Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 318
________________ पारणा किया, उसमें भी मेरे पाथेय का भोजन करते ही आप इस दुर्दशा को प्राप्त हो गए। मुझ पापसरिता को धिक्कार हो। आपको इस दशा में छोड़कर मेरे चरण बंधन हो गए हों ऐसे आगे बढ़ने में जरा भी उत्साहित नहीं हो रहे। ऐसा कहकर वह युवति वहाँ रहकर क्षण प्रति क्षण उन मुनि की सेवा करने लगी। साथ ही उनके अंगों को दबाने तेल लगाने व औषधादि देने लगी। वह मगाधिका उन मुनि के अंगों का इस प्रकार मर्दन करती कि जिससे उन मुनि को उसके सर्व अंगों का स्पर्श हो जाता। इस प्रकार सेवा कर कर के उसने उन मुनि को धीरे धीरे स्वस्थ किया। तब चंपक की सुगंध से वस्त्र की भांति उसकी भक्ति से उन मुनि का हृदय भी वासित हो गया। उसके साथ उसके कटाक्ष बाणों से, अंगो के स्पर्श से, तथा मृदु उक्तियों से उनका चित्त चलायमान हो गया। “स्त्री के अंग में तप कितना टिक सके ?" (गा. 349 से 365) दिन पर दिन परस्पर एक शय्या पर एवं आसन का प्रसंग होने पर कुलबालुक मुनि और मागधिका वेश्या का स्पष्ट रीति से दाम्पत्य व्यवहार होने लगा। मागधिका कुलवालुक मुनि को लेकर चंपानगरी में आई। “कामांध पुरुष नारी का किंकर होकर क्या क्या नहीं कर बैठता?' तब उस वेश्या ने चंपापति के पास जाकर कहा कि, 'देव! ये कुलवालुक मुनि हैं और इनको मैंने पति रूप में अंगीकार किया है। अब क्या करना है, उसकी आज्ञा फरमावें। राजा ने आदरपूर्वक उन मुनि को कहा कि 'जिस प्रकार भी वैशाली नगरी का भंग हो जाय, वैसा ही करो।' राजा की आज्ञा को स्वीकार करके बुद्धि के निधान कुलवालुक मुनि साधु को वेश में ही स्खलित रूप से वैशाली नगरी में गए। उस समय चंपापति ने पहले से ही जय की प्रत्याशा से उत्सुक होकर अपने सर्व सैन्य के साथ वैशाली नगरी को रुंध दी थी। मागधिकापति कुलवालुक मुनि नगरी में सर्व द्रव्यों को देखने लगे कि 'क्या कारण है कि यह नगरी ली नहीं जा रही? घूमते घूमते उनको एक वहाँ मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप दिखाई दिया। उसको देखकर उसकी प्रतिष्ठा के लग्न के विषय में चिंतन करते हुए उसमें उत्तमोत्तम योग पड़े होने से प्रबलरूप से वैशाली के रक्षण का कारण उसे समझ में आ गया। इसलिए किसी भी प्रकार से उसे ध्वस्त करना। ऐसी धारणा करके वह वैशाली नगर में भ्रमण करने लगा। नगरी की रुद्धता से कदर्थित हुए लोग उनको पूछते कि, हे भदंत! हम शत्रुओं द्वारा किये इस नगरी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 305

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