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कर्म प्रकृतियों में से 27 कर्म प्रकृतियों का क्षय करके साधक इस गुणस्थान में पहुँचा है। लोभ का सूक्ष्म अंश होने के कारण ही इसका नाम सम्पराय है। अवचेतनरूप में शरीर के प्रति जो राग रहा हुआ है उसे सूक्ष्म लोभ के संदर्भ में समझा जा सकता है ऐसा मत डॉ. टाटिया रखते हैं। इस गुणस्थान में आत्मा मात्र संज्वलन लोभ के कुछ अंशों को छोड़कर शेष सभी कषायों का उपशमन अथवा क्षयण करती है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सूक्ष्म अंशों का संवेदन (उपशम या क्षय के द्वारा) होता है। क्षय या क्षपक के द्वारा आगे बढ़ने से सीधा 12वां गुणस्थान आरूढ़ होता है जबकि उपशम में 11वां। इस गुणस्थान की स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त काल की होती है। 11. उपशान्त मोह गणस्थानयदि साधक ने बचे हुए सूक्ष्म लोभ को उपशान्त कर दिया है तो वह उपशान्त मोह नामक
है लेकिन आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर साधक के लिए यह अवस्था बड़ी ही खतरनाक होती है। यद्यपि नैतिक विकास की यह एक उत्कृष्ट अवस्था है (इसमें सुक्ष्म लोभ का उपशम ही होता है) तथापि निर्वाण के साथ संयोजित न होने के कारण साधक का यहाँ से लौटना अनिवार्य होता है। अर्थात् यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है जिसमें पतन निश्चित है। ज्ञात है कि क्षायिक विधि में वासनाओं को नष्ट करके ही आगे बढ़ा जाता है, उपशम में दमन करके आगे बढ़ता है जबकि क्षयोपशम दोनों का सम्मिलित रूप है जिसमें साधक आंशिक रूप से क्षय करता है तथा आंशिक रूप से उपशम या दमन।
सातवें गुणस्थान तक साधक इन तीनों विधियों का उपयोग कर लेता है। आठवें गुणस्थान में तीसरा संयुक्त स्वरूप समाप्त हो जाता है वह केवल क्षय या उपशम में से किसी एक विधि का उपयोग करता है। उपशम या निरोध साधना का सच्चा मार्ग नहीं है क्योंकि यदि दुष्प्रवृत्तियां नष्ट नहीं हुई तो उन्हें
के यदि दष्प्रवत्तियां नष्ट नहीं हई तो उन्हें कितना ही दबाकर रखा जाय किन्त उनके प्रकट होने में अधिक समय नहीं लगता। जैसे जैसे दमन बढ़ता है वैसे वैसे उतने ही अधिक वेग से विस्फोटक होने की संभावनाएं बढ़ती हैं। 11वां गुणस्थान वासनाओं के दमन की पराकाष्ठा है। यहाँ उपशम या निरोध के मार्ग का साधक स्वल्पकाल(48 मिनट) तक इस श्रेणी में रहकर वासना व कषायों के पुनः प्रकटीकरण के फलस्वरूप नीचे गिर जाता है। संज्वलन लोभ के उपशम से जीव इस गुणस्थान में पहुँचता है। उपशम श्रेणी का जीव मोह का उपशमन करके 11वें गुणस्थान में आरूढ़. होता है और वीतरागमय आत्म स्वरूप का अनुभव करता है किन्तु मोहनीय कर्म एक अन्तर्मुहर्त समय पर्यन्त से अधिक उपशान्त नहीं रहता और आत्मा को नीचे के गुणस्थान में उतार देता है। जीव अपने समस्त संसार काल में इस गुणस्थान को चार बार और एक जीवन में अधिकतम दो बार प्राप्त करता है। दसवें गुणस्थान में रहकर जीव ने सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार की कषायों का उपशम कर लिया है इस कारण इन कर्मों की सत्ता 11वें गुणस्थान में तो है किन्तु उदय में नहीं है जब तक ये कर्म उदय में न आ जाए तब तक उसे उद्यमशील रहना पड़ता है। इस गुणस्थान की स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त काल की है। यदि जीवात्मा इस गुणस्थान मे रहते हुए आयुष्य पूर्ण
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