Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 43
________________ भेष दिगम्बर अपना कीना, केश लोच पन मुष्ठी कीना । पूर्ण हुआ उपवास छटा जब, शुद्धाहार चले लेने तब ।। कर तीनों वैराग चिन्तवन, चारों ज्ञान किये सम्पादन । चार हाथ मग चलतें चलते, षट् कायिक की रक्षा करते ॥ मनहर मीठे वचन उचरते, प्राणिमात्र का दुखड़ा हरते ।। नाशवान काया यह प्यारी, इससे ही यह रिश्तेदारी ॥ इससे मात पिता सुत नारी, इसके कारण फिरो दुखारी ॥ गर यह तन प्यारा सगता, तरह तरह का रहेगा मिलता ॥ तज नेहा काया माया का, हो भरतार मोक्ष दारा का ॥ विषय भोग सब दुख का कारण, त्याग धर्म ही शिव के साधन । निधि लक्ष्मी जो कोई त्यागे, उसके पीछे पीछे भागे ॥ प्रेम रूप जो इसे बुलावे, उसके पास कभी नही आवे ॥ करने को जग का निस्तारा, छहों खण्ड का राज विसारा ॥ देवी देव सुरा सर आये, उत्तम तप कल्याण मनाये ॥ पूजन नृत्य करें नत मस्तक, गाई महिमा प्रेम पूर्वक । करते तुम आहार जहाँ पर, देव रतन वर्षाते उस घर ॥ जिस घर दान पात्र को मिलता, घर वह नित्य फूलता-फलता ॥ आठों गुण सिद्धों के ध्याकर, दशों धर्म चित काय तपाकर ॥ केवल ज्ञान आपने पाया, लाखों प्राणी पार लगाया ॥ समवशरण में धंवनि खिराई, प्राणी मात्र समझ में आई ॥ समवशरण प्रभु का जहाँ जाता, कोस चार सौ तक सुख पाता ॥ फूल फलादिक मेवा आती, हरी भरी खेती लहराती ॥ सेवा में छत्तिस थे गणधार, महिमा मुझसे क्या हो वर्णन ॥ कुल सर्प मृगहरी से प्राणी, प्रेम सहित मिल पीते पानी ।। आप चतुर्मुख विराजमान थे, मोक्ष मार्ग को दिव्यवान थे | करते आप विहार गगन में अन्तरिक्ष थे समवशरण || तीनो जगत आनन्दित किने, हित उपदेश हजारो दीने ॥ पौने लाख वर्ष हित कीना, उम्र रही जब एक महीना ॥ 43

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