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इस श्रेणी का साधक 28 कर्म प्रकृतियों का क्षय कर चुका होता है इसलिए इस गुणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहा जाता है। यह नैतिक व चारित्रिक विकास की पूर्ण अवस्था है जहाँ नैतिक-अनैतिकता के मध्य संघर्ष समाप्त हो जाता है। नैतिक पूर्णता की यह अवस्था यथाख्याति चारित्र है। मोह कर्म जो कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति कहा जाता है, के नष्ट होने के पश्चात थोड़े ही समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अन्तराय ये तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं तथा साधक अनन्त दर्शन अन्नत ज्ञान व अन्नत (वीर्य) चारित्र शक्ति से युक्त होकर विकास की अग्रिम श्रेणी में चला जाता है। विकास का यह प्रतिमान पतन के भय से मुक्त होता है जिससे साधक विशुद्ध आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश पा जाता है।
समस्त कर्म प्रकृतियों के क्षय की अवस्था । इसके बाद आत्मा का पतन नहीं होता ।
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इस
गुणस्था में आत्मा कर्म क्षय करके क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है। और घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है।
नोट- 1- यदि पूर्व में आयुष्य बंध नही होता है तो चरम शरीरी आत्मा चतुर्थ अव सम्यग्दृष्टि में एकायुष्य का बंध करती है तथा पाँचवें में त्रियंचायु का, सातवें में देवायुष्य एवं दर्शन मोहनीय की सात कर्म प्रकृतियो का । क्षपक श्रेणी की प्रक्रिया महायोग की साधना है। यदि पूर्व में क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है तो सातवें गुणस्थान में आत्मा अनंतानुबंधी 4 कषाय एवं दर्शनत्रिक रूप 7 कर्म प्रकृतियों का क्षय करती है। शुक्लध्यान के लिए निष्प्रकंप और दृढ़ वर्यकासन जरूरी है। शाश्वत जिन प्रतिमाएं इसी आसन में होती है। 13. सयोग केवली गुणस्थान
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इस गुणस्थान में साधक साधक नहीं रहता क्योंकि उसके लिए साधना हेतु अब कुछ शेष नहीं रह जाता है। आत्म पुरुषार्थ से वह 4 घातिया कर्मों ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय का तो क्षय कर चुका है और अब उसके 4 अघातिया कर्मों- आयु, नाम, गोत्र व अन्तराय का क्षय देह के परित्याग होने तक शेष रहता है। योग (मन, वचन व काय) के अतिरिक्त बन्ध के 4 कारण मिथ्यात्व अविरत कषाय व प्रमाद समाप्त हो चुके होते हैं।
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योग के चलते बन्ध तो होता है किन्तु कषायादि के अभाव में वह क्षणिक ही रहता है और उसकी निर्जरा भी तुरंत हो जाती है एक औपचारिकता की तरह । योग की उपस्थिति के कारण ही इस गुणस्थान के धारक को सयोग केवली कहा जाता है। इस अवस्था में ध्यान ध्याता व ध्येय के मध्य कोई भेद नहीं रह जाता।
इस गुणस्थान में शरीर सम्बन्ध बने रहने से शारीरिक उपाधियां तो बनी रहती हैं किन्तु आत्मा न्हें समाप्त करने का प्रयास ही नहीं करता। 12वें गुणस्थान में साधक की समस्त इच्छाएं समाप्त हो चुकी होती हैं वह न तो जीने की चाहना करता है और न ही मृत्यु की आकांक्षा । दूसरी बात यह है कि साधना के द्वारा केवल उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है जो उदय में नहीं आए हैं अर्थात् उनका फल विपाक आरम्भ नहीं हुआ है। जिन कर्मों का फल भोग आरम्भ हो जाता है उन्हें मध्यावस्था में क्षीण नहीं किया जा सकता। वैदान्तिक विचारणा में भी यह तथ्य स्वीकृत है। श्री लोकमान्य तिलक लिखते हैं कि जिन
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