Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 95
________________ निश्चित रूप से नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है। उसका गिरना दो प्रकार से होता है - काल क्षय और भव क्षय | जो काल क्षय से गिरता है वह दस, नौ, आठ और सातवें गुणस्थान में क्रम से आता है और जो भव क्षय से गिरता है वह सीधा चौथे गुणस्थान में आता है या प्रथम गुणस्थान में भी जा सकता है। गो.जी. गा.61|| इस गुणस्थान में बंध की अपेक्षा से मात्र-2, सातावेदनीय का बंध सम्भव है। सत्ता की अपेक्षा से अधिकतम 148 और न्यूनतम उपशम श्रेणी में 139 कर्म प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। उदय की दृष्टि से 59 (पूर्व गुणस्थान से सूक्ष्म लोभ कम होता है) और उदीरणा की अपेक्षा से56 कर्म प्रकृतियाँ संभव है। 12- क्षीणमोह गुणस्थान व कर्म सिद्धान्त _मोहनीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने पर इस गुणस्थान की प्राप्ति होती है। सर्व कर्म रहित होने से आत्मा वीतरागी बन जाती है। इस गुणस्थान की प्राप्ति क्षपक श्रेणी वाले गुणस्थानकवर्ती को होती है। इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है। यहाँ से मोक्ष निश्चय है। अन्य शब्दों में जिनकी कषाएं सर्वथा समूल क्षीण हो गयीं हैं, जो क्षीण कषाय होते हुये वीतराग हैं उन्हें क्षीण कषाय वीतराग कहते हैं । जस्सेस खीणमोहो भायणदय समचित्तो। खीण कसाओ भण्णदि णिंग्योवीयरायेहि।।गो.जी.गा. 62|| जिस निर्ग्रन्थ का मन मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है उसको वीतराग देव ने क्षीणकषाय नाम का बारहवाँ गुणस्थानवर्ती साधक कहा है। इसमें भी बंध की अपेक्षा से मात्र साता वेदनीय का ही बंध संभव है तथापि सत्ता की अपेक्षा से 101 और न्यूनतम 99 कर्म प्रकृतियां संभव है। ज्ञानावरण की-5, दर्शनावरण की-6 या 4, वेदनीय की-2, आयु की-1, नामकर्म की-80, गोत्र की-2, अन्तराय की-51 उपशम श्रेणी वाला जीव इस गणस्थान को स्पर्श ही नहीं करता। मात्र क्षपक श्रेणी वाला जीव ही यहाँ पहँचता है।उदय और उदीरणा की अपेक्षा से प्रारम्भ में 57(बृषभ एवं नाराचं संहनन-2 ये पूर्व के 57 में कम हैं) तथा उदीरणा की अपेक्षा से 54 कर्म प्रकृतियां शेष रहती हैं । अन्त में निद्राद्विक की अपेक्षा से 55 कर्म प्रकृतियों का उदय व 52 कर्म प्रकृतियों की उदीरणा संभव है। गणस्थान में बंध सम्बधी नियम1- मिथ्यात्व की प्रधानता से 16 प्रकृतियों (मित्यात्व हुंडक संस्थान, नपुसंकवेद,असंमप्राप्त, सृपटिका, संहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, अल्पसूक्ष्म, अपर्याप्तिक, साधारण वि इन्द्रिय,त्रि इन्द्रिय, चर्तुरिन्द्रिय, नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु) का बंध होता है। 2- अनंतानुबंधी कषाय जनित अविरति से 25 प्रकृतियों ( अनंतानुबंधी चार, सत्यानुगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, कीलित 95

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