Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ तजा परिग्रह केश लौंच कर । ध्यान धरा पूरब को मुख कर ॥ धारण कर उस दिन उपवास । वन में ही फिर किया निवास ॥ आत्मशुद्धि का प्रबल प्रणाम । तत्क्षण हुआ मनः पर्याय ज्ञान ॥ प्रथमाहार हुआ मुनिवर का । धन्य हुआ जीवन सुरेन्द्र का ॥ पंचाश्चर्यो से देवो के । हुए प्रजाजन सुखी नगर के || चौदह वर्ष की आत्म सिद्धि । स्वयं ही उपजी केवल ऋद्धि ॥ कृष्ण चतुर्थी कार्तिक सार । समोशरण रचना हितकार ॥ खिरती सुखकारी जिनवाणी । निज भाषा में समझे प्राणी ॥ विषयभोग हैं भोगों से । काया घिरती है रोगो से ॥ जिनलिंग से निज को पहचानो । अपना शुद्धातम सरधानो ॥ दर्शन-ज्ञान-चरित्र बतावे । मोक्ष मार्ग एकत्व दिखाये ॥ जीवों का सन्मार्ग बताया । भव्यो का उद्धार कराया ॥ गणधर एक सौ पाँच प्रभु के । मुनिवर पन्द्रह सहस संघ के ॥ देवी - देव – मनुज बहुतेरे । सभा में थे तिर्यंच घनेरे ॥ एक महीना उम्र रही जब । पहुँच गए सम्मेद शिखर तब ।। अचल हुए खङगासन में प्रभु । कर्म नाश कर हुए स्वयम्भु ॥ चैत सुदी षष्ठी था न्यारी । धवल कूट की महिमा भारी || साठ लाख पूर्व का जीवन । पग में अश्व का था शुभ लक्षण ॥ चालीसा श्री सम्भवनाथ, पाठ करो श्रद्धा के साथ । मनवांछित सब पूरण होवे, जनम – मरन खोवे ॥ 17

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