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श्रद्धा रुचि प्रत्यय इतियावत । समीचीन च मिथ्या च दृष्टिर्थस्यासी सम्य मिथ्यादृष्टिः ।
(धवला. 1-1-11)
दृष्टि, रुचि, श्रद्धा और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं जिस जीव के समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि होती है उसको सम्यगमिथ्थादृष्टि कहते हैं।
सम्ममिच्छा दयेण य जंततर सव्वधादिकज्जेण ।
णय सम्मं मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदिपरिणामो ।। (गो. जी. गा. 21 )
अपने प्रतिपक्षी आत्मा के गुणों का सर्वथा घात करने का कार्य दूसरी सर्वघाती प्रकृतियों से सर्वथा विलक्षण जाति का है। इसी प्रकार तत्त्वों के स्वरूप के सम्बन्ध में भी इन गुणस्थानवर्ती जीवों की मिश्रित श्रद्धा होती है। जैसे- किसी पुरुष में किसी के प्रति मित्रता और किसी के प्रति शत्रुता, इसी प्रकार तत्त्व श्रद्धान और अतत्त्व श्रद्धान एक साथ जीव में कदाचित सम्भव हैं।
सो संजम ण णिश्रदि देसंजम वा ण बंधदेआउं ।
सम्मं वा मिच्छं वा, पडिवज्जिय मरदि णिय मेण ।। (गो. जी. गा. 23)
4. अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान व कर्म सिद्धान्त
जिनकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है और संयम रहित सम्यग्दृष्टि को असयंत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित वचनों का श्रद्धान करता है उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहा गया है।
जो इदियेसु विरादो णो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सहहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरादो सो।।
(ध. 1/1/ 12/ गा. 111 / 173 / गो. जी. 129 / 58/ पंच संग्रह प्रामृत गा. 11 ) अविरत सम्यग्दृष्टि के बाह्य चिन्ह - वह सम्यग्दृष्टि जीव पुत्र, स्त्री आदि में गर्व नहीं करता, (असम्यक्त्व नहीं होता) उपशम भाव को भाता है और पंचेन्द्रियजन्य विषय भोगों में तृष्णा नहीं रखता। उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है। उत्तम साधुओं की विनय करता है तथा साधर्मी जनों से अनुराग रखता है। आत्मशुद्धि की साधना का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है, प. श्री दौलतराम जी ने छहढाला में कहा भी है- मोक्ष महल की प्रथम सीड़ी या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्यकता न लहे सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा । । छ ढा. - 311 इस प्रकार सम्यक्त्वरूपी श्रेष्ठ धन की उपलब्धि में परम उपलब्धि वीर पुरुषार्थी जीव ही सफल होते हैं।
इस गुणस्थान में 77 कर्म प्रकृतियों का ही बंध सम्भव है ( 44 मिश्र गुणस्थान की कर्मप्रकृतियां + तीर्थंकर नामकर्म, मनुष्य एवं देव आयु कर्म) इस अवस्था में तीर्थंकर नामकर्म के बंध की सम्भावना बनी रहती है। चतुर्थ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी 148 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्भव सत्ता की अपेक्षा से सामान्य जीव जिसने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है को 148 कर्म प्रकृतियों की सम्भव सत्ता मानी जाती है किन्तु चरम शरीरी आत्मा क्षपक श्रेणी का आरोहण कर उसी भव से मोक्ष जाने वाली है, फिर भी जिन्होंने आरोहण आरम्भ नहीं किया उसमें 145 कर्म प्रकृतियों की (नरकायु, तिर्यञ्च
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