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3- तृतीय गुणस्थान का काल- जघन्य काल, जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट काल- उत्कृष्ट
अन्तर्मुहूर्त। 4- चतुर्थ गुणस्थान का काल- उत्कृष्ट काल तेतीस सागर, जघन्य काल- अन्तर्मुहूर्त।
औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा उत्कृष्ट और जघन्य काल- मध्यम अन्तर्मुहुर्त। क्षयोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा- उत्कृष्ट काल- 66 सागर जघन्य काल- अन्तर्मुहुर्त। क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा- उत्कृष्ट काल- सादि अनन्त काल। संसारी जीव की अपेक्षा
उत्कृष्ट काल- आठ वर्ष एक अन्तर्मुहूर्त कम दो कोटि पूर्व सहित 33 सागर। 5- पंचम गुणस्थान काल- जघन्य काल- अन्तर्महर्त उत्कृष्ट काल मनुष्य की अपेक्षा- आठ ___ वर्ष एक अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष। 6- सातवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक (मरण की अपेक्षा) उत्कृष्ट काल- अन्तर्मुहूर्त- जघन्य
काल- एक समय। 7- बारहवां गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। 8- तेरहवें गुणस्थान का काल- उत्कृष्ट- आठवर्ष- आठ अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटि वर्ष
प्रमाण जघन्य काल- अन्तर्मुहूर्त। 9- चौदहवें गुणस्थान का काल उत्कृष्ट एवं जघन्य काल- अन्तर्मुहूर्त। गुणस्थानों के संदर्भ में कषायों की काल मर्यादा1. अनन्तानुबंधी कषाय- अधिकतम जीवन पर्यन्त रहती है तथा अनन्त संसार का अनुबंध
करती है। 2. अप्रत्याख्यानीय कषाय- अधिकतम 12 मास तक सतत चलता है। 3. प्रत्याख्यानीय कषाय- का उदय अधिकतम 4 मास तक सतत रहता है। 4. संज्वलन कषाय- अदिकतम 15 दिनों तक रहता है। 5. स्व- स्वभाव को त्याग कर विभावदशा को प्राप्त करना प्रमाद है । ये प्रमाद 5 प्रकार
के हैं- मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और चिंतन। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नौ कषाय का उदय होने से आर्तध्यान की मुख्यता रहती है।
ये नौ कषाय ही प्रमाद का मुख्य कारण हैं। गुणस्थानो में शुद्ध परिणति की स्थिति1. राग- दवेष परिणामों से रहित जीव के चरित्र गण का वीतराग भाव रूप परिणमन के
वीतराग परिणाम को शुद्ध परिणति कहते हैं। 2. कषाय के अनुदय से व्यक्त अर्थात् विरक्त वीतराग अवस्था को शुद्ध परिणति कहते
3. जब तक साधक आत्मा की वीतरागता पूर्ण नहीं होती तब तक साधक आत्मा में
शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के साथ कषाय के अनुदय पूर्वक जो शुद्धता सदैव बनी रहती है उसे शुद्ध परिणति कहते हैं। जैसे- चौथे और पाँचवे गुणस्थान में जब साधक बुद्धि पूर्वक शुभोपयोग या अशुभोपयोग में संलग्न रहते हैं तब इस शुद्ध