Book Title: Jinaharsh Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
View full book text
________________
४७४
तेरकाठिया स्वाध्याय नमि जिनवर चरणे सदारे, नमि निज सदगुरु पाय । जैन धर्म करि भावसुं रे, सदगति तणउ उपाय रे प्रा दस महीना माय ने रे, गरभ रह्यउ तुं जीव ।। ते वेदन तुझ वीसरी रे, दुख भर करतउ रीव रे॥१०प्रा एग्यारस तुं जाणिजे रे, इंद्री विषय विलास । मध-विंद सुख कारण रे. स्यं बाधी रह्यउ आस रे ॥११मा।।
वारिसि तुझने जीवड़ा रे, जउ तुं काउ करेसि। __ आरंभथी अलगउ रहे रे, ए माहरउ उपदेस रे ॥१२प्रा।।
ते रसीयो गुण रस भर्या रे, जेहनउ समकित सुद्ध रे। समयसार रसमां सदा रे, भीना रहे प्रतिबुद्ध रे॥१३प्रा।। चउदस भेद जीव तत्वना रे, जाणे जेह सुजाण । पर्यापत अपर्यापता रे, तेहनी दया प्रमाण रे ॥१४प्रा।। पूरण माया पामी ने रे, दीजइ दान अपार । दोधा विणि नवि पामिये रे, जोइ लौकिक विवहार रे॥१५प्रा॥ पनर तिथि अरथे भली रे, धरिये श्री जिन आण । कहइ जिनहरख लहीजियेरे, जहथी कोड़ि कल्याण रे॥१६प्रा।।
इति पनरतिथि गर्भित स्वाध्याय : , तेरकाठिया स्वाध्याय
, ढाल॥ चउपईनी ॥ सांभलि प्राणी सुगुण सनेह, धरम महानिधि पाम्यु एह । जतन करे हरिस्ये लांठिया, वट-पाडा तेरह काठिया ॥१॥

Page Navigation
1 ... 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607