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क्षयोपशमिक 4. मिश्र और 5. पारिणामिक। इन पाँच भावों के अनुक्रम से दो, नौ, अठारह, इक्कीस व तीन भेद हैं। आत्मा में आश्रव (बन्ध हेत या निमित्त) के कारणमन वचन व कायिक क्रियाओं का योग ही आश्रव है। इस योग में शुभाशुभ परिणति होती है (शुभः पुण्यस्या शुभः पापस्य)। दया दान ब्रह्मचर्य का पालन, शुभ काय योग, हिंसा चोरी अब्रह्म अशुभ काययोग, कठोर व मिथ्या भाषण अशुभ वाग्योग तथा दूसरों की भलाई-बुराई का चिन्तन शुभाशुभ मनोयोग कहलाता है। आठवें गुणस्थान तक ये आश्रविक योग कर्म बन्ध का निमित्त बनते हैं। "अधिकरणं जीवाजीवा ||8|| आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भ योगकृतकारितानुमुत्त कषाय विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ||9||"
तत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित अणव्रती - महाव्रती की विशिष्टताएं तथा गणस्थान संबंधी विधानतत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित अणुव्रती - महाव्रती की विशिष्टताएं 5 - 8 वें गुणस्थान की अवस्थाओं के साथ सुमेल रखते प्रतीत होते हैं। अणुव्रत - महाव्रत के तहत साधक के सम्यकत्व संबंधी आचरण हेतु व्यवस्थाएं गुणस्थान में कही गई हैं और तत्त्वार्थ सूत्र में इनका स्पष्ट वर्णन किया गया है। इस क्रम में व्रती दो प्रकार के होते हैं- अगारी (गृहस्थ) और अनगारी (त्यागी)। अणुव्रती अर्थात् अगारी तथा महाव्रती अर्थात् अनगारी। आत्मा सम्कत्व के साथ उच्चतर गुणस्थानों में बढ़ते हुए जिन गुणों व व्रतों को धारण करता है उन्हें व्रत कहा है। तत्त्वार्थसूत्र के 7वें अध्याय में इस प्रकार कहा गया है"हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम ||1|| हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरत होना व्रत है। जब जीव इन व्रतों का सम्पूर्णरूप से पालन करता है तो वह महाव्रती कहलाता है। अणुव्रती - महाव्रती की कसौटी हेतु पाँच भावनाएं कही गई है- तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पञ्च पञ्च ||3|| 1. अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएं- ईर्या समिति, मनो गुप्ति, एषणा समिति,आदान-निक्षेपण समिति, तथा आलोकितपान भोजन। 2. सत्यव्रत की पाँच भावना
भाषण, क्रोध प्रत्याख्यान, लोभ प्रत्याख्यान, भय प्रत्याख्यान निर्भयता, तथा हास्य प्रत्याख्यान। 3. अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएं- अनुवीचिअवग्रह याचन, अभीक्ष्णअवग्रह याचन, अवग्रहाव धारण, साधार्मिकअवग्रह याचन तथा अनुज्ञापितपान भोजन। 4. ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएं. स्त्री पशुषण्कसेवित शय्यासन वर्जन, स्त्री रागकथा वर्जन, मनोहरेन्द्रियावलोकन वर्जन, पर्वरतिविलास स्मरण वर्जन तथा प्रणीतरस वर्जन।
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