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रहा होने से मेरे चित्त में अति बाधा पहुँचाता है।" इस प्रकार कहकर परिद्य आयुध को लेकर ईशान दिशा में आया और वैक्रिय समुद्घात द्वारा सद्य ही अपना रूप एक लाख योजन का विकुर्वित किया । श्याम कांति वाला महाशरीर मानो मूर्तिमन्त आकाश हो अथवा नंदीश्वर महाद्वीप का जंगम अंजनगिरि हो, वैसा दिखाई देने लगा। उसका मुख दाढरूप करवत सा भयंकर उसके श्याम और चपल केश थे, मुखरूप कुंड में से उछलती ज्वालाओं से आकाश भी पल्लवित हो रहा था, उसके विकराल वक्षस्थल से सूर्यमंडल भी आच्छादित हो रहा था, भुजादंड के हिलने से ग्रह, नक्षत्र और तारे खिर रहे थे, नाभिमंडल पर लीन हुए सर्प की फुंकार से भयंकर दिखाई दे रहा था, उसके अति लंबे
गिरि की चुलिका के अग्र भाग को स्पर्श करने से विस्मय उत्पन्न कर रहे थे और वह मानो पैर के अबृंभ से भूमंडल को विधुर कर रहा हो। ऐसा भयंकर रूप करके वह चमरासुर गर्वान्ध होकर सौधर्मपति की ओर उत्पतित हुआ । (गा. 408 से 416 )
उग्र गर्जना से सम्पूर्ण ब्रह्मांड को फोड़ता हुआ, मानो दूसरा यमराज हो वैसा व्यंतरों को डराता हुआ और सिंह जैसे हिरणों को त्रास देता है वैसा, शेतिष्क देवों को त्रास देता हुआ वह क्षणमात्र में सूर्य चंद्र के मंडल का उल्लंघन करके शुक्र से मंडल में आ पहुँचा। उस भयंकर महामूर्ति को अकस्मात और वेग से आते हुए देखकर ही किल्विष देवता छिप गये। आभियोगिक देवता भी त्रासित हो गए, सैन्य सहित सेनापति शीघ्र पलायन कर गये, और सोम और कुबेर प्रमुख दिक्पाल भाग गये। आत्मरक्षकों से अस्खलित और छड़ीदार से भी अवारित इस असुर को त्रायस्त्रिंश देवों ने यह क्या है ? ऐसे संभ्रांत चित्त से देखा। समकाल में उत्पन्न हुआ कोप और विस्मय द्वारा सामानिक देवताओं के द्वारा देखते हुए उसने एक पैर पद्मवेदिका पर और दूसरा पैर सुधर्म सभा में रखा । फिर परि आयुध द्वारा इंद्रकील पर तीन बार ताड़न करके, उत्कट भृकुटी चढ़ाकर वह अति दुर्मद चमर शक्रेन्द्र के प्रति इस प्रकार बोला- हे इंद्र! तू ऐसे खुशामदी देवताओं के वृंद से कि उनके पराक्रम से अद्यापि मेरे ऊपर रह रहा है। परंतु अब मैं तुझे नीचे गिरा देता हूँ । पर्वत पर कौवे की तरह तू यहाँ चित्रकाल तक मुफ्त में ही रहा है। अरे चमरचंचा नगरी के स्वामी और विश्व को भी असह्य पराक्रम वाले मुझ चमरासुर को क्या तू नहीं जानता ? शिकारी की आवाज को केशरीसिंह सुने वैसे ही जिसने ऐसा कठोर वचन पूर्व में कभी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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