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अशाश्वत है। इस प्रकार प्रभु को कथन को सुनकर भी मिथ्यात्व से जिसका हृदय मथित था, ऐसा वह जमालि कुछ भी बोले बिना अपने परिवार के साथ बाहर निकल गया। ऐसे निह्नवपने से संघ ने उसे संघबाहर कर दिया। उस समय प्रभु को केवलज्ञानी हुए चौदह वर्ष हुए थे। सर्वज्ञ अपने अभिप्राय को कहता हुआ और स्वच्छंद घूमता हुआ जमालि अपनी आत्मा को सर्वज्ञ मानता हुआ पृथ्वी पर विचरण करने लगा। परंतु “जमालि अज्ञानद्वारा श्री वीरप्रभु से विपरीत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ है।" ऐसी लोक में सर्वत्र प्रसिद्धि हुई।
(गा. 73 से 95) एक बार विहार करता हुआ जमालि श्रावस्ती नगरी में गया और नगर के बाहर उद्यान में परिवार के साथ उतरा। प्रियदर्शना भी उसी नगरी में एक हजार आर्याओं के साथ 'ढंक' नाम के समृद्धिवान् कुंमार की शाला में उतरी थी। वह ढंककुलाल परम श्रावक था। उसने प्रियदर्शना को इस प्रकार कुमत में रही हुई देखकर सोचा कि, “मैं किसी भी उपाय से इसे प्रतिबोधित करूं।' ऐसे विचार से एक बार उसने नीभाड़े से पात्र को एकत्रित करते-करते बुद्धिपूर्वक अग्नि की चिनगारी प्रियदर्शना न जाने वैसे उसके वस्त्र पर डाला। वस्त्र को जलता देखकर प्रियदर्शना बोली कि- 'अरे ढंक! देख, तेरे प्रमाद से मेरा यह वस्त्र जल गया। ढंक बोला- 'हे साध्वी! आप मृषा न बोले, आपके मत के अनुसार तो जब सारा वस्त्र जले, तभी जलता घटित होता है। जल गया हो, उसे ही जलना कहना यह तो अर्हन्त का वचन है और अनुभव से उनका वह वचन ही स्वीकारने योग्य है।' यह सुनकर प्रियदर्शना को शुद्धबुद्धि उत्पन्न हुई, इससे वह बोली कि- 'हे ढंक! मैं चिरकाल से विमूढ हो गई थी, उसे तुमने अच्छा बोध दिया। अरे! मैंने इतने समय तक श्रीवीरप्रभु के वचनों को दूषित किया। अरे! इससे उससे सम्बन्धी मुझे मिथ्या दुष्कृत हो। अब से मुझे श्री वीरप्रभु की वाणी ही प्रमाण है। तब ढंक कुमार ने कहा कि, 'हे साध्वी! तुम सुहृदय वाली हो, तथापि अभी भी वीरप्रभु के पास जाओ और प्रायश्चित लो। ढंक के ऐसे वचनों से प्रियदर्शना 'मैं प्रायश्चित लेना चाहती हूँ, ऐसा कह जमालि को छोड़कर अपने परिवार सहित श्री वीरप्रभु के पास आई। पश्चात् ढंक से प्रतिबोध प्राप्त एक जमालि के सिवा अन्य सर्वमुनि श्री वीरप्रभु के पास चले गये। अकेला जमालि कुमत से ठग कर बहुत वर्षों तक पृथ्वी पर व्रतधारी बनकर
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)