Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 42
________________ भादों बदी सप्तमी गर्भाते, उतम सोलह स्वप्न आते ।। सुर चारों कायों के आये, नाटक गायन नृत्य दिखाये ।। सेवा में जो रही देवियाँ, रखती खुश माँ को दिन रतियां । जन्म सेठ बदी चौदश के दिन, घन्टे अनहद बजे गगन घन ।। तीनों ज्ञान लोक सुखदाता, मंगल सकल हर्ष गुण लाता ।। इन्द्र देव सुर सेवा करते, विद्या कला ज्ञान गुण बढ़ते ।। अंग-अंग सुन्दर मनमोहन, रत्न जड़ित तन वस्त्राभूषण ।। बल विक्रम यश वैभव काजा, जीते छहों खण्ड के राजा ।। न्यायवान दानी उपचारी, प्रजा हर्षित निर्भय सारी ।। दीन अनाथ दुखी नही कोई, होती उत्तम वस्तु वोई ।। ऊँचे आप आठ सौ गज थे, वदन स्वर्ण अरू चिन्ह हिरण थे ।। शक्ति ऐसी थी जिस्मानी, वरी हजार छानवें रानी ॥ लख चौरासी हाथी रथ थे, घोड़े करोङ अठारह शुभ थे। सहस पचास भूप के राजन, अरबो सेवा में सेवक जन ।। तीन करोड़ थी सुंदर गईयां, इच्छा पूर्ण करें नौ निधियां ।। चौदह रतन व चक्र सुदर्शन, उतम भोग वस्तुएं अनगिन ।। थी अड़तालीस कोङ ध्वजायें, कुंडल चंद्र सूर्य सम छाये ।। अमृत गर्भ नाम का भोजन, लाजवाब ऊंचा सिंहासन । लाखो मंदिर भवन सुसज्जित, नार सहित तुम जिसमें शोभित ।। जितना सुख था शांतिनाथ को, अनुभव होता ज्ञानवान को ।। चलें जिव जो त्याग धर्म पर, मिले ठाठ उनको ये सुखकर ।। पचीस सहस्त्रवर्ष सुख पाकर, उमङा त्याग हितंकर तुमपर ।। वैभव सब सपने सम माना, जग तुमने क्षणभंगुर जाना ।। ज्ञानोदय जो हुआ तुम्हारा, पाये शिवपुर भी संसारा ।। कामी मनुज काम को त्यागें, पापी पाप कर्म से भागे । सुत नारायण तख्त बिठाया, तिलक चढ़ा अभिषेक कराया । नाथ आपको बिठा पालकी, देव चले ले राह गगन की ॥ इत उत इन्दर चँवर ढुरवें, मंगल गाते वन पहुँचावें ।। 42

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