Book Title: Gunasthan ka Adhyayan
Author(s): Deepa Jain
Publisher: Deepa Jain

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Page 92
________________ प्रकृतियों की सत्ता संभव है तथापि चरम शरीरी के देव, नरक व त्रियञ्च आयु का बंध न होने की अपेक्षा से सत्ता 145 कर्म प्रकृतियों की हो जाती है। जबकि अचरम शरीरी क्षायिक श्रेणी वाले जीव में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क एवं दर्शनत्रिक के क्षय होने से यहाँ 141 कर्म प्रकृतियों की सत्ता होती है। यदि चरम शरीरी जीव क्षायिक सम्यक्त्व का धारक होकर क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है तो 138 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रह जाती है (अनन्तानुबन्धीकषायचतुष्क, दर्शनत्रिक तथा मनुष्य को छोड़कर आयुत्रिक(10) की सत्ता नहीं होती)। उदय एवं उदीरणा की अपेक्षा से इस गुणस्थान में 81 कर्म प्रकृतियों का ही उदय सम्भव है। मोहनीय कर्म की 28 में से 14, नामकर्म की उदय योग्य 67 प्रकृतियों में से 44 , ज्ञानावरणीय की 5, दर्शनावरणीय-9, वेदनीय-2, आयुष्य की-2(मनुष्याय), गोत्र की-2(उच्च गोत्र) तथा अन्तराय की-5 हैं। 7- अप्रमत्तसंयत गुणस्थान व कर्म सिद्धान्तप्रमाद का त्याग करते हुए साधना - अध्यावसाय को आगे बढ़ाना जिससे आगम विशुद्धि में वृद्धि होती है। इस गुणस्थान में संज्वलन कषाय भी मंद पड़ जाती है। इसकी जघन्यावधि एक समय व उत्कृष्ट अवधि एक अन्तर्मुहूर्त की है। इसके बाद आत्मा उपशम या क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है। न प्रमत्त संयतः अप्रमत्तसंयतः पंचदश प्रमाद रहिताः संयता इति यावत। (मू. 33) जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता है, उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। संजलण णोकसाया णुदओ मंदो वज्र तदा होंदि। अप्रमत्त गुणो तेजोय अप्रमत्त संवदो होदि।।ध. 1/1/15 पृ. 178।। जब संज्वलन और नौ कषाय का मंद उदय होता है तब सकल संयम से युक्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है अतः इस गुणस्थान को अप्रमत्त संयत कहते हैं इसके दो भेद हैं। (क) स्वस्थानाप्रमत्त- जिसके सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं और जो समग्र महाव्रती, अट्ठाईस मूलगुणों तथा शीलों से युक्त हैं। (ख) सातिशय अप्रमत्त- भावों की अत्यन्त विशुद्धि हो जाने से वह अप्रमत्त साधक छठे णस्थान में न जाकर अस्खलित गति से उपशम वा क्षपक श्रेणी पर आरूण होकर ऊपर चढ़ता ही जाता है उसे सातिशय अप्रमत्त कहते हैं। श्रेणी विभाग- सातवें गुणस्थान से आगे आत्म विकास की दो श्रेणियां हो जाती हैं। एक उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक श्रेणी। ___ सातवें गुणस्थान में छठे गुणस्थान के 63 में से प्रारम्भ में 59 या 58(चरमशरीरी के किसी भी आय का बंध नहीं होता ) कर्मप्रकृतियों का ही बंध सम्भव है। ज्ञानावरणीय-5, दर्शनावरणीय में निद्रादिक को छोड़कर शेष-6, वेदनीय में- सातावेदनीय-1, मोहनीय में-9 कषाय, आयुष्य में देवायु-2, गोत्र में उच्चगोत्र-1, अन्तराय-5 तथा नामकर्म की- 31 = 52 कर्म प्रकृतियों का ही बंध सम्भव है। सत्ता की अपेक्षा से यहाँ उपशम श्रेणी वाले जीव में 141, तीर्थंकर व्यतिरिक्त क्षपक श्रेणी वाले जीव में मोहात्रिक क्षय होने से 145 तथा अन्त में मोहात्रिक, गतित्रिक, आयुत्रिक तथा तीर्थंकर नामकर्म इन दस का विच्छेद होने से 138

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