Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 19
________________ इक दिन देखे मेघ अम्बर में, मेघ महल बनते पल भर में || हुए विलीन पवन चलने से, उदासीन हो गए जगत से ॥ राजपाट निज सुत को सौंपा, मन में समता - वृक्ष को रोपा ॥ गए उग्र नामक उध्य़ान, दीक्षीत हुए वहाँ गुणखान ॥ शुक्ला द्धादशी थी माघ मास, दो दिन का धारा उपवास ।। तिसरे दिन फिर किया विहार, इन्द्रदत नृपने दिया आहार ॥ वर्ष अठारह किया घोर तप, सहे शीत - वर्षा और आतप । एक दिन असन वृक्ष के निचे, ध्यान वृष्टि से आतम सींचे ॥ उदय हुआ केवल दिनकर का, लोका लोक ज्ञान में इसका ॥ हुई तब समोशरण की रचना, खिरी प्रभु की दिव्य देशना ।। जीवाजीव और धर्माधर्म, आकाश - काल षटद्रव्य मर्म ॥ जीव द्रव्य ही सारभूत है, स्वयंसिद्ध ही परमपूत है ॥ रूप तीन लोक - समझाया, ऊध्र्व मध्य - अधोलोक बताया । नीचे नरक बताए सात, भुगते पापी अपने पाप ।। ऊपर सओसह सवर्ग सुजान, चतुनिर्काय देव विमान ॥ मध्य लोक में द्धीप असँख्य, ढाई द्धीप में जायें भव्य ॥ भटको को सन्मार्ग दिखाया, भव्यो को भव - पार लगाया ॥ पहुँचे गढ़ सम्मेद अन्त में, प्रितमा योग धरा एकान्त में ॥ शुक्लध्यान में लीन हुए तब, कर्म प्रकृती क्षीण हुई सब ॥ वैसाख शुक्ला षष्ठी पुण्यवान, प्रातः प्रभु का हुआ निर्वाण ॥ मोक्ष कल्याणक करें सुर आकर, आनन्दकूट पूजें हर्षाकर ॥ चालीसा श्रीजिन अभिनन्दन, दर करे सबके भवक्रन्दन ॥ तुम हो पापनिकन्दन, हम सब करते शत-शत वन्दन ॥ स्वामी — 19

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