Book Title: Jinaharsh Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 575
________________ - - - नव वाडनी समाय ५०५ रयणादेवी सन्मुख जोइयों, पूर्व प्रीत संभारो जी। तो तीखी करवाले वींधीयों, नांख्यों जलधि मंझारों जी ॥६६॥ - सेवो जिनपालित पंडित थयो, न कीयो तास वेसासों जी। मूलं गली पिणप्रीत न मन धरी, सुख संयोग विलासो जी॥६७॥ सैलग यक्ष तत्क्षण उधस्यो, मिलीयो निज परिवारो जी। कहै जिनहर्ष न पूर्व भोगच्या, न संभारै नरनारो जी ॥६८॥ दहा खाटा सारा चरपरा, मीठा भोजन जेह । - मधुरा मौल कसायला, रसना सहु रस लेह ॥ ६६ ॥ "जेहनी रसना वश नहीं, चाहे सरस आहार । ते पामे दुख प्राणीयां, चौगति रुले संसार ॥ ७० ॥ ढाल ॥ चरणाली चामूड रिण चढे । ब्रह्मचारी सांभल बातड़ी, निज आतम हित जाणी रे । वाड म भांज सातमी, सुण जिणवर नी वाणी रे ॥ ७१॥ __ कवल झरे ऊपाडतां, घृत विन्दु सरस आहारो रे । तेह आहार नीवारीयै, जिणथी वधै विकारो रे ॥ ७२ ।। सरसे रसवती आहार रे, दूध दही पकवानो रे । पापश्रमण तेहनें कह्यो, उत्तराध्ययने मानो रे ॥ ७३ ॥ चक्रवती नी रसवती, रसिक थयो भूदेवो रे। काम विटम्बण तिण लही, वरज वरज नित मेवो रे ॥७४॥ रसना नो जे लोलपी, लपटे इण संवादो रे। '

Loading...

Page Navigation
1 ... 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607