Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 25
________________ ध्यान में लीन हुए तपधारी, तपकल्याणक करे सुर भारी ।। हुए एकाग्र श्री भगवान, तभी हुआ मनः पर्यय ज्ञान ॥ शुद्धाहार लिया जिनवर ने, सोमखेट भूपति के ग्रह में । वन में जा कर हुए ध्यानस्त, नौ वर्षों तक रहे छद्मस्थ । दो दिन का उपवास धार कर, तरू शिरीष तल बैठे जा कर ।। स्थिर हुए पर रहे सक्रिय, कर्मशत्रु चतुः किये निष्क्रय ।। क्षपक श्रेणी में हुए आरूढ़, ज्ञान केवली पाया गूढ । सुरपति ज्ञानोत्सव कीना, धनपति ने समो शरण रचीना ।। विराजे अधर सुपार्श्वस्वामी, दिव्यध्वनि खिरती अभिरामी ।। यदि चाहो अक्ष्य सुखपाना, कर्माश्रव तज संवर करना । अविपाक निर्जरा को करके, शिवसुख पाओ उद्यम करके ।। चतुः दर्शन – ज्ञान अष्ट बतायें, तेरह विधि चारित्र सुनायें । सब देशो में हुआ विहार, भव्यो को किया भव से पार ।। एक महिना उम्र रही जब, शैल सम्मेद पे, किया उग्र तप ।। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी आई, मुक्ती महल पहुँचे जिनराई ।। निर्वाणोत्सव को सुर आये । कूट प्रभास की महिमा गाये । स्वास्तिक चिन्ह सहित जिनराज, पार करें भव सिन्धु – जहाज ।। जो भी प्रभु का ध्यान लगाते, उनके सब संकट कट जाते ।। चालीसा सुपार्श्व स्वामी का, मान हरे क्रोधी कामी का । जिन मंदिर में जा कर पढ़ना, प्रभु का मन से नाम सुमरना ।। हमको है दृढ़ विश्वास, पूरण होवे सबकी आस । 25

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