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जिनहर्ष-ग्रन्थावली घन घोर घटा करि के वरसिं घन चातक बंद लहें न लहें, दीनानाथ को होत उद्योत दसो दिसि कोसीक तांहि न तेज सहें। सरितापति वारि अपार निहारि सछिद्र न कुभ में नीर रहें, सब दायक को लहें दान जसा किस ही न लह्यो कहा दोस कहें ।२५ निफल नागर वेलमई अरू तूं वनवेलि भई सफली हे, सोवन में सुर माई नहि दुम सुरभाई अत्यंत मिले हैं । सुंदर सोमत हे मृग के हग नारि के हीन न पूगी रली हैं, नाथ अधन्न किए सुदता जुगति नाहि वात सबे विचली है ॥२६॥ चोरि करें धन माल हरे न किसी सू डरें हैं धरे पग खोरें, मोहन मंत्र लगाई कछु ठग लोक ठगें पुनि गांठरि छोरें । अंजन चक्षु अदृश्य जहां तहां जाइ के कृत्य करे निज जोरें, चोर एते न कहा जसा भैया चोर सोउ मन माल कूचोरें ।२७। छोरि कपट्ट निपट्ट जू उवट्ट दवट्ट जो तू सुख चाहें, काम मरट्ट विकट्ट पछट्ट के क्रोध निझट्ट सुघट्ट विराहें । लोम लपट रह्यो क्युसुमट्ट उगट्ट समकित चित्त उमाहें, सुख्ख गरट्ट लहें सिव थट्ट में नट्ट जसा सव तट्ट अगाहें।२८| जिण पाणी के विंद थें पिंड कीउ जीउ आपण पंतिण में विचरेहें, चख नाक श्रवन्न वदन्न रसन्न रदन्न चरन्न हसत्त थरें है। जसराज सवे मन वंछित पूरत थंम विना ब्रह्मड धरे हैं, जिण एवो कियो सोई चिंत्त करेंगो रे तु मन काहे कूचित करे हे २६