Book Title: Jinaharsh Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

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Page 582
________________ ५१२ जिनहर्स ग्रन्थावली मेघमुनि सुण पूरव भव वात-आंकणी गयवर मुंय पाग सूकताजी, दीठौ नान्हौ जीव । मन माहे ततखिण ऊपनों जी, करुणा भाव अतीव मे०३।। जीव दयाधर कारणे, अधर चरण तिण चार ।। रात अढी वनदव रह्यौ रे, जीवे पांम्यो पार रे मे०४|| भूख तृखा पीड़े करी रे, मुंय पग मकै जांम। त्रुटि पड़ीयौ तेतले रे, मुंओ सुभ परणामो रे ॥मे०॥ दया परणामे रे ऊपनौ रे, श्रेणिक अंगज जात । हाथी भव वेदन सही रे कांई, नही संभार वात रे ॥मे०६।। धन-धन जिनवर वीरजी रे, धन-धन ए तुम ग्यांन । मुझ उझड़ पड़तै छतै रे, राख्यौ देई मान रे ॥मे०७॥ मीठा जिनवर बोलड़ा रे, सांभल मेघमुणिंद । जातीसमरण पांमोयो रे, पाम्यौ परमाणंद रे ॥मे०८॥ कायानी ममता तजै रे, न करूं कोई उपचार । जीवदया कारण करूं रे, दोय नयणां री सार रे ॥मे०६॥ फेरी नै चारत्र लीयौ रे, आलोया अतिचार । विपुलगिरे अणसण करी रे, पुहता विजय मझार रे ॥मे०१०॥ एकण भव में आंतरै रे, लहिस्यै भव नौ थाग। इम जिनहरखै सीस ने रे, चूको आंण्यो माग रे ॥मे०११॥ इतिश्री मेधकुमार रो चोढालीयौ संपूर्ण । पं० देवचंद लिखतुं बाहड़मेर मध्ये ।। .

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