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और जल में, हत्यारे में और सेवक में, निर्विशेष-समदृष्टि रखने वाले आपकी सेवा करे, वैसी निष्फल आपकी सेवा मैंने भ्रांत होकर आज तक की है, वह याद करना। अब मैं वैसी सेवा करुंगा नहीं।" सिद्धार्थ बोला 'तुझे जैसा रुचे वैसा कर। हमारी तो ऐसी ही शैली है, वह कभी भी अन्यथा होगी नहीं।
(गा. 581 से 594) प्रभु वहाँ से विशाला नगरी के मार्ग की ओर चल दिये, और गोशाला अकेला राजगृही नगर के मार्ग पर चला। आगे जाने पर सर्प के बड़े बिल में चूहा घुसे वैसे जिसमें पांच सौ चोर रहते हैं, ऐसे एक विशाल अरण्य में गोशाला ने प्रवेश किया। एक चोर ने गिद्ध की तरह वृक्ष के ऊपर से गोशाला को दूर से आते हुए देखा। इसलिए उसने अन्य चोरों से कहा कि 'कोई द्रव्य रहित नग्न पुरुष आ रहा है। वे बोले 'वह नग्न है, तो भी अपने को उसे छोड़ना नहीं है, क्योंकि हो सकता है वह किसी के द्वारा प्रेषित चर पुरुष न हो। इसलिए वह अपना पराभव करके जाय, यह उचित नहीं।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने नजदीक आने पर ‘मामा-मामा' कहकर बारी बारी से उसके कंधे पर चढ़कर उसे चलाने लगे। बार बार इस प्रकार चलाने से गोशाला के शरीर श्वास मात्र ही बाकी रहा। तब चोर लोग उसे छोड़कर वहाँ से अन्यत्र चले गये। गोशाला ने सोचा कि “स्वामी से जुदा होते ही प्रारंभ में ही श्वान की भांति मुझे ऐसी दुःसह विपत्ति भोगनी पड़ी। प्रभु की विपत्ति को तो इंद्रादिक देवता भी आ आकर उसको दूर कर देते हैं, तो उनकी चरणों की शरण में रहने से मेरी भी विपत्तियों का नाश हो जाता है। प्रभु स्वयं रक्षण करने में समर्थ होने पर भी किसी कारण से उदासीन रहते हैं, ऐसे प्रभु को मंदभाग्यवाले पुरुष धन की निधि को प्राप्त करे वैसे मैं अब प्रभु को कैसे प्राप्त करूंगा? इसलिए चलो अब उनकी ही शोध करूं।" ऐसा निश्चय करके गोशाला प्रभु के दर्शन के लिए उस वन का उल्लंधन करके अश्रांत रूप से धूमने लगा।
(गा. 595 से 604) प्रभु विशाला नगरी में आए। वहाँ किसी लोहकार की (लुहार) की शाला में लोगों की आज्ञा लेकर प्रभु प्रतिमा धारण करके रहे। उस शाला का स्वामी लुहार छः मास से रोग से आक्रान्त होकर उसी समय निरोगी हुआ था। उसी दिन वह अपने परिजनो परिवृत्त होकर अपनी कोड़ (शाला) में आया। वहाँ प्रभु
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)