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3. पर मेरा कर्ता है या में पर का कर्ता हूँ ऐसा मानना । ज्ञातव्य है कि गीता में श्रीकृष्ण ने
अर्जुन को सभी मोह प्रकार के मिथ्यात्व से दूर किया था ।
4. देवी देवता मेरा कल्याण कर सकते हैं ऐसा श्रद्धान
5. पदार्थ में अच्छे बुरे का श्रद्दान अर्थात् पदार्थ अच्छा है या बुरा
6. कुदेवों में देव बुद्धि का श्रद्धा
7. कुधर्म में धर्म मानना
दृष्टि- जब तक वासना का यम रूप से त्याग न किया जावे तब तक वह नियम से अपना फल देगी। ये वासनाएं मन हृदय का विषय हैं। एक व्रती और अव्रती की समान क्रियाओं में भावनाएं अलग हो सकतीं हैं (श्रावक की भक्ति व मुनि की भक्ति ) जिससे कर्म बंध भी अलग-अलग होता है। (लेश्या को लेकर भी इसकी स्पष्टता की जा सकती है) प्राणी को काटता एक कसाई जीव को काटता तथा डाक्टर मनुष्य के आपरेशन समान क्रिया करता है तो यहाँ भावों की तीव्रता उसी उद्देश्यानुरूप होती है आलोचना पाठ में कहा गया है- विपरीत एकांत विनय के संशय आज्ञान कुनय के इसका भावार्थ है
एकान्तिक अवधारणा पक्षपातपूर्ण, पूर्वाग्रह मोह से प्रेरित एक पक्षीय अवधारणा ।
विपरीत धारणा- जो सत्याचरण से प्रथक हैं।
वैनयिकता- रूढ़िवादी परम्पराओं से बँधी हुई विनय ।
संशय- जिन वचनों में शंका करना।
अज्ञान- विवेक रहित
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म में रागादिक भावों में श्रद्धा रखने वाला
इस गुणस्थान के उत्तरार्ध में सम्यक्त्व अभिलाषी जीव हो सकते हैं इस दृष्टि से मिथ्यात्व नामक प्रथम श्रेणी को गुणस्थान कहा है।
इसमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, भवाभिनन्दी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव आते
हैं।
अभव्य आश्रयी मिथ्यात्वी का काल अनादि अनन्त है तथा भव्य मिथ्यात्वी जीव की दो कालावधि- अनादि सन्त और सादि सन्त है।
मिथ्यात्व गुणस्थान से नीचे किसी गुणस्थान का अस्तित्व नहीं है। मिथ्यात्व गुणस्थान के दो भेद हैं- तात्त्विक और अतात्त्विक ।
पं. दौलतरामजी ने छः ढाला में मिथ्यादृष्टि जीव के निम्न लिखित लक्षण कहे हैंऐसे मिथ्यादृग ज्ञान चरण वश भ्रमत भरत दुख जन्म मरण छ ढा. 211 अर्थात् जीव मिथ्या दर्शन मिथ्या ज्ञान व मिथ्या चारित्र के वशीभूत होकर संसार में परिभ्रमण करता है ।। जीवादि सात तत्वों के विपरीत श्रद्धान अग्रहीत मिथ्यादर्शन है, कुगुरु, कुदेव व कुधर्म की सेवा गृहीत मिथ्यादर्शन है। जो दर्शन मोहनीय कर्म को मजबूत कर सकता है। इनसे सम्बन्धित एकान्त दूषित निन्दनीय, विषय-वासना से पोषित ज्ञानादि का
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