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जिनहर्ष-ग्रन्थावली दांन संवरि तिण खिण दीधौ, आदि जिणेसर संयम लीधौ।१६। करम खपाई केवल पायौ, समवसरण तिहां देवे रचायौं । बारह जी परिषद प्रागलि भाख,धर देसण जग नायक आखड् ।१७/ चतुर्विध संघ रिपम जी थापै, त्रिभुवन मांहे कीरति व्याश् । भक्यिण नर प्रतिबोध दीयंती,शुभध्यांन मन धरि लाम लियंति।१८)
आठ करम नौ अंत करी नै, वेला तप केरो लाभ वरी नै । प्रथम जिणेसर मुगत सिधाया,इम जिणहरखै भलै गुण गाया।१५।
इति श्री आदिनाथ सलोको समाप्त श्री अजितनाथ स्तवन
ढाल-अलबेला नी॥ अजित जिणेसर माहरीरे लाल,अरज सुणउ महाराज,सुविचारी रे । श्रास करी हुँ अावीयउ रे लाल, पूरउ चंछित काज ।।सु.१० ॥ पोताना जाणी करी रे लाल, दीजइ अविचल दान |सु०) महिमा वाधइ ताहरी रे लाल, सेवक वाधइ मान ।।सु.२।। अंतरजामी माहरी रे लाल, जउ नहीं पूरउ आस ।सु०। तउ बीजउ कुण पूरिस्यइ रे लाल, जोज्यो हीयइ विमासी ।सु.३। सेवक दुखीया देखिनइ रे लाल, नावड़ महिर लिगार सु०॥ तउ ते दुख स्यु भांजिस्यइ रे लाल,स्यु करिस्यइ उपगार ।सु.४अ। पाम्या नउ-फल तउ सही रे लाल, जे दीजइ निज हाथ सु०॥ संची कोइ न ले गयुरे लाल, जग जीवन जगनाथ ।।सु.५।। प्रभु लोभी हैं लालची रे लाल, किम चलिस्यह कहउ एम सु.।