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5. देशविरति सम्यग्दृष्टि गणस्थान और कर्म सिद्धान्त
यह सम्यक्त्व गुण युक्त है, -श्रावक के व्रत या अणुव्रत का पालन से सम्बद्ध है। इस गुणस्थान के अधिकारी मात्र मनुष्य और संजी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही हैं। इसकी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व कोटि वर्ष है। इस गुणस्थान में बंध योग्य कर्म प्रकृतियां 67 हैं। इसमें ज्ञानावरण की (5), मोहनीय कर्म की (26), कर्म प्रकृतियों में से(15) 11 मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृतियां जिनका बंध नहीं होताअनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व मोह, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, आयु चतुष्क में केवल 2 देवायु, नामकर्म की 67 में से 32- देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रिय आंगोपांग, वज्रवृषभनारांच संहनन, सम चतुरस्र संस्थान, हुंडक संस्थान, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, देवानुपूर्वी, शुभविहायोगति, पराघात, उपघात, उच्छास, उद्योत, अगुरु, तीर्थंकर, निर्माण, वस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, एवं यश कीर्ति नामकर्म प्रकतियों का ही बंध सम्भव है। इसके अलावा गोत्र कर्म मात्र द्रव्य गोत्र (1) तथा अंतराय कर्म की (5) प्रकृतियों का बंध सम्भव है।
इस गुणस्थान में 148 कर्म प्रकृतियों की सत्ता मानी गई है। अचरमशरीरी क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क व दर्शनत्रिक का क्षय हो जाने से 141 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है जबकि चरम शरीरी के मनुष्यायु को छोड़ अन्य तीन आयु न रहने से 138 कर्मों की सत्ता रहती है।
उदीरणा की दृष्टि से देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में 87 कर्म प्रकृतियां मानी गई हैं- ज्ञानावरणी(5) दर्शनावरणी(8), वेदनीय(2), मोहनीय कर्म की उदय योग्य(28), कर्म प्रकृतियों में से (18), अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क,अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व मोह और मिश्र मोह इन दस का उदय नहीं होता। आयु कर्म में से (2) मनुष्य और देवायु, नाम कर्म की 67 में से 23 का उदय नहीं होता। मात्र 44 नाम कर्म की प्रकृतियों का उदय होता है। इस प्रकार गुणस्थान में कुल 87 कर्म प्रकृतियों का उदय होता है। प्रमत्त संयत गुणस्थान तक उदय एवं उदीरणा की कर्म प्रकृतियां समान होती हैं। 6- प्रमत्त संयत (सर्व विरत) गुणस्थान व कर्म सिद्धान्तमन, वचन, काय, करण, करावण व अनुमोदन से पाप वृत्ति का सवर्ण त्याग कर इस गुणस्थान में साधक अवस्थित होता है। संयत मुनि इसका पालन करते हैं। प्रमाद युक्त होने से वे संयत कहलाते हैं। ये गुणस्थानवर्ती अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान कषाय चतुष्क से रहित होते हैं। इस गुणस्थान मे सभी चौदह पूर्वधर महर्षि आहारक लब्धि का उपयोग करते हैं जो एक प्रकार का प्रमाद ही है। इसकी जघन्य स्थिति एक समय और उत्कृष्ट स्थिति कुछ न्यून कोटि वर्ष है। यहाँ देशविरत गुणस्थान में स्वीकृत 67 कर्म प्रकृतियों में से बंध की दृष्टि से प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क कम होकर मात्र 63 रह जाती हैं। सत्ता की अपेक्षा से पूर्व गुणस्थान की भाँति 148 कर्म
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