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जिनहर्ष ग्रन्थावली
मन वच काया ने मन वसि राखई, छंडे पंच प्रमाद जी | पंच प्रमाद संसार वधारे, जाणे ते 'निसवाद जी ॥ १० ॥ सरल सभाव भाव मन रूहुं, न करे वाद विवाद जी | च्यारि कपाय कुगति ना कारण, वरजइ मद उनमांद जी । ११ । पाप तणा थानक अढारइ, न करे तास प्रसंग जो । विकथा मुख थी व्यारे निवारे, समिति गुपति सुरंग जी ॥ १२ ॥ अंगउपांग सिद्धांत खाणे, द्यइ सूधउ उपदेश जी । सुधइ मारग चले चलावे, पंचाचार विशेष जी ||१३|| दश विधि जती धरम जिन भाख्युं, तेहना धारणहार जी । धरम थकी जे किमही न चूके, जउ हुइ लाख प्रकार जी ॥ १४ ॥ जीवतणी हिंसा जे न करे, न वदइ मृषा अधर्म जी । त्रिणउ मात्र अणदीधर नलीयड़, सेवे नही अवल जी ||१५|| द्रव्यादिक परिग्रह नवि राखे, निसिभोजन परिहार जी । क्रोध मान माया नइ ममता, न करे लोभ लिगार जी ॥ १६ ॥ ज्योतक आगम निमित न भाखर, न करावइ आरंभ जी ।' ओपथ न कहड़ नाडि न जोवइ, रहे सदा निरारभ जी ॥ १७॥ डाकणी साकणी भूत न काढइ, न करे हलुअउ हाथ जी । मंत्र यंत्र राखडी न बांध, न करे गोली काथ जी || १८ || विचरे गाम नगर पुर सगलह, न रहइ एकणि ठाम जी । चउमासा ऊपरि चउमासउ, न करे एकणि गाम जी ॥ १६ ॥
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