Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 49
________________ प्रासुक शुद्धाहार कराये, पंचाश्चर्य देव कराये। कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहैं आत्म चिन्तन में । कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराज्ञे आम्र वृक्ष - तल । अन्तर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई । देव करें उत्सव अति भव्य, समोशरण को रचना दिव्य । सोलह वर्ष का मौनभंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर । चौदह गुणस्थान बताये, मोह - काय - योग दर्शाये । सत्तावन आश्रव बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये । संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ । हुए प्रबुद्ध सभी नर- नारी, दीक्षा व्रत धरि बहु भारी । कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्द्ध लक्ष थे सकल मुनीश । सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूर-दूर तक हुआ विहार । एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनिसंग गए सम्मेद । चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन । नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव - चक्री... . जिनदेव | जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धर्म समीचीन । प्राणी मात्र का जैन धर्मं है, जैन धर्म ही परम धर्म हैं । पंचेन्द्रियों को जीतें जो नर, जिनेन्द्रिय वे वनते जिनवर । त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग में ही सब सुख हों भाई । त्याग कर सकें केवल मानव, हैं सक्षम सब देव और मानव । हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बन्धन में पीडा मन लाई । हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घातिया । जिनके चररणों में धरें, शीश सभी नरनाथ । हम सब पूजे उन्हें, कृपा करें अरहनाथ । जाप: - ॐ ह्रीं अर्हं श्री अरहनाथाय नमः 49

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