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5. क्षायिक सम्यग्दृष्टि और द्वितियोपशम सम्यग्दृष्टि जीव पात्र है। जबकि प्रथमोपशम
सम्यक्त्व वाला तथा क्षायोपशम सम्यकत्वी पात्र नहीं है। 6. श्रेणी- चारित्र मोहनीय कर्म की शेष 21 कर्म प्रकृतियों का क्षय / उपशम इस दृष्टि से
दो भेद हैंक्षय /क्षायिक श्रेणी = जो क्षय के चलते मिलती है उपशम श्रेणी = जो उपशम के चलते मिलती है। उपशम श्रेणी के गुणस्थान - आठवां, नवमां, दसवां और ग्यारहवां गुणस्थान (4) तथा
क्षपक श्रेणी के आठवां, नवमां, दसवा और बारहवां (4) गुणस्थान हैं। 7. आठवें गुणस्थानवी जीव के भावी पर्याय में वर्तमान पर्याय का आरोप कर लेने से
क्षपक और उपशम की सिद्धि व्यवहार से हो जाती है इसलिए इस गुणस्थान में कर्मों का क्षय व उपशम न होने पर भी इस गुणस्थानवर्ती को क्षपक या उपशमक कहा
जाता है। 8. नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का काल मात्र अन्तर्मुहूर्त का है यहाँ जीवों में एक
समान, विशुद्ध निर्मल परिणाम (ध्यान रूप अग्नि की शिखाओं से कर्म वन को भस्म
करना) होते हैं। धवल ग्रंथ- पृष्ठ- 187 ।। 9. सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में पाँचों भावों में से यथार्थ भाव है- औदायिक
भाव- गति, लेश्या, असिद्धत्व अर्थात् प्रदेशत्व गुण, क्रिया गुण, योग गुण, अव्याबाध गुण, अवगाहन गुण,अगुरुलघू गुण और सूक्ष्मत्व गुण। ये सम्पूर्ण रूप से विकारी भावों
का परिणमन करते हैं। 10. उपशम व क्षायिक भाव से अनेक जीवों के श्रद्धा गुण का परिणमन होता है 11. क्षयोपशम भाव के परिणमन से ज्ञानगुण, दर्शन गुण, वीर्य गुण तथा चारित्र गुण होते
12. पारिणामिक भावों के चलते जीवत्व व भव्यत्व का परिणमन होता है 13. सयोगकेवली नामक 13वें गुणस्थान में जीव केवलज्ञान से युत हो जाता है वहाँ उसकी
वाणी खिरती है जिसे भषा विशेष न कहकर ध्वनि कहा जाता है। दस अष्ट महा भाषा
समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत। 14. केवली भगवन्त जीव को( पुण्यापुण्य का अभाव होने से) भाव उदीरणा नहीं होती
क्योंकि परिषहों को जीतना भी राग का परिणाम है। इस गुणस्थानवर्ती के रागादि
समस्त भावों का अभाव होता है। 15. केवली जीव कवलाहार (किसी भी प्रकार की आहार) नहीं करता।
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