Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ वाद विवाद मिटाने हेतु । अनेकांत का बाँधा सेतु ।। है सापेक्ष यहा सब तत्व । अन्योन्याश्रित है उन सत्व ।। सब जिवो में है जो आतम । वे भी हो सक्ते शुद्धात्म ।। ध्यान अग्नि का ताप मिले जब । केवल ज्ञान की की ज्योति जले तब ।। मोक्ष मार्ग तो बहुत सरल है। लेकिन राहीहुए विरल है ।। हीरा तो सब ले नही पावे । सब्जी भाजी भीङ धरावे ।। दिव्यध्वनि सुन कर जिनवर की। खिली कली जन जन के मन की। प्राप्ति कर सम्यग्दर्शन की । बगिया महकी भव्य जनो की । हिंसक पशु भी समता धारे । जन्म जन्म का का वैर निवारे ।। पूर्ण प्रभावना हुई धर्म की । भावना शुद्ध हुई भविजन की । दुर दुर तक हुआ विहार । सदाचार का हुआ प्रचार ।। एक माह की उम्र रही जब । गए शिखर सम्मेद प्रभु तब ।। अखण्ङ मौन मुद्रा की धारण । कर्म अघाती हेतु निवारण ।। शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप । लोक शिखर पर पहुँचे आप ॥ सिद्धवर कुट की भारी महिमा । गाते सब प्रभु के गुण - गरिमा । विजित किए श्री अजित ने । अष्ट कर्म बलवान ।। निहित आत्मगुण अमित है , अरूणा सुख की खान ।। 15

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68