Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 55
________________ दशमी असाढ़ मास की कारी, सहस नृपति संग दीक्षाधारी । दो दिन का उपवास धारकर, आतम लीन हुए श्री प्रभुवर । तीसरे दिन जब किया विहार, भूप वीरपुर दें आहार । नौ वर्षों तक तप किया वन में, एक दिन मौलि श्री तरु तल में । अनुभूति हुई दिव्याभास, शुक्ल एकादशी मंगसिर मास । नमिनाथ हुए ज्ञान के सागर, ज्ञानोत्सव करते सुर आकर । समोशरण था सभा विभूषित, मानस्तम्भ थे चार सुशोभित । हुआ मौनभंग दिव्य धवनि से, सब दुख दूर हुए अवनि से । आत्म पदार्थ से सत्ता सिद्ध, करता तन ने 'अहम्' प्रसिद्ध । बाह्योन्द्रियों में करण के द्वारा, अनुभव से कर्ता स्वीकारा । पर...परिणति से ही यह जीव, चतुर्गति में भ्रमे सदीव। रहे नरक-सागर पर्यन्त, सहे भूख – प्यास तिर्यन्च । हुआ मनुज तो भी सक्लेश, देवों में भी ईष्या-द्वेष । नहीं सुखों का कहीं ठिकाना, सच्चा सुख तो मोक्ष में माना। मोक्ष गति का द्वार है एक, नरभव से ही पाये नेक । सुन कर मगन हुए सब सुरगण, व्रत धारण करते श्रावक जन । हुआ विहार जहाँ भी प्रभु का, हुआ वहीं कल्याण सभी का। करते रहे विहार जिनेश, एक मास रही आयु शेष। शिखर सम्मेद के ऊपर जाकर, प्रतिमा योग धरा हर्षा कर । शुक्ल ध्यान की अग्नि प्रजारी, हने अघाति कर्म दुखकारी । अजर... अमर... शाश्वत पद पाया, सुर- नर सबका मन हर्षाया। शुभ निर्वाण महोत्सव करते, कूट मित्रधर पूजन करते। प्रभु हैं नीलकमल से अलंकृत, हम हों उत्तम फल से उपकृत । नमिनाथ स्वामी जगवन्दन, 'रमेश' करता प्रभु- अभिवन्दन । जापः ... ॐ ह्रीं अर्ह श्री नमिनाथाय नमः 55

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