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प्रेम से मोहित होकर ऐसा कैसे कह रहे हो? आगामी दुःषमकाल की प्रवृत्ति से ही तीर्थ को बाधा होने ही वाली है। उसमें भवितव्यता का अनुसरण करके इस भस्मक ग्रह का उदय हुआ है।" इस प्रकार इंद्र को समझाकर साढ़े छः महिने कम तीस वर्ष पर्यन्त केवलपर्याय पालकर पर्यंकासन में बैठकर प्रभु ने बादरकाय में रहकर बादर मनयोग और बादर काययोग का निरोध किया। पश्चात् सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर योग विचक्षण प्रभु ने बादर काययोग का भी निरोध कर दिया। पश्चात् वाणी और मन के सूक्ष्मयोग भी रोका। इस प्रकार सूक्ष्म क्रिया वाला तीसरा शुक्लध्यान प्राप्त किया। फिर सूक्ष्म तनुयोग का भी रोध करके जिसमें सर्व क्रिया का अच्छेद होता है वैसे समुच्छिन्न नामक चौथे शुक्लध्यान को धारण किया। पश्चात् पांच ह्रस्वाक्षर का उच्चार करके उतने कालमान वाले अव्यभिचारी शुक्लध्यान के चौथे पाये द्वारा एरंड के बीज के समान कर्मबंध रहित हुए प्रभु ने यथास्वभाव ऋतुगति द्वारा उर्ध्वगमन करके मोक्ष को प्राप्त किया। उस समय जिनको कभी एक लवमात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता, ऐसे नारकियों को भी क्षणमात्र सुख हुआ। उस समय चंद्र नामका संवत्सर, प्रीतिवर्द्धन नामक मास नंदिवर्धन नामका पक्ष एवं अग्निवेश नामका दिवस था। जिसका दूसरा नाम उपशम था। उस रात्रि का नाम था देवानंदा। उसका दूसरा नाम निरति भी था। उस समय अर्च नामका लव, शंद्र नामका प्राण, सिद्ध नाम का स्तोक और सर्वार्थ सिद्ध नाम का मुहूर्त और साथ नाग नामक करण था। उस समय उद्धरी न सके ऐसे अतिसूक्ष्म कुंथुए उत्पन्न हो गए। वे स्थिर हों तब भी दृष्टिग्राह्य होते नहीं थे। जब हिलते चलते थे, तब ही दृष्टिगत होते थे। यह देखकर ‘अब संयम पालन अति कठिन है' ऐसा विचार करके अनेक साधुओं एवं साध्वियों ने अनशन कर लिया, प्रभु के निर्वाण का समय जानकर उस समय भाव दीपक का उच्छेद होने से सर्व राजाओं ने द्रव्य दीपक किये। तब से ही लोक में दीपोत्सवी पर्व का प्रवर्तन हुआ। अद्यापि उस रात्रि में लोग दीपक करते हैं।
(गा. 222 से 248) उस समय जगदगुरु के शरीर को देवताओं ने अपरित नेत्रों प्रणाम किया और स्वयं अनाथ हो गये, उसका शोक होने पर भी खड़े रहे गये। शक्रेन्द्र ने धैर्य धारण करके नंदनवन आदि स्थानाकों से देवताओं से गौशीर्ष चंदन के काष्ट मंगवाये और उनसे एक चिता रची। क्षीरसागर के जल से प्रभु के शरीर को स्नान कराया और इंद्र ने स्वयं के हाथों से दिव्य अंगराग द्वारा
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)