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त्रयोदश सर्ग भगवंत की अंतिम देशना पांचवे छटे आरे के भाव, उत्सर्पिणी की स्थिति, भगवंत का निर्वाण आदि
अपापानगरी में देवताओं ने तीन वप्रों से विभूषित रमणिक समवसरण प्रभु की देशना के लिए रचा। सुर असुरों से सेवित प्रभु अपनी आयुष्य का अंत जानकर उसमें अंतिम देशना देने के लिए विराजमान हुए। प्रभु को समवसृत ज्ञात होने पर अपापापुरी का राजा हस्तिपाल वहाँ आया और प्रभु को नमन करके देशना श्रवण करने बैठा। देवगण भी श्रवण के इच्छुक होकर वहाँ आए। उस समय इंद्र ने आकर नमस्कार करके इस प्रकार स्तुति की
(गा. 1 से 4) “हे प्रभु! धर्माधर्म अर्थात् पुण्य-पाप बिना शरीर की प्राप्ति होती नहीं है। शरीर के बिना मुख नहीं होता, मुख के बिना वाचकत्व नहीं होता, इससे अन्य ईश्वरादि देव अन्य को शिक्षा देने वाले कैसे हो सकेगे? फिर देह बिना के ईश्वर की इस जगत् की रचना में प्रकृति ही घटित नहीं होती। इस प्रकार स्वतंत्ररूप से या अन्य की आज्ञा से उनको जगत् का सर्जन करने की प्रवृत्ति करे तो वह बालक के समान रागी कहलाये। और यदि कृपा द्वारा सर्जन करे तो सभी को सुखी ही सर्जन करना चाहिए। हे नाथ! दुःख, दरिद्रता, और दुष्ट योनि में जन्म इत्यादि क्लेश करके व्याकुल लोगों का सर्जन करने से तो उस कृपालु ईश्वर की कृपालुता कैसे हुई ? अर्थात् न हुई। अब यदि वह ईश्वर कर्म की अपेक्षा से प्राणियों को सुखी या दुःखी करता है, ऐसा हो तो? तो वह भी हमारे सदृश स्वतन्त्र नहीं है ऐसा सिद्ध होगा। और यदि इस जगत् में कर्म से हुई विचित्रता है, तो फिर ऐसे विश्वकर्ता नाम धराने वाले नपुंसक ईश्वर का क्या कर्त्तव्य है ? अथवा महेश्वर की इस जगत्-रचना में स्वभाविक ही प्रवृत्ति होती है, इससे उसका विचार ही जगत् को नहीं करना, ऐसा कहेगा तो वह परीक्षकों परीक्षा
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)