ वारी, उतकृष्टउ अणगार रे हुंवारीलाल __ अभिग्रह कीधु' माहरी हुंवारी, लवधे लेस्युं आहार रो।हुंवारी।।१।। दिन प्रति जाये गोचरी हुवारी, मिलइ नही सुधभातरे।हुंवारी। नलीये मूल असूझतउ हुँवारी, पंजर हूअउ गात रे हुं वारी।।२ढी! हरि पूछड् श्रीनेमिनइ हुँ वारी, मुनिवर सहस अठार रे ।हुं वारी। उत्कृष्टउ कुण एह मा हुं वारी, मुझनइ कहउ विचार ।।हुवारी२ढं ढंढण अधिकउ दाखीयउ हुवारी, श्रीमुखिनेमि जिणंद रे हु। कृष्ण ऊमायउ वांदिवा हुवारी, धन यादव कुल चंद रे हु॥४ढी गलीयारइ मुनिवर मिल्युं हुं वारी, वांदइ कृष्ण नरेस रे हुँ। किणि ही मिथ्याती देखिनइ हुँवारी,आयं भाव विसेसरे हुँ०५ढी आवउ मुझ घर साधुजी हुँवारी, ल्यु मोदक छ सुद्ध रे हुवारी। - रिपिजी वहिरी आवीयाहुं वारी, प्रभुजी पासि विसुद्ध रेहु ॥६ढी। मुझ लवधई मोदक मिल्या हुवारी, पूछइ दाखो कृपाल रे हुंवारी लवधि नहीं ए ताहरी हुवारी, श्रीपति लब्धिनिधान रे हुंवारी।। १ लीधो २ आपणो ३ आयो ४ ल्यो ५ लेइ ६ कहै Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलातीपुत्र स्वाध्याय ४४४ तउ मुजने लेवा नहीं हुवारी, चाल्यो परठण काज रे हुलाला ईट नीवाहइंजाइनै हुंचारी, चूरे करम समाज रे हुलालाढl आवी निर्मल भावना हुंवारी, पाम्युं केवलनाणरे हुवारीलाला ढढणरिषि मुगतई गया हुवारी, कहे जिनहरख सुजाणरे हुवारी लाल ॥६ ढं। चिलातीपुत्र स्वाध्याय ढाल १ जिरे जिरे सामि समोसर्या ॥ __ साधु चिलातीपुत्र गाईयइ, तोड्यां जिणि करम कठोरो रे। • तास चरण निति प्रणमीये, सह्यां जिणि उपसर्ग घोरा ।।१सा।। राजगृह पुर "रलीयामणउ, अलिकापुरि अवतारो रे। धन सारथवाह तिहां वसइ, धनवंतमां सिरदारो रे ॥२॥ दासी चिलाती छड् तेहने, चिलातीपुत्र थयउ जाणो रे। सेठि नइ पांच छइ दीकरा, कन्या एक निहाणोरे ॥ ३सा ॥ रूप तु अपछरा सारिखी, रति सरसति अनुहारौ रे । वाल्ही माय-बापने अति घj, भाईने जीव आधारो रे ॥४ सा।। अनुक्रमि दास मोटउ थयउ, (करे) घरमां अन्यायोरे । लोकनाल्यावइ ओलंभडा, काट्यउ घरथी कर साह्यो रे॥५सा॥ चोरः पल्ली माहे जइ रह्यउ, पल्लीपति तसुदेसी रे। पुत्रकरी तिणि राखीयउ, आपद तास नवेसी रे॥६ सा॥ १७ आई Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ ४५० जिनहर्ष ग्रन्थावली ढाल २ धन-धन संप्रति साचार राजा ॥ एहनी जोवउ करमतणी गति केहवी, करम सवल जग माहिरे । सुखीया-दुखीया थाये प्राणी,ते सहु करम पसाइ रे ।। ७ जो ॥ पल्लीपति परलोक सिधायउ, चतुर चिलातीपुत्र रे। पांचसइ चोर तणउ स्वामी, चोरीकरे असत्र रे ॥ ८ जो ।। वाट पाड़इ बहु नगर उजाड़इ, मारे माणस वृन्द रे । लूटइ साथ हाथ नवि आवे, एहवर दासी नंद रे ॥ ६ जो ॥ एक दिवस बहु चोर संघाते, आन्यउ राजगृह तेह रे । धन सारथवाह ने परिपाठउ, न गण्यउ पूरव नेह रे ॥१०जो।। चोरे शेठ तणु धन लीधउ, कन्या लीधी तेणि रे । नीकलीयो लेइ पुर वाहिरि, बाहर थई ततखेण रे॥११जो।। नाठा चोर सहु धन नासी, तिणि पापी अपवित्र रे । कन्या सिर छेदी कर लेई, नाठु चिलातीपुत्र रे ॥१२जो।। ढाल ३ ॥ हो मतवाल्हे साजना ॥ एहनी आगलि दीठउ मुनिवरु, प्रतिमाधर वर निरमोहीरे । काया नी ममता तजी, अंतरगत समता सोही रे ॥१३आ॥ परिग्रह जिणि पासइ नहीं, मुख मून दिगंवर धारी रे।। समिति गुपति सूधी धरइ, बहु लवधिवंत उपगारी रे॥१४आ।। देखी मुनि नइ पूछीयउ, कहउ धरम रिसीसरराया रे । उपसम विवेक संवर कबउ, ए धरम तणा छे पाया रे ॥१५आ। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hy चिलातीपुत्र स्वाध्याय ४५१ इम कहिने ऊडी गयउ, त्रिपदी नउ अरथ विचारइ रे।। उपसम तउ मुझ मां नही, हुँतउ भरीयउ क्रोध अपारे रे॥१६॥ नही विवेक मुझ मां रती, आस्ये मस्तक स्यइ कामे रे। " संवर आण्यउ,आतमा, राख्या निज योग सुठामइ रे ॥१७।। मुनि चरणे काउसग राउ, कायानी ममता मूंकी रे।। ध्यान धरे त्रिपदी तणउ, बीजी सहु भावठि चूकी रे ॥१८॥आ।। । ढाल (४)। " भाव चारित्र आव्यउ उदइ जी, निंदइ पातक कर्म । _ पाप कीया ते प्राणीया जी,जेह थी दुर्गति भर्म ॥१६॥ सुविचारी रे साधु, तोरूं अधिक खिमा गुण एह । गुणवंता रे मुनिवर, धर्यउ समता सं नेह ॥ महिमावंत मुनिवर, परिसह सह्यउ निज देह । बलवंतारे साधु तोरा चरण तणी हुँ खेह ॥२०॥सु।। साधू चिलातीपुत्र नउ जी, लोही खरड्यु-शरीर । आवी तेहनी वासना जी, कीडी छंछोल्यु धीर ।।२१।। वजमुखी अति आकरी जी, पइठी कोन मझारि । आंखि 'माहे ते नीसरी जी, कीधलां छिद्र अपार ॥२२सु।। पइसी पइसी नीकली जी, वींध्यउ सयल शरीर । काया कीधी चालिणी जी, पिणि न डिग्यउ वडवीर ॥२३सु॥ राति अढी वेदन सही जी, निश्चल थइ मुनिराय। सूरतणी परि झूझीयउ जी, पाछा न धर्या पाय ॥२४सु।। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रंथावली ढाल ५ ॥ सुणि वहिनी पीउडर परदेसी ॥ एहनी चिसम सही उपसर्ग चिलाती, - पुत्र तिहांथी मूअउरे । शुभ ध्याने सुभ भाव संयोगे, सुर भुवने सुर हूअउ रे ।। २५वि।। अनुक्रम तेह परम पद लहिस्य, करम कठिण निज दहिस्यड़ रे । एहवा साधु तणा गुण ग्रहिस्ये, सुरनर तेहने महिस्यड़ रे || २६ वि || साधु चिलातीपुत्र नमीजइ, सगला पाप गमीजइ रे । मानव भवनं लाहउ लीज, निज मन निर्मल कीजे रे || २७ वि ॥ साधु तंगी संगति सुख लहीये, साधुसंगति दुख दहीये रे । साधुतणी आणा सिर बहीये, तउ भवमांहि न फहीयड़ रे ।। २८वि ॥ एहव उपसर्ग नवि भाजइ, सदगति मांहि विराजइ रे । तेहनी कीरति त्रिभुवन गाजे, जसनी नउबति बाजे रे || २६ वि|| जीभ पवित्र हुवइ मुनि थुणतां, श्रवण पवित्र जस सुणतांरे । कहे जिनहरख जासु गुण गणतां, जनम सफल हुड़ भणतांरे ॥३०॥ प्रसन्नचंद राजर्षि स्वाध्याय ४५२ ढाल || जिहो मिथिला नगरी नउ घणी ॥ एहनी जीहो राजगृह पुर एकदाजी, जीहो समवसर्या महावीर - । जीहो बाट चिचड़ काउसग राउ, जीहो पामेवा भवतीर ॥१॥ प्रसनचंद बंदु तोरा पोय, जी हो राज देई लघु पुत्रने, जीहो आप थया निरमाय । प्रof जी हो श्रेणिक आवे वांदिवा, जी हो वीर भणी तिणि वार Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेसी मुनि स्वाध्याय जीहो सुमुख कीधीस्तवना सुणी, जीहो नाण्यउ मन अहंकारा॥२॥ जीहो दुष्ट वयण दुर्मुख तणा, जीहो सांभलि जाग्यउ क्रोध । जीहो प्रेम पुत्र उपरि धर्य, जीहो मेल्या सहु निज जोध ।।३।। जीहो अरिदल सं सनमख थयउ. जीहो मनसं करड संग्राम । जी हो श्रेणिक कहे प्रभो उपजइ, जी हो प्रसनचंद किणि ठाम ॥४॥ जीहो सातमी, सुरगति अनुक्रमई, जी हो वाल्यउ मन ततकाल । जी हो वात करंतां ऊपनउ, जी हो केवल झाक झमाल ॥ना। जी हो सुभ असुभ दल मेलवइ, जी हो गरुअउ मन व्यापार । जी हो मन ही मेल्हइ सातमी, जी हो मनही मुगति मझारि॥६॥ जी हो जोवउ ए गुण भावना, जी हो तोडी नाख्या कर्म । जी हो प्रसनचंद मुगते गया, जी हो लह्या जिनहरख सुशर्म ॥७॥ हरिकेसी मुनि स्वाध्याय ढाल|जीरे जीरे सामि समोसर्या ॥एहनी हरिकेसी मुनि चंदिये, जोडी कर नितमेवो रे ।' तिंदुक बासी देवता, जेहनी करइ सेवो रे ॥१॥ पंच समिति तीन गुपतीसं, इरज्या सोधंतोरे । ब्राह्मण वाडइ आवीयु, मासखमणने अंतो रे ॥रह।। रूप कुरूप कालउ घणु, तप काया सोपी रे । तन मइलउ मन उजलउ, जेहनी करणी चोखी रे ॥३ह।। फाटा पहिर्या कलपड़ा, राखेवा लाजो रे । ब्राह्मण याग करे तिहां, आन्यु भिक्षा काजो रे ॥४॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ लिनहर्ष ग्रंथावली बाडव देखी बोलिया, मानी मतवाला रे। किहां आवइ रे दैत्य तुं, नीच जाति चंडाला रे ||५ह!! सुर आवी तनु संक्रम्यउ, बोलइ मधुरी वाणी रे । भोजन अरथइ आवायउ, आपउ पुन्य जाणी रे ॥६ह।। अन्न घणु छइ तुम घरे, मुझ पात्र ने पोसउ रे । एहवउ सुपात्र वली तुम्है, लहीस्यु किहां चोखउ रे ॥हा। पात्र जाणुं ब्राह्मण कहइ, ब्रह्म सास्त्र ना पाठी रे । नित्य घटकर्म समाचरइ, करणी नहीं माठी रे ||८|| आश्रव सेवे ज सदा, क्रोधादिक भरीया रे। तेह कुपात्र ब्राह्मण कह्या, संसार न तिरिया रे ॥६ह।। पाठक भाख एहने, मारी ने काढउ रे । छात्र द्रउड्या लेई चावखा, सुर कोप्यं गाटर रे ॥१०ह।। रूधिर धार मुख नाखता, पड्या थईय अचेतो रे । मद्रा राय सुता कहइ. तुम कुल एकेतो र ॥११हा। एहनी सुर सेवा करह, मुझ नइ इणि छोडिर। जउ जाणउ छउ जीवीये, सेव कर जोडी र ॥१२ह।। सगला विन मिली करी, कहे स्वामी तारउ रे।' तुम थी रहोये जीवता, प्रभु क्रोध निवारउ रे ॥१३॥ क्रोध नही अमने कदी, जक्ष सेवा सारङ् रे। एह कुमर तुमचा हण्या, वयावच संभारइ रे ॥१४॥ तउ प्रभु ल्यउ भिक्षा तुम्हे, परघल अन्न आपइ रे । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेतारज मुनि समाय ४५५ वसुधारा वर्षण करइ, मुनि दान प्रतापे रे ॥१५॥ . निरवद्य योग कही करी, प्रतिवोध्या विप्रो रे । कहे जिनहरख महामुनि, गया मुगते खिग्रो रे ॥१६ह।। मेतारज मुनि सज्झाय श्रेणिक राजा तणोरं जमाई, जात तणो साहुकार जी मेतारज संजम आदरीऊ, क्षमा तणो भंडार जी ॥१२।। ऊंच नीच कुल भीख्या अटतो, लेतो सुध आहार जी सोवनकार तणे घर आयो, मुनि दीठो सोनार जी, ॥२।। भाव वंदे ते उठिनै, भलै पधाऱ्या आज जी खबर देइ ने घरमें आयो, ऊभा रह्या रिपराय जी ॥३॥ सोवन जव तिहां मुक्या हुँता, ते सहु गलिया क्रोंच जी सोवन जब सोनार न निरखै, इसौ थयौ प्रपंच जी ॥४श्री। जव उरा आपो मुझ रिख जी, म करो इवड़ो लोभ जी ऋद्धि छोडिने तुम्हें व्रत लीधो, म गमो संयम सोभ जी ॥५श्री। नाम प्रकास्यो नवि पंखी नो, आणी करुणा साध जी सोनार घर में तेडि ने, माथे वीट्यो वाध जी ॥श्र। तावड़ सं ते वांध सुकाणो, अति भीडाणो सीस जी ते वेदन सही सवली पिण, मन में नाणी रीस जी ॥७॥ आंख पड़ी थे. धरणी छिटकी नै, पांम्यो केवलग्यान जी मेतारिज रिख मुगते पंहता, पाम्यां सुख असमान जी ॥८॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जिनहर्ष ग्रन्थावली धन धन रिख मेतारीज, दया तणो प्रतिपाल जी कहै जिनहरख सदा पाय प्रणमें, प्रहसम उठी त्रिकाल जी ॥६॥ इति श्रो मेतारिज मुनि नी सज्झाय काकंदो धन्नर्षि स्वाध्यायः ___ ढाल ॥ नाचे इद्र आणदसु ।। वीर तणी सुणि देसणा, जाण्यु अथिर संसारो रे। सीह तणी परि आदर्य, वयरागे व्रत भारो रे ॥१॥ वंदु मुनीवर भाव सं, धन धन्नउ अणगारो रे। छठि-छठि नइ पारणइ, आंबिल ऊझित आहारो रे ।। २ ।। देह खेह सम जाणि नइ, तप तपे आकरो जोरो रे। कठिण परीसह जे सहइ, जीपण करस कठोरो रे ।। ३ ।। साप कलेवर खोखलउ, सूकं तेहवउ सरीरो रे। हाड हिंडंता खडखडे, मंदरगिरि जिम धीरो रे॥ ४ ॥ वीर नइ श्रणिक पूछीयउ, चउदह सहस मझारो रे। आज अधिक कुण मुनिवरू, तंपगुण दुक्कर कारो रे ।। ५ ।। धन्नउ वीर चखाणीयउ, पाय वंदण थयउ कोडो रे । राय नइ रिषि साम्हु मिल्यु, वांदइ बेकर जोड़ो रे ॥ ६ ॥ श्रेणिकराय गुण वरणवइ, धन-धन तुझ अवतारो रे । निज मुख वीर प्रसंसीयउ, तुझ समउ नही को संसारो रे ।।७।। नव मास चारित्र पालियर, धरिय संलेहण ध्यानो रे। एका अवतारी थयुं, लघु अनुत्तर थानो रे ॥ ८ ॥ ns Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज सुकमाल स्वाध्याय हवा मुनि पाय वंदीये. परम दयाल कृपालो रे । कहा जिनहरख सदा नसुं, प्रहउठी नइ त्रिण कालो रे ॥ ६ ॥ ४५७ गजसुकमाल स्वाध्याय ढाल || घरि आवउ हो मन मोहन घोटा | एहनी गजसुकमाल वहरागीयउ, सुणि नेमीसर उपदेस । वारी । मन मानी तुझ देखणा, हुं तउ लेइसि संजम वेस ॥ वारी१ ॥ मुझ तारउ हो नेमीसर वारी, तुं तउ ज्यादव कुल सिणगार | वारी । चाल्हा तुझ ऊपरि सउवार | वारी । मु । आं । जिम सुख धाये तिमरु, अनुमति लेई दीधी दीख | वारी । | । चालपणे व्रत आदर्य, जगगुरु आपे धर्म सीख वारी ||२|| कर्म खपे किम माहरां, बड़गा कहउ नड् जग भांण । वारी । समता रस मन मां धरी, काउसग जई करि समसाण || वारी ३५|| प्रभु आदेस लेई करी, आव्यउ तिहां गजसुकमाल | वारी । थिर काउसग ऊभु रह्यो, सोमिल दीठउ ततकाल || वारी४ || कोध प्रबल ही वाध्यउ, फिट फिट रे पापी मुंड । वारी । नीच करम ए आचर्य, मुझ बालक कन्या छडि || वारीश्मु || सीखामण घुं एहनइ, वलतुं न करे कोई आम | वारी । रिपि हत्या मन चींतवी, चंडाल तणउ कीयउ काम ||वारी५ || पाल करी माटी तणी, बलता सिरि धर्या अंगार | वारी । सोमल सीस प्रजालीयुं, पिणि नाण्यु क्रोध लिगार || वारी७ ॥ + Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जिनहर्ष ग्रंथावली अंतगड केवली थई करी, मुगतइं पहुता मुनिराय । वारी । चरण कमल निति निति बंदीये, जिनहरख कहइ चितलाइ ।वारी८ अरहन्नक मुनि स्वाध्याय ढाल॥ मुगुण ॥ वहिरण वेला हो रिपिजी पांगर्या, सोभागी सुकमाल । मागी न सके हो भिक्षा लाजतउ, ऊभउ रह्यउ छांह निहालि ॥१ कोइ वतावे हो अरहन्नर माहरउ, आतम तणउरे आधार । नेह गहेली हो मायडी विलविलइ, नयणे वरसइ जलधार गरको।। गउखड़ वइठी हो नारि निहालीयउ, सुंदर रूप सुजाण । ए रिखि उभा होवार घणी थई, आवी कहइ मीठी वाणि ॥३को।। किम तुमे आवा हो उभाथाइ रह्या, सी मन ध्याउछ वात । संयम दोहिलो हो रिपिजी पालता, सुख भोगउ दिन राति ॥४को। अङ्ग सुरङ्गो हो सोहइ सुन्दरी, तन सोलह सिणगार । जोवनवती हो अरहन्नी मोहीयउ, लागा नयन प्रहार॥५को।। नारी वयणे हो चरित्र मकीयउ, मांडि रही घरवास । भोग करमने हो वसि तिहां भोगवे, विविध विनोद विलास ॥६॥' गली गली में हो फिरती इम कहइ, आवउ म्हारा जीवन प्रोण। माइडी विसूरइ हो वाल्हा तुझ विना, दुख सालइ जिम वाण ||७ पुत्र वियोगे हो गहिली हुइ गई, केडइ लोक अपार । प्रेम विलूधी हो इम थई सोधवी, हीडइ घरि घरि वार ॥८को।। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदिषेण मुनि स्वाध्याय क्रीडा करता हो दीठी मावडी, ऐ ऐ मोह विकार। मारइ मोहइ होएह विकल थइ, धिग धिग मुझ अवतार को।। आवी पाए हो लागउ, देखी मन मायनइ आव्युरे ठाम । एस्यूं कीधुरे पूत वलाइल्यं, किम तजीये व्रत आम ॥१०को।। चारित्र न पलइ हो मई ए मात जी, खरउ कठिण विवहार । घरि घरि भिक्षा हो मांगी नवि सकं, चरित्र खंडानी धार॥११॥ विष पासी नउ हो मरण भलउ का, पिणिन भलउ व्रत भंग । सिलपट उन्ही हो करि आतापना, परिहरि नोरी नउ संग॥१२॥ माडी वयणे हो जाग्यउ जुगतस्यु, तुरत तज्यं घरवास । सूरज किरणे हो ताती सिल थई, व्रत लेई सूतउ उलास ॥१३॥ अगनि प्रसंगे हो जिम मांखण गलइ, तिम परघलीयउ रे अङ्ग। सरणा आपइ हो ऊभी मावडी, म करिसि मोह प्रसंग॥१४ को।। प्राण तजी ने हो ततखिणि पामीयउ, अनुपम अमर विमाण । विषम परीसह होएहवउ जिणि सह्यउ, धन जिनहरख सुजाण॥१५॥ नंदिषेण मुनि स्वाध्याय ढाल ॥ इतला दिनहु जाणती रे हा ॥ एहनी वहिरण वेला पांगयं रे हां, राजगृह नगर मझारि निंदपेणसाधुजी करम संयोगे आवीयउ रे हां, वेस्या ने घर वार ॥ १२ ॥ करम सुं नही कोइ जोर, सके नहीं चल फोरि । चांपी न सके कोर, करम दीये दुख घोर ॥ नं ।। ऊँचे स्वर आवी करी रे हां, धर्मलाभ मुनि दीध । नं। दा Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्प ग्रंथावली अरथलाभ अम जोईयेरे हां, गणिका हासी कीध ।। २नं ।। जाण्यउ ए नहीं कुलबहू रे हां, एतउ वेस्या नारि । नं। अणवोल्यउ पाछउ वल्यु रे, हां चली आध्यं अहंकार ॥३ना। खांच्यु घर नउ तिणखलउ रे हां, लगरि क हाथ मरोडि नं। वृष्टि थइ सोवन तणी रे हां, साडी बारह कोडि ॥ ४ ॥ चतुर नारी चित चमकीयउ रे हां, लागी रिपि ने पाइ ।नं। धन लेई जाअउ तुम रे हां, कइ भोगवउ ईहां आइ ।। ५नं ।। करस मोग मुनिवर तणइ रे हां, उदय आव्यउ तिणि वार ना नारी वयण सुहामणा रे हां, लागा अमृत धार ॥ ६ ॥ वेस्या सं सुख भोगवे र हां. दस दस दिन प्रति बोधि ।नं। श्री जिन पासई मोकले रे हां, इम करे अभिग्रह सोध ॥ नां। बार वरस ने आंतरे रे हां, कठिन मिल्यं एक आइ । नं। प्रतिबोध्यउ वृझे नही रे हां, ते फिरि साम्हउ थाइ ॥८नं ।। वेस्या आवी वीनवे रे हां, ऊठउ जिमवा स्वामि । नं । ‘एक वि वार आवी कहुरे हाँ, तउ ही न ऊठे ताम || हनं ॥ हसती बोली हंस सुं रे हां, दसमा तुम्हें थया आज । नं। वचन तहति करि ऊठीयउ रेहां, आज सर्या मुझ काज ॥१०।। फेरि चारित्र आदयं रे हां, आलोयां सहु पाप । नं । कहे जिनहरख नमुं सदा रेहां, चरण कमल सुख व्याप ॥११।। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती सीतारी समाय ४६१ सती सीता री सज्झाय जल जलती मिलती घणी रे लाल, झालो झाल अपाररे ।सुजाणसीता जाण केसू फुलीया रे लाल, राताखेर अंगार रे सुजाण सीता ॥१॥ धीज करै सीता सती रे लाल, सील तणे परमाण रे ॥सु०॥. लखमण राम खड़ो तिहां रे लाल, निरखै रांणो रांण रे ॥२सु।। स्नान करी निरमल जले रे लाल, पावक पास आय रे ।सु०॥ ऊभी जांण देवंगना रे लाल, वीवणो' रूप दिखाय रे ।।सुश्धी॥ नरनारी मिलिया बहु रे लाल, ऊभा करैय पुकार रे ।सु०। भस्म हुस्य इण आग में रे लाल, राम करे अन्याव रे ॥सुष्टधी०॥ । राघव विण वांछ्यो हुस्यै रे लाल, सुपने ही नर कोय रे ।सु०॥ तो मुझ अगन प्रजालज्यो रेलाल, नहीं तर पाणी होयरे।।सुश्धी०॥ इम कही पेठी आग में रे लाल, तुरंत थयो ते नीर रे ।सु०। जाणे द्रह जल सु भयो रे लाल, झीलै धरम नो" धीर रे॥सुधी रलीयायत सहु को हुया रे लाल, सगले थया उछरंग रे ।सु०।' लखमण राम थया खुशी रे लाल, सीता सील सुरंग रे ॥सु७धी।। देव कुसुम वर्षण कर रे लाल, एह सती सिरदार रे । सु०॥ सीता धीजे उतरी रे लाल, साख भरे नर नार ॥सुधी०॥ पंचमी गत नित पामवा रे लाल, अविचल सील उपाय रे। कहै जिनहरख सती तणारे लाल, नित प्रणमीजै पाय रे ॥६॥ । इतिश्री सीता सती री सज्झाय १ अनुपम २ हाय हाय ३ अन्याय ४ अगनि ५ सुधीर ६ वर्षा ७ संसार ८ जग माहे जस जेहनोरे ह कहाय । - - - -- Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जिनहर्ष ग्रन्थावली सीता महासती स्वाध्याय ढाल | रमीयानी ॥ धीज करे पावक नउ जानकी, पइसइ अगनिकुंड मांहि । मोरा रसिया। निज प्रीतम ने कहे इम पदमिणी, चालड जोया रे जांहितामोश्वी।। लां पहुलं कुंड खणावीयड, पांचसे धनुप रे मान । मो। झालो झाल मिली पावक तणी, फूल्या जाणे केस समोन मोरधी नगर अयोध्या वासी सहु मिल्या, मिलिया रावतरे राण मो। कौतक जोवा आव्या देवता, रथ थंभी रह्यउ रे भाण ||मोश्धी।। लक्ष्मण राम आच्या परिवार सं, सीता करी रे स्नान । मो। आवी कुंड समीपे मल्हपति, करी शृंगार प्रधान मोठ्धी नर नारी सहु को सुणिज्यो तुम्हे, माहरे किणि सं रे लाग मो। राघवविणि कोइ चित्तधर्यउ हुवे, तउ वालेज्योरे आगिमोधी।। इम कही पडूठी पावककुंड मां, पावक पाणीरे होइ । मो । हंसतणी परि तिहां क्रीडा करे, हरपित थया सहु कोइ ।मोधी।। नीर प्रवाह चल्यउ जग रेलिवा, सीता मारी रे हाक । मो। सील प्रभावे जल बल उपसम्यउ, सतीयई राख्यं रेनाकामोधी।। फूल तणी सिरि वृष्टि सुरे करी, धन-धन सीता रे नारि मो। सहु सतीयां माहे मोटी सती, एहनउ धन्य अवतार मोटधी।। निः कलंकित थई ने व्रत आदर्य, राख्यं जगमां रे नाम । मो। चारित्रपाली सुरपति पद लघु, करे जिनहरख प्रणाम॥मोत्धी।। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभद्रा सती स्वाध्याय सुभद्रा सती स्वाध्याय ढाल ॥ अरघ मडित नारि नागिलारे ॥ एहनी सील सलूणी सुभद्रा सतोरे, नामथी थाये निस्तार से | सानिधि कीधी जेहने देवतारे, थयउ जेहनउ जयकाररे ॥ १सी || नगर वसंतपुर मां धनी रे, सेठ वसे धनदत्त रे । तास सुता सुभद्रा भली रे, धरम रातउ जेहनउ चित्त रे || २सी || रूपेरे नागकुमारीकारे, सुर कन्या सुकमाल रे । तात परणावे नही साहमी विनारे, मोटी थई ते बाल रे || ३ || चंपानयरी नउ तिहां व्यापारीयुरे, मिध्यात्वी नामे बुद्धिदासरे । - नयणे ते दीठी कन्या फुटरी रे, परणेचा इच्छा थई तासरे || ४सी || कपट श्रावक थई परणीयउ रे, लेई आव्यउ निज गाम रे । धरम करे रे जिनवर तणउ रे, जयणासं सहुकरे काम रे || ५सी || मुनिवर आयल एक अन्यदारे, वहिरावड़ सूझतउ आहार रे । आंखि झरइरे पाणी नीकले रे, त्रिणउ दीठउ आंखि मझार र े ॥६॥ जीभ सुं काव्य' रिपि वहिरि गयुंड र, तिलक सतीनउ चउटउ मीसरे सासू कलंक सिरि चाडीयड रे, धरम कलंक्यउ वीसवा वीसरे ||७|| काउसग लेई ने ऊभी रही रे, कहे सासणदेवि आय रे । कां रे सुभद्रा अभिग्रह कीयुरे, कलङ्क ऊतारउ मोरी मायरे ॥८॥ काहि चंपाना दरवाजा जडीरे, कहीसुं चालणीये काढी नीररे । सतीरेसिरोमणि छांटिस्येरे, पउल ऊघडिस्य साहस धीर रे ॥ ६ ॥ तुझ विणि कांइन ऊघाडिस्यइरे, इम कहीने गई देवि रे । } ४६३ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जिनहर्प प्रन्थावली प्रात थयुरे पउलि न उघडेरे, पडहउ फेराव्यउ रायई टेवरे ॥१०॥ आव्यू सुभद्रा केरे वारणरे, पडहउ निवार्यु सतीय तामरे । राजा परजारे सहु कोआवीया रे, आवी सुभद्रा कुआ टामरे ॥११॥ काच रे तातण बांधी चालणीरे, कूआथी कान्य निर्मल नीर रे। पोलि उघडी तीने छांटिनेरे, जस थयउ निर्मल खीर रे॥१२सी।। मुझ सारीखी चली जे हुवेरे, तेह उघाडइ चउथी पालि रे । कलङ्कउताएं जिनशासनतणउरे, निर्मल कचणवानी सोलरं ॥१३॥ घणइ रे महोच्छव मंदिर आवीयारे, सासू सुसग ना टाल्या रोसरे। श्री जिन धरम पमाडीयुरे, टाल्यउ टोल्यउ मिथ्यात दोसरे ॥१४॥ सासू कहे र बहुअर माहरउ रे, समिज पनोती तुं अपराध रे । अम्हेर अज्ञान पणे घणी रे, तुझ ने उपजावी छइ आवाधर ॥१॥ पुरनो वासी समकित वासीयारे, टाल्यू टाल्यु नगर नउ दाहरे। कहे जिनहरख सती तणारे, गुण गातांथायइ उच्छाह रे ॥१६॥सी नवग्रह गर्भित मंदोदरी वाक्य स्वाध्याय ढाल॥ कृपानाथ मुझ वीनती अवधारि॥एहनी जिणि आ दी तम्ह सीखडी जी, राम घरणि घरि आणि । मित्र म जाणे तेहनइ जी, दोपी तेह पिछाणि ॥१॥ मोरा प्रीतम सांभलि मुझ अरदास । कर जोडी चरणे नमीजी, कहे. मदोदरि भास ॥रमो॥ सोम सरल चितना धणी जी, परिहरि रुघपति नारि। . Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवग्रह गर्भित मदोदरी वाक्य स्वाध्याय ४६५ ताहरइ बहु अन्तेउरीजी, सुन्दर देव कुमारि ॥३मो।। दिन दिन मंगलमालिकाजी, दिन दिन सुखनी वृद्धि । 'जाती देखं छु हिवे जी, सगलि रिद्धि समृद्धि ॥४मो।। बुद्धि किहाँ ताहरी गई जी, वसती जेह कपाल । पिणि छठीना अक्षराजी, कोई न सके टालि ॥५मो॥ मइ सद्गुरु मुखि सांभल्यउ जी, शास्त्र तणी वली नेठि। परनारी ना संग थी जी, कीचक कभी हेठि ॥६मो। सुक्र रुहिर संयोग थी जी, ऊपनु एह सरीर । स्यं देखी ने मोहिया जी, कंता सुगुण सधीर ॥७मो।। थावर दृढ़ व्रत तउ धणी जी, परदारा तजि एह । पर दारा परतखि छुरी जी, तिणि सुं न करि सनेह ॥८मो।। निज कुल राह न लोपीयेजी, करिये नहीं अन्याय । वेद पुराण इम का जी, राज्य अन्याये जाय ॥६मो॥ केतु सरीखर वंस में जी, तुं कंता गुण जाण । । त्रिभुवनपति नारी तजउ जी, जउ वांछठ कल्याण ॥१०मो।। सतवंती सीता सती जी, एहने चरणे लागि । लइ एहनी आसीस तुं जी, जउ तुझ सावल भाग ॥११मो।। कान माने कंतडा जी; स्यं कहीये तुझ साथ । सूतउ सिंह जगांडीयउ जी, रोसवीयउ रुघनाथ ॥१२मो।। नवग्रह रूठा तुझ थकी जी, जाणीजई छई आज। । तिणि'मति एहवी ऊपनी जी, करिवा एह अकाज ॥१३मो॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष प्रथावली जीती कुण जाई सके जी, जगमें इम कहवाय ! भावीने कोई मेटिवाजी, नहीं जिनहरख उपोय ॥१४मो।। पंच इन्द्रियां री सज्काय ___ढाल-नदी जमुना के तीर, उई दोय पसीना काम अंध गजराज, अगाज महावली । कोगल हथनी देखि, मदोमत उछली । आवै पावै दुख्य अजाडी में पडे । ___ आंकुस सीस सहंत, फरस इन्द्री नडे ॥१॥ स्वेच्छाचारी मच्छ, द्रहां माहे रहै । __ आंकोड़े पल वीधि, नीर मैं नांखि है । गिलै जाणि भख मूढ, जाइ कंठे फहै। रसण तणे वसि मरण, लहै जिणवर कहै ॥२॥ कमल सहसदल विमल, बहुल वासाउली। चंचल लोलप गध, लैण आवे अली । अस्तंगत रवि होइ, फल जायै मिली। घ्राणेन्द्री वसि प्राण, तज, न तजै कली ॥३॥ दीपक जोति उद्योत, निहारि पतंगियौ । सोवन भ्रांति एकांति, ग्रहेवा लोभीयौ । अगन्यांनी सुख जाणि, दीप माहे धसै। .. .. भसम हुवै तिण ठाम, चख्य इन्द्री वसै ॥४॥ . N Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच इन्द्रिया री सज्झॉय ४६७ । जूथाधिप वन गहन, सुखै रहै हिरणलौ। , धीवर आइ बजाइ, वीण गावै भलौ॥ सरस सुणवा नाद, तिहां उभौ रहै। : मारै कान विसेण, मरण दुख ते सहै ॥५॥ पांचे इन्द्री चपल, आपणा वसि करौ। दुरगति दुख दातार, जांणि उपसम धरौ । आराही जिन धरम, आणि मन आसता। , - कहै जिनहरख सुजाण, लहौ सुख सासता ॥६॥ इति श्री पंच इन्द्रिया री सज्माय * । परनारी त्याग गीत . . ढाल-वणरा ढोला __ सीख सुणो प्रीउ माहरीरे, तुझनई कहुं कर जोड़ाधणरा ढोला।। प्रीति न करि परनारिसरे, आवै पग-पग खोड़ ॥धणरा ढोला।। कहियो मानो रे सुजाण, कहियो मानो। वरज्या लागौ मारा लाल वरज्या लागो। पर नार रौ नेहड़लौ निवार ॥ध० आंकणी ॥ जीव तपइ जिम वीजली रे, मनड़ो न रहइ ठांम ॥ध। काया दाह मिटइ नहीं रे, गांठे न रहै दोम ॥ध २ का। नयणे नावै नींदड़ी रे, आठे पहर उदेक ॥ध॥ गलीयारै भमतो रहै रे, लागू लोक अनेक ॥ध ३ का - संवत १७३५ वर्षे आषाढ बदि १ दिने पं० सभाचंद लि० पत्र १ संग्रह में - - Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जिनहर्ष ग्रन्थावली धान न खायै धापिन रे, दीठो न रुचै नीर ॥धा। नीसासा नांखें घणा रे, सांभलि नणद रा वीर व ४ का गात्र गलै नस नीकले रे, झरि-झुरि पंजर होई || प्रेम तणे वसि जे पड़े रे, तेह गमै भव दोइ ॥ ५॥ राति दिवस मन में रहै रे, जिणेसुं अविहड़ नेह ॥धा . वीसारंत न वीसरे रे, दाझै खिण खिण देह ॥ध ६क|| माथै वदनामी चढे रे, लागै कोड़ि कलङ्क ॥ध।। जीव तणा सांसा पड़े रे, जोई रावणपति लकं ॥ध ७ का। पर नारी ना संग थी रे, भलो न थाय नेठ ॥ध ॥ जोवौ कीचक भीमडै रे, दीधा कुंभी हेठ ॥ध ८ का धायै लंपट लालची रे, घटती जाये ज्योति ॥३॥ जैत न थायै तेहनी, रे, जिम राइ चंडप्रद्योत ॥धक। पर नारी विष वेलड़ो रे, विष फल भोग संयोग । आदर करि जे आदरै रे, तेहन भवि-भवि सोग ॥ध १० का। वाल्हा माहरी बीनती रे, साच करे ने जांण ध। कहै जिनहर्ष संभारिज्यो रे, हियड़े आगम वाण ध॥११॥ माया स्वाध्याय ढाल-अरघ मडित नारी नागिला रे एहनी माया धूतारि माह्या मानवी रे, काई मोह्या मोटा मोटा राजा राणरे सिधसाधक जोगी जी रे, खान मुलक सुलताण रे ॥१मा॥ - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीव प्रबोध स्वाध्याय ४६ माया ने वसि जे पड्यारे, ते तउ थई गया अन्धरे। चोलाच्या वाले नहीं रे, केहनइ नमावई नहीं कंधरे ॥२मा॥ मद माता ताता रहे रे, कांई कर अनेक आरम्भ रे। माया ने कारणि केतवे रे, कांई कूड़ कपट छल दंभ रे ॥३मा।। महल चिणावे मोटा मालिया रे, वइसाडे द्रव्यनी का ड़ि रे। दीन दुखी देखी करी रे, महिर न आवे मोटी खोड़ि रे ॥४मा।।. माया छै एह असासती रे, जेहवी तरुअर छांह रे। . ए माया महा पापणी रे, काई सिर काटइ देइ वाह रे ॥५मा।। माया नी संगति थकी रे, कांई घणा विगूता लोक रे। कहे जिनहरख माया तजइ रे, तेहने चरणे माहरी धेोक रे॥६मा।। ' 'श्रा जीव प्रबोध स्वाध्याय ढाल-ते मुझ मिच्छामि दुक्कड, एहनी सुणिरे चंचल जीवंडा, मन समता आणि । पंच प्रमाद निवारिये, दुरगतिनी खाणि ॥१सु॥ च्यारि कपाय चतुर्गणा, वली नव नोकपाय । परिहरिये पचवीस ए, अविचल सुख थाय ॥२॥ राग द्वेष नवि कीजिये, कीजै उपगार । जीवदया नित पालीये, गणीयइ नवकार ॥३सु॥ दान सुपाने दीजिये, आणी ऊलट भाव । श्री जिनधर्म आराधिये, भवसायर नाव ॥४॥ विषय म राचिसि बापड़ा, थास्ये सुखनी हाणि । हियडे सूधी धारिजें, जिनहरखनी वाणिं ॥५॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जिनहर्ष ग्रंथावली चतुर्विध धर्म सज्झाय ढाल-आज निहेजउ रे दीसइ नाहलउ-एहनी जीवड़ा कीजे रे धरम सं प्रीतडी, जेहना च्यारि प्रकार। दान सील तप रूड़ी भावना, भव भव एह आधार ॥१जी।। धन नामे सारथपति नइ भवई, दीधउ धृत नउ रे दान । ' समकित लघु तिहां निर्मलु, थया रिसभ भगवान ॥२जी।। अभया राणीरे दृषण दाखन्यु, मूलारोपण होई।। शील प्रभावे रे सिंहासण थयं, सेठि सुदरसण जोई ॥३जी। अरजनमाली रे माणस मारतउ, दिन दिन प्रति सात । करम खपावी रे मुगतिइंगयउ, तप ना एह अवदात ॥४जी।। ऊभउ आरीसा ना महल मई, चक्रवत्ति भरत सुजाण । अनित्य भावनारे मनमां भावतां, पाम्युं केवलनाण ॥५जी।। चउगतिना भंजण च्यार कह्या, जिनवर धरम रसाल । भविक जिके जिनहरख धरम करड्, बंदण तास त्रिकाल ॥६जी।। पंच प्रमाद सज्झाय ढाल भावननी॥ पंच प्रमाद निवारउ प्राणी वेगला रे, जे पाड़इ संसार । छेदन भेदन वेदन नरक निगोदनारे, आपइ दुख अपार ॥१५॥ जात्यादिक आठे मद मदिरा सारिखा रे, एहथी वधे उदमाद. जे जे करीये तेते हीण पामीये रे, पहिलउ तजि परमाद ।।२।। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म प्रबोध ४७१ पांचे इन्द्री केरा विषय न सेवीये रे, विषय कह्या किंपाक । धुरि मीठाए लोगे अति रलीयामणा रे, कडूओ जास विपाक ॥३॥ अगनि समान कह्या भगवंते आकरा रे, च्यारे कटुक कषोय । तपजप संयम धर्म कीयउ सहु नीगमइ रे, गुण गौरव सहु जाय ।४। झाझी निद्रा नयणे आवे जेहनेर, न लहे कथा सवाद । भलउ न दीसे बइठउ लोकसभा विचे रे, चइथउ एह प्रमाद।।५।। विकथा करता फोकट पाप विधारिये, लहिये अनरथ दंड । च्यारे गतिमा भमे निरंतर जीवडउरे, एहसुप्रीतिम मंडि।६।। एह प्रमाद करता भवसायर पड़इरे, एहनी संगति वारि ।' मन इच्छित फलपामे इणिभवपरभवइंर , कहे जिनहरखविचारि।७ आत्मप्रबोध सज्झाय ढाल-विणजारानी सुणि प्राणी रे, तुझ कहु एक बात, वात हिया मइं धारिजे।।सु॥ आऊख दिन राति, अंजलि नीर विचारिजे ॥१सु।। आरज कुल अवतार, पाम्युं पुन्य उदय करी ॥सु।। खोवे कांइ गमार, विषय प्रमाद समाचरी ॥रसु।। इणि संसार मझारि, जनम मरण ना दुख घणी ॥सु॥ तई भोगव्या अपार, नरग निगोद तिर्यचना ॥३सु।। वसीअउ गरभावास, असुचि तिहां तइ आयु ॥सु॥ वेदन सही नव मास, योनि संकट मां नीसर्यु ॥४सु।। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४७२ जिनहर्ष ग्रंथावली मूंझ्यउ माया जाल, ते वेदन तुझ वीसरी || सु || रसणी भोग रसाल, मगन थयउ तेहमां फिरी ||५|| तुझ केड़ई यस धाड़ि जोइ फिरह छड़ जीवड़ा || || तेहने पाड़ि पछाड़ि, नहीं तउ खाइसि बहुदड़ा || ६सु॥ श्री जिन धर्म सभारि, चउंप करी चोखइ चित्तड़ || || अचचन हियडे धारि, जउ भव थी छूटण मतइ ॥ ७ ॥ मात पिता परिवार, ए सगला छ कारिमा || || काया असुचि भंडार, आभरणे तुं भारीमां ॥ ८ ॥ नावे कोई साथि, साथि कमाई आपणी || || ऊभी मेल्हिसि आथि, कुण धणियाणी कुण धणी ॥ सु || पाम्यंउ अवसर सार, पाम्या योग अमोलड़ा || || सफल करउ अवतार, सुणि जिनहरख ना बोलडा ॥ १० ॥ जीव काया सज्झाय ढाल - वहिनी रहि न सकी तिसइजी - एहनी काया कामिणि चीनवे जी, सुणि मोरा आतम राम | तूं परदेसी प्राहुण जी, न रहे एकणि ठाम ॥१॥ मोरा प्रीतम चीनतडी अवधारि, मुझ अवला ने परिहरउ जी, अवगुण किस विचारि ॥ २मो ॥ हूँ राती तुझ से रहुँजी, हॅू माती तुझ मोह । तुझ मुझ संगति जनम नी जी, आपउ कांई विछोह || ३मो || Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी प्रीति सज्झाय '४७३ तुझ गायउ गाउं सदा जी, कहो करूँ एकंतः । । वयण न लोपुं ताहरउजी, हूँ कामिणि तु कंत ॥४मो।। विभचारी तुझ सारीखउ जी, कोइ नहीं संसार । एक मुकइ एक आदरे जी, तुझनइ पड़उ धिकार ॥५मो।। हूँ सुकुलीणी तुझ विना जी, न करूं अन्य भरतार । तुझ मुझ अन्तर एवड़उजी, सरसव मेरु अपार ॥६मो।। बालपणानी प्रीतड़ी जी, ताहरइ माहरे रे नाह । वार न लागी तोड़तां जी, ऊटि चल्यो देई दाह ॥७मी।। तई निसनेही परिहरी जी, पिणि हुं न रहुं जोइ । कहे जिनहरख सती परे जी, जलि बलि कोइला होइ ॥८मो।। । इति काया जोव स्वाध्याय नोरी प्रीति सज्झाय __राग गउडी मन भोला नारि न राचिये रे, एतउ कूड़ कपटनी खाणि । बोलइ मीठड़ी वांणी, न करे केहनी कांणि ||म।। फल किंपाक सरीखी नारी, सुन्दर अति रलीयाली । पिणि ए अंत हुवइ दुखदायक, मधु खरड़ी जिम पाली ॥१म॥ प्रीति पुरातन खिणिमा त्रोड़इ, मन मा नेह न आणे। . खिणि राचा विरचे खिणि मांहि, गुण अवगुण नवि जाणे॥२॥ बोले मीठी कोइल सरिखी, हंसती हियड़े भोली। पिणि अन्तर कडुई नींबोली, चिस वाटकड़ी घोली ॥३म।। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जनहर्प ग्रन्थावली पाइ पास वेसास देई नइ, तन मन सरवस लूसइ । ' कारण विणि ए छह दिखावइ, दोस विना ए रूसइ ॥४मा। जउ आधीन थई ने रहिये, जउ गायउ गाईजइ। . तर पिणि करडू मग सारीखी, हियड़उ किमही न भीजइ ॥५म।। एहनउ जे विसवास करे नर, जे जग मांहि विगूचइ । सुख छांड़ी ने दुख ल्यइ परतखि, भव कादममई खूचई ॥६मा। मुंज सरीखा मोटा भूपति, नारी तेह नचाच्या । राज रिद्धि थी रहित करीने, घरि घरि भीख मंगाव्या ॥७म।। राय परदेशी ने विप दीधउ, सूरिकता राणी । ताड़ि प्रीति तुरत प्रीतमसुं, मन मई सरम न आणी ॥८म।। पुत्र भणी मारेवा मांडयु, चुलणी चरित्र निहालउ । नीच लाज करती नवि लाजइ, एहनी संगति टालउ ॥म।। महासतक घरि रेवती नारी, सउकी अनेरी वारइ । मतवाली मांसासी पापिणि, छल करि ते सहु मारइ ॥१०म सेठ सुदरसणनइ अभयाये, जोइ सूली दिवरायउ । पाप करती किमही न वीहे, अपयश पड़हउ बजाव्यउ।११॥ इत्यादिक अवगुणनी ओरी, चउगति मांहि भमाड़े। विरती वाघणी थी विकराली, चरित्र अनेक दिखाड़इ ॥१२म।। इम जाणीरे प्राणी एहनउ, कोई विश्वास म करिस्यउँ । नारी नहीं ए छ धुतारी, श्रवणे वचन म धरिस्यउ ॥१३म।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया जीव सन्माय ४७५ जेहवउ रंग पतङ्ग हरिद्रनउ, तेहवउ रंग नारी नउ । कहे जिनहरख कदी किणिहीसं, एहनउ चित्त न भीनउ ॥१४॥ ॥ इति स्वाध्याय ।। काया जीव सज्झाय ढाल-श्रेणिक राय हु रे अनाथी निग्नथ -एहनी काया सलूणी वीनवे, सुणि कंतजी मुझ वात । बालापण नी प्रीतडी, तुझ साथे रे रंगाणी धात॥११।। परदेसी लाल ऊठि चल्यउ परदेश, मुझ साथे रे नही प्रेम विसेस पा मुझ सङ्ग रमतउ खेलतउ, करतउ विविध विनोद । __ मनरंग हसतउ मुलकतउ, तुंधरतउ रे मन माहि प्रमोद ॥२५।। रहतउ न मुझ थी वेगलउ, तुं कन्तजी खिण मात । सुख भोग मुझसं माणतउ, रस भीनउरेरहतउ दिन राति ॥३॥ जातउ नहीं मुझ छोड़ी नइ, किणि ही न काम कल्याण । हुँ पिणि कबउ नवि लोपति, तु म्हारे रे हुतउ जीवन प्राण ॥४॥ तुझ विना हुँ स्या कामनी, तुझ विना हुअकयस्थ । तुझ विना भाग सुहागस्यउ, तुझ पाखइ रे नहीं कोई अरत्थशा चलतुं कहे प्रिउ इणि परइ, सुणि नारी मूढ गमार । __तुझ साथ माहरे किम बने, मुझ करिवा रे फिरी २ व्यापार ॥६॥ लख चउरासी पाटणे मइ, कीया छइ विवसाय । वली करिसि माहरी मौज में, एक ठामे रे मइं राउ न जाय ॥७॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ जिनहर्य ग्रंथावली जिहां जईसं तहां वली परणिसं, नाग्निी नहीं कोई खोट । सुगुणां भणी साजन घणा, भमरा ने नहीं कमलनु नोट ।।८प।। तं करे प्रिउ वीजी प्रिया, हुं अवर न करकंत । · हुं सती तूं विभिचारियउ, तुझ मुझ में बहुअंतर दीसंत ॥६पा।। रोवती रडती मंकिनइ, तु चालीयउ परदेश । आधार कुण मुझ तुझ बिना, किणी आगे रे सुख दुख कहेसि ॥१०पा। पतिव्रता पति चिणि नचि रहे, मति विरह न खमें तेह। . पति विना वीजा किणि ही स, सुकुलीणीरे करइ नहीं नेह ।।१।। तेडी न जायइ मुझ भणी, किम रहुं हुं रे अनाथ । जिनहरख पायक परजली, पिणि न रही रे जातां निज नाथ ॥१२॥ .. इति काया जीव स्वाध्याय बारह मास गर्भित जीव प्रबोध ___ ढाल-तुगिया गिरि सिखर मोहे -एह्नी चेतर तूं चेत प्राणी, म पड़ि माया जाल रे । कारिमी ए रची बाजी, रातिनउ जंजाल रे ॥१चे।। ताहरी वयसाख रूड़ी, लोक मइ जस वाम रे। अथिर परिहरि कनक कार्मिणि, जिम लहे जसवास रे ।।२।। भारो खमा जेठ गरूया, जे खमइ कुवचन्न रे। रीस रोस न करे किणिसं, सदा मन्न प्रसन्न रे ॥३च।।। विषय आसा ढल सरीखी , नहीं कोइ सवाद रे। रि तजि भजि सील समता, जिम न हुइ विपवाद रे ॥४॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह मास गर्भित जीव प्रबोध ४७७ जोइ लंका ईस रावण, जे हुतउ बलवंत रे । जउ थयउ पर नारि रसीयर, हण्यउ सीता कत रे ॥श्च।। पुरुष सोभा द्रव थकी हुइ, द्रव्य सोभा दान रे। दान सोभा पात्र उत्तम, इम कहे भगवान रे ॥६चे।। खिणिक मां आ सूकि जास्यै, कनक काया वेलि रे। सींचि सुकृत जल प्रबल सुं, जिम हुवे रंग रेलि रे ॥७चे।। काती लीये कर काल डोले, राति दिन तुझ केडि रे। ध्यान प्रभु समसेर ग्रही ने, नाखि तास उडिरे ॥८च।। मागसिर चइसी राड तुं, फोरवह नहीं प्राण रे। चालि उद्यम क्रिया करतां, लहिसि फल निर्वाण हिच।। पोसि मां ए अथिर काया, कारिमी करि जांणि रे। जतन करतां पिणि न रहिस्यइ, अछइ अवगुण खाणि रे॥१०॥ माहरि ए सीख मनमां, धारिजे तूं मीतरे । धरम संवल साथि लेजे, चालिवं छइ अंत रे ॥११चे।। नफागुण जिणि मांहि थाये, भलउ ते व्यापार रे। देव गुरु सुध धर्म आदरि, लहे भव दुख पार रे ॥१२चे।। चार मास लगई सयाणा, तुझ भणी ए सीख रे। भाव भजि जिनहरप आणी, लहे सिव सुख ईख रे ॥१३चे।। इति 'वार मास' गर्भित स्वाध्याय Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ जिनहर्ष ग्रंथावली एनर तिथि स्वाध्याय ढाल - कपूर हुवे अति ऊजलउ रे -एहनी पड़िवा दुरगति वाटड़ी रे, नारी विषय विलास। जाणी परिहरि जीवड़ा रे, जउ चाहे सिववास रे ॥१॥ प्रांणी बूझि म मृझि गमार । सदगुरु वयण हियड़े धरे रे, जिम पामे भवपार रे ॥प्रा०॥ बीज सुकृत नउ रोपिये रे, धरीये शील अखण्ड । समता रस मांझीलिये रे, पवित्र हुवे जिम पिंड रे ॥रप्रा०॥ त्रीजइ अंगई जिन कहिये रे, विकथा च्यारि निवारि। करिस्ये ते फिरिस्यइ सही रे, चउगति भ्रमण मझारि रे ॥३प्रा।। चतुर हंस तूं वुथिमां रे, अपवित्र नारी अंग। पंडित नर ते परिहरे रे, न करे तास प्रसंग रे ॥४मा।। पंचमि अंग जमालिये रे , ऊथाप्यउ जिन वइंण । तउ भव मां भमिस्ये घणुं रे, जोइ उघाड़ी नैण रे ॥५मा । छठी रातईज लिख्यउ रे, सुख दुख विभव विलास । तिणि मई रंच घटे नहीं रे, म करि वृथा वेपास रे ॥६प्रा।। सातिमी नरक सुभूमि नेरे, पहुचाड्यउ इणि लोभ । लोभ न कीजे अति घणउ रे, तउ लहिये जग सोभ रे॥७प्रा॥ आठ महा मद छाकियउ रे, मयगल ज्यूं मय मत्त । २. उवट वाट न ओलखेरे, योवन चंचल चित्त रे॥८प्रा।। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ तेरकाठिया स्वाध्याय नमि जिनवर चरणे सदारे, नमि निज सदगुरु पाय । जैन धर्म करि भावसुं रे, सदगति तणउ उपाय रे प्रा दस महीना माय ने रे, गरभ रह्यउ तुं जीव ।। ते वेदन तुझ वीसरी रे, दुख भर करतउ रीव रे॥१०प्रा एग्यारस तुं जाणिजे रे, इंद्री विषय विलास । मध-विंद सुख कारण रे. स्यं बाधी रह्यउ आस रे ॥११मा।। वारिसि तुझने जीवड़ा रे, जउ तुं काउ करेसि। __ आरंभथी अलगउ रहे रे, ए माहरउ उपदेस रे ॥१२प्रा।। ते रसीयो गुण रस भर्या रे, जेहनउ समकित सुद्ध रे। समयसार रसमां सदा रे, भीना रहे प्रतिबुद्ध रे॥१३प्रा।। चउदस भेद जीव तत्वना रे, जाणे जेह सुजाण । पर्यापत अपर्यापता रे, तेहनी दया प्रमाण रे ॥१४प्रा।। पूरण माया पामी ने रे, दीजइ दान अपार । दोधा विणि नवि पामिये रे, जोइ लौकिक विवहार रे॥१५प्रा॥ पनर तिथि अरथे भली रे, धरिये श्री जिन आण । कहइ जिनहरख लहीजियेरे, जहथी कोड़ि कल्याण रे॥१६प्रा।। इति पनरतिथि गर्भित स्वाध्याय : , तेरकाठिया स्वाध्याय , ढाल॥ चउपईनी ॥ सांभलि प्राणी सुगुण सनेह, धरम महानिधि पाम्यु एह । जतन करे हरिस्ये लांठिया, वट-पाडा तेरह काठिया ॥१॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जिनहर्ष ग्रंथावली सामायक पोपध नवकार, जिनवंदन गुरुवंदन वार। .. . धरम ठाम आलस आवीयउ, पहिलट ए आलस काठीयउ ॥ छईया छोड़ी रामति रमइ, नारी विरहट खिणि नवि खमइ। मोह विलूधउ मूढ गमार, बीजउ मोह काठीयउ वारि ॥३॥ दान शील तप भाव सु धर्म, गुरुस्यं कहिस्यइ अधिकड मम । गुरुनी एम अवज्ञा वहइ, जीजउ अवज्ञा काठीयउ कहे ||४|| गुरुनइ नींचउ थई वांदिवउ, साहमी आव्यां वली ऊठिवउ । मई थाये नही जावें राउं, थंभका ठीयउ चो) का ॥शा साहमी सुं मिलि वेसे सदा, कलह थयउ किणिही सुं कदा। धरम ठाम वलतं नावेह, पंचम क्रोध काठीयुएह ॥६॥ आवे नयण उघ अनन्त, बइठउ जाये नहीं एकंत । विकथा विषय तणउ स्वादीयउ, छठउ काउ प्रमाद काठियउ ॥७॥ धरम ठाम खरच्यउ जोईये, फोकट इम किम वित खोईयइ । वीहतउ जाइ न पोपधसाल, सातमउ लोभ काठीयउ भालि ॥८॥ जउ मुनि पासि वइसीस्ये घडी, तउ कहीस्ये ल्यउ काई आखड़ी। मुझ सुं तेह पलइ नहीं समउ, एह काठियउ भय आठमउ ॥६॥ कोई कहीयई मअउ हवा, तेहनह सोगंड निसि दिन रुवे। कउनइ धरम करे गमइ, सोग काठियउ नवमउ इमइ ॥१०॥ अम्हें न समझे गुरु आख्यान, तवन सझाय न समझु ज्ञान । स्युं करीए पोसालई जाइ, दसमल अज्ञान काठीयउ थाइ ॥११॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक बत्तीस दोष स्वाध्याय ४८१ः आहट दोहट सूनइ चित्त, आरति ध्यान धरे नित नित्त । घर धंधा माहे घाठीयउ, इग्यारम विषेए काठीयउ ॥१२॥ बाजीगर मांड्यउ छइ ख्याल, चहुटइ खेलइ जेठी माल ।। ते जोतां धर्म वेला वटे, द्वादशमउ कौतुहल हटइ ॥१३॥ रामति रुड़ी पासा सारि, आवउ रमीयइ दाव वि च्यारि । एहथी धर्म भलउ छ किसु, रमण काठियउ तेरम इस ॥१४॥ ए तेरह काठीया सुजाण, धरम वेलायइ अंग न आणि । । सावधान थई कीजै धर्म, तउ जिनहरख कटे सहु कर्म ॥१५॥ इति तेरह काठियानी स्वाध्याय : सामायिक बत्तीस दोष स्वाध्याय ॥ ढाल चउपईनी ॥ सामायकना दोप वत्रीस, जाणी टालउ विसवा वीस। मन वचन ना दस दस जाण, काया ना तिम बार प्रमाण ॥१॥ करइ विवेक रहित मन धरउ, जस करिति काजे तीसरउ । करे अहंकार करी लावतउ, करइ नीयाणउ वली बीहतउ ॥२॥ रोस करे मन धरे संदेह, भक्ति रहित दस दूसण एह । हिवइ वचन ना दस सांभलउ, कुवचन बोलइ मुख मोकलउ ।। परने आपे कूड़उ आल, गेलि मांहि बोलइ ततकाल । अविर्चायुं भाखड् बहु परइ, अक्षर पूरा नवि ऊचरे ॥४॥ कलह करे वली विका घणी, हास्य करे तेडइ परभणी। वस्तु अणावे ए दस दोष, एह थी थाये पातक पोष ॥॥ । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ - जिनहर्ष ग्रंथावली . . हिवइ काया ना बारह कहे, पोलगठी अथिरासण रहइ। ., उरहउ परहउ जोवइ सही, ओठीगण बइसइ ऊमही ॥६॥ । अंगोपांग गुपति नवि धरइ, आलस मोड़ कड़का करइ । खाजि खणइ ऊतारइ मइल, वीसामणा करावे सइल ॥७॥ ऊघड् उरहउ परहउ फिरइ, वार दोप जाणी परिहरे । ए दूषण टालउ वत्रीस, सामायक पालउ निसिदीस ||८|| सामायक जे सूधउ धरे, ते भवसायर हेलई तिरइं । इस जाणी सामोयक करउ, कहे जिनहरख दोप परिहरउ ॥६॥ तेत्रीस गुरु आशातना स्वाध्याय ___ढाल-हिव रांणी पदमावती ॥एहनी॥ गुरू आसातन जाणिवी, सूत्रे कहीय तेत्रीस । दुरगति अति दुखदाइनी, भाखी श्री जगदीस ॥१॥ गुरु आगलि बिहुं पाखती, नइडउ थइ चालइ । पूठइ पिण अति ठुकडउ, बिहुबाजू हालइ ॥रगु॥ गुरु नइ आगलि पाछलइ, अति नइड़उ बइसइ। । नव आसातन इणि परई, जिणवर उवएसइ ॥३गु॥ एक न भाजन थंडिलइ, जल ल्यइ गुरु पहिली । गमणागमण सगुरू थकी, आलोवइ वहिली ॥४॥ साद न आपइ जागतो, जउ गुरु बोलावइ । - साधु श्रावक नइ आवतां, पहिली बतलावइ ॥५गु॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्रीस गुरु आशातनास्वाध्याय गुरू तजि वीजा आगलइ, आहार आलोवइ ।' गुरु पहिली बीजा भणी; देखाड़इ जोवइ ॥६॥ - - गुरु पहिली अन्य साधु नइ, भात पाणी थापइ । ' सरस मधुर अणपूछीयइ, भावइ तेहनइ आपइ ।।७।। गुरू नइ अरस निरस दीयइ, पोतइ सरस आहारइ । चचन तहति करि पडिवजह, गुरू नउ न किवारइ ॥८॥ कर्कस बोलइ गुरू प्रतिइं, बइठउ धइ ऊतर । गुरू पूछइ कहइ छइ किसू, इम भाखड़ नूतर गु॥ तुकारा गुरु नइ दियइ, वैयावच कहि एहनउ । तुम्हे ईज कां करता नथी, मनमानइ तेहन ॥१०गु।। गुरू शिक्षा मानइ नहीं, सून्य चित्त रहावइ । विस्मृत अर्थ जइ होयइ, तुम्ह नइ रूड नावइ ॥११॥ गुरु व्याख्यान विचइ करइ, व्याख्यान समेला । कथा कहता बहि गई, विहरणनी वेला ॥१२॥ ' लोक समख्यइ गुरु कबउ, जे अरथ .विचार । ने पोतइ फेरी कहह, करिनइ विस्तार ॥१३गु॥ चरण लगावइ बइसणइ, वइसइ गुरु पाटइ । वार करइ गुरु पातरइ, ऊँचउ बइसइ निराट ॥१४गु।। वइसइ सुगुरु बरावरी, विनइ नहीं तेह । ऊँच वस्त्र अति वावरे, निज गुरु थी जेह ॥१५॥ ऐ तेत्रीस आसातणा, चउथइ अंग भाखी । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ जिनहर्ष प्रन्धारली तेतीसमइ समवाय मह, गणधर तिहां साखी ॥१६॥ आसी विस आसातना, बहु मरण पमाड़ह । आगलि ए सिव बारनी, दीवी कुगति दिखाड़इ ॥१७गु|| ज सुविनीत सुधातमा, आसातणा टालइ । गुरु नउ विनय करइ सदा, आगन्या प्रतिपाला ॥१८गा। दसवीकालक एहना, गुण अवगुण भासइ । विनयसमाही जोइयो, जिनहरप प्रकासइ ॥१६गु॥ इति तेत्रीस गुरु आसातना स्वाध्याय समाप्त श्री सम्यक्त्व स्वाध्यायः लिख्यते। , ढाल-जोधपुरीती॥ सांभलि तुं प्राणी हो, मिथ्या मति लीणउ । तुतउ ऊझड़ पड़ीयर हो, ज्ञान सुधन खीणउ ॥१॥ समकित नवि जाण्यु हो, मोहइं मुंझाणउ हो । अमें भव चक्र मांहे हो, करतउ जिम ताणउ ॥२॥ समकित धन पासइहो, निरधन किम कहिये। धन सुख एक भव नउ हो, समकित शिव लहिये ॥३॥ समकित विणि किरिया हो, लेखड़ नचि लागइ । समकित संघातइ हो, भवना दुख भागइ ॥४॥ समकित विणि श्रावक हो, वाल पसू सरिखउ । जो लोचन मोटा हो, तर पिणि अंध लखउ || ... Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सम्यक्त्व स्वाध्याय ४८५ समकित दृढ़ पायउ हो, धरम आवास तणउ । जिन धर्म रयणनी हो, पेटी एह गिणउ ॥६॥ सुध समकित कीजे हो, जिम कंचण कसीये । हियडइ ऊलसीयइ हो, जई सिवपुर वसीये ॥७॥ समकित नवि नाणउ हो, गांठई बांधीजई । सद्दहणा साची हो, समकित जाणीजे ||८|| गुरुदेव धरम नइ हो, सुध करि आदरीये । समकित धरीये हो, खोटा परिहरीये ॥६॥ गति नरग निगोदई हों, मिथ्योतई पड़ीये । तिहां काल अनंतउ हो, दुख मां आथडीये ॥१०॥ इम जाणी प्राणी हो, समकित आदरउ । जिनहरख चचन सं हो, साचउ रंग धरउ ॥११॥ अथ सम्यक्त्व सत्तरी दूहा एको अरिहंत देव, देवन को बीजउ दुनी। सारइ सुरपति सेव, परतखि एहिज पारिखउ ॥१॥ मन माहरा मिलेह, अरिहंत सुं हित आणिनइ । वीजा काचकलेह, जगवासी करमी जसा ॥२॥ ढाल (१) ते.मुझ मिच्छामि दुक्कड । एहनी। . . सांभलि रे तुं प्राणीया, सद्गुरु उपदेशो। . मानव भव दोहिलउ लघउ, उत्तम कुल एसो ॥१सां।। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जिनहर्ष प्रन्थावली देव तत्व नवि ओलख्यड, गुरु तत्व न जाण्यउ । धर्म तत्व नवि सद्दार, हीयह ज्ञान न आण्यउ !॥२सां! मिथ्याची सुर जिन प्रतई, सरिखा करि जाण्या। गुण अवगुण नवि ओलख्यो, वयणे पाखाण्या.॥३सां।। देव थया मोहई ग्रह्या, पासइ रहइ नारी। . कास तणे वसि जे पड्या, अवगुण अधिकारी ॥४सां।। केई क्रोधी देवता, वली क्रोध ना वाया। कइ किणि ही थी वीहतां, हथीयार संवाया ॥५सां।। क्रूर नजर जहनी घणी, देखतां डरीये। । मुद्रा जेहनी एहवी, तेहथी स्यंउ तरोये ॥सां।। आठ करम सांकल जब्या, भमे भवहि मझारो। जनम मरण ग्रभवासथी, पाम्यउ नही पारो ॥७सां। . देव थई नाटिक करइ, नाचइ जण जण आगइ । भेख लई राधा कृष्ण नउ, वली भिक्षा मांगइ ।।८सां।। मुख करि वावइ वांसली, पहिरइ तनु वागा। भावंता भोजन कर, एहवा अम लागा ॥६सां। देखउ दैत्य संहारिया, थया उद्यमवंतो। हरि हरिणांकुस मारीयउ, नरसिंह बलवंतो ॥१०स। - मच्छ कच्छ अवतार लें, सहु असुर विदार्या । दस अवतारे जूजुआ, दश दैत्य संहार्या ॥११सां।। मानइ मूढ मिथ्यामती, एहवा पिणि देवो। . .. . Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सम्यक्त्व सत्तरी , १८५ फिरि फिरि जे अवतार ल्ये, देखउ कर्म नी टेवो ॥१२साँ।। स्वामी सोहइ जेहवउ, तेहवउ परिवारो। इम जाणी ते परिहरउ, जिनहरष विचारो ॥१३साँ।। . . ' || ढाल-ऊधवने कहियो एहनी ॥ जगनायक जिनराज ने, दाखवीये देव । मुंकाणा जे कर्मथी, सारे सुरपति सेव ॥१ज।। 'क्रोध मान माया नहीं, नहीं लोभ अज्ञान । रति अरति वेवइ नही, छांड्या मद थान ॥रज। ' निद्रा सोग चोरी नही, नही बयण अलीक । मच्छर भय वध प्राण नउ, न करइ तहतीक ॥३ज।। प्रेम क्रीड़ा न करे वली, नही नारी प्रसंग। . हास्यादिक अढार ए, नही जेहने अंग ॥४जा। पदमासण पूरी करी, बइठा अरिहंत । सीतल लोयण,जेहना, नाशाग्र रहंत ॥ज।। जिन मुद्रा जिनराजनी, दीठां परम उलास । ' समकित थाये निर्मलु, दीपइ ज्ञान उलास ॥६जा। गति आगति सह जीवनी. देखे लोकालोक। मन पर्याय सन्नी तणा, केवलज्ञान विलोक ॥७ज। मूरति श्री जिनराज नी, समता भंडार । सीतल नयन सुहामणा, नहीं वांक लिगार ॥८ज। हसत वदन हरपे हीयउ, देखी श्री जिनराय। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ जिनहर्य प्रन्थावली सुन्दर छवि प्रभु देहनी, सोभा वरणी न जाइ ॥६॥ अवरतणी एहवी सिबी, कीहां ही न हीसंत । देव तत्त्व ए जाणीये, जिनहरप कहत ॥१०जा। ' सर्व गा. २३ ॥ ढाल-~~-यत्तिनी ३ श्री जिनवर प्रवचन भाख्या, माहि कुगुरु तणा गुण दाख्या। पासत्थादिक पांचई, पापसमण का नाम लेई ॥१॥ गृहीना मंदिर थी आणी, आहार करे भात पाणी। सूवे ऊघड निसि-दीस, परमादी विसवा वीस ॥२॥ . किरिया न करे किणि वार, पडिकमj सांज सवार। न करे सूत्र-अरथ सझाय, विकथा करंतां दिन जाय ॥३॥ । घृत दूध दही अप्रमाण, थाये न करे पचखाण । ज्ञान दरसण ने चरित्त, मंकी दीधा सुपवित्र मा । सुविहित मुनि समाचारी, पाले नही सिथिलाचारी। आहारना दोष बयाल, टाले नही किणि ही काल ॥१॥ घव धव धसमसतउ चाले, जयणा करतउ नवि हाले। रवि आथमता लगी जीमे, रात्रि-भोजन नवि नीमें ॥६॥ काई सचित अचित नवि टाले, काचे जल देह पखाले। अरचा रचना वंदावे, वस्त्रादिक सोभ वणाचे ॥७॥ परिग्रह वली झाझउ, राखइ, बलि-वलि अधिका नइ धांखइ । माठी करणी जे कहीये, ते सगली जिणि मई लहीये ॥८॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 1 છંદ सम्यक्त्व सत्तरी एहवा जे कुगुरु आरंभी, मुनि साधु कहावे दंभी । किय कम्म प्रसंसा करीयर, तेहथी संसार न तरीये ॥ ६ ॥ लोहानी नावा तोलइ, भव सायर मां ज बोले । जिनहरष कहे अहि कालउ, वर कुगुरुनी संगति टालउ ॥१०॥ ||स०गा० ३३|| ढाल - कर जोडी आगलि रही एहनी |४| गुण गरुआ गुरु ओलखउ, हीयडे सुमति विचारी रे । सुगुरु परिक्षा दोहली, भूली पड़े नर नारी रे ||१गु ॥ पांचे इंद्री वसि करे, पंच महाव्रत पाले रे । च्यारि कषाय करे नही, पांच क्रिया संभाले रे || २ || पांच समिति समता रहइ, तीन गुपति जे धारे रे । दोष सड़तालीस टालिने, भात पाणी आहारइ रे || ३ || ममता छांड़ी देहनी, निरलोभी निरमाई रे । नव विधि परिग्रह परिहरे, चित मई चिंतन काई रे ||४|| धरम तणा उपग्रण धरइ, संजम पलिवा काजे रे । भुजोड़ पगला भरें, लोक विरुध थी लाजइ रे || ५ || पडिलेहण निरती विधर, करे प्रमाद - निवारी रे | कालई सहु करिया करइ, मन उपयोग विचारी रे ||६|| वस्त्रादिक सुध एपणी, ल्यड़ देखी सुविसेपइ रे । काल प्रमाणे खप करे, दुपण टलता देखे रे ||७|| कुखी संबल जे कला, संनिधि किमही न राखड़ रे । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ जिनह प्रथावली धड़ उपदेश यथास्थित, सत्य वचन मुख भाखड़ रे ॥८॥ 1 तन मेला मन ऊजला, तप करि खीणी देही रे | बंधण वे छेदी करी, विचरे जे निसनेही रे || ६ || एहवा गुरु जोई करी, आदरीये शुभ भावे रे | बीजउ तत्व सुगुरू तण, ए जिनहरप सुहावे रे ॥१०॥ सर्व गाथा ||४३|| || ढाल - करम न छूटे रे प्राणीया एहनी || भवसागर तरिया भणी, धरम करे सारंभ । पत्थर नावइ रे वइसिनई, तरिवउ समुद्र दुर्लभ ||१|| आपे गोकुल दूझणा, आपे कन्या ना दान । आपड़ क्षेत्र पुन्यारथइ, गुरु ने देई बहुमान || २ || लूटाव घोणी वली, पृथिवी दान सु प्रेम । गोला कलसा रे मोरीया, आपड़ हल तिल हेम ||३|||| बली खणावड़ रे खांतिसुं, कुआ सुंदरि वादि । पुष्करिणी करणी भली, सरवर सखर तलाव || ४भ|| कंद मूल मूंके नही, इग्यारसि व्रत दीस । आरंभ ते दिन अति घणउ, धरम किहां जगदीश || ५ || मेध करइ होमइ तिहां, घोड़ा नर ने रे छाग । होम जलचर मींडका, धरम कीहां वितराग ॥ ६भ || 1 करइ सदाई रे नउरता, जीव तणा आरंभ । हणीयइ भइंसा रे बाकरा, जेहथी नरग सुलभ ||७भ ।। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सम्यक्त्व सत्तरी ४६१ सारावइ ब्राह्मण कन्हां, पूरवज तणा सराध । ' तेडइ समली कागड़ा, देखउ एह उपाधि ॥८मा। तीरथ करे गोदावरी, गंगा गया प्रयाग । न्हाया अणगल नीरस, धरम तणौ नही लाग भ।। इत्यादिक करणी करे, परभव सुख नइ रे काज । कहइ जिनहरख मिले नहीं, एहथी शिवपुर राज ॥१०भा . ढाल-रे जाया तुझविणिघडी रे छः मास एहनी ॥ धरम खरउ जिनवर तणउ जी, सिव सुख नउ दातार । श्री जिनराज प्रकासीयउजी, जेहना च्यारि प्रकार ॥१॥ भविकजन ज्ञान विचारी रे जोइ। दुर्गति पड़ता जीवने जी, धारइ ते धर्म होइ ॥२भा। पंच महाव्रत साधुना जी, दस विधि धरम विचार । हितकारी जिनवर कह्या जी, श्रावक ना व्रत वार ॥३भा पंचंबर च्यारे विगइ जी, विप सहु माटी हीम । रात्रीभोजन ने कराजी, बहु वीजा नउ नीमि ॥४भ।। घोलवड़ा वली रींगणाजी, अनंतकाय बत्रीश । अणजाण्या फल फूलड़ा जी, संधाणा निसि दीस ॥५भ। चलित अन्न वासी काउ जी, तुच्छ सहु फल दक्ष । धरमी नर खाये नहीं जी, ए'बावीस अभक्ष ॥६भ। न करइ निधंधस पणइ जी, घर ना पिणि आरंभ । जीवतणी जयणा करे जी, न पीये अणगल "अंभ ॥भ। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्य ग्रंथावली धृत परि पाणी वावरे जी, वीहइ करतउ पाप । सासायक व्रत पोषधइजी, टालइ भवना ताप ॥८म| सुगुरु सुधर्म सुदेवनीजी, सेवा भगति सदीय । धर्मशास्त्र सुणताँ थकां जी, समझइ कोमल जीव ॥६भा मास मास ने आंतरे जी, कुश अग्र भंजे वाल। कला न पहुचइ सोलिमी जी, श्री जिन धरम विशाला॥१०॥ श्री जिन धर्म पुरी दीये जी, चउगति भूमण मिथ्यात । इम जिनहरख विचारिये जी, वीजउ तत्त्व विख्यात ॥११भा। ढाल-मधुर आज रहो रे जन चलो एहनी॥ श्री जिन धरम आराहिये, करि निज समकित सुद्ध । भवियण तप जप करिया कीधली, लेखे पड़े सहु किद्ध भ०१श्री।। कुगुरु कुदेव कुधर्म ने, परिहरिये विष जेम ।भा । सुगुरु सुदेव सुधर्म ने, ग्रहिये अमृत तेम ॥२ श्री ।। . . कंचन कसि सि लीजिए, नाणं लीजे परीख |भा। देव धर्म गुरु जोइने, आदरीये सुणी सीख ।भ ३श्री॥ , मूल धर्म नुं जिन का, समकित सुरतरु एह भा - . "भव भव सुख समकित थकी, समकित सुं धरि नेह ।भा४श्री। सतरे छत्रीसे समे, नभ सुदि दसमी दीस भा। . -- समकित-सतरी ए रची, पुर पाटण सुजगीस भा|श्री।। . भणिज्यो गणिज्यो भावसू, लहीस्यो अविचल श्रेय ।भा . शांतिहरख वाचक तणुं, कहे जिनहरख - विनेय भाश्री।। ॥इति समकित सितरी समाप्त। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सगुरु,पचीसी ४६३: सगुरु पचीसी ढाल पक्षमा छत्रीसीनी॥ सुगुरु पीछाणउ इणि आचरण, समकित जेहनुं शुद्ध जी। कहणी करणी एक सरीखी, अहनिसि धरम विलुद्ध जी ।।१।। निरतीचार महाव्रत पाले, टाले सगला दोष जी। . चारित्र सुं लयलीन रहे निति, चित मा सदा संतोष जी ॥सु२॥ जीव सहुना जे छे पीहर, पीडइ नहीं पटकाय जी। आप वेदन पर वेदन सरीखी, न हणे न करे घाय जी ॥३सु।। मोह कर्म ने जे वसि न पड्या, नीरागी निर्माय जी। जयणा करता हलुये चाले, पुंजी मूंके पाय जी ॥४सु।। उरहउ परहउ दृष्टि न जोवे, न करे चलतां बात जी । दूषण रहित सूझतउ देखइ, ते ल्यइ पाणी भात जी ॥५सु।। भूख तृपा पीड्या दुख भीड्या, छूटे जउ निज प्राणजी। तउ पिणि असुद्व आहार न वांछइ, जिनवर आणप्रमाणजी।सुा अरस निरस आहार गवेसइ, सरस तणी नहीं चाहि जी। . • इम करता जउ सरस मिलइ तौ, हरसे नही मनमांहि जी ॥७॥ सीतकाल सीतइ तन धूजइ, उन्हाले रवि ताप जी। विकट परिसह घट अहीयासे, नाणइ मन संताप जी ।।८।। मारे कूटे करें उपद्रव, कोइ कलंक धइ सीसजी। निज कृत कर्म तणा फल जाणे, पिणि मन नाणइ रीस जीहा ' Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जिनहर्ष ग्रन्थावली मन वच काया ने मन वसि राखई, छंडे पंच प्रमाद जी | पंच प्रमाद संसार वधारे, जाणे ते 'निसवाद जी ॥ १० ॥ सरल सभाव भाव मन रूहुं, न करे वाद विवाद जी | च्यारि कपाय कुगति ना कारण, वरजइ मद उनमांद जी । ११ । पाप तणा थानक अढारइ, न करे तास प्रसंग जो । विकथा मुख थी व्यारे निवारे, समिति गुपति सुरंग जी ॥ १२ ॥ अंगउपांग सिद्धांत खाणे, द्यइ सूधउ उपदेश जी । सुधइ मारग चले चलावे, पंचाचार विशेष जी ||१३|| दश विधि जती धरम जिन भाख्युं, तेहना धारणहार जी । धरम थकी जे किमही न चूके, जउ हुइ लाख प्रकार जी ॥ १४ ॥ जीवतणी हिंसा जे न करे, न वदइ मृषा अधर्म जी । त्रिणउ मात्र अणदीधर नलीयड़, सेवे नही अवल जी ||१५|| द्रव्यादिक परिग्रह नवि राखे, निसिभोजन परिहार जी । क्रोध मान माया नइ ममता, न करे लोभ लिगार जी ॥ १६ ॥ ज्योतक आगम निमित न भाखर, न करावइ आरंभ जी ।' ओपथ न कहड़ नाडि न जोवइ, रहे सदा निरारभ जी ॥ १७॥ डाकणी साकणी भूत न काढइ, न करे हलुअउ हाथ जी । मंत्र यंत्र राखडी न बांध, न करे गोली काथ जी || १८ || विचरे गाम नगर पुर सगलह, न रहइ एकणि ठाम जी । चउमासा ऊपरि चउमासउ, न करे एकणि गाम जी ॥ १६ ॥ ♪ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुगुरु पचीसी ४६५ चाकर नफर न राखइ पासड़, न करावड़ कोई काज जी । न्हावण धोरण वेस वणावण, न करे देह इलाज जी ||२०|| व्याज वटाव करे नही कईयां, न करे विणज व्यापार जी । धरम हाट मांडी नइ वठा, विणजे पर उपगार जी ॥ २१ ॥ सुगुरु तिर अवरांना तारइ, सायर जेम जिहाज जी । काठ प्रसंग लोह तिरइ तिम, गुरु संगति ए पाज जी ||२२|| सुगुरु प्रकाशक लोयण सरिखा, ज्ञान तथा दातार जी । सुगुरु दीपक घट अंतर केरा, दूरि गमइ अंधार जी ||२३|| सुगुरु अमृत सारीखा सीला, दीये अमरपुर वास जी । गुरु तणी सेवा निति करतां, करम विछूटड़ पास जी ॥ २४ ॥ सुगुरु पचीसी श्रवणे सुणि ने, करिज्यो सुगुरु प्रसंग जी । कहे जिनहरख सुगुरु सुपसाये, शांति हरख उछरंग जी ॥ २५ ॥ कुगुरु पचीसी ढाल ॥चउपईनी॥ श्री जिन वाणी हीयडे धरे, कुगुरु तणी संगति परिहरे । लोह सीलाना साथी जेह, कुगुरु तणा लक्षण छह एह || १ || कोलउ साप कुगुरु थी भलउ, एको वार करे मामलउ । कुगुरु भवोभव दुख अछेह, कुगुरु तणा लक्षण छह एह || २ || पृथ्वि नीर अग्नि ने वाय, वनस्पति छठी त्रसकीय | एह तणी रक्षा न करेह, कुगुरु तणा लक्षण छड़ एह ॥ ३॥ थानक पाप तथा अठार, तेतर सेवे वारंवार । 1 1 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ जिनहर्ष प्रन्थावली संयम लोर उडावइ खेह,कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥४॥ धुरि सुं पंच महाव्रत धरे, सव्वं सावज उच्चरे।। चरित्र भंजइ रंजे देह, कुगुरु तणा लक्षण छड् एह ॥शा झूठं बोले लीये अदत्त, चोरी करि ल्यइ परनउ वित्त ।' काम कुतूहल सुं बहु नेह, कुगुरुतणा लक्षण छइ एह ॥६॥ परिग्रह सुं राखइ बहु मोह, धन नइ काज करे परद्रोह । परभवथी बीहे नही तेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥७॥ असनादिक च्यारे आहार, राते पिणि न करे परिहार । दूषण निज मन न विचारेह, कुगुरु तणा लक्षण छड् एह ॥८॥ पाणी काचं जे वावरे, आप तणा दूपण छावरे । केम तिरइ गुरु किम तारेह, कुगरु तणा लक्षण छइ एह ॥६॥ मोटी पदवी ना जे धणी, लोकां माहे प्रभुता घणी । ते पिणि करणी खोट धरेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥१०॥ पाप विवरावे चांदणो, गुणहीणा नइ अवगुण घणा । घरवासी नी परि निवसेह, कुगुरुतणा लक्षण छइ एह ॥११॥ चीणीनइ थिरमां पांगरइ, भेष लेई वे तोरा करे । त्रिसई पिणि मिलती नही घरेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह॥१२॥ गृहस्थ तणी परि करे व्यापार, बेचे पुस्तक वस्त्र अपार । व्याज वटइ धन ऊपावेह, कुगुरु तणा लक्षण छड् एह ॥१३॥ आठ पहुर छत्रीसे घडी, पंच प्रमादां सुं प्रीतडी। ..', किरिया पडिकमणुं न कदेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥१४॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुगुरु पचीसी. ४६७ गाडां पाखइ न चले भार, गाड़े बइठा करे विहार । ईरज्यासमिति किसी पालेह, कुगुरुतणा लक्षण छइ एह ॥१५॥ हसे धसे वोले पारिसी, मुख धोवइ जोवे आरसी। वेस वणाव करइ निसंदेह, कगुरु तो लक्षण छड् एह ॥१६॥ . रवि आथमता ताई जिमइ, रुसइ रीष दीयां नवि खमइ । न करे कोई पचखाण वलेह, कुगरु तणा लक्षण छइ एह ॥१७॥ सेवे देवी दुरगा मात, वरत करे वइसइ नवराति । पोथी सातसई . वाचेह, कगुरु तणो लक्षण छइ एह ॥१८॥ राति दिवस ओपध आरंभ, चूरण गोली करे असंभ । नाड़ि चिकित्सा वैदग रेह, कगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥१६॥ सरस कतूहल कथा चरित्र, वांचे कान करे अपवित्र । सूत्र सिद्धांत न, संभलावेह, कुगुरुतणा लक्षण छइ एह ॥२०॥ पोतइ न चलइ सूधइ राह, परनइ सुध चलावइ काह । चोर चांद्रणउ न सुहावेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥२१॥ रंधावी ने लीये आहार, असूझता नउ किसउ विचार । जिम तिम करि निज पेट भरेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह॥२२॥ 'पोतइ कहइ अम्हे छां जती, पिणि आचार चलइ नही रती। अनाचार दिसि निति चालेह, कुगुरु तणा लक्षण छइएह ॥२३॥ पापश्रमण नी परि आचरे, साधु तणी वलि निंदा करे। पाप तणु किम आणइ छेह, कुगुरु तणा लक्षण छइ एह ॥२४॥ कुगुरू पचीसी ए मइ-करी, कहे जिनहरख कुमति परिहरी । मुनि लोयण भोयण प्रमितेह, कुगुरूतणा लक्षण छइ एह ॥२५॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रन्थावली नव वाडनी समाय दूहा 1 श्री नेमीसर चरण युग, प्रणमं उठी प्रभाति । वांचीशम जिन जगतगुरु, ब्रह्मचारि विख्यात ॥ १ ॥ सुन्दरि अपछरि सारिखी, रति सम राजकुमारी । भर जोवन में जुगति सुं, छोड़ि राजुल नारी ॥ २ ॥ ब्रह्मचर्य जिण पालियां, धरता दूधर जेह | तेह तणा गुण वर्णवूं, जिम पावन हुवे देह || ३ | सुरगुरु जो पोते कहै, रसणा सहस बणाय । ब्रह्मचर्य ना गुण घणा, तो पिण कथा न जाय ॥ ४ ॥ गलित पलित 'काया थई, तो ही न मूकै आस । तरुणपण जे व्रत धरै, हुं बलिहारी तास ॥ ५ ॥ जीव विमासी जोय तूं, विषय म राचि गिमारि । थोड़ा सुख नें कारण, मूरख घणो म हारि ॥ ६ ॥ दश दृष्टांते दोहिलो, लाधो नरभव सार | शीयल पाल नत्र वाड़ि सुं, सफल करो अवतार ॥ ७ ॥ ४६८ ढाल | मन मधुकर मोही रह्यो ॥ शील सुरतरु सेवियै, व्रत मांही गिरुवो जेह रे । दंभ कदाग्रह छोड़िने, धरिये तिण सं नेह रे ॥ ८ ॥ जिन शासन वन अतिभलो, नंदन वन अनुहार रे । जिनवर वनपालक जिहां, करुणा रस भंडार रे ॥ ६ ॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव वाडनी सज्माय मन प्राणे तरु रोपियो, बीज भावना वंभ रे । श्रद्धा सारण तिहां वहै, विमल विवेक ते अंभ रे ॥ १० ॥ मूल सुदृष्टि समकित भलो, खंध नवे तत्त दाख रे । साख महात्रत तेहनी, अनुव्रत ते लघु साख रे ॥ ११ ॥ श्रावक साधु तणा घणा, गुण गण पत्र अनेक रे । मौर कर्म शुभ बंधनो, परमल गुण अतिरेक रे ॥ १२ ॥ उत्तम सुर सुख फूलड़ा, शिव सुख ते फल जांण रे | जतन करी वृख राखियो, हीयड़े अति रंग आंण रे ||१३|| उत्तराध्ययनें सोलमें, बंभसमाही ठाण रे । कधी तिण तरु पाखती, ए नव वाडि सुजाण रे ॥ १४ ॥ दूहा हवि प्रांणी जांणी करी, राखी प्रथम ए वाड़ि । जो ए भांज पैसमि, प्राणै प्रमदा धाड़ि ॥ १५ ॥ जेहड़ि तेहड़ि खलकती, प्रमदा गय मयमत्त | शीयल वृक्ष ऊपाडसी, बाड़ि वीभाड़ि तुरत ॥ १६ ॥ ४६६ ढाल - नणदल री भाव धरी नित पालीजै, गिरुवो ब्रह्मव्रत सार हो भवियण । जिण थी शिव सुख पामीयै, सुन्दर तन सिणगार हो ॥१७॥ स्त्री पसु पंडग जिहां वसै, तिहां रहिवो नहीं वास हो । एहनी संगति वारीयै, व्रतनो करें विणास हो ॥ १८ ॥ मंजारी संगति रमै, कूक्कड़ मूंसक मोर हो । कुल किहां थी तेहने, पामै दुःख अघोर हो ॥ १६ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रन्थावली अगनिकुंड पासे रही, प्रघलै घृत नो कुंभ हो । नारी संगति पुरुष नो, रहे किसी परि वंभ हो ।। २० ॥ सींह गुफा वासी जती, रह्यो कोस्या चित्रसाल हो । तुरत पड्यो वश तेहनै, देश गयो नेपाल हो ॥ २१ ॥ विकल अकल विण बापड़ा, पंखी करता केलि हो । देखी लखणा महासती, रुली घणु इण मेल हो ॥ २२ ॥ चित चंचल पंडग नर, वरते तीजे वेद हो। घजरा गति रति तेहनी, कहें जिनहर्ष उमेद हो ।। २१ ।। दूहा अथवा नारी एकली, भली न मंगति तास । धर्मकथा नहीं कहवी, वैसी तेहने पास ॥ २४ ॥ तेहथी अवगुण हुवै घणा, संका पामे लोक । आवे अछतो आल सिर, बीजी वाडि विलोक ॥ २५ ॥ - ____ ढाल ॥ कपूर हुवे अति ऊजलो रे ॥ जात रूप कुल वेशनी रे, रमणी कथा कहे जेह । तेहनो ब्रह्मवत किम रहे रे, किम रहे व्रत सं नेह रे । प्राणी नारी कथा निवारि ॥ २६ ॥ तूं तो बीजी बाड़ संभार रे, प्राणी नारी कथा निवारि ।। चंद्रमुखी मृगलोयणी रे, वेणि जांणि भुयंग। दीपशिखा सम नासिका रे, अधर प्रचाली रंग रे ॥२७॥ वाणी कोयल जेहवी रे, वारण कंभ उरोज । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव वॉडिनी संज्मीय ५०१ हंसंगमण कृशं हर कटी रें, करयुगें चरण सरोज रे ॥ २८ ॥ रमणी रूप इस वरणवैरे, आणि विपय मन रंग रें। मुगध लोक नै रीझवै रे, वींधै अंग अनंग रे ॥ २६ ॥ अपवित्र मल नो कोठलो रे, कलह काजल नो ठाम । बारह श्रोत वहै सदा रे, चरम दीवड़ी नाम रे ॥ ३०॥ देह उदारीक कारमी रे, क्षिण में भंगुर थाय । सप्त धात रोगाकुली रे, जतन करता जाय रे ॥ ३१॥ चक्री चोथों जांणीय रे, देवे दीठो आय।। ते पिण खिण में विणसीयो रे, रूप अनित्य कहाय रे ॥३२॥ नारी कथा विकथा कहीं रे, जिणवर वीजे अंग । अनरथदंड अंग सातमें रे, कहै जिनहरख प्रसंग रे॥३३॥ ब्रह्मचारी जोगी जती, न करै नारि प्रसंग । एकण आसण वेसतां, थायै व्रत नो भंग ॥ ३४ ॥ पावक गाले लोहने, जो रहे पावक संग। इम जांणी रे प्राणीया, तज आसण त्रिय रंग ॥ ३५ ॥ ढालं ॥ थे सौदागर लाल चलण न देस्य ॥ तीजि वाड़ि हिवे चित विचारो, नारी संग वैसवो निवारो लाल । एकण आसण कामदीपावै, चौथा व्रत ने दोष लगावे लाल॥३६॥ इम वैसंता आसंगो थावै, आसंगे काया फरसाये लाल।' काया फरस विषय रस जागे, तेहथी अवगुण थाये आगे लाल।३७ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जिनहर्ष ग्रंथावली जोवो श्री संभूति प्रसिद्धो, तन फरसे नीयांणो कीधो लाल । द्वादशमो चक्रवर्ती अवतरीयो, चित्त प्रतिबोध तेहने दीधो लाल।३८। तेहने उपदेशे लेश न लागो, विरतन का कायर थई भागो लाल।। सातमी नरकतणां दुख सहीया, स्त्री फरसे अवगुण इम कहीया।३६॥ काम विराग वधै दुख खांणी, नरक तणी साची सहिनाणी । इक आसण इम दूपण जाणो, परिहर निज आतम हित आंणी।४० - माय वहन जो बेटी थाये, ते बैसी ने ऊठी जाये। । कलपे इकण मोहर्त पाछो, वैसेवो जिनहर्ष सु आछौ ॥४१॥ चित्र लिखित जे पूतली, ते जोयेवी नांहि । केवलनाणी इम कहे, दशवकालिक मांहि ॥४२॥ नारि वेद नरपति थयो, चक्षु कुशील कहाय । लख भव चोथि वाडि तजी, रुलियो रूपी राय ॥४३॥ ___ डाल ॥ मोहन मुदड़ी लेगयो । मनहर इन्द्री नारिना, दीठां वधै विकारि । वागुर कामी मृग भणी हो, पास रच्यो करतार सगुण नर नारी रूप न जोइयेरे, जोइये नहीं धर राग सुगुण नर ॥४४॥ नारी रूपे दीवलो, कामी पुरुष पतंग । झंपे सुखने कारण हो, दाझै अंग सुरंग ॥४॥ मन रमतां हीये, उर कुच वदन सुरंग। नहर अहर भोगी डस्यो हो, जोवंतां व्रत भंग ॥४६॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव वाहिनी समाय कामणगारी कामिनी, जीतो सयल संसार । आखै अणी न क्यो रहोथो, सुरनर गया सहु हार ||४७|| हाथ पांव छेद्या हुवै, कान नाक पिण तेह | ते पण सो वरसां तणी हो, ब्रह्मचारी तजे जेह ||४८|| रूपै रंभा सारखी, मीठा वोली नारि । ते किम जोवे एहवी हो, भर जोवन व्रत धार || ४६ || अबला - इंन्द्री जोवतां, मन थायै वसि प्रेम । राजमती देखी करी, हो तुरत डिग्यो रहनेम ||५०|| रूप कूप देखी करी, मांहि पड़े कामंध । दुख मांगे जांण नहीं हो, कहै जिनहर्ष प्रबंध ॥ ५१ ॥ ५०३ ** दूहा संयोगी पास रहै, ब्रह्मचारी निशदीस | कुशल न तेहना व्रत तणी, भाजे विशवा वीस || ५२ || चसे नहीं कूट अंतरे, शील तणी हुवे हाणि । ' मन चंचल बसि राखिवा, हियै धरो जिन वांणि ॥ ५३ ॥ | ढाल || श्री चंद्राप्रभु प्राणो रे || वाडि हिवे सुणि पांचमी रे, शील तणी रखवाल रे । चक्षु रो पड सीतो शही रे, व्रत थासी विशटाल रे ॥५४॥ परियछ भने रे रे, नारि रहे जिहां रात रे । केल करे निज कंतसं रे, विरह मरोडे गात रे ||५|| कोयल जिम कुहु केलवे रे, गावै मधुरे शाद रे । ' Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ५०४ लिनहर्प ग्रंथावली ग्रह माती राती थकी रे, सुरत सरसं उन्माद रे ॥५६॥ . रोवे विरहाकुल थकी रे, दाधी दुख दव झाल रे । दीणे हीणे बोलडे रे, काम जगावे वाल रे ॥५॥ काम वधै हड़हड़ हंसे रे, प्रीय मेटो तनताप रे वात करे तन मन हरै रे, विरहण करै विलाप रे ॥५८|| राग वधै सुण उल्लसै रे, हासे अनरथ होय रे ।। राम घरण हासा थकी रे, रावण वध थयो जोय रे ॥५६॥ व्रतधारी नव सांभले रे, एहवी विरही वाण रे। कहै जिनहर्ष थिर मन टलै रे, चित चले सुणि वैण रे ॥६०॥ दूहा छठी वाडै इस कह्यो, चंचल मन म डिगाय । खाधो पीधो विलसीयो, तिण सुचित्त म लाय ॥६॥ काम भोग सुख पारख्या, आपे नरग निगोद । परतिख नो कहिवो किस, चिलसे जेह विनोद ॥२॥ ___ढाल ॥ आज नहेजो दी • . भर यौवन धन सामग्री लही, पामी अनुपम भोगो जी। पांच इन्द्री ने वस भोगव्या, पांमे भोग संयोगो जी॥६॥ ते चीतारे ब्रह्मचारी नहीं, धुर भोगवियां सुखो जी । आसी विस साल समोपमा, चीतास्यां चै दुखो जी ॥६४॥ सेठ माकंदी अंगज जाणीये, जिनरक्षत इण नामो जी । जक्ष तणी सीख्या सहु वीसरी, व्यामोहीतवस कामोजी ॥६॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - नव वाडनी समाय ५०५ रयणादेवी सन्मुख जोइयों, पूर्व प्रीत संभारो जी। तो तीखी करवाले वींधीयों, नांख्यों जलधि मंझारों जी ॥६६॥ - सेवो जिनपालित पंडित थयो, न कीयो तास वेसासों जी। मूलं गली पिणप्रीत न मन धरी, सुख संयोग विलासो जी॥६७॥ सैलग यक्ष तत्क्षण उधस्यो, मिलीयो निज परिवारो जी। कहै जिनहर्ष न पूर्व भोगच्या, न संभारै नरनारो जी ॥६८॥ दहा खाटा सारा चरपरा, मीठा भोजन जेह । - मधुरा मौल कसायला, रसना सहु रस लेह ॥ ६६ ॥ "जेहनी रसना वश नहीं, चाहे सरस आहार । ते पामे दुख प्राणीयां, चौगति रुले संसार ॥ ७० ॥ ढाल ॥ चरणाली चामूड रिण चढे । ब्रह्मचारी सांभल बातड़ी, निज आतम हित जाणी रे । वाड म भांज सातमी, सुण जिणवर नी वाणी रे ॥ ७१॥ __ कवल झरे ऊपाडतां, घृत विन्दु सरस आहारो रे । तेह आहार नीवारीयै, जिणथी वधै विकारो रे ॥ ७२ ।। सरसे रसवती आहार रे, दूध दही पकवानो रे । पापश्रमण तेहनें कह्यो, उत्तराध्ययने मानो रे ॥ ७३ ॥ चक्रवती नी रसवती, रसिक थयो भूदेवो रे। काम विटम्बण तिण लही, वरज वरज नित मेवो रे ॥७४॥ रसना नो जे लोलपी, लपटे इण संवादो रे। ' Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जिनहर्ष ग्रंथावली मंगु आचार्य नी परै, पामे कुगति विषादो रे ॥७॥ चारित्र छांडि प्रमादीयो, निज सुत नी रजध्यानी रे।राज रसवती रम पड्यो, जोवो शेक 'द पानी रे ॥७६॥ सबल आहार बल वधे, बल उपशमे न वेदो रे। । - वेदै व्रत खंडित हुवे, कहै जिनहरख उमेदो रे ॥७७|| दूहा बहु घणे आहारे विए चडै, घणे ज फाटै पेटः। धान अमापो ऊरतां, हांडी फाटै नेटि ॥ ७८ ॥ अति आहार थी दुख हुवै, गलै रूप वल गात । आलस नोंद प्रमाद घणु, दोष अनेक कहात ।। ७६ ॥ ___ ढाल ॥ जवुदीप ममारि ए॥ . पुरुष कवल बत्रीश भोजन विध कही, अठवीश नारी भणी ए। पंडिक कवल चावीश अधिके दुखण, होये असातो अति घणी ए।८० ब्रह्मत्रत धर नर नारि खायै तेहनै, उणोदरीयै गुण घणा ए। जीमे जा सक जेह तेहने गुण नहीं, अतिचार ब्रह्मव्रत तणाए ॥८१।। जोय कडराकमुदि सहस बरस लग, तप करि करि काया दहीए तिण भांगो चारित आयो राज में, अति मात्रा रसवती लहीए।८२ मेवाने मिष्ठान व्यंजन नव नवा, साल दाल घृत लूंचिकाए । भोजन करि भरपूर सूतो निश समै, हुई तास विसूचिकाए ॥८३!! वेदन सही अपार आरति रुद्र में, मरि गयो ते सांतमी ए। कहै जिनहर्प प्रमाण ओछो जीमीये, वाड़ि कहीएआठमी ए॥८४॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव वाडनी सन्माय ५०७ दूहा नवमी वाड़ि विचारि नैं, पाल सदा निरदोष । पामीस ततखिण प्राणीयो, अविचल पदवी मोख ।।८।। अंग विभूषा ते करे, जे संजोगी होय। सा ब्रह्मचर्य तन सोभव, ते कारण नव कोय ।। ८६ ॥ ढाल ॥ वीरा वाहुवली गज थकि ऊतरो ए॥ शोभा न करि देहनी, न करै तन सिणगार । उवटणा पीठी वली, न करै किण ही वारो रे ।। ८७ ॥ सुण सुण चेतन तुं तो मोरी वीनती, तोने कहूँ हितकारो।८८९ ऊन्हा ताढा नीर सं, न करे अंग अंघोल । केशर चंदन कुमकुमे, सुं तै न करे मूलो रे ॥ ८६ ।। घण मोला ने ऊजला, न करे वस्त्र बणाव । ‘घाते काम महाबली, चौथा व्रत नै घावो रे ॥६० ॥ .. कंकण कुंडल मुंद्रड़ी, माला मोती हारो। । पहिरे नहीं शोभा भणी, जे थायै व्रतधारो रे ॥११॥ काम दीपन जिनवर कह्या, भूषण दूपण एह । अंग विभूपा टालवी, कहै जिनहर्ष सनेह ॥ १२ ॥ ढाल ॥ आप सुवारथ जग सहू रे ॥ __ श्री वीर दोय दश परखदा, उपदेश्यो इस शील । पाले जे नव वाड़ि सं, ते लहसी हो शिव संपद लील ॥१३॥ शील सदा तुमे सेक्यो रे, फल जेहना अति रस अखीण । . Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जिनहर्ष ग्रन्थावली आठ करम अरियण हणी रे, ते पांसे हो ततखिणसु प्रवीण ॥१४॥ जल जलण अर करिः केशरी, भय जाय सगला भाज । सुर असुर नर सेवा करै, मन वांछित सी. हो सहु काज ॥६॥ जिनभवन नीपावै नवौ, कंचण तणो नर कोय । सोवन तणी कोइ कोडिौ, शील समवड़ हो तो नही पुन्य न होय।६६ नारी नै दूषण नरथकी, तिम नारी थी नरं दोप।। ए वाड़ि विहुं नी सारखी, पालेवी हो मन धरीय संतोष ॥६॥ "निधी नयण सुर शशी (१७२८) भाद्रव चदि आलस छाड़ि। __ जिनहर्प ढढ़ मन पालयो, ब्रह्मचारी हो जुगति नव वाड़ि॥६८. इति श्री नव वाड़ि स्वाध्याय संपूर्णम् अथ मेघकुमार रो चोढालीयौ __ श्री जिनवरना रे चरण नमी करी, गायस मेवकुमारो जी। राजग्रहीपुरं अति रलीयामणौ, श्रणिक नृप गुणधारोजी १श्री गुणवंती पटरांणी धारणी, मंत्री अभयकुमारो जी। .........२श्री 'निस भरि रांणी गज सुपनो लह्यौ, पूछ राय विचारो जी। पुत्र होस्यै तुम घरि पडित कहै, हरख्यौ सहु परवारो जों ।३श्री बीज मसवाडे रे डोहलौं उपनौ. जौ वरंसे जलधारो जी।। पंचवरण वादल बरसात नॉ, खेल्हू वनहं मझारो जी।४श्री खालं नाल गिर नीझरणा वहै, नदीय वहै असरालो जी। गुहिरौ गाजै रै चमकै बीजली, चांतक चकवै रसालोजी ५श्री० Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मेघकुमार से चोढालीयो 1 हस्ती कुंभस्थल वैसी की, नृप सिर छत्र धरतौ जी । गिर - वैभार तलै क्रीड़ा करें, तो पूगै मन खंतो जी | ६ श्री० अभयकुमारें रे - डोहला पूरन्यो, सुर सांनिध तिण बारो जी । दस मसवाडे रे पुत्र जनम थयौ, नामें मेघकुमारो जी | ७श्री०सस्त्रकला सहु सास्त्र कला भण्यौ, योवन पुहुतो जामो जी । आठ कन्या परणावी सुंदरी, सुख विलसै अभिरामो जी । ८श्री० तिण अवसर श्रीवीर समोसर्या, श्रेणिक वंदण जायो जी । मेघकुमर पिण चंदै भाव सुं, धरम सुण्यौ चितलायो जी | श्री०. कुमर सुणी प्रतिबूझ्यो देसना, व्रत लेस्युं तुम्ह तीरो जी । जहा सुहं प्रतिबंधि न कीजीये, इम कहै श्रीमहावीरो जी । १० श्री० । ५०६ ढाल २ घरि आईने रे माइड़ी ने कहै जी, मैं प्रणम्या महावीर । देसना सुणी रे हिव व्रत आदरूं रे, अनुमत द्यौ मोरी मात धारणी कहै रे मेघकुमार नै रे । तुं सुकमाल कली सारखौ रे, कोमल कदली नौ गात ॥ १धा० ॥ नयणे ऑसू छुटै चौसरा रे, जिम पांणी परनाल । ' हीयड़ौ फाटै रे दुख मा नहीं रे, भुय लोटे असराल ॥ २धा०/ मुखड़ौ दीठै रे . हींगडा उलसे रे, विण दीठां वैराग | तुझ नै राखुं रे हीयड़ा उपरै रे, जिम वॉभण गल नाग | ३धा० रमणी खमणी नमणी ताहरी रे, आठं ही सिरदार । कौन लोपै वाल्हा ताहरौ रे, तुझ विण कवण आधार ॥ ४धा Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जिनहर्ष ग्रंथावली ए चित्रसाली रे मंदिर मालीया रे, सखर सुंयाली सेज | भोग पुरंदर ए सुख भोगवौ रे, अबला धरौ हेज ६धा० सुख ने काजै रे जे तप कीजीय रे, ते सुख पाम्या एह । तूं छोड़े छै आस्या आगली रे, स्यं जाणे छ तेह ।७धा० जीभड़ी माहरी ए जुगती नही रे, जिण कहीये तुं जाय । तुझने कोइ रे अनुमत न आपल्ये रे, देई म जाय सदाह धा० कुमर कहै रे सुण मोरी मातजी रे, कूड़ा म कर विलाप । जातां मरतां कण राखी सके रे, जौवौ विचारी आप धा० मा समझावी ने व्रत आदस्यौ रे, पहिला दिवस मझार । त्रण संथारे सूतौ छेहड़ौ रे, बहु मुनिवर संचार १०धा० ढीचण पगना रे संघट दुहवै रे, नावें नींद लिगार । निरमायल कर मुझने परहर्यो रे, कोइ न लै मारी सार ।११धा० __ढाल ३ इम करतां दिन ऊगम्यौ रे हां, आयौ जिनवर पास । रिपजी सांभलौ, मीठी वाणी वीरनी रे हां, बोलावै सुविलास रि०१॥ तुम्हे गुरवा गंभीर, साहसवंत सधीर। काय दीसौ दिलगीर, इम कहै श्री महावीर ॥ रि०२ ॥ इहां थकी तीजै भवै रे हां, गिर वैताढ्य समीप ।रि०। सुमेरप्रभु हाथी हुतो रे हां, पटदंतु गज जीप ॥ रि०३ ॥ सहस हाथणी परवर्यो रे हां, आयौ ग्रीपम काल ।रि०। दावानल में दाझतौ रे हां, पुहतौ सर ततकाल ॥रि०४॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ मेवकुमार रो चोढालीयो ५११ जल थोडौ कादम घणौ रे हां, पैठो पीवा नीर ।रि०। कीच वीच खूची रह्यौ रे हां, पामी न सके तीर ॥रि०५॥ पूरव वयरी हाथीयौ रे हां, देखी दीध प्रहार ।रि०। पीड्यौ पद दंतूसले रे हां, सही त्रिस भृख अपार ॥रि०६॥ सात दिवस वेदन सही रे हां, आयौ वरस सतावीस ।रि०॥ आर्त ध्यान मरी करो रे हां, विंध्याचल गज ईस ॥रि०७॥ रातै वरण सोहामणो रे हां, मेरुप्रमु चौदंत ।रि०। हथणी जेहनें सातसै रे हां, खल करै अत्यंत ॥रि०८॥ वनदव देखी एकदा रे हां, जातीस्मरण उपन्न ।रि०. दव ऊगरखा कारण रे हां, ध्यान धर्यो गज मन्न ॥ रि०॥ करै योजन नौ मांडलौ रे हां, नदी गंगाने तीर ।रि०। ...........॥रि०१०॥ सुयर 'सांवर हिरणला रे हां, वाघ रोज गज सीह । नाठा त्रोठा मांडलै रे हां, आव्या बलवाने वीह गरि०११॥ तू पिण तिहां उभौ रह्यौ रे हां, दव देखी भय भीत । सिसलौ तिहां इक बापड़ी रे हां, न लहै ठांम सु रीत रि०१२॥ ॥ ढाल ४॥ कांन खुजालण तेतलै रे, गज उपाइयो पाग। तिण सिसलै तिहां पग तलै रे, इहां दीठौ रहिवा लाग ॥१॥ श्री वीर कहै विख्यात, तें दुख पाम्या बहु भांत । कांई न संभारै वात रे, मेघमुनि कांई न संभारै रे बात ॥२॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जिनहर्स ग्रन्थावली मेघमुनि सुण पूरव भव वात-आंकणी गयवर मुंय पाग सूकताजी, दीठौ नान्हौ जीव । मन माहे ततखिण ऊपनों जी, करुणा भाव अतीव मे०३।। जीव दयाधर कारणे, अधर चरण तिण चार ।। रात अढी वनदव रह्यौ रे, जीवे पांम्यो पार रे मे०४|| भूख तृखा पीड़े करी रे, मुंय पग मकै जांम। त्रुटि पड़ीयौ तेतले रे, मुंओ सुभ परणामो रे ॥मे०॥ दया परणामे रे ऊपनौ रे, श्रेणिक अंगज जात । हाथी भव वेदन सही रे कांई, नही संभार वात रे ॥मे०६।। धन-धन जिनवर वीरजी रे, धन-धन ए तुम ग्यांन । मुझ उझड़ पड़तै छतै रे, राख्यौ देई मान रे ॥मे०७॥ मीठा जिनवर बोलड़ा रे, सांभल मेघमुणिंद । जातीसमरण पांमोयो रे, पाम्यौ परमाणंद रे ॥मे०८॥ कायानी ममता तजै रे, न करूं कोई उपचार । जीवदया कारण करूं रे, दोय नयणां री सार रे ॥मे०६॥ फेरी नै चारत्र लीयौ रे, आलोया अतिचार । विपुलगिरे अणसण करी रे, पुहता विजय मझार रे ॥मे०१०॥ एकण भव में आंतरै रे, लहिस्यै भव नौ थाग। इम जिनहरखै सीस ने रे, चूको आंण्यो माग रे ॥मे०११॥ इतिश्री मेधकुमार रो चोढालीयौ संपूर्ण । पं० देवचंद लिखतुं बाहड़मेर मध्ये ।। . Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम आस-समाय पंचम आरा सज्झाय वीर कहै गौतम सुणो, पंचम आरा नो भाव रे। दुखीयो प्राणी अति घणा, सांभलि गोतम सुभाव रे ॥१॥वी० । सहिर होसी ते गामड़ा, गाम होसी समसानो रे । विण गोवाले धन चरै, ज्ञान नहीं निरवाणो रे ॥रावी । पाखंडी घणा जागस्य, भागस्य धरम ना पंथो रे । आगम मति मरड़ी करी, करस्य वली नवा ग्रंथो रे ॥३॥वी० । कुमति झाझा कदाग्रही, थापसी आपणा वोलो रे। शास्त्र मारग ते' मुंकल्यं, करस निज मुख मूलो रे ॥४ावी ! 'मुझ केड़े कुमती घणा, होस्यै ते निरधारो रे। जिनमती नी रुचि नवि गमें, थापसी निजमति सारो रे ॥५॥वी सुगुरु ने उथापम्य, कगुरु ने जइ मिलसै रे। मोटा द्रव्य लंचायस्यै, नीच न निश्चे होस्य रे॥६॥वी० सुमित्र थोड़ा हुस्यै, कुसंगी सुं रंग धरस्यै रे । सूत्र सिद्धांत उथापस्यै, जेठाणी देराणी विठस्य रे ॥७॥वी । छोरू विनयवंत थोडला, मात पिता ना वयण न चालै रे । ५ गुणग्राही नर थोड़ला, कुलटा ने संग चालै रे ॥८॥वी । चालणी नी परि चालस्य, धरम ना जाणे न भेदो रे। आगम साखने टालस्य, पालसें आप उमेद रे ॥६॥वी० । - राजा परजा ने पीडस्यें, होडस्ये निरधन लोक रे । १ सवि ३ जिनमतमोल रे ३ लेश ४ निज उपदेश रे। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ जिनहर्ष ग्रंथावली मांग्या न वरसें मेहलो, मिथ्या होत्ये बहु थोको रे ॥१०॥वी० । चोर चरड़ बहु लागस्य, बोल न पालें बोल रे । . साधुजन सीदावस्ये, दुरजन बहुला मोलो रे ।।११।।वी० । संवत उगणीस चवदोतरे, होस्य कलंकी रायो रे । माता ब्रामणी जाणीये, बाप चंडाल कहायो रे ॥१२॥वी० । असी'वरसनो आउखो, पाटलिपुर में होस्ये रे। तसु सुत दत्त नामें भलो, श्रावक कुल सुध धरस्य रे ॥१३॥वो० कोतुकी दाम चलावस्यें, चरम तणा जे जोयो रे । चोथ लेस्ये भिक्षातणी, महा आकरा कर होयो रे ॥१४॥वी. इंद्र अवधिर्य जोयसे, देखस एह सरूप रे। द्विज रूपे आवी करी, हग से कलंकी भूपो रे ॥१५॥वी । दत्त ने राज थापी करी, इन्द्र सुरलोके जाय रे । दत्त धरम पालै सदा, भेट सेज गिरि राय रे ॥१६।।वी । पृथवी जिन मंडित करी, पामसे सुख अपार रे । देवलोक सुख भोगवी, नामे जय जयकार रे ॥१७॥वी० ।. पांचमा आरा ने छेहड़ें, चतुर्विध श्रीसंघ होस्ये रे । छटो आरो बैसतां, जिनधर्म प्रथमें जास्ये रे ॥१८॥वी० । बीजे (पहिरे) अगनि जायसें, तीजें राज' न कोइ रे। चोथे पुहरें लोपना, छठो आरो ते होय रे ॥१६॥वी० । १ छयासी २ शुभ पोसै रे ३ ते ४ पहिलो, ५ राय। - Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजीमती सज्झाय ५१५ ' छठे आरे मानवी, विलवासी' सहु कोय । वीस वरस नो आउखो, पट वर्षे गर्भ होय ॥२०॥ वरस सहस्र चोरासी पणइ, भोगवस्ये भव कर्म । तीर्थकर होस्य भलो, श्रेणिक जीव शुभ धर्म ॥२१॥ तस गणधर अति सुंदरु, कुमरपाल भूपाल । आगम वाणी जोय ने, रचीया वयण रसाल ॥२२॥ पांचमा आरा ना भाव ए, आगम भाख्या वीर । ग्रंथ वोल विचार कह्या, सांभलज्यो भवि धीर ॥२३॥ भणतां समकित संपले, सुणतां मंगलमाल । जिनहरपे करि' देखीयो, भाख्या ययण रसाल २४॥+ श्री राजीमती सज्झाय ढाल-केसर वरणो हो काढ कसुवो माहरा लाल ॥ काइ रीसाणा हो नेम नगीना, माहरा लाल, तुं पर वारी हो वुद्ध लीना मा० * विरह विछोही हो ऊभी छोड़ी मा० . प्रीति पुराणी हो के ते तो तोड़ी ।मा०१॥ १ कही जोड़ ए। ___ + सज्झायमालादि में इसकी २१ गाथाएँ छपी हैं । पद्याक ६-७ नहीं है। . Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जिनहर्प ग्रन्थावली सयण सनेही हा कयं पण राखा मा० जे सुख लीणा हो के छह न दाखो |मा० नेम नहेजो हो के निपट निरागी मा० कये अवगुणे हो के मुझ ने त्यागी ।मा०२|| सासू जाया हो के मंदिर आवो मा० विरह बुझायो हो के प्रेम वनावा मा० कांइ वनवासी हो के काइ उदासी मा० . जोवन जासी हो के फेर न आसी मा०।३।। जोवन लाहो हो के बालम लीजे मा० अंग उमाहो हो के सफल कहीजे मा० हुँ तो दासी हो के आठ भवां री मा० नवमें भव पण हो के कामणगारी मा०४॥ राजुल दीक्षा हो के लही दुख वारे मा० दियर रहनेमी हो के तेहने तारे ।मा०। नेम ते पहला हो के केवल पामी मा० कहे जिनहर्ष हो के मुगतिगामी ।मा०५॥ __ गजसुकमाल मुनि लज्झाय वासदेव हेव उछव करें, दीक्षा तणो अवसाण । - कुमर विराजे पालखी, निहस धुरै नोसाण ॥३०॥ ' वड़ वैरागियो गुरुओ गज सुकुमाल, जीव दया प्रतिपाल । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजसुकमाल मुनि सज्झाय रिद्धि तजी ततकाल, रमणी रूप उदार ॥ च०२ ॥ आविया गहगट थाट सुं, श्री नेमिनाथ समीप । करजोड़ कीधी वंदना, जय भवसायर दीप || १०३ ॥ ए सचित्त भिख्या प्रभु ग्रहो, ए कुमर गजसुकमाल । एहनें तुमे दीक्षा दीयो, टालो भवदह जाल ॥ च०४ ॥ जगनाथ हाथ पसार नें, कीधो अंगीकार । श्री साधुनो धरम आपीयो, चउ महाव्रत सार ||१०५|| माता पिता पगे लागी ने, सहु गया निज-निज गेह । मन थकी तोहि न वीसरे, नवलो एह सनेह ॥ ०६ ॥ हिवें पंच मुठि लोच करें, प्रभु आय लागो पाय । किम करस तूटे माहरा, सो दाखवो महाराय || व०७ || जगनाथ 'नेमीसर कह्यो, समसाण कर काउसग | मन क्रोध तजि आदर क्षमा, आया खमो उपसर्ग व ०८ || कर तहत गजसुकमाल चित्ते, आवियो तिहां समसाण | काउसग कर ऊभो रह्यो, रहतां निरमल झाण ॥ ०६ ॥ निरखियो सोमल ब्राह्मण, जागियो क्रोध प्रचंड | माहरी कन्या छोड़ नें, ए पापी थयो मुझ (दंड) ।। ०१० ॥ सर थकी माटी आणी ने, तसु सीस बांधी पाल । चलता अंगारा मेल्हिया, मुख थी देता गाल ॥ च०११ ॥ रे जीव सहि तं वेदना, मन मांहि नाणिस रोस । भोगव्या. विगर न छूटका, किण ने देह सिर दोष | | ०-१२ || ५१७ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जिनहर्प ग्रन्थावली ५१८ मुगते गयो मुनिवर तुरत, सुख सासता छ जेथ । चवदमें गुणठाणे चढ्यो, केवल पाम्या तेथ ॥२०१३॥ एहवा मुनिवर गावतां, घर मिल मंगल च्यार । रिद्ध वृद्ध आवी मिल, कहै जिनहरप विच्यार ०१४|| __ परस्त्री वर्जन सज्झाय ॥ ढाल-घण त ढोला-ए देसी ।। सीख सुणा पिउ माहरी रे, तुझ ने कहुं कर जोड़ । धणरा ढोल प्रीत म कर परनारी सुंरे, आवे पग-पग खोड़। धण । का मानो रे सुजाण का माना, वरज्यां वरजो म्हारा ला वरज्यां वरजो, परनारी नो नेहड़लो निवार ॥१०॥ जीव तपे जिम वीजली रे, मनडुं न रहे ठाम ।ध० काया दाह मिटे नहीं रे, गांठे न रहे दाम ।। ध०२ ।। नयण नावे नीद्रड़ी रे, आठों पहोर उद्वग ।। गलीआरे भमतो रहे रे, लागू लोक अनेक ।। १०३ ॥ धान न खाये धापतो रे, दीठं न रुचे नीर । ध० । नीसासा नांखे घणा रे, साँभल नणदी रा वीर ।। ध०४॥ भूतल में निशि नीसरे रे, झुरि-झुरि पिंजर होय १० प्रेम तणे वश जे पड़े.रे, नेह गमे तब दोय ॥ ध०५ ॥ रात दिवस मन मां रहे रे, जिण सुं अविहड़ नेह ।ध०। वीसारचा नचि वीसरे रे, दाझ क्षण-क्षण देह ॥ ध०६ ॥ माथे बदनामी चढ़े रे, लागे कोड कलंकाधका जीवित नो संशय पड़े रे, जूवो रावण पति लंक ॥ध०७॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पय ५१६ परनारी नो संग थी रे, भलो न थाये नेट ।ध०। जवो कीचक भीमड़े रे, दीधो कुंभी हेठ ॥ ध०८ ॥ थाये लंपट लालची रे, घटती जाये ज्योत ।ध०। जीत न थाये तेहनी रे, जिम राय चंडप्रद्योत ॥ ध०६॥ परनारी विप वेलड़ी रे, विषफल भोग संयोग ध०॥ आदर करी जे आदरे रे, तेहने भव भय सोग ॥ध०१०॥ वाहला माहरी वीनती रे, साची करि ने जाण ।ध०। ___ कहे जिनहर्ष तुम्हें सांभलो रे, हीयड़े आणि मुझ वाण ॥११॥ छप्पय हरखे किस्यं गमार देख धन संपत नारी। प्रौढ पुत्र परिवार लोक मांहे अधिकारी। यौवन रूप अनूप गर्व मन माहे उमावै । करतो मोडा मोड जगत तृण सरखो भावै । अंखीयां मूढ़ देखे नहीं आज काल मरवू अछे । जिनहर्ष समझ रे प्राणिया, नहिं तर दुख पामिस पछे ॥१॥ लंक सरीखी पुरी विकट गढ जास दुरंगम । पाखली खाई समुद्र जिहां पहुंचे नही विहंगम । विद्याधर बलवंत खंड त्रण केरी स्वामी । सेव करे जसु देव नवग्रह पाये नामी ।। दस कंध बीस भुजा लहे, पार पाखे सेना बहु । जिनहर्ष राम रावण हण्यो, दिन पलट्यो पलट्या सहु ॥२॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० जिनहर्ष ग्रन्थावली श्रावक करणी स्वाध्याय श्रावक ऊठे तुं परभाति, च्यारि घड़ी ले पाछिल राति । मनमें समरे श्री नवकार, जिम लामै भवसायर पार ॥१॥ कवण देव अम्ह कुण गुरु धर्म, कवण अम्हारो छै कुलकर्म । कवण अम्हारे छै विवसाइ, एहवौ चिंतवीजै मन माही ॥२॥ सामाइक लेइ मन सुद्ध, धरम तणी हियडै धरि बुद्धि । पड़िकमणो करि रयणी तणौ, पातिक आलोए आपणो ॥३॥ काया सगति करे पचखांण, सूधी पाले जिनवर आंण । भणिजै गुणिजे तवन सिझाय, जिण कुंती निसतारौ थाय ॥४॥ चीतारै नित चवदह नीम, पालि दया जीवे तां सीम | देहरै जाइ जुहारै देव, द्रव्यतः भावितः करिजे सेव ॥५॥ पौसाले गुरुवंदण जाइ, सुणे वखाण सदा चित लाइ । निरदूपण सूझतो आहार, साधां ने देजे सुविचार ॥६॥ साहमीवच्छल करिजे घणौ, सगपण मोटो सांहमी तणो । दुखिया हीणा दीणा देखि, करिज तासु दया सुविशेष ॥७॥ घर अनुसारे दीजे दान, मोटा सुं म करे अभिमान । गुरु नैं मुखि लेइ आखड़ी, धरम, म मेल्हे एकां घड़ी ॥८॥ वारू सुद्ध करे व्यापार, ओछा अधिका नौ परिहार । म भरे केहनी कूड़ी साख, कूड़ा संस कथन मत भाख ॥६॥ अनंतकाय कही बत्तीस, अभख बावीसे विसवा चीस । ', Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक करणी स्वाध्याय ५२१ ते भक्षण न करी किम, काचा कउला फल मत जिमै ॥१०॥ रात्रिभोजन ना बहु दोस, जाणि ने करिज संतोष । साजी साबू लोह नै गली, मधु धाहड़ी म वेचे वली ॥११॥ चलि म कराये रांगण पास, दपण घणा कह्या छ तास । पाणी गलीजे वे वे वार, अणगल पीधां दोष अपार ॥१२॥ जीवांणी ना करे जतन्न, पातिक छोड़ि करीजे पुन्न । छाणा इंधन चूल्हौ जोई, बावरज जिम पाप न होइ ॥१३॥ घृत नी परि वावरिज नीर, अणगल नीर म धोए चीर । बारह व्रत सूधा पालिजै, अतिचार सगला टालिजै ॥१४॥ कहिया पनरह करमादांण, पाप तणी परिहरिज खांण । सीस म लेजे अनरथ दंड, मिथ्या मैल म भरिज पिंड ॥१॥ समकित सुध हियडै राखिजै, वोल विचारी ने भाखिजै । उत्तम ठामै खरचिजै वित्त, पर उपगार करै सुभचित्त ॥१६॥ तेल तक घृत ध नै दही, उघाड़ा मत मेल्हे सही। पांचै तिथि म करे आरंभ, पालै सील तजे मन दंभ ॥१७॥ दिवसचरम करिजै चौविहार, च्यारे आहार नौ परिहार । दिवस तणा आलोए पाप, जिम भाजै सगला संताप ॥१८॥ संध्या आवश्यक साचबै, जिनवर चरण सरण भव भवे । च्यारै सरणा करि दृढ़ हुए, सागारी अणसण ले सुए ॥१६॥ करे मनोरथ मन एहवा, तीरथ सेजुजै जेहवा । समेतसिखर आबू गिरनार, भेटिसि हूं कदि धन अवतार ॥२०॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जिनहर्ष ग्रन्थावली श्रावक नी करणी छै एह, एह थी थाय भवनौ छह । आठे करम पड़े पातला, पाप तणा छुटे आमला ॥२१॥ वारू लहिये अमर विमान, अनुक्रमि लासे शिवपुर थान | कहे जिनहरख घणे सुसनेह, करणी दुख हरणी छ एह ॥२२॥ , इति श्री श्रावक करणी स्वाध्याय । सवत १७४४ वरसे वैसाख वदि २ दिने श्री क्षेमकीर्ति शाखायाँ वा० श्री श्री श्रीसोमगणि तशिष्य वा० श्रीशातिहर्ष गणि तत्शिष्य मुख्य पडित श्रीजिनहर्ष गणि तत् शिष्य पं० सभानद लिखितं ।। सुश्रावक पुण्यप्रभावक लणीया मं० किसनाजी पुत्र विमलदासजी । तत्पुत्र चिरं हरिसिंह पठनार्थम् । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर जिनहर्ष गीतम् दोहा सरसति चरण नमी करी, गास्यं श्री ऋपिराय । श्री जिनहरष मोटो यति, समय अनुसार कहिवाय ॥११॥ मंदमती ने जे थयो, उपगारी सिरदार। सरस जोडिकला करी, को ज्ञान विस्तार ॥२॥ उपगारी जगि एहवा, गुणवंता व्रतधार । तेहना गुण गाता थका, हुइ सफल अवतार ॥ ३ ॥ देसी-वाही ते गुडा गामनी श्री जिनहरप मुनीश्वर गाईये, पाईयै वछित सिद्ध । दुषमकाल माहिं पणि दीपती, किरियां शुद्धी काध ।। १॥ श्री०॥ शुद्ध क्रिया मारग अभ्यासता, तजता माया रे मोस । रोष धरइ नहीं केहस्युमुनीवरू, सुंदर चित्तई नही सोस ।।२।। श्री० पंच महाव्रत पालै प्रेमस्युं, न धरै द्वप न राग। कपट लपेट चपेटा परिहरइ, निर्मल मन मे वइराग ।। ३ ॥ श्री०॥ सरल गुणे दूरि हठ जेहन, ज्ञाने, शठता (रे) दूरि । ममता मान नहीं मन जेहनें, समता साधु नं नूर ।। ४॥ श्री० ॥ मंदमती ने शास्त्र वंचावता, आपता ज्ञान नो पंथ । जोड़िकला माहि मन राखतो, निर्लोभी निम्र थ ।। ५॥ श्री०॥ 'शत्रुजय महातम' आदि भला, तेहना कीधा रे रास। जिन स्तुति छद छप्पया चउपई, कोधा भल भला भास ||६|| श्री०॥ निज शकति इम ज्ञान विस्तारीयं, अप्रमत्त गुण ना निवास । इर्यासमिति मुनिवर चालता, भापासमिति स्यु भाष ॥णा श्री०॥ एषणा समिति आहारइ चित धर्य नहीं किहाई प्रतिबंध । निरीही पणे मन लख जेहन, नहीं को कलेश नो धंध ॥ ८॥ श्री०.. गच्छ नो ममत्व नहीं पण जेहने, रूड़ा निष्पृहवंत । शातो दात गुणे अलकरू, सोभागी सत्यवंत ।। ६ ॥ श्री० ॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२४ ] श्री जिनहरप मुनीश्वर वंदीइ, गीतारथ गुणवत । गच्छ चुरासीई जाणड जेहने, मानइ सहु जन संत ॥ १ ॥ पंचाचार आचारइं चालता, नव विध ब्रह्मचर्य धार । आवश्यकादिक करणी उद्यमई, करता शकति विस्तारि ॥२॥ आज कालि ना रे कपटी थया, माडी झाक झमाल। निज पर आतम ने धूतारता, एहवो न धर्यो रे चाल ॥३॥ आज तो ज्ञान अभ्यास अविक छ, किरिया तिहा अणगार। ते 'जिनहरष' माहि गुण पामीइ, निदे तेह' गमार ॥ ४ ॥ आपमती अज्ञान क्रिया करी, त्राडूकइ जिम साड। हुँ गीतारथ इम मुख भाखता, खुल नु थाइ रे खाड ।। ५॥ . कामिनी कांचन तजवा सोहिला, सोहिलुतजQगेह।। पणि जन अनुवृत्ति तजवी दोहिली, जिनहरपई तजी तेह ॥ ६॥. श्री साहायिक पणि सुभ आवी मिल्या, श्री वृद्धिविजय अणगार । व्याधि उपन्नइ रे सेवा बहु करी, पूरण पुण्य अवतार ॥ ७ ॥ आराधना करावइ साधु ने, जिन आज्ञा परमाण । लख चुरासी रे योनि जीव खमावता, ध्याता रूडध्यान ॥ ८ ॥ पंच परमेष्ठी रे चित्तइ ध्याइता, गया स्वर्ग मुनिराय । साडवी कीधी रे रूड़ी श्रावके, निहरण काम कराय ॥४॥ 'पाटण माहि रे धन ए मुनिवरु, विचर्या काल विशेष । अखंडपण व्रत अंत समइ ताइ, धरता शुभमति रेख ॥१०॥ धन 'जिनहरप' नाम सुहामणु , धन धन ए मुनिराय । नाम सुहावइ निष्पृह साध नु, 'कवीयण' इम गुण गाय ॥ ११॥ ॥ इति श्री जिनहर्ष गीतम् ।। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनहर्ष ग्रन्थावली में प्रयुक्त देशी सूची १ पाटण नगर वखाणीयइ, सखी माहे रे म्हारी लखमी देवि कि चालउ रे - आपण देखिवा जईयइ ३४ ३५ २ मोरुं मन मोह्यउ रे रूड़ा रामस्यु रे ३ ऊंचा ते मन्दिर मालीया नइ नीचड़ी सरोवर पालि रे माइ ३७ ४ आवउ गरबा रमीयइ रूडा राम स्यु रे ३६ ४० ५ गरबड करण नइ कोराव्यउ कि नंदनी रे लाल ६ होरे लाल सरवर पाले चीखलउ रे लाल, घोड़ला लपस्या नाइ ४२ ७ गायव गुण गरवौ रे ४४. ८ नवी नवी नगरी माँ वसइ रे सोनार, कान्हजी घड़ावइ ४४ नवसरहार ४७, १२८, ६ म्हारी लाल नणद रा वीर हो रसिया वे गोरी ना नाहलिया ४५ १० आज माता जोगणी नइ चालउ जोवा जईयइ ११ गोकल गामइ गाटरइ जो महीउ वेचण गई थी जो १२ र रमिवा आणि मात जसोदा तोनइ वीनवु रे ४७ ४८ ४६ ५० ५१ ५१ ५२. ५३. १३ गींदूडर महकइ राजि गींदूडूउ महकइ १४ राज पीयारी भीलडी रे १५ बाई रे चारणि देवि १६ साहिबा फंदी लेस्युं जी १७ सोनला रे केरड़ी रे वावि रुपला ना पगथालीया रे १८ दल बादल उलट्या हो नदीए नीर चल्यो Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२६ ] १६ सासू काठा हे गहूँ पीसावि, आपण जास्या मालवइ, सोनारि भणइ २० लटकर थारउ लोहारणी रे २१ मा पावागढ़ थी ऊतर्या मा 5 २२ वीर वखाणी राणी चेलणा जी [ समयसु दर चेलना स० ] २३ सहीया सुरताण लाडउ आवइलउ २४ मीणा मारू लाल रंगावउ पीया चूनडी २५ हमीरीया नी, अथवा माली ना गीत री २६ श्रावक लिखमी हो खरचीयइ २७ हाजर नी २८ भइ देवकी किणि भोलव्यर २६ हिव रे जगतगुरु शुद्ध समकित नीमी आपियइ ३० जोवर म्हारी आई उण दिशि चालतर हे ३१ सहव री ३२ चँवर ढुलावइ गजसिंह रउ छावौ महल में ३३ पथीड़ा री ३४ रहउ रहउ वालहा ३५ सुणि सुणि वालहा ३६ वइरागी थयउ ३७ आज नइ वधावउ सहीयां माहरइ ३८ मोरा प्रीतम ते किम कायर होइ ३६. केकेई वर लाघउ 1 ५४ ५५ ५६ ५८, १३६, १८३ ३३५, ५६. २५३, ६० ६२ ६३,१६० ६४ ६५ ६७ ६८ ६८,२५२, ७० ७२ ७३ ७४ ७५,२८३ ७६ ७७ 3 1 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ १२६ [ ५२७ । ४० महाविदेह खेत सुहामणउ ६,२८६ ४१ कागलियउ करतार भणी सी परि लिखें जिनराजसूरि चौवा सी ] ८० ४२ गोड़ी मन लागउ ४३ मोती ना गीत नी ४४ कोइलउ परवत धुंधलउ रे लो १२७,२४३ ४५ पालीताणु नगर सुहामणुं रे जाज्यो, रूड़ी ललतासरनी पालि १२६ ४६ नाटणी ना गीत नी १३२,२४५,३२६,३८० ४७ जीहो मिथला नगरी नउ रानीयउ [समयसुदर-नमि प्रत्ये० गीत ] १३३,१८४,४५२ ४८ साधु गुण गरुआ रे १३५ ४६ हीडोलणा नी १३६ ५० म्हारा आतमराम किण दिन सेज जास्यु १३७ ५१ रसीया नी १३८,१७१,१६०,२०० २८५,२६६,४६२ ५२ निंदा करिज्यो कोई पारिकी रे । समयसुदर-निंदावारकस] १४३ ५३ मुखनइ मरकलड़ ५४ नींदड़ली वइरण हुई रही १५६,२६१ ५५ आधा आम पधारउ पूजि विहरण वेला० ५६ प्रथम भौंरावण दीठउ ५७ थेतर अगला रा खड़िया आज्यो, रायजादा सहेली लाज्यो राजि १६१,२४२ ५८ वाट का वटाऊ वीरा राजि, वीनती म्हारी कहीयो जाइअरे क० . अब पके दोऊ नीवअ पके, टपक टपक रस जाइ वी० १६१ १४५ १५७ १५६ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२८ ] ५६ तंबूड़ा री बूवट वूकइ हो चमरा, साहिवा लेज्यो ' राजिद लेज्यो ।' मिरमिर झिरमिर मेहा वरसई, राजिंद रूडर भीजवर तं० १६२ ६० केता लख लागा राजाजी रइ मालीयइ नी, केता लख लागा गढां री पालि हो, म्हांरी नगदी रा वीरा हो राजिद ओलंभउजी १६२ ६१ आठ टके ककणउ लीयउरी नणदी, थिरक रहाउ मोरी बाहकंकगड मोल लीयउ ६२ थारी महिमा घणी रे मंडोवरा ६३ अलवेला नी १६८, २६६, २५१, २६७ ६४ तप सरिखउ जग को नहीं [ समयसु दर-संवाद शतक ] १७२. ६५ मुम हीयड़उ हेनालुअउ [जिनराजसूरि-वीसी सीमंधर स्त०] १७५ ६६ ऊभी भावलदे राणी अरज करइ छइ १७६,१६४,२२६ ६७ मुझ सूघउ धरम न रमीचउ रे ६८ नायकानी [ जिनराज सूरि-शालिभद्र चौ० ] १६३ १६४, २०४६ ७५ सौदागर नी ७६. रामचन्द्र के बाग ७७ लाइलट्टे मात मल्हार १७७ ६६ हाडाना गीत नी ७० मरवीना गीत नी ७१ सरवर पाणी हजामारू म्हे गया हो लाल, राजि ७२ धन धन सप्रति साचउ राजा १८२,४५० ७३ त्रिमल जिन माहरइ तुमसुं प्रेम [ जिनराजसूरि चौवीसी ] १८५ ७४ बहिनी रहि न सकी तिसइ जी १७८ १७६ १८० १८१ १८६, ४७२ १८८ १६२ १६३ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२६ 1 १६५ २०३ ००५ २०७ ७८ म्हारउ मन माला मा वसि राउ ७६ माखी नी १६६, २८१, ३३४ ३५३, ३८१ ८० पीछोला री पालि चापा दोइ मउरीया मोरा लाल चा० १६८ ८१ ऊमादे भटियाणी ना गीत नी १६६,२५५ ८२ ऊंढीणी चोरी रे २०२ ८३ नणदल री ८४ जोधपुरी नी २०४,४८४,४६६ ८५ सरज रे किरणे हो राजि माथउ गथायउ ८६ थारी तो खातर हुँ फिरी गुमानी हंझा, ज्युचकरी लाबी डोर २०६ '८७ लूअर री ८८ उधव माधव ने कहिज्यो २०८, ४८७ ८६ बीमा रा गीत री १० सोहलारी २२५,२३३,३४४, ६१ थे सौदागर लाल चलण न देस्यु २३४,५०१ १२ मोकली भाभी मोनइ सासरइ ६३ दाद दीपतउ दीवाण २३८ । ६४ वींछीया नी २३६,२८२ ६५ ऊंचउ गढ ग्वालेर कउ रे मन मोहना लाल २४० १६ संबरदे ना गीत नी २४१ ६७ महिदीनी १८ फागनी २२३,२४४,२५०,२६६ १६ चादलिया की , -३३३ १०० म्हारइ आगणइ हे आंबउ सहीया मरीयउ २०६ २३५ २४३ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३० ] २२६ ૨૨૮ २३१ १३२ । १०१ कलीयउ कलाले मद पीयइ रे, काइ सांईना रे साथि रे २४७ १०२ पनिया मारूनी २४८ १०३ प्यार उ प्यारउ करती १०४ छाजइ बइठी साद करू , लाज मरू, घरि आवउ क्यु नइलो ___ म्हारा राजिंदा जी रे लो २२७,२३६ १०५ लाहउ लेज्यो जी १०६ समुद्रविजय कउ नेमकुमरजी सखी थे तउ जाइ मनावउ नइ भोरी ल्यावउ नइ, सांवरिया नइ समझावर नइ २३० १०७ मोरी दमरी अपूठी ल्याव्योजी मोरी द० १०८ रूडी रूड़ी रे वारणि रामला पदमिनी रे १०६ कपूर हुवइ अति ऊजलो रे २५५,३२८,४७८,५०० ११० ईडर आँबा आविली रे २५७ १११ वाल्हेसर मुझ वीनति गोडीचा [जिनराजसरि गौड़ी पार्श्व स्त०] २६३,२६४,४४८ ११२ सदा सुहागण २६५ ११३ घडलइ भार मरा छा राजि २६७ . ११४ झवखड़ा नी, मॅबखारी २६७,३३१ १ ११५ वीर विराजै वाड़िया सीता २६६ ११६ वारी रे रसीया रग लागो १२७ हुं वारी लाल, करकड़ ने करुं वदना हुँ वारी [समयसुन्दर-करकण्डु प्रत्ये० गीत] '२७५ ११८ पहिलउ वधाव उ म्हारइ सुसरा रइ होइयो . २७६ २७३ . Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३१ J ११६ पास जिणंद जुहारियइ १२० आसकरण अमीपाल हांरे आ० शत्रुं जइ यात्रा करइ, रे १२१ मिरमिर वरसह मेह हो राजा, परनाले पाणी भरे १२२ नागा किसनपुरी, तुम बिन मढिया उजर परी - १२३ केसरियामारू म्हांने सालु लाज्यो जी सागानेस्नो जी चीणपुरानो चीर जी १२४ हरणी जब चरे ललना १२५ विणजारा नी २७ २७८ सह २८० २८० २८१ २८४,४७१ २८७ २६० २६०,३०१. १२६ दीवना गरबानी १२७ चादा करि लाइ चाद्रणउ १२८ विदलीनी १२६ ऐसा मेरा दिल लागा रे जिन्हा रे म्हारा लाल, लोभीडा सुजाण ऐ० १३० तुं तो म्हारां साहिबा रे गुजराति रा १३१ गीता छंदरी १३२ विवाहला री १३३ कंता मोनइ डूगरीयड देखालि रे । १३४ कंता तंबाकू परिहरउ ०६३ २६४ २६५,३६७ २६६ २६८ २६८. १३५ गिरि थी नदियाँ ऊतरह रे लो ३०० ३०१,४६१ १३६ रे जाया तुम विण घड़ी रे हमास १३७ तमाखू विणनारे की ३१५ १३८ 'कृपानाथ मुझ वीनती अवधारि [समयसुंदर शत्रुंजय ३१६,४६४ १३६ वीरथ ते नम रे [ समयसुंदर - तीर्थमाला ] ३१८ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATNA [३२] १४० वीर जिणेसर नी [ गौतमरास-विनयप्रभ ] १४१ चूनडी री १४२ उलाला नी १४३ श्री नवकार जपउ मन रंगई [ पद्मराज-नवकार १४४ धण रा ढोला १४५ घरि आवर जी आंवर मउरीयत्र १४६ विमलाचल सिर तिलड 1 L ३२१,३६३ ३३० ३३७ 3 १४७ अढीया नी Bi ३६.५ १४८ इणि अवसर दसउर पुरई १४६ विलसे रिद्धि समृद्धि मिली [ साधुकीर्त्तित-निनकुशल ल० ३७५ १५० प्रभु नरक पडतउ राखियइ [ समयसुंदर-श्रेणिक गीत ] ૩૮ १५१ आख्यान नी ३८२,४४४ १५२ चन्द्रायणा नी १५३ कलालकी री १५४ जिरे जिरे सामि समोसर्या १५५ हो मतवाले साजना ४५०,४५३ १५६ सुणि वहिनी पिउड़ो परदेसी [जिनराज आतम काया गीत ४५२ १५७ नाचे इद्र आणद सुं ४५६ १५८ घरि आवउ हो मनमोहन घोटा ४५७ १५६ सुगुण ४५८ १६० इतला दिन हॅू जाणती रे हा [ जिनराजसूरि-शालिभद्र चौ० ] ४५६ १६१ अरधमंडित नारी नागिला रे [ समयसुंदर-भव नागिला ' गीत ] ४६३, ४६८ 1 ३३६,३७७ ३४५,४६७ ३८६ ४४७ ४४६ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३३ ] ४८६ "१६२ नही जमुनाके तीर उर्ड दोय पंखीया २६३ ते मुझ मिच्छामि दुकडं [ समयसुंदर-पद्मावती आ० ४६६ १६४ आज निहेजोरे दीसे नाहलो [जिनराजसूरि-शालिभद्र। - चौ०] ४७०,५०४ १६५ भावन नी । ४७० “१६६ श्रेणिकराय हुँ रे अनाथी निग्रंथ समयसदर-अनाथी स०४७५ १६७ तुगियागिरि शिखर सोहे - ४७६ १६८ हिवराणी पदमावती [समयसंदर-पद्मावती आ०] ४८२,४८५ १६९ यत्तिनी ४८८ १७० कर जोडी आगलि रही १७१ करम न छूटे रे प्राणिया । समयसंदर-इलापुत्र गीत ] ' ४६१ १७२ मधुर आज रहो रे जन चलउ ४६२ “१७३ क्षमा छत्तीसी नी [ समयसुदर, आदर जीव क्षमा गुण | ४६३ १७४ मन मधुकर मोही रह्यो । जिनराजसूरि चौबीसी] ४६८ १७५ मोहन मुंदड़ी ले गयो । ५०२ १७६ श्री चंदाप्रभु पाहुणोरे [जिनराज-चौवीसी ] ५०३ १७७ चरणाली चामुड रिण चढे १७८ जवद्वीप मझारिए ५०६ “१७६ वीरा बाहुवली गजथकि ऊतरो -१८० आप सुवारथ जग सहू ५८७ ५०५ “५०७ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ राजीमती बारहमास सवैया घनघोर घटा धन की उनई विजुरी चमकंत जलाहलसी, बिच गाज अवाज अगाज करत सु लागत मोहि कटारी जिसी। पपीया पीउ-पीउ करें निसवासर दादुर मोर वदं उलसी, असे श्रावण में सखी नेम मिले सुख होत कई जसराज रिपी ।।१।। आदव रेन मे मेन सतावत नेनन नींद पर नहीं प्यारी, घटा करि श्याम वरपित मेह वहै मारि नीरह नीर अपारी । सूनी मो सेज सुखावत नाहि ज कंत विना भई में विकरारी, कदै जसराज भणै इसे राजुल नेमि मिलै कब मो दईयारी ॥२॥ माम आसोज सस्त्री अब आयो संजोगण के मन माहि सुहायौ, कारे धुसारे कहुं सित वादर देखत ही दुख होत सवायो। । चंद निरम्मल रेंण दीपा जसा अलवेसर कंत न आयो, राजल ऐसें सखी सुं कहै पट मास वरावर द्युस गमायो ३॥॥ कातिक काम किलोल बिना विरहानल मोहि न जाति सखी री, अंधारी निसा सुख न मे सूती थी प्रीतम प्रीतम ऐसें झखीरी। मैं पीर कीन पै मोहि तजी उण प्रीत चलै कैसे एक पखी री, कहै जसराज वदं ऐसें राजल कंत विना न दीवारी लखी री ॥४॥ मिगस्सिर आयो कहै सहेली री सीत अनीत अवें प्रगटाणी, कामण कंत दोऊ मिल सोवत रेण गमावत होत विहाणौँ । छोरि त्रीया निज दूषण पाखै रह्यो किण कारण वैठ के छांनो, राजल वात को जसराज यदुष्पति मोहि कह्यौ क्यों न मान्यों ॥५॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३५ सीत सजोर लगै तनु अंतर कौन सं वात कहुँ विरहा की, वियोग महोदधि मोहि तरावत सेंण ई अरु दास हुँ ताकी । मैन के जोर शरीर भयौ कृश काय रही तनु माहि न वाकी, पोप के मास में कंत मिलावै जमा बलि जाऊ अहो निस वाकी ।।६।। माह के मास में नाह मनावी सहेली री बीनति जाइ करो, तुम्हें काहे रीसावत प्राण धणी अवला पर काहे कुरोस धरौ, निज आठ भवातर प्यारी सु प्रेम की प्यारी जमा नेमि आइ वरौ। तिय राजुल कुंवरि विलाप करै मोहि अंगन आइ के दुख हरौ ।।७।। फागुण मास मे खेलत होरी सहेली सभै कछ मो न सुहावै, न्हाइ सिंगार बनाऊं नहीं तनु सौंधौ लगावत मोहि न आवै। प्यारी घरे नहीं नाह नगीनौ वसत जसा मन मेरे न भावं, राजुल राजकुमारी कहै कुन ऐसी त्रिया पीउ कुं विरमावै ।। ८ ॥ आतप जोर तपं तनु कोमल क्यु तुझ कंत कहै गरमाई, और त्रिया मन मांहि वसी काइ नाह कुआली री हुँ न सुहाई । श्याम-विना टुक ही न सुहावत मो वाकै सरीर मे चिंतन काई, दास जसा उग्रसेन किसोरी कुचैत महीनो महा दुखदाई ।। ।। मंदिर मोहन आवत काहे के जो मे वाट खरी पीउ तेरी, दाघ वियोग लग्यो तनु भीतर क्यों न वुझावत मैं तेरी चेरी। मास वैसाख मे नेम मिलावत ताहि वधाई में देत घनेरी, राजुल आज कहै जसराज करो प्रिउ प्रीति अबें अधिकेरी ॥१०॥ जेठ मे मीतल नाह करौं तनु आइ मिलौ मेरे प्राण पीयारे, तो विनु चैन न पावु इकेली मैं तें कछु कामण कत कीया रे । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३६ ] वोलत वोलन आवत मो पे कपाट रिदा विच ते जुटीया रे, राजमती जसराज यदुप्पति देखाम कॅ तरसे अखिया रे।। ११ ।। प्रगटे नभ वादर आदर होत धनाधन आगम आली भयो है, काम की वेदन मोहि सतावै आसाढ़ मे नेमि वियोग दयो है। राजुल संयम लेके मुगति गई निज कत मनाइ लया है, जोर के हाथ कहै जसराज नेमीसर माहिव सिद्ध जयो है ।। १२ ।। इति नेमिनाथ राजीमती बारैमास रा सवेंया संपूर्ण संवत् १८२० ग वर्प श्रावण बदि १४ [ प्रति-जैन भवन, कलकत्ता हीयाली गीत परम परवीत अणजीत निर्मल बिहु पखे, सयल संसार जस वास सारइ पुर इक मउज महिराणहर पालगर, वाट घणघाट दुख दाह वारइ ॥१॥ वदन जसु आठ दुनीया न सहुको वढइ, रमणदस पाच ताइप्रगट रानइ दोइ पग जासु दीसइ सदा दीपता, भेटता भूख भइ दूख भाजइ ॥२॥ चपल दृग भालीयल सोल वारू चवा, जुगल कर जीव सुर सेव सारइ।। सुगुण जिनहरष ची वीनती साभल उ, धींग नर नारि चउनाम धारइ।।३।। गूढ प्रहेलिका पढमक्खर विण सरवर सुहावे सहु जणा मझक्खर विण किणही सुहावं नहि भणा अतक्खर विण आगम कहै सयणा तणो परिहा कहै कुमरी जिनहर्प वाचौ सुणौ ।। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- _