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के साथ संदेह को भी छोड़ दिया, तथा प्रभु के चरण में नमस्कार करके बोले कि, हे स्वामी! ऊंचे वृक्ष का माप लेने के लिए नीचे पुरुष के समान मैं दुबुर्द्धि आपकी परीक्षा लेने के लिए यहाँ आया था। नाथ! मैं दोषयुक्त हूँ। इस उपरान्त भी आपने आज मुझे उत्तम प्रकार से प्रतिबोध दिया है, तो अब संसार से विरक्त हुए मुझे दीक्षा देकर अनुग्रहित करो।' जगद्गुरु वीरप्रभु ने उनको अपने पहले गणधर होंगे, ऐसा जानकर पाँच सौ शिष्यों के साथ स्वयं ने ही दीक्षा प्रदान की।
__(गा. 61 से 83) उस समय कुबेर ने चारित्रधर्म के उपकरण लाकर दिये। निःसंग होने पर भी उनको ग्रहण करते समय गौतम ने विचार किया कि, “निरवद्य व्रत की रक्षा करने में ये वस्त्रपात्रादि उपयोग में आते हैं, इसलिए ये ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि ये धर्म के उपकरण हैं, इनके बिना छः प्रकार के जीवनिकाय की यतना करने में उद्यत छद्मस्थ मुनियों से भली प्रकार से जीवदया का पालन कैसे होगा? इससे उद्गम, उत्पादादिक (गोचरी के ४२ दोष) एषणा द्वारा गुणवान्
और शुद्ध उपगरण विवेकी पुरुषों को अहिंसा के पालन के लिए ग्रहण करना चाहिए। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में आचरणवान् शक्तिशाली पुरुष को आदि, अंत और मध्य में मूढ़पने समय (सिद्धान्त) में कथित अथवा अवसरोचित अर्थ को साध लेना चाहिए। ज्ञान, दर्शन से रहित अभिमानी पुरुष ऐसे उपकरणों में परिग्रह की शंका करें तो उसे हिंसक जानना चाहिए। जो धर्म के उपकरणों में परिग्रह की बुद्धि धारण करे, वह तत्त्व को नहीं जानने वाले मूर्यों को ही राजी करना चाहता हैं। पृथ्वीकाय अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय आदि बहुत से जीवों की धर्म के उपकरणों के बिना किस प्रकार रक्षा हो? उपकरण ग्रहण करने पर भी यदि वह अपनी आत्मा को मन, वचन, काया से दूषित और असंतोषी रखे तो वह केवल अपनी आत्मा को ही ठगता है" इस प्रकार विचार करके इंद्रभूति ने पांचसौ शिष्यों के साथ देवताओं ने अर्पित करे हुए धर्म के उपकरण ग्रहण किये।
(गा. 84 से 93) इंद्रभूति को दीक्षित हुआ सुनकर अग्निभूति ने विचार किया कि, “उस इंद्रजालिक ने अवश्य ही इंद्रभूति को ठग लिया लगता है। इसलिए मैं वहाँ जाकर सर्वज्ञ नहीं होने पर भी अपने को सर्वज्ञ मानने वाले उस धुतारे को जीत
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)