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निर्जरा का लक्षण
जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण ।
भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।।36।। द्र. सं.।। जिस आत्मा के परिणामरूप भाव से कर्मरूपी पदगल फल देकर नष्ट होते हैं वह तो भाव निर्जरा है और सविपाक निर्जरा की अपेक्षा से यथाकाल अर्थात् काललब्धिरूप काल से तथा अविपाक निर्जरा की अपेक्षा से तप से जो कर्मरूप पुद्गलों का नष्ट होना है सो द्रव्य निर्जरा
मोक्ष का लक्षण
सव्वस कम्मणो जो खयहेदु अप्पणो हु परिणामो। णेयो स भावमोक्खो दव्वलिमुक्खो य कम्मपुहबावो।।37।। द्र. सं.।।
जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु। दुरभिणिवेसविमुक्कम णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।।41|| द्र. सं.।। सब कर्मों का नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम है वह भावमोक्ष है और कर्मों की जो आत्मा से सर्वथा भिन्नता है वह द्रव्य मोक्ष है। सम्मइंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे - अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग चारित्र ये तीनों मोक्ष के कारण हैं। जीवादि तत्त्वों या पदार्थों में श्रद्धान सम्यक्त्व है। पुण्य-पाप प्रकृति का लक्षण
सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा।
सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च।।38।। द्र. सं.।। शुभ-अशुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य और पाप रूप होते हैं। साता-वेदनीय शुभ आयु, शुभ नाम तथा उच्च गोत्र नामक कर्मों की जो प्रकृतियां हैं वे तो पुण्य प्रकृतियां हैं और अन्य सब पाप प्रकृतियां हैं। अयोगकेवली गुणस्थान की निर्विकल्प स्थिति
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कमाया।
अविसेसदूण अढे दसणमिदि भण्णए समए||43।। द्र. सं. यह शक्ल है, यह कृष्ण है, यह नील है इत्यादि पदार्थों को भिन्न भिन्न न करके पदार्थों का सामान्य रूप सत्तावलोकन का ग्रहण परमागम दर्शन की स्थिति है। जीव अजीव धर्म अधर्म आकाश और काल ये द्रव्य के लक्षण कहे गए हैं। द्रव्य संग्रह की पहली गाथा में कहा गया है
जीवो उवओ गमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससो ढंगई।। इसी क्रम में आत्मा भी तीन प्रकार की मानी गई हैं- बहिरात्मा(मिथ्यादृष्टि), अन्तरात्मा(सम्यग्दृष्टि) और परमात्मा (सर्वदर्शी)।
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