Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 316
________________ मुनि को ठगने के लिए मूर्तिमती माया हो, ऐसी कपट श्राविका बन गई । तब मानो गर्भश्राविका हो वैसे वह द्वादश प्रकार के गृहीधर्म का लोगों में यथार्थ और सत्य रीति से बताने लगी। उस पर से उस युवति को सरल आशयवाले आचार्य चैत्यपूजा में एवं धर्मश्रवण में तत्पर ऐसी यथार्थ श्राविका मानने लगे । (गा. 314 से 328) एक बार अवसर देखकर उस कपट श्राविका ने आकर आचार्य भगवन्त से पूछा कि, गुरुवर्य! कुलबालुक साधु कहाँ है ? कपट श्राविका के हृदय से अज्ञात आचार्य श्री ने उसे कहा कि, “धर्मज्ञ और पंचविध आचार में तत्पर एक उत्तम मुनि थे । कपि के जैसा चपल एक क्षुल्लक शिष्य था ।' वह समाचारी से भ्रष्ट हुआ, तब भी वारणा तथा स्मरणादि द्वारा गुरु ने बहुत प्रेरणा दी, तो भी वह अति दुर्विनीत क्षुल्लक किंचितमात्र ही सुधरा नहीं । गुरु महाराज दुःख में सुनी जाय वैसी और शास्त्र में कथित आचार शिक्षा उसे आदर से देते थे। आगम में कहा है कि 'अन्य को रोष तुल्य लगे, उसे विष जैसी लगे परंतु जो बात उसे गुणकारी हो, वह कह सुनाई ।" परंतु वह क्षुल्लक गुरु की कठोर या मधुर किसी भी प्रकार की शिक्षा मानता ही नहीं था, क्योंकि गुरु की गिरा भी लघुकर्मी शिष्य पर की असर करती है। एक बार आचार्य जी विहार करते हुए गिरिनगर में आए। और उस क्षुल्लक शिष्य को साथ लेकर उज्जतगिरि पर चढ़े। वहाँ दर्शनादि करके गुरु महाराज नीचे उतर रहे थे उस समय उस अधम शिष्य ने गुरु को पीस डालने के लिए उपर से एक बड़ा पाषाण लुड़काया। उसका खडखडाट शब्द सुनकर गुरु ने नेत्र संकुचित करके देखा, तो वज्रनाल गोले के तरह उस पाषाण को गिरता हुआ देखा, तब शीघ्र ही गुरु ने अपनी जंघा का विस्तार कर दिया तब वह पाषाण उसके मध्य में से निकल गया । "बुद्धिमान के ऊपर प्रायः आपत्ति दुःख देने में समर्थ नहीं होती।” उसके ऐसे कर्म से गुरु ने क्रोधित होकर उसे शाप दिया कि 'हे पापी! जा तू किसी स्त्री के संयोग से व्रतों को भंग करेगा। क्षुल्लक बोला गुरु! आपके शाप को मैं वृथा कर दूंगा इसलिए कोई स्त्री दिखाई ही न दे ऐसे अरण्य में जाकर रहूँगा ।" ऐसा कहकर वह दुर्गति जैसे लज्जा का त्याग करते हैं, वैसे गुरु का त्याग करके सिंह के समान निर्जन अरण्य में चला गया । वहाँ किसी पर्वत में से निकलती नदी के मूल के पास कायोत्सर्ग में रहा । वह महिने या अर्ध महिने में कोई पथिक आता तब कार्योत्सर्ग पालता और पारणा करता था । इस प्रकार 66 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 303

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