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(13) संजी मार्गणा
असण्णि अमणपंचिंदियंत सण्णी 3 समण छउमत्था। नोसण्णिनो असण्णी केवलनाणी 3 विण्णेआ||81||जीवसमास
मीमांसादि जो पूव्वं कज्जं च तच्च मिदरमं च।
सिक्खादि णामेणेदि य सो समणो असमणो यं विवरीदो।।221|| धवला समझ व विवेक की दृष्टि से जीवों के दो भेद हैं- संज्ञी व असंज्ञी। असंज्ञी जीवों में मन रहित पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव समाहित होते हैं। असंज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि व सास्वादन गुणस्थान में ही संभव है। संज्ञी जीवों में मनसहित छद्मस्थ जीव समाहित हैं। संज्ञी(समनस्क) जीव मिथ्यादृष्टि से क्षीणमोह गुणस्थान तक संभव हैं। सयोग केवली व अयोग केवली विचार की अपेक्षा से न तो संज्ञी हैं और न ही असंज्ञी वे मात्र साक्षी भाव में ही रहते हैं क्योंकि वहाँ विचार विकल्प का अभाव है। (13) आहार मार्गणा
विग्गहइमावन्ना केवलिणो समुहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आराहरगा जीव।।82||जीवसमास
णोक्कम कम्महारो कवलाहारो य लेप्पहारो।
ओ ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहोणेओ।।222||धवला विग्रह गति कर रहे जीव, केवलीसमुद्घात कर रहे केवली, अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं तथा शेष सभी जीव आहारक। नौ कर्म आहार,कर्म आहार, ओजाहार, लेपाहार,मानसिक आहार और कवलाहार ये छः प्रकार के आहार हैं। सभी परम औदारिक शरीरधारियों केवलिओं के नो कर्म आहार होते हैं। सभी नारकियों का कर्म फल को भोगना ही कर्म आहार है।सभी देवों के मानसिक आहार होता है। सभी मनुष्यों व त्रियंचों के कवलाहार होता है। जो पक्षी अपने शरीर की गर्मी से अण्डे सेती हैं उसे ओजाहार कहते हैं एकेन्द्रिय जीवों के लेपाहार होता है।
णोक्कम तित्थयरे कम्मं णारये णाणसो अमरे।
कवलाहारो णरपशु उजजो पक्खाणि इगि लेपो।। धवला जो आहार ग्रहण करें वे आहारक तथा इसके विपरीतजीव अनाहारक कहलाते हैं। विग्रहगति( एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने वाला यात्री जीव), केवली समुद्घात करने वाले (संलेखना- समाधिमरण) केवली, अयोग केवली व सिद्ध अनाहारक जीव व शेष आहारक जीव माने गये हैं। मिथ्यादृष्टि, सास्वादन व अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले जीव विग्रह गति में यात्रा कम करते समय ही अनाहारक रहते हैं शेष समय में आहारक होते हैं। सयोग केवली गुणस्थान में समुदघआत करने वाला जीव इसके तासरे, चौथे और पाँचवें समय में अनाहारक होता है। अयोग केवली जीव अनाहारक है। आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से सयोग केवली गुणस्थान संभव है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा में सयोग केवली कवलाहार नहीं करता जबकि श्वेताम्बर परम्परा में इसके विपरीत विधान है। (तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि
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