Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 306
________________ मरण का शरण करना ही योग्य है ।" ऐसा विचार करके उसने तत्काल ही तालपुट विष जिह्वा के अग्रभाग पर रखी, जिससे मानो आगे ही प्रस्थान करना हो वैसे उनके प्राण शीघ्र ही निकल गये । (गा. 163 से 167) पाया । तब शीघ्र ही 'हे पिता ! मैं ऐसे कुणिक समीप आया, वहाँ तो उसने पिता को मृत उसने छाती कूटकर पुकारते हुए विलाप करने लगा कि ऐसे पापकर्म से इस पृथ्वी पर अद्वितीय पापी हुआ हूँ । जाकर मैं पिता को खमाऊँ' ऐसा मेरा मनोरथ भी अभी पूर्ण हुआ नहीं, अतः अभी तो मैं अति पापी हूँ । पिताजी! आपकी कृपा वचन तो दूर रहा, परंतु मैं तो आपके तिरस्कार भरे वचन भी नहीं सुन सका । बहुत बड़ा दुर्दैव मेरे बीच में आ पड़ा। अब भृगुपात, शस्त्र, अग्नि या जल में मरना ही मेरे लिए युक्त है।" इस प्रकार अतिशोक में ग्रसित हुआ कूणिक मरने के लिए तैयार हुआ । परंतु ऐसा करने से मंत्रियों ने उसे रोका। तब उसने श्रेणिक के देह का अग्नि संस्कार किया । (गा. 168 से 173) राज्यक्षमा (क्षय) की व्याधि के समान दिनों दिन अत्यन्त शोक से राजा को देखकर मंत्रिगण चिंतन करने लगे कि - 'अवश्य ही अपने राजा ऐसे अत्यंत शोक से मृत्यु को प्राप्त हो जाऐगे एवं समग्र राज्य का विनाश हो जाएगा । इसलिए कुछ पितृभक्ति के मिष से उसका कुछ उपाय करना चाहिए ऐसा सोचकर उन्होंने किसी जीर्ण ताम्रपत्र में ऐसे अक्षर लिखें कि 'पुत्र प्रदत्त पिंडादिक मृत पिता भी प्राप्त कर सकता है।' तब वह ताम्रपत्र उन्होंने राजा को वांचन करके सुनाया, इससे ठगकर राजा ने पिता को पिंडादि दिए । तब से ही पिंडदान को प्रचार का प्रवर्तन हुआ । (गा. 174 से 177) 'मेरे द्वारा प्रदत्त पिंडादिक को मेरे पिता भोग रहे है' ऐसी मूढ बुद्धि से रसविक्रिया को ज्वराक्रान्त के समान राजा ने शनैः शनैः शोक को छोड़ दिया, तो भी किसी किसी समय पिता की शय्या और आसन आदि दृष्टिगत होने पर सिंहावलोकन न्याय से पुनः उसके हृदय में शोक उत्पन्न हो जाता था । गलोसत्त्व के भोथा के सदृश बार बार शोकाक्रान्त होने पर वह राजगृह नगरी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व ) 293

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