Book Title: Jain Chalisa Sangraha Author(s): ZZZ Unknown Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 7
________________ विपदायें सब टल जाती है, भाव सहित करता चिंतन। मार्ग सुलभ हो जाता है जब, मनसे मंत्र का करे मनन।१०। व्रत धारी यदि महामंत्र को, निज कंठ में धरता है। धन विद्या व ऋद्धिधरों से, श्रेष्ठ सदा ही रहता है।११। महारत्न चिंतामणि से भी, कल्पद्रुम से है बढ़कर। महामंत्र यह अनुमान है, नहीं लोक में कुछ समतर।१२। गरूड़ मंत्र जैसे विकराल, सर्यों का विषनाशक है। उससे श्रेष्ठ मंत्र है यह, सकल पाप का घातक है।१३। नाते रिश्तेदार सभी ये, एक जन्म के हैं साथी। स्वर्ग मोक्ष सुख देकर मंत्र, पंचम गावत का है साथी।१४। विधिपूर्वक भाव रहित जो, लाख बार मंत्र जपता है। कहते हैं ज्ञानीजन उनको तीर्थंकर कर्म ही बंधता है।१५। परम योगी ध्यानी जन नित ही महामंत्र यह ध्याते हैं। परम तत्व है यही परमपद ऋषिगण यह समझाते हैं।१६। शत साठ (१६०) विदेहवासी भी, महामंत्र यह जपते हैं। कर्मों का वे क्षयकर क्षण में, भवसागर से तरते हैं।१७। कर्मक्षेत्र वासी भी जब यह, णमोकार जप जपते हैं। स्वर्गादिक वैभव को पाकर, अंत मोक्षसुख लभते हैं।१८। जिनधर्म अनादि जीव अनादि, महामंत्र भी अनादि है। अनादि हैं जपने वाले भी, मंत्र ध्यानी भी अनादि है।१९।Page Navigation
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