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जिनह प्रथावली
धड़ उपदेश यथास्थित, सत्य वचन मुख भाखड़ रे ॥८॥
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तन मेला मन ऊजला, तप करि खीणी देही रे | बंधण वे छेदी करी, विचरे जे निसनेही रे || ६ || एहवा गुरु जोई करी, आदरीये शुभ भावे रे | बीजउ तत्व सुगुरू तण, ए जिनहरप सुहावे रे ॥१०॥ सर्व गाथा ||४३||
|| ढाल - करम न छूटे रे प्राणीया एहनी ||
भवसागर तरिया भणी, धरम करे सारंभ ।
पत्थर नावइ रे वइसिनई, तरिवउ समुद्र दुर्लभ ||१|| आपे गोकुल दूझणा, आपे कन्या ना दान । आपड़ क्षेत्र पुन्यारथइ, गुरु ने देई बहुमान || २ || लूटाव घोणी वली, पृथिवी दान सु प्रेम । गोला कलसा रे मोरीया, आपड़ हल तिल हेम ||३|||| बली खणावड़ रे खांतिसुं, कुआ सुंदरि वादि । पुष्करिणी करणी भली, सरवर सखर तलाव || ४भ|| कंद मूल मूंके नही, इग्यारसि व्रत दीस । आरंभ ते दिन अति घणउ, धरम किहां जगदीश || ५ || मेध करइ होमइ तिहां, घोड़ा नर ने रे छाग ।
होम जलचर मींडका, धरम कीहां वितराग ॥ ६भ ||
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करइ सदाई रे नउरता, जीव तणा आरंभ ।
हणीयइ भइंसा रे बाकरा, जेहथी नरग सुलभ ||७भ ।।