________________
12-तीसरा गुणस्थान सम्यक् मिथ्यात्व के उदय से होता है।। 13-चौथा गुणस्थान चार प्रकृति (चार अनंतानुबंधी, सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति,
सम्यक्मिथ्यात्व प्रकृति) के उपशम क्षय या एक सम्यक् प्रकृति के उदय से होता है। 14-पाँचवां गुणस्थान चारित्रमोहनीय की 17 कर्म प्रकृतियाँ (प्रत्याख्यान4, संज्वलन4, नौ
कषाय के उदय से होता है)। 15- छठा गुणस्थान संज्वलन और नौकषाय के तीव्र उदय से होता है। 16- संज्वलन और नौकषाय के मन्द उदय से सातवां गुणस्थान होता है। 17- संज्वलन और नौकषाय के मन्दतर उदय से:
न होता है। 18- संज्वलन और नौकषाय के मन्दतम उदय से नौवां गणस्थान होता है। 19- संज्वलन सूक्ष्म लोभ के उदय से दसवां गुणस्थान होता है। 20- मोहनीय कर्म के उपशम से ग्यारहवां गुणस्थान होता है। 21- मोहनीय कर्म के क्षय से बारहवां गुणस्थान होता है। 22-घातिया कर्म( ज्ञानावरणीय, दर्शनावणीय, मोहनीय, अन्तराय) के क्षय से तेरहवां गुणस्थान
होता है। गणस्थानों में सत्व संबन्धी नियम1- तीर्थंकर की सत्ता वाला जीव दूसरे,तीसरे गुणस्थान का स्पर्श नहीं करता है। 2- आहारकशरीर और आहारकआगोंपागं की सत्ता वाला जीव दूसरे गुणस्थान का स्पर्श
नहीं करता है। वध्यमान और भुज्यमान दोनों की अपेक्षा नरकायु की सत्ता वाले जीव के देशव्रत नहीं
होते। 4- तिर्यञ्च आय की सत्ता वाले जीव महाव्रत धारण नहीं करते। 5- देवाय के जीव की क्षपक श्रेणी नहीं होती। मलकर्मों का गुणस्थान में बंध
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म का बंध पहले से दसवें गुणस्थान तक होता है। 2- मोहनीय कर्म का बंध पहले से नौवें गुणस्थान तक होता है।
आयकर्म का बंध पहले से नौवें गणस्थान तक होता है। 4- वेदनीय कर्म का बंध पहले से तेरहवें गुणस्थान तक होता है। 5- नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म का बंध पहले से दसवें गुणस्थान तक होता है। मलकर्मों का गुणस्थान में उदय1- ज्ञानावरणीय कर्म का उदय पहले से बारहवें गुणस्थान तक होता है। 2- दर्शनावरणीय कर्म का उदय पहले से बारहवें गुणस्थान तक होता है। 3- वेदनीय,आय, नाम और गोत्रकर्म का उदय पहले से चौदहवें गणस्थान तक होता है।
मोहनीय कर्म का उदय पहले से दसवें गुणस्थान तक होता है। अन्तराय कर्म का उदय पहले से बारहवें गुणस्थान तक होता है।
97