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मास्लो आवश्यकता-क्रम विचारधारा में स्पष्टता करते हैं कि आवश्यकताएं कई प्रकार की होती हैं जिन्हें उन्होंने उपरोक्त पाँच विभागों में श्रेणीकृत किया है। आपका मत है कि व्यक्ति एक नियत क्रम में ही अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु उद्यत होता है। निम्नस्तरीय अर्थात बुनियादी देहिक आवश्यकताएं उसके प्राथमिक क्रम में रहती हैं उसके पश्चात वह अपनी उच्च आवश्यकताओं ( आवश्यक, प्रतिष्ठापरक एवं आत्म संतुष्टी ) की ओर अग्रसर होता है। इस विकास यात्रा पथ में वह स्व से सर्व की ओर गति करता हुआ निर्लिप्त व निर्विकारी निजात्म पर पहुँचने हेतु पुरुषार्थबद्ध हो जाता है। ज्यों-ज्यों ऊपरी आवश्यकताएं प्रेरणा का स्रोत बनती हैं त्यों-त्यों उसके भौतिक परिमाण में कमी होती जाती है। स्व से सर्व एवं पुनः स्व की ओर उन्मुखता कुछ इस तरह चक्रित होती है
(सांसारिकतालक्षी) स्व => सर्व _=> स्व (निजात्म केन्द्रित) आरम्भिक स्व की अवस्था वह अयथार्थ बाह्य प्रतिरूपण है जहाँ व्यक्ति अपने नियत दायरों में ही सिमटा रहता है एवं जिसमें भौतिकवादिता, स्वार्थपरिता तथा राग-द्वेषी आकांक्षाएं प्रमुख प्रेरक होती हैं। इसकी तुलना मिथ्यात्वी व मिश्र गुणस्थानक विशिष्टताओं से कर सकते हैं। सर्व को कल्याणकारी अवस्था का प्रतीक माना जा सकता है। जीव यहाँ परहित व शुभ प्रवृत्तियों में रत होकर यद्यपि विकास के कुछ सोपान अवश्य चढ़ता है किन्तु विशुद्धि मार्ग को प्राप्त नहीं हो पाता। इसमें एक मिश्र रूप परिलक्षित होता है। इसकी तुलना बाह्य शुद्धि की विशिष्टता वाले पाँचवें-छठवें गुणस्थान से कर सकते हैं। अंतिम स्व परमात्म स्वरूप की सिद्धि हेतु आत्म प्रदेशों को यद्यपि नियत दायरे में ही समेट लेता है किन्तु यहाँ कषाय व राग-द्वेषादि परिणाम नहीं होते। इसीलिए यहाँ साधक निजात्म की ओर आन्तरिक रूप से स्व केन्द्रित होकर यथार्थ बोध को प्राप्त हो पाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ये तीनों अवस्थाएं प्रथक रूप के अभिप्रेरक हैं। गुणस्थान आध्यात्मिक विकास यात्रा के सोपानों से यदि इसकी तुलना करें तो हम कह सकते हैं कि प्रथम दो अवस्थाएं सम्यकत्व के नीचे वाले गुणस्थान से सरोकार रखती हैं जो भौतिकता व सांसारिकता का विषय है । सामाजिकता या परमार्थलक्षी आवश्यकताओं के तहत व्यक्ति उन क्रियाओं को करने में हर्ष का अनुभव करता है जो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करती हैं। पाँचवे- छठे गुणस्थान से जुड़े वे शुभ बाह्य आचरण इस श्रेणी में आ सकते हैं जिन्हें समाज आदर की दृष्टि से देखता है। अंतिम दो अवस्थाएं पूर्णतः मन का विषय हैं अर्थात मानसिक संतुष्टि का हिस्सा हैं। अहम् दैहिक आवश्यकताओं से परे आत्मिक पुरुषार्थ तो है किन्तु निर्लिप्त नहीं है इसलिए यह अवस्था छटवे गुणस्थान के उत्तरार्द्ध व सातवें गुणस्थान के पूवार्द्ध समान प्रतीत होती है। अंतिम आत्म- विकास इन सांसारिक भावों से
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