________________
अध्याय-4
गुणस्थान व अनुयोग द्वार चिन्तन
भवभावपरित्तीणं कालविभागं कमेणणुगमित्ता।
भावेण समुवउत्तो एवं कुज्जतराणुगम।। 263।। जीवसमास। संसार में परिभ्रमण कराने वाली जीव की विभिन्न अवस्थाएं हैं इनका चिन्तन द्वारों के माध्यम से किया जाता है। जीवसमास ग्रंथ जिसमें 287 प्राकृत गाथाएं हैं वे आठ द्वारों में ही विभक्त हैं- सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यपरिमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व। उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के 8वें सूत्र में कहा है
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहत्त्वैश्च।। यहाँ सत- वस्त के अस्तितिव को सत कहा जाता है। संख्या- वस्तु के परिमाम की गिनती को संख्या कहा जाता है। क्षेत्र- वस्तु के वर्तमान काल के निवास को क्षेत्र कहते हैं। स्पर्शन- वस्तु के तीनों काल सम्बन्धी निवास को स्पर्शन कहते हैं। काल- वस्तु के ठहरने की मर्यादा को काल कहते हैं। अन्तर- वस्तु के विरह काल को अन्तर कहते हैं। भाव- औपशमिक, क्षायिक ओदि परिणामों को भाव कहते हैं। अल्पबहुत्व- अन्य पदार्थों की अपेक्षा से किसी वस्तु की हीनाधिकता का वर्णन करने को अल्पबहुत्व कहते है। सत्प्ररूपणा द्वार में जीव व गुणस्थानक स्थितियों का वर्णन है। दूसरा परिमाण द्वार है इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव ये चार विभाग हैं। पुनः द्रव्य अर्थात् संख्या विभाग के मान, उन्मान, अवमान, गनिम और प्रतिमान विभाग डो तौल माप से सम्बन्धित हैं, क्षेत्र परिमाण के अन्तर्गत अंगुल, विलस्ति(वितस्ति), कुक्षी, धनुष, गाऊ, श्रेणी आदि पैमानों की चर्चा है। इसी क्रम में अंगुल के निम्न भेद किए हैं- उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। इसके पुनः भेदों में सूच्यंगल, प्रतरागुंल व घनांगुल ऐसे तीन-तीन भेग किए है। सूक्ष्म क्षेत्रमाप के अन्तर्गत परमाण, उर्ध्वरेण, त्रसरेण, बालाग्र, लीख, जें और जव क चर्चा है। 6 अंगल से एक पाद, 2 पाद से एक विलस्ति(वितस्ति) तथा 2 विलस्ति(वितस्ति) का एक हाथ, 4 हाथों का एक धनुष, 2000 हाथ या 500 धनुष का एक गाउ (कोश) होता है और 4 गाउ का एक योजन होता है। काल की सूक्ष्म इकाई समय है। अयंख्य समय की एक अवलिका होती है। संख्यात अवलिका का एक श्वासोच्छवास या प्राण होता है। सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोक का एक लव होता है। साढे अड़तीस सव की एक नलिका होती है। दो नलिकाओं का एक मुहूर्त
18