Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 35
________________ मिटें परिग्रह सब तृष्णये, अनेकान्त दश धर्म रमायें । छठ अषाढ बदी उर -आये. विजया रानी भाग्य जगाये। सुन रानी से सोलह सुपने, राजा मन में लगे हरषने । तीर्थंकर लें जन्म तुम्हारे, होंगे अब उद्धार हमारे । तीनो बक्त नित रत्न बरसते, विजया मॉ के आँगन भरते । साढे दस करोड़ थी गिनती, परजा अपनी झोली भरती। फागुन चौदस बदि जन्माये, सुरपति अदभुत जिन गुण गाये। मति श्रुत अवधि ज्ञान भंडारी, चालिस गुण सब अतिशय धारी । नाटक ताण्डव नृत्य दिखाये, नव भव प्रभुजी के दरशाये । पाण्डु शिला पर नव्हन करायें, वन्त्रभूषन वदन सजाये । सब जग उत्सव हर्ष मनायें, नारी नर सुर झूला झुलायें। बीते सुख में दिन बचपन के, हुए अठारह लारव वर्ष के । आप बारहवें हो तीर्थकर, भैसा चिंह आपका जिनवर । धनुष पचास बदन केशरिया, निस्पृह पर उपकार करइया । दर्शन पूजा जप तप करते, आत्म चिन्तवन में नित रमते । गुर- मुनियों का आदर कते, पाप विषय भोगों से बचते । शादी अपनी नहीं कराई, हारे नान मात समझाई। मात पिता राज तज दीने, दीक्षा ले दुद्धर तप कीने । माघ सुदी दोयज दिन आया, कैवलज्ञान आपने पाया । समोशरण सुर रचे जहाँ पर, छासठ उसमें रहते गणधर । वासु पूज्य की खिरती वाणी, जिसको गणघरवों ने जानी । मुख से उनके वो निकली थी, सब जीवों ने वह समझी थी। आपा आप आप प्रगटाया, निज गुण ज्ञान भान चमकाया। सब भूलों को राह दिखाई, रत्नत्रय की जोत जलाई। आत्म गुण अनुभव करवाया, 'सुमत' जैनमत जग फैलाया। सुदी भादवा चौदस आई, चम्पा नगरी मुक्ती पाई। आयु बहत्तर लारव वर्ष की, बीती सारी हर्ष धर्म की। और चोरानवें थे श्री मुनिवर, पहुँच गये वो भी सब शिवपुर । तभी वहाँ इन्दर सुर आये, उत्सव मिल निर्वाण मनाये । 35

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