Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 38
________________ वैराग्य हृदय में समाया, छोडे क्रोध - मान और माया ॥ घर पहुँचे अनमने से होकर, राजपाट निज सुत को देकर ॥ देवीमई शिविका पर चढ़कर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।। माघ मास - चतुर्थी कारी, “ नमः सिद्ध" कह दीक्षाधारी ॥ रचना समोशरण हितकार, दिव्य देशना हुई सुरवकार ॥ उपशम करके मिथ्यात्व का, अनुभव करलो निज आत्म का ।। मिथ्यात्व का होय निवारण, मिटे संसार भ्रमण का कारणा ॥ बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन, विष्फल हैं सारे व्रत - अर्चन ॥ विषफल हैं ये विषयभोग सब, इनको त्यागो हेय जान अब ॥ द्रव्य - भावनो कमोदि से, भिन्न हैं आत्म देव सभी से | निश्चय करके हे निज आतम का, ध्यान करो तुम परमात्म का ॥ ऐसी प्यारी हित की वाणी, सुनकर सुखी हुए सब प्राणी ॥ दूर-दूर तक हुआ विहार, किया सभी ने आत्मोद्धारा ॥ 'मन्दर' आदि पचपन गणधर, अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर || उम्र रही जब तीस दिनों क, जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी ॥ हुआ बाह्य वैभव परिहार, शेष कर्म बन्धन निरवार ॥ आवागमन का कर संहार, प्रभु ने पाया मोक्षागारा ॥ षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़, देव करें जिनभवित प्रगाढ़ || सुबीर कूट पूजें मन लाय, निर्वाणोत्सव को' हर्षाय ॥ जो भव विमलप्रभु को ध्यावें। वे सब मन वांछित फल पावें ॥ 'अरुणा' करती विमल - स्तवन, ढीले हो जावें भव-बन्धन | जाप ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलप्रभु नमः — 38

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